Visit blogadda.com to discover Indian blogs कठफोड़वा: 2011

rail ki patriyaan

ट्रेन की पटरियों पर
दर्ज़नो जिंदगियां चलती हैं
कुछ सुलझी हुई कुछ उलझी सी
कुछ खुद में गुम लोगो की दुनिया
कुछ दुसरो में ढून्दते अपनी सी दुनिया

धक्के से चढ़ते धक्के से उतरते
जीवन की पटरी भी ऐसी ही लगती है
रुक रुक के चलने वाली
चलते चलते रुक जाने वाली


कुछ हँसते चेहरे, कुछ नम आँखें
कई चीखती आवाजें, कुछ गुदगुदाती किस्से
नए अजीब रिश्ते
रेल की पटरियों पर रोज़
चलती है दर्ज़नो जिंदगियां

एक बुरा दिन, एक सुहानी शाम
कुछ यहाँ की, कुछ वहां की
एक अनजान सफ़र पर
चंद जाने पहचाने चेहरों के बीच
यह दुनिया अपनी सी लगने लगती है

फिर हर दिन जीवन की पटरियां
रेल की पटरियों से मिल कर
एक नयी कहानी  लिख्ती हैं

और में इन सब के बीच
खुद को खड़ा देख सोचती हूँ
क्या में भी इन्ही में से एक हूँ?

क्यूँ है


कितना है बदनसीब “ज़फ़र″ दफ़्न के लिए
दो गज़ ज़मीन भी न मिली कू-ए-यार में - बहादुर शाह ज़फ़र (1775-1862)

जो तू कर पाए ना, ऐ खुदा, वो तेरा काम क्यूँ है,
तुझसे होता नहीं रहम तो रहीम तेरा नाम क्यूँ है।

तुम जब गए थे मेरे घर से, सब कुछ ले के गए थे,
फिर आज कल इन कमरों में तेरा सामान क्यूँ है।

बड़ी महंगी पड़ी ये नज़र, जो तुमने देखा हमको,
ये तो बता कि तेरे हर तोहफे का कोई दाम क्यूँ है।

जब बात एक, साज़ एक, कलाम एक, आवाम एक,
सरहद आइना हो, तो हिंदुस्तान-पाकिस्तान क्यूँ है।

ज़फ़र, तस्सल्ली रख, यार तो सिर्फ दिल में रहता है,
फिर मानो तो रंगून भी दिल्ली है, तू परेशान क्यूँ है।

बातों-बातों में हि, अखिल, तुम सर दुखाये थे अपना,
तो उससे फिर से बातें करने का ये अरमान क्यूँ है।


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मुझे बस

मुझे बस इक लोहे का टुकड़ा बना दे, रब, 
मैं उसकी बेल्ट का बकल बन जाऊं,
मुझे उसके कमरे का आइना बना दे, रब,
मैं रोज़ उसकी हि शकल बन जाऊं

मुझे रुकने का इरादा बना दे, ऐ खुदा, 
जो मैं आऊँ तो वो खुदा-हाफिज़ कह न सके,
मुझे घुटनों कि नरमी बना दे, ऐ खुदा,
मैं गुदगुदाऊँ, तो वो खुद में रह न सके

मुझे मेरे यार का मोबाइल फ़ोन बना दे, रब, 
मैं उसकी पैंट कि जेब में बैठा गाता रहूँ, 
जो डाले कभी वो अपनी शर्ट कि जेब में मुझे,  
मैं उसके दिल के करीब युं आता रहूँ


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देर से ही सही -पर याद आये

'शहीदों की मजारों पर लगेंगे हर बरस मेले, वतन पे मिटने वालों का येही बाकी निशाँ होगा' शहीद पंडित राम प्रसाद बिस्मिल के ये शब्द भले ही कुछ देर से याद आये लेकिन आये हैं। और ये केवल शायद मेरे साथ ही नहीं हुआ होगा। कुछ ऐसे भी होंगे जिन्हें याद भी रहा होगा। तो क्या फिर अगर शहीद दिवस आया। यूँ भी न जाने कितने ही दिवस आते जाते रहते हैं। कहाँ तक कोई उन्हें याद रखे।एहले वतन खुश है और हमारा सफ़र भी जारी है। जब हर तरफ खुशहाली है, चैन है, विकास है, उन्नति है, रोटी है, पानी है, मुफ्त इलाज, इन्शुरन्स,गाडी, बीवी-बच्चे,इत्यादि हैं वहां शहीद दिवस मनाने की या शहीद दिवस को याद रखने की किसे पड़ी है?

लेकिन इधर सुनते हैं की तुनिशिया,मिस्त्र, यमन, लीबिया आदि मुल्कों में इस दिवस को याद किया गया है , मनाया है। खबर है या अफवाह पता नहीं। हमे क्या लेना जी ।

वैसे खबर ये भी है-शायद अफवाह हो, कि देश के दूरदराज इलाकों में, जो दिल्ली से दूर हैं, भगत सिंह, सुखदेव, राजगुरु,चंद्रशेखर, बिस्मिल व कई अन्य नामों के व्यक्तियों कि तलाश चल रही है, उन्हें वहां देखा गया है।
दांतेवाडा में जो कुछ अभी कुछ दिन पहले हुआ वो उसी धर पकड़ का नतीजा है।

इसी धर पकड़ में कुछ इस किस्म के स्वर भी सुनाई दिए- " निसार मैं तेरी गलियों के एय वतन के जहाँ चली है रस्म के कोई सर उठा के चले ..... "

तेरा युं चले जाना भी तो इक निशाँ होगा

तेरा युं चले जाना भी तो इक निशाँ होगा

मेरा औरों को चाहना भी तो इक निशाँ होगा,

और जो अबस उदास रहा था मैं इतने दिन

युं हल्के से मुस्कुराना भी तो इक निशाँ होगा।


बात फिर से इस ज़माने से मैं करने लगा

तेरी नज़रों के पहर से मैं उभरने लगा,

जो गए दिन मैं दोस्तों से छूटा-छूटा सा था

युं फिर ये दोस्ताना भी तो इक निशाँ होगा।


वक्त कैसा जो उम्मीद का दूसरा नाम न हो

सज़ा कैसी जो फिर बन्दों पर रहमान न हो,

फिर से लिखने लगा जो मैं तेरी बातों के सिवा

कभी-कभी तुझे भूल जाना भी तो इक निशाँ होगा।


उस तरह कि मोहब्बत फिर कहाँ से कर पाऊंगा मैं,

इस शहर में अब दूसरा हि खेल आज़माऊंगा मैं,

ऐसा नहीं कि फिर बात कभी तुझसे करूंगा नहीं

बस अभी न कर पाना भी तो इक निशाँ होगा।



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तुम्हारा साथ ................!!!

सुबह हो गई है, चलो खेत मैं सोने चलें .......|
तुम सड़क ओढ़ लेना, मैं आसमान बिछा देता हूँ
ज्यादा सर्दी लगे तