आनंद प्रधान
अपने समाचार चैनलों में कुछ अपवादों को छोड़कर आक्रामकता और शोर बहुत है। इस हद तक कि खबरें चीखती हुई दिखती हैं। एंकर और रिपोर्टर चिल्लाते हुए से लगते हैं। चर्चाएं हंगामाखेज होती हैं। धीरे-धीरे यह शोर और आक्रामकता चैनलों की सबसे बड़ी पहचान बन गई है। संपादक इस बात को बड़े फाख्र से अपने दमखम, साहस और स्वतंत्रता की निशानी के बतौर पेश करते हैं। उनका दावा है कि उन्होंने हमेशा बिना डरे, पूरी मुखरता से न्याय के हक में आवाज उठाई है। इसके लिए आवाज ऊंची भी करनी पड़ी है तो उन्होंने संकोच नहीं किया है।
चैनलों के कर्ता-धर्ताओं का तर्क है कि उनकी आक्रामकता और शोर आम लोगों को जगाने और ताकतवर लोगों को चुनौती देने के लिए जरूरी हैं। बात में कुछ दम है। कई मामलों में यह आक्रामकता और शोर जरूरी भी लगता है। पहरेदार की उनकी भूमिका को देखते हुए यह स्वाभाविक भी है। यह भी सही है कि कई मामलों में चैनलों के इस शोर से सत्ता या उसका संरक्षण पाए शक्तिशाली अपराधियों को पीछे हटना पड़ा या कमजोर लोगों को न्याय मिलने का अहसास हुआ़ भले ही चैनलों के भ्रष्टाचार विरोधी या न्याय अभियान का दायरा ज्यादातर कुछ सांसदों, छोटे-मोटे नेताओं-अफसरों, बड़े शहरों और उनके उच्च मध्यमवर्गीय लोगों तक सीमित रहा हो लेकिन इसके लिए भी चैनलों की तारीफ होनी चाहिए। आखिर कुछ नहीं से कुछ होना हमेशा बेहतर है।
कल्पना करिए कि आज से 50 या 100 साल बाद जब इतिहासकार हमारे मौजूदा चैनलों की रिकॉर्डिंग के आधार पर आज का इतिहास लिखेंगे तो उस इतिहास में क्या होगा? वह किस देश का इतिहास होगा और उस इतिहास के नायक, खलनायक और विदूषक कौन होंगे? लेकिन समाचार चैनलों से उनके दर्शकों की अपेक्षाएं इससे कहीं ज्यादा हैं। मशहूर लेखक आर्थर मिलर ने अच्छे अखबार की परिभाषा देते हुए लिखा था कि अच्छा अखबार वह है जिसमें देश खुद से बातें करता दिखता है। बेशक, समाचार चैनलों के लिए भी यह कसौटी उतनी ही सटीक है। सवाल यह है कि हमारे शोर करते चैनलों में हमारा वास्तविक देश कितना दिखता है? क्या उनमें देश खुद से बातें करता हुआ दिखाई देता है? याद रखिए, चैनल कहीं न कहीं हमारे दौर का इतिहास भी दर्ज कर रहे हैं। जाहिर है कि स्रोत के बतौर चैनलों को आधार बनाकर लिखे इतिहास में मुंबई, दिल्ली और कुछ दूसरे मेट्रो शहरों का वृत्तांत ही भारत का इतिहास होगा जिसमें असली नायक, खलनायक की तरह, खलनायक, विदूषक और विदूषक, नायक जैसे दिखेंग़े। इस इतिहास में कहानी तो बहुत दिलचस्प होगी लेकिन उसमें गल्प अधिक होगा, तथ्य कम। शोर बहुत होगा पर समझ कम। थोथापन, आक्रामकता, कट्टरता, जिद्दीपन जैसी चीजें ज्यादा होंगी मगर न्याय और तर्क कम। बारीकी से देखें तो साफ तौर पर चैनलों के शोर और आक्रामकता के पीछे एक षड्यंत्रपूर्ण चुप्पी और भीरुपन भी दिखाई देगा। लगेगा कि चैनल जान-बूझकर शोर-शराबे और आक्रामक रवैए के पीछे कुछ छुपाने में लगे रहते हैं। आखिर वे क्या छुपाते हैं? गौर से देखिए तो वे वह हर जानकारी छुपाते या नजरअंदाज करते हैं जिससे नायक, नायक, खलनायक, खलनायक और विदूषक, विदूषक की तरह दिखने लग़े, इसीलिए चैनल आम तौर पर उन मुद्दों से एक हाथ की दूरी रखते हैं जो सत्ता तंत्र द्वारा तैयार आम सहमति को चुनौती दे सकते हैं।
