Visit blogadda.com to discover Indian blogs कठफोड़वा: 2012

खेद


मै कौन हूँ, कहाँ जा रहा हूँ?
मै बेखबर हूँ, खबर किसे है-खबर किसी को नही
हर कोई इसी उहा-पोह में हैं कि मै कौन हूँ?
तुम कौन हो? और हम कहाँ जा रहे हैं?
जा रहे हैं-जाना कहाँ है?
नही पता, किसी को भी नही पता

आज मै यहाँ हूँ
कल जाने कहाँ हूँ
तुम मेरे साथ हो
आज यहाँ हो-कल जाने कहाँ होगे

हर एक भरे हुए दिल में
खुला-खुला आसमान है
खाली इतना कि भरा बहुत कम है
भरा-भरा ऐसा है ज्यूँ भरने से रह गया है
खुला-खुला ऐसा है ज्यूँ खुलने से रह गया है

नाहक ही तो ये सारे खोज रहे हैं
उस गुत्थी का सुराग
जिसमे सुराख़ नही है
एक दोस्त ने कहा खेद है
ओजोन में छेद है
कब तक लेते रहेंगे हम
इस ओजोन के छेद की आड़
हकीक़त खुल गयी है
वरना छेद किसने देखा है !

जिन्हें खेद है
वो बेख़ौफ़ हैं
दरअसल ओजोन में नही
उनके खेद में छेद है
और ये छेद इतना भयानक है कि आप इस छेद की आड़ में
कितने भी खेद प्रकट कर सकते है
और इस खेद के लिए भी आपको खेद नही है
क्योंकि जिस ओजोन में छेद है
वहां पर छेद
छेद नही
एक खेद है
जिसे हम सदियों से
एक खेद के बहाने टाले जा रहे हैं

बसों में लटका भविष्य

काफी दिनों के बाद उस रोज सुबह उठा और घूमने निकल गया। सुबह-सुबह कंधों पर बस्ता टांगे और सज-धज कर बच्चे स्कूल जा रहे थे। अलग-अलग यूनिफॉर्म उन पर खूब फब रही थीं। बस स्टैंड पर बच्चों की बहुत भीड़ थी। उनमें ज्यादातर सरकारी स्कूलों के बच्चे थे जो आमतौर पर पब्लिक बसों या कोई और वाहनों से स्कूल जाया करते हैं। सभी को बसों का इंतजार था। काफी देर बाद कोई बस आती और बिना रुके ही आगे बढ़ जाती। कई बस ड्राइवर तो बच्चों को देखकर स्पीड दोगुनी कर लेते। यह देख कुछ बच्चे गुस्से में आकर ड्राइवर की मां-बहन एक करते और अगली बस का इंतजार करने लगते।

कोई-कोई बस ड्राइवर दरियादिली दिखाते हुए बस रोक देता तो बस ठसाठस भर जाती। अंदर एक इंच जगह न बचने पर बसों के दोनों दरवाजों पर दर्जनों बच्चे लटक जाते और किसी तरह जान जोखिम में डालकर स्कूल पहुंचते। उन्हें लटका देखकर एकबारगी लगता कि अगर उनका हाथ छूट गया तो...। हर बार लड़कियां और छोटे बच्चे सुस्त पड़ जाते और बसों में नहीं चढ़ पाते। बड़े बच्चों के जाने के बाद ही उनका नंबर आ पाता। यह सब देखकर मुझे अपने स्कूल के दिन याद आ गए। करीब 15 साल पहले मुझे भी इसी तरह बसों में लटककर स्कूल जाना पड़ता था। और अगर स्कूल पहुंचने में देर हो जाती तो स्कूल के पीटीआई (अनुशासन सुनिश्चित कराने वाले शिक्षक) मुर्गा बना देते, फिर स्कूल की सफाई कराते। कभी-कभी तो दो-चार डंडों का प्रसाद भी देते। तब से अब तक एक लंबा अरसा गुजर गया है।

दिल्ली के एक कोने से दूसरे कोने तक, यहां तक कि दूसरे शहरों तक मेट्रो फर्राटे भर रही है। कॉमनवेल्थ गेम्स का आयोजन कर दिल्ली अपने आपको धन्य समझ रही है। रफ्तार और रोमांच का खेल फॉर्म्युला-1 दिल्ली के पड़ोस में आयोजित हो चुका है। फ्लाईओवरों और चौड़ी सड़कों के बीच भागती दिल्ली ने इस दौरान विकास की कई इबारतें लिखी हैं। इन सबके बीच अगर नहीं बदला तो घर से स्कूल और स्कूल से घर आने का जोखिम भरा सफर। घर से महज तीन या चार किलोमीटर दूर स्कूल जाने की व्यवस्था दिल्ली अपने बच्चों के लिए नहीं कर पाई है। मुझे याद है कि एक बार स्कूल की छुट्टी होने पर बच्चों की भारी भीड़ थी। कोई ड्राइवर बस नहीं रोक रहा था। बस में बच्चे न चढ़ जाएं यह सोचकर एक ब्लूलाइन बस के ड्राइवर ने स्पीड बढ़ा दी। इस दौरान एक बच्चा उसके नीचे आ गया और अपने दोनों पैर गंवा बैठा। इस तरह की खबरें अब भी आती रहती हैं। उस रोज सुबह-सुबह मैं सोचने पर मजबूर हो गया कि दिल्ली की प्राथमिकताएं कितनी अजीब हैं। बच्चे बसों में जिंदगी और मौत के बीच झूलते हुए भले ही स्कूल जाएं पर दिल्ली वालों को तो मॉल्स चाहिए। स्कूलों में हालात बेहतर हों, इससे ज्यादा जरूरी है मेट्रो घर के पास से गुजरे। मैं सोचने लगा कि अगर बच्चे सचमुच देश का भविष्य हैं, तो यह भविष्य कब तक बसों में लटका रहेगा?

