उत्तम बनर्जी
चाहे टीवी हो या फिर प्रिंट ...पत्रकारिता में अपना भविष्य तलाश रहे स्टूडेंट इस बात को अच्छी तरह समझते हैं कि बिना जुगाड़ के इस इण्डस्ट्री में कुछ होने वाला नहीं। वजह साफ है...इक्के दुक्के मीडिया इंस्टीट्यूट को छोड़ दिया जाए तो देश में कुकुरमुत्ते की तरह फैले तमाम संस्थानों से निकले स्टूडेंट्स जिनका कोर्स कंपलीट करने के बाद एक ही ख्वाब होता है मीडिया में आते ही छा जाना। मगर हकीकत की जमीन पर कदम रखते ही इनका ये ख्वाब आइने की तरह चकनाचूर हो जाता है। तमाम योग्यता के बावजूद देश के टॉप-मोस्ट टीवी चैनल या फिर अखबार में नौकरी पाने की उम्मीद कहीं दूर दूर तक नज़र नहीं आती।
वजह इनके पास यहां तक पहुंचकर अपनी काबिलियत दिखाने के लिए किसी जुगाड़ का न होना। कुछ दिनों मीडिया हाउसों के चक्कर लगाने के बाद इन्हें ये बात समझते देर नही लगती कि जिस ग्लैमर के फेर में इन्होंने समाज में कुछ अलग से कर गुजरने के लिए ये पेशा चुना... अन्दरखाने इसकी हकीकत कुछ और ही कहानी बयां करती है। टीवी चैनल हो या अखबार का दफ्तर... रेज्यूमे लेकर पहुंचते ही स्टूडेंट्स का पाला सबसे पहले दफ्तर के बाहर खड़े सुरक्षा गार्ड से होता है जिसे सुरक्षा करने के साथ साथ पूरी तरह से ये अघोषित अथारिटी मिली होती है कि नए नवेले पत्रकारों से वो अपने तरीके से ही निपटे। आज के जमाने के हिसाब से महज साक्षरता की डिग्री लिए (कई सुरक्षा गार्ड के पास तो लम्बे चौड़े शरीर के अलावा कोई सर्टिफिकेट तक नहीं होता) ये गार्ड होनहार पत्रकारों का बाहर से ही इंटरव्यू लेकर इन्हें गुडबॉय बोल देता है। अगर दो चार मिनट ठहरकर गार्डों से संस्थान के बारे में पता किया जाए तो ये सुनकर वाकई हैरानी होती है कि इन्हें संस्थान की अन्दरूनी खबर ऐसे मालूम रहती है जैसे ये मैनेजमेंट टीम के ही कोई सीक्रेट एजेंट हों। एक जगह से निपटकर स्टूडेंट दूसरे मीडिया संस्थान पहुंचता है, ये सोचकर कि शायद वहां कुछ भला हो जाए लेकिन यहां की स्थिति भी वही ढाक के तीन-पात।
लिहाजा, कुछ दिनों में ही इन्हें एकेडमिक और प्रोफेशनल के बीच करियर का फर्क समझ में आना शुरू हो जाता है। आखिर में नौकरी को छोड़कर स्टूडेंट इस समझौते पर राजी हो जाते हैं कि किसी मीडिया संस्थान में इंटर्नशिप ही मिल जाए। इंटर्नशिप के दौरान शोषण और त्रासदी का एक नया दौर शुरू होता है। इसके ठीक उलट कुछ मीडिया संस्थानों में बहुतायत में लड़के-लड़कियों को सिर्फ इसलिए इंटर्नशिप दी जाती है ताकि चैनल या अखबार को मुफ्त में काम करने वाले लोग मुहैया हो सके। इंटर्नशिप पाने वाले स्टूडेंटस जी जान से मेहनत करते हैं ताकि उनकी मेहनत और प्रतिभा पर उनके बास की नज़र पड़े और उनके भाग्य का पिटारा खुल जाए लेकिन ऐसा कभी कभार ही हो पाता है। आलम ये है कि कई स्टूडेंटस इसी गलतफहमी में एक-एक साल तक अलग-अलग मीडिया संस्थान में केवल इंटर्नशिप ही करते नज़र आते हैं लेकिन आखिर में सिवाय मायूसी के इनके हाथ कुछ नही लगता।
