Visit blogadda.com to discover Indian blogs कठफोड़वा: 'जंग में क़त्ल सिपाही ही होंगे, सुर्ख रु जिल्ले इलाही ही होंगे'

'जंग में क़त्ल सिपाही ही होंगे, सुर्ख रु जिल्ले इलाही ही होंगे'


भारतीय धर्मशास्त्रों को यदि झुठला दें तो इस मुल्क का इतिहास लगभग पांच हजार साल पुराना है। इन पांच हजार सालों में इस मुल्क ने बहुत कुछ खोया-पाया है। भारतीय जाति व्यवस्था भी उसी सामाजिक और ऐतिहासिक प्रक्रिया का परिणाम है। वर्ण व्यवस्था का जाति व्यवस्था में बदल जाना भी खोने और पाने में ही शामिल है। मैं आपको पांच हजार सालों के इतिहास का इतिहास नहीं बता रहा हूँ बल्कि कोशिश कर रहा हूँ कि जो बात मैं कहना चाह रहा हूँ वो स्पष्ट हो सके। आप इन पांच हजार सालों के इतिहास को शोषण का इतिहास, सवर्णों का इतिहास, शोषितों का इतिहास या कुछ और जो आपको बेहतर लगे मान सकते हैं। आखिर इतिहास भी तो सत्ता का ही एक 'टूल' होता है ठीक वैसे ही जैसे राजनीति होती है, या आरक्षण होता है।

आज़ाद हिन्दोस्तान से पहले राष्ट्रीय आन्दोलन के दौरान के इतिहास पर गौर करें तो अम्बेडकर-गांधी विवाद हमे प्रस्तुत विषय पर कुछ रौशनी डालता है। गांधी का प्रथक निर्वाचन मंडलों का विरोध करना, अम्बेडकर का प्रथक निर्वाचन मंडलों के सवाल पर अडे रहना किन्तु अंत गाँधी के 'फास्ट अनटो देअथ' के सामने झुक जाना और पूना पेक्ट पर हस्ताक्षर कर गांधी के पक्ष को मान लेने को आप सवर्ण विजय कह सकते हैं चाहें तो सवर्ण चाल या फिर दलित पराभव। औपनिवेशिक शासकों के लिए ये एक फायदा था।

बात न ही दलित पराभव के साथ ख़तम होती है और नाही सवर्ण विजय के साथ। दरअसल बात यहीं से शुरू होती है। यदि गौर से देखा जाये तो अब सवर्ण और दलित का सवाल नहीं है बल्कि राजनितिक सवर्ण और राजनितिक दलित का है। और यदि आप राजनितिक शब्द को इस मुल्क के इलेक्टोरल प्रोसेस में ही सीमित करके देखेंगे तो समस्या और गंभीर हो जाएगी। मैं जिस राजनितिक सवर्ण की बात कर रहा हूँ वो इससे कहीं ज्यादा व्यापक है। और इसमें ये भी ज़रूरी नहीं है की राजनितिक सवर्ण जाति से भी सवर्ण हो। वो दलित होकर भी राजनितिक सवर्ण हो सकता है और जिसके उदाहरण हमारी व्यवस्था में आपको बहुत मिल जायेंगे। मशहूर समाजशास्त्री एम एन श्रीनिवास ने एक ज़माने में संस्कृतिकरण को परिभाषित किया था जिसके मूल में निचली जातियों द्वारा उच्च सामाजिक दर्जा हासिल करने की प्रक्रिया थी। ये प्रक्रिया ब्रह्मनिकल मूल्यों और आचरण को गैर ब्राहमणों द्वारा अपना लेने को इंगित करती है जिसमे गैर ब्राहमण जातियां इस कदर ब्रहामनिकल मूल्यों और आदर्शों को अपना लेती हैं के उनके अपने मूल्य और आदर्श समाप्त हो जाते हैं। हमारा राजनितिक सवर्ण भी दरअसल कुछ ऐसा ही है। ये वो लोग हैं जो सत्ता पर अपनी पकड़ रखते हैं, सत्ता प्रतिष्ठानों पर काबिज हैं, उन्हें अपने तरीके से मोल्ड कर सकते हैं तोड़ मरोड़ सकते हैं। कहने का मतलब है की बात अब केवल अगड़ों, दलितों और पिछड़ों से बाहर की है। एक तरफ वो हैं जो पोलिटिकल सवर्ण है और दूसरी तरफ पोलिटिकल दलित व पिछड़े लोग। जिसका चांस पोलिटिक्स में लग गया वो रातों रात सवर्ण हो जा रहा है,और जो इस परिधि से बाहर हैं वो हाशिये पर हैं। अब बात राजनीतिकरण की है.

मुझे हैरानी हो रही है इस हाय तोबा को देखकर जो महिला आरक्षण के सवाल पर मची हुई है। मैं इस हालत में नहीं हूँ की इस पर कोई स्टैंड ले कर अपनी बात कह सकूं। क्योंकि ये व्यवस्था स्टैंड के मुद्दे पर केवल दो विकल्पों को पेश कर रही है। एक, या तो आप इसका समर्थन करें और दो के इसका विरोध करें। इनके अलावा और कोई विकल्प प्रस्तुत ही नहीं किया जा रहा और न ही ऐसी कोई गुंजाईश ही छोड़ी है की कोई विकल्प पेश किया जा सके। ये ठीक उसी किस्म की रिक्तता है जो हमारी लोकतान्त्रिक व्यवस्था में विधमान है। यानी की घूम फिर कर बात वहीँ आ जाएगी जहाँ से शुरू हुई। हमारी महिलाएं भी पोलिटिकल सवर्ण बन्ने को बेक़रार हैं? यदि हां, तो कितनी ? इसका समुचित उत्तर दिए बिना कोई फैसला करना बेमानी ही होगी क्यूंकि इस मुल्क की सभी महिलाएं शहरों में नहीं रहती हैं और सभी की समस्या केवल तैंतीस फीसद आरक्षण से समाप्त नहीं हो जाएँगी। फिर इसका लाभ किन लोगों को मिलने वाला है? वो कौन भारतीय नारियां हैं जिनका जीर्णोधार इससे होने वाला है। कहीं ये वो ही पोलिटिकल सवर्ण तो नहीं जिसने इस बार नारी की शकल अख्तियार कर ली है?