पागलपन

कुलबुला रहीं हैं
सारी समस्याएँ
अपनी उलझनों के साथ
और बड़बड़ाहट के रूप में 
बाहर आ रहा है 
मेरा खुद का पागलपन 

न जाने कब 
मैंने खुद से 
बातें करना सीख लिया    

नीरज कुमार
(१३/०७/०४)
(गोरखपुर रेलवे स्टेशन)  

गांव में मोबाइल टावर

जितनी बार गांव गया हूं, हर बार उसे एक जैसा पाया है। गांव को जोड़ने वाली करीब आठ किलोमीटर लंबी वही टूटी सड़क, दो मटकी सिर पर रखे और एक कांख में दबाए कुएं से पानी भरकर जातीं औरतें, कुएं के पास हमेशा एक ही मुद्रा में खड़ा बरगद का पेड़, खंभों पर लटके बिजली की राह तकते तार, चबूतरों पर बैठकर ताश खेलते लोगों का समूह- कुछ नहीं बदला।

बुंदेलखंड के बांदा जिले में बसे मेरे गांव की हमेशा यही तस्वीर जेहन में थी। गांव पहुंचने के लिए डग्गा (कई जगह इसे जुगाड़ भी कहा जाता है) से जाना पड़ता है। डग्गा की सर्विस बड़ी चुस्त-दुरुस्त है। यह हमेशा तय वक्त पर चलता है। इसे पकड़ने से चूके तो पैदल ही यात्रा करनी पड़ती है। लेकिन थोड़े दिनों पहले डग्गा से गांव गया तो वहां पहुंचते ही मेरे जेहन में बसी गांव की तस्वीरें टूटनी शुरू हुईं। पहला झटका गांव के बाहर खेत में खड़े मोबाइल टावर को देखकर लगा। बड़ा ताज्जुब हुआ कि जिस गांव में सरकार की तमाम योजनाओं ने पहुंचने से पहले ही दम तोड़ दिया, जहां की सड़क लंबे अरसे से अपनी बदहाली पर रो रही हैं, जहां लोग मिट्टी के तेल की डिबिया जलाकर घरों में रोशनी करते हैं, वहां सूचना तकनीक ने दस्तक दे दी!

अपने गांव में वह टावर देखकर मैं सोच में पड़ गया कि आखिर इस उजाड़ और सूखे गांव में मोबाइल कंपनियों को क्या मिलेगा। लेकिन कुछ देर बाद ही पता चल गया कि मैं गलत था। मोबाइल कंपनी अपने मकसद में कामयाब हो गई थी। गांव के युवाओं के हाथों में सेलफोन देखकर यकीन हो गया कि बाजार मेरे दरिद्र गांव तक पूरी तैयारी के साथ पहुंचा है। गांव में मोबाइल क्रांति की वजह मोबाइल टावर ही था। पहले इक्का-दुक्का लोगों के पास ही मोबाइल फोन होता था। आसपास टावर न होने पर नेटवर्क नहीं आता था। गांव के बाहर या बगल के पहाड़ पर जाने पर फोन नेटवर्क पकड़ता था और बात हो पाती थी। लेकिन अब स्थिति बदल चुकी है। टावर लगने पर ज्यादातर घरों में मोबाइल ने अपनी पैठ बना ली है। युवाओं के बीच अब चर्चा के विषय भी बदल गए हैं। अब अधिकतर बातें मोबाइल को लेकर ही होती हैं। मसलन, तेरा कौन सी कंपनी का फोन है, कैमरा है क्या, कितनी मेमरी है, कौन-कौन से गाने हैं आदि।

कई घरों में बात करने पर पता चला कि जब से मोबाइल टावर लगा है, युवा अपने गरीब मां-बाप पर मोबाइल के लिए दबाव बनाने लगे हैं। जिद पर अड़कर कई युवा मोबाइल हासिल भी कर चुके हैं। कुछ मां-बाप ने कर्जा लेकर बच्चों को मोबाइल दिलवाया है। हैरानी यह देखकर भी हुई कि मोबाइल टावर के लिए अलग से बिजली की लाइन पहुंची थी। गांव के घरों में भले ही अंधेरा हो लेकिन टावर की बिजली की खुराक में कमी नहीं आने दी गई थी। यह देखकर मैं सोचने लगा कि क्या प्राइवेट कंपनियां सरकारों के लिए उन लोगों से ज्यादा अहम हो गई हैं जिन्होंने उन्हें सत्ता तक पहुंचाया है?