अब एक दिलचस्प बात...मीडिया के दिग्गजों के बारे में ...मीडिया के महारथी माने जाने वाले दिग्गज पत्रकारों का एक हुजुम ऐसा भी है जिन्हें अगर गलती से फोन कर नौकरी की बात कर दी जाए तो वे ऐसे रिएक्ट करते हैं जैसे उनसे राह चलते कोई भिखारी टकरा गया हो। फोन करने वालों से इनका पहला सवाल यही होता है कि तुम्हें मेरा नंबर किसने दिया। मीडिया के इन महारथियों को शायद इस बात का इल्म तो होगा ही कि इस इण्डस्ट्री में उनके फोंन नंबर तो क्या आज की तारीख में किसी का भी नंबर हासिल करना कोई टेढ़ी खीर नही है। हैरानी की बात तो ये है कि अपने बीते दिनों को ऐसे लोग जरा भी याद नही रखते जब इन्होंने भी नौकरी के लिए इधर-उधर खाक छानी होगी।
ये बात जगजाहिर है कि अब पुराने पत्रकारिता के दिन लद गए जब पत्रकार मतलब कुर्ता-पजामा और कंधे पर बैग होता था। उस दौर में पत्रकारिता का मकसद भी कलम की ताकत से हवा का रूख मोड़ देना था...आज पत्रकारिता के मॉडर्न लुक में ज्यादातर बड़े पत्रकारों के पास नए मॉडल की चार-पहिया गाड़ी होती है। तनख्वाह तो पूछिए मत....सुनते ही होश उड़ जाएंगे। ज्यादातर संपादक अपने संस्थान में इस बात को अक्सर कहते सुने जाते हैं कि चैनल या अखबार मैं समाजसेवा के लिए नही चला रहा हूं। अखबारों में जहां सर्कुलेशन को लेकर भस्सड़ मची रहती है, ठीक यही हाल टीवी चैनलों में टीआरपी को लेकर दिखाई देता है। कही फलां न्यूज चैनल या अखबार उनसे आगे नही निकल जाए इस बात को लेकर संपादक दफ्तर के हर कर्मचारी को अक्सर नसीहत झाड़ते नज़र आते हैं। अगर गलती से भी टीआरपी या सर्कुलेशन कम हुआ तो गाज गिरना तय है।
ऐसे हालात में मैं मीडिया के उन तमाम स्टूडेंटस को यही ताकीद करना चाहूंगा कि अगर प्रतिभा, पेशेंश और सबसे महत्वपूर्ण चीज जुगाड़ है तभी इस फील्ड में कदम रखें। नही तो..... ये राह नहीं आसां बस इतना समझ लीजै। इक आग का दरिया है और डूब के जाना है।
(लेखक प्रज्ञा टीवी में एसोसिएट प्रोड्यूसर और स्क्रिप्ट राइटर हैं)
जुगाड़ के कॉन्सेप्ट को लेकर लिखा गया ये लेख सोचने पर मजबूर करता है। कई ऐसे छात्र मिल जाएंगे जिन्हें नौकरी का काफी जरूरत रहती है। जिस तरीके से मीडिया में नौकरी हासिल होती है उसे देखते हुए ये कहना गलत नहीं है कि जुगाड़ हो तो इस लाइन में आओ वरना लाइन बदल दो।
jugad kancept media me nahi sare fild me ese trah hai
उत्तम भाई, अभी कुछ दिन पहले भड़ास पर यशवंत का लिखा कुछ पढने को मिला हालाँकि यशवंत जैसे लोग भी छद्म नाम से लिख सकते देखकर ताज्जुब हुआ बहरहाल खबर किसी चैनल की थी (जहाँ तक मै समझ पाया जी न्यूज़ की बात की जा रही थी). मुझे पढ़कर लगा कि क्या किसी चैनल में इतनी और ऐसी राजनीति हो सकती है लेकिन जब पढ़ा तो लगा कि चैनल में भी मठाधीश होते हैं. मीडिया का तो पता नहीं लेकिन जुगाड़ की महिमा तो जगजाहिरहै