मैं इस बात से बिलकुल इत्तेफाक रखता हूँ की राजनितिक प्रतिनिधित्व सामाजिक परिवर्तन का और सामाजिक रूप से शोषित व उपेक्षित लोगों को शाश्क्त करने का ठोस जरिया है। संविधान में राजनितिक आरक्षण कुछ इन्ही आदर्शों को सोच कर रखा गया था। लेकिन अफ़सोस की बात ये है की इसने केवल कुछ का ही भला किया है। तो क्या फिर हम ये मान ले की महिला आरक्षण भी उन्ही 'कुछ' को ध्यान में रखकर प्लान किया गया है। आरक्षण मिल जाने की हालत में भी इस बात की क्या गारंटी है की जिनकी (पुरुष प्रधानता) की वजह से ये पूरा मामला उठा उस की मानसिकता या सोच में कुछ बुनियादी बदलाव आएगा? ऐसे कई सवाल हैं जिनका जवाब या विकल्प तक ये व्यवस्था नहीं देती।

१७८९ की फ्रांस की क्रांति ने दुनिया भर को हिला दिया था। इसने दुनिया को पहला विकल्प दिया की राजतन्त्र के अलावा भी कोई व्यवस्था हो सकती है। लेकिन इस क्रांति ने महिलायों को कोई फायदा नही पहुंचाया। उन्हें वोट देने का हक नहीं था। महिलाओं ने लोकतंत्र के इस बुनियादी हक को पाने के लिए फ्रांस में एक लम्बी लड़ाई लड़ी ओर बीसवीं सदी के मध्य में यानी के १९४६ में आकर इस बुनियादी हक को हासिल किया। लेकिन ये लड़ाई महिलाओं ने अपने दम पर लड़ी थी। और तब तक लड़ी थी जब तक की पुरुषीय मानसिकता हार नहीं गयी। कोई समझोता या बारगेनिंग की गुंजाईश ही नहीं रकखी। लड़ाई आर या पार की लड़ी। क्या ऐसी लड़ाई लड़ने की अपेक्षा हम भारत के उस महिला समुदाय और उनसे रख सकते हैं जो महिला आरक्षण को किसी भी सूरत में कानूनी जामा पहनाने की जुगत में भिडे हुए हैं या उनसे जो इस बिल के वर्तमान स्वरुप को स्वीकार नहीं कर रहे हैं और इसमें परिवर्तन चाहते हैं? कहीं ऐसा तो नहीं है की आरक्षण की आड़ में पुरुषीय मानसिकता महिलाओं की नाक में नकेल डालकर उसका कण्ट्रोल अपने हाथ में रखने की कोशिश कर रही है?

मैं पहले ही कह चूका हूँ की ये व्यवस्था इस विषय पर दो के अलावा कोई और विकल्प नहीं देती। और सच कहूं तो ये एक बहुत भयानक हालत है। इस विकल्पहीनता से लाभ पोलिटिकल सवर्ण को ही मिलने वाला है क्यूंकि 'जंग में क़त्ल सिपाही ही होंगे, सुर्ख रू जिल्ले इलाही ही होंगे'।

Comments :

4 comments to “'जंग में क़त्ल सिपाही ही होंगे, सुर्ख रु जिल्ले इलाही ही होंगे'”
भारतीय नागरिक - Indian Citizen ने कहा…
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डा०अम्बेदकर का कहा मानने से सभी फायदे में रहते. उनका सुझाव बढ़िया था. अब सबकुछ मात्र वोटों के लिये किया जा रहा है.

अजय यादव ने कहा…
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1-विकल्प है, लेकिन उसे सरकार ग्रीन हंट के नाम पर कुचल रही है...उनमें भी कुछ कमजोरियां हैं, लेकिन उससे भी कमजोर भारतीय जनमानस है, जो उसे स्वीकार करने के बजाय गलचौरा करने में ज्यादा मजा लेता है।

2- इस आरक्षण से महिला मुक्ति की आशा करना बेमानी है...बात बस व्यापक हिस्सेदारी की है...इस पचाने के लिए आत्मंथन करना पड़ेगा।

3-1956 में st/sc के लिए नौकरियों में आरक्षण दिया गया, जिसके तहत 31 मार्च 2009 तक केन्द्रीय विश्वविद्यालयों में 12229 अध्यापकों को भर्ती कर लेना चाहिए था...लेकिन 54 सालों में इन विश्वविद्यालयों को केवल 714 अध्यापक ही मिले...थोड़ा विचार करके देखिए...

4- पोलिटिकल सवर्ण और पोलिटिकल दलित की थ्योरी सामाजिक अवसादग्रस्तता की उपज है...इसमें उलझने की वजाय उन विचारधारा में मानवता का भवितष्य तलाशिये, जो इसके लिए संघर्ष कर रही है।

Fauziya Reyaz ने कहा…
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jab koi aapse chhota insaan bagal mei baithne lage to tilmilahat hoti hai....bas isi liye mahilaon ka bill itni aasani se paas nahi ho sakta kyunki mahilayein aaj bhi behad kamzor hain

बेनामी ने कहा…
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bhai sahi kaha aapne..

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