नहीं तो क्या कारण है कि माओवादी हिंसा को लेकर जो चैनल इतना अधिक आक्रामक दिखते और शोर करते हैं, वे छत्तीसगढ़, उड़ीसा, झारखंड और बंगाल में जमीन पर क्या हो रहा है, उसकी रिपोर्टिंग के लिए टीम और कैमरे नहीं भेजते? क्या ये जगहें देश से बाहर हैं? इन राज्यों में जमीन, जंगल, नदियों और संसाधनों के साथ ही वहां के मूल निवासियों की क्या स्थिति है, इसके बारे में खबर हर कीमत पर, सच दिखाने का साहस, आपको रखे आगे और सबसे तेज होने का दावा करने वाले चैनलों से नियमित वस्तुपरक रिपोर्ट की अपेक्षा करना क्या चांद मांगने के बराबर है?
क्या चैनलों से यह उम्मीद करना गलत है कि वे मुंबई में बाल-उद्घव-राज ठाकरे को दिन-रात दिखाने और शोर मचाने के बाद कुछ समय निकालकर युवा वकील शाहिद आजमी की हत्या पर भी थोड़ी आक्रामकता दिखाएंगे? या देश भर में कहीं नक्सली, कहीं माओवादी और कहीं आतंकवादी बताकर पकड़े-मारे जा रहे नौजवानों के बारे में थोड़े स्वतंत्र तरीके से खोजबीन करके निष्पक्ष रिपोर्ट दिखाएंगे? क्या वे उन बुद्घिजीवियों-पत्रकारों के बारे में तथ्यपूर्ण रिपोर्ट सामने लाएंगे, जिन्हें नक्सलियों का समर्थक बताकर गिरफ्तार किया गया है या जिनकी हिरासत में मौत हुई है? क्या वे चंडीगढ़ की रुचिका की तरह छत्तीसगढ़ के गोंपद गांव की सोडी संबो की कहानी में भी थोड़ी दिलचस्पी लेंगे और उसे न्याय दिलाने की पहल करेंगे? दरअसल, शोर-शराबे और आक्रामकता के बावजूद ऐसे सैकड़ों मामलों में चैनलों की चुप्पी कोई अपवाद नहीं। यह एक बहुत सोची-समझी चुप्पी है जिसे चैनलों के शोर-शराबे में आसानी से सुना जा सकता है।
(आनंद प्रधान भारतीय जनसंचार संस्थान (IIMC) में असोसिएट प्रोफ़ेसर हैं और उनका यह लेख तहलका से साभार लिया गया है)
media is called the fourth pillar or the fourth estate of democracy. and at several occasion this has been proved too. but it appears nowadays as if this fourth pillar of the indian democracy has inclined towards power.it appears as if it(fourth pillar)has taken the shape of a bow which adds more strength to the power. it is however true that media is recording the happenings of this country but it would be wrong to say that they will ever be able to compliment anything to the cause of history because what they are recording, their facts, chronology, analysis etc excludes the interest of the larger number of people. one of the most important aim of history is to explain the past and and then explain the present. will our media evere be able to do that in a true historical sense or it will distort that sense altogather?