महिला आरक्षण बिल बहुमत से राज्य सभा में पास हो गया आशा है कि लोक सभा में भी पास हो जाएगा लेकिन सवाल अभी भी है. जिसके लिए सभापति का माइक तोड़ दिया गया बिल की कापियां फाड़ दी गयीं. क्या ये मसक्कत सिर्फ बिल को पास होने से रोकने के लिए थी? या जनता के प्रतिनिधियों को अपने क्षेत्र में जा कर मुंह भी दिखाना था तो पिछड़े-दलितों-औरतों की बात भी करनी थी सो कर दिया.
आखिर क्यों किसी पार्टी कि औकात नहीं हुई कि वह आरक्षण बिल का विरोध कर सके सिर्फ इसलिए कि कोई अपने वोट बैंक में सेंध नहीं लगवाना चाहता है लेकिन जैसे ही किसी पार्टी से पूछा जाता है कि आप ने चुनाव में कितनी टिकटें महिलाओं को दी थी सभी के मुंह पर टेप चिपक जाती है, अपनी बगलें झाँकने लगते हैं. भाई साहब नियत में ही खोट है अगर नियत साफ़ होती तो कोई पार्टी भला करने के लिए बिल का इंतज़ार नहीं करती समाज सेवा करने के लिए सामाजिक कार्यकर्ता का ठप्पा लगाना जरुरी है क्या? कोई बिल कोई आरक्षण कभी भी किसी समाज का भला नहीं कर सकता है मेरी इस बिल को लेकर कोई आपति नहीं है लेकिन कृपया इसे किसी नैतिकता या आदर्श राजनैतिक पहल के रूप में मत देखिये.
अगर दुसरे पार्टियों के लिए मुद्दा महिला आरक्षण बिल को सिर्फ पास कराना था तो बहस का कोई मतलब नहीं हैं लेकिन मुझे लगता हैं कि एक बार फिर सोचने कि जरुरत है कि आखिर यह क्यों तय किया गया कि कोटा कि जरुरत है? अगर विकास सिर्फ मुद्ददा है तो क्या ये सोचे जाने कि जरुरत नहीं है कि आखिर हम किस कोटा की बात कर रहे हैं जिससे आज तक सिर्फ गिने-चुने-पढ़े-लिखे-खाते-पीते घरों का भला हुआ है अगर आप को लगता है कि प्रति व्यक्ति आय का बढ़ जाना या आर्थिक विकास कि दर ऊँची हो जाना ही विकास है तब तो ठीक है पर लगता नहीं कि ऐसा है. पता नहीं आंकड़े क्या कहते हैं पर मुझे तो मंडल कमीशन की सिफारिशों, OBC/SC/ST कोटा और पता नहीं कितने कोटों के बाद भी गरीबों-असहायों-लाचारों-मजलूमों-किसानों-मेहनतकशों की स्थिति में सुधार होता नज़र नहीं आता अगर मुझे चश्मे की जरुरत हो तो वो भी बतायें. आज भी इसी आस में कि अगर आरक्षण की सूची में नाम आ जाए तो नौकरी मिल जायेगी-घर बन जाएगा-सरकारी राहत मिल जायेगी और जाने क्या-क्या के बहाने लोग जगह-जगह आन्दोलन छेड़ते रहते हैं.
क्या इन आधी आबादी की शोषितों को मुट्ठी भर आरक्षण दे देने से उनका समूल विकास हो जायगा? अभी भी पंचायतों के कई चुनाव में महिलाओं का सीट आरक्षित है लेकिन वहां सत्ता किसके हाथ में होती है प्रधान पति के हाथ में. सच्चाई से मुह मत मोड़िये आज आरक्षण जैसे लालच की कोई प्रासंगिकता नहीं है ये सिर्फ वोट बैंक का चक्कर है जिसे राजनैतिक पार्टियाँ भुना रहीं हैं. महिलाओं को मुट्ठी भर आरक्षण तो ऐसे दे रहीं हैं जैसे सारा राज-पाट सौपें दे रहीं हैं.
आखिर क्यों किसी पार्टी कि औकात नहीं हुई कि वह आरक्षण बिल का विरोध कर सके सिर्फ इसलिए कि कोई अपने वोट बैंक में सेंध नहीं लगवाना चाहता है लेकिन जैसे ही किसी पार्टी से पूछा जाता है कि आप ने चुनाव में कितनी टिकटें महिलाओं को दी थी सभी के मुंह पर टेप चिपक जाती है, अपनी बगलें झाँकने लगते हैं. भाई साहब नियत में ही खोट है अगर नियत साफ़ होती तो कोई पार्टी भला करने के लिए बिल का इंतज़ार नहीं करती समाज सेवा करने के लिए सामाजिक कार्यकर्ता का ठप्पा लगाना जरुरी है क्या? कोई बिल कोई आरक्षण कभी भी किसी समाज का भला नहीं कर सकता है मेरी इस बिल को लेकर कोई आपति नहीं है लेकिन कृपया इसे किसी नैतिकता या आदर्श राजनैतिक पहल के रूप में मत देखिये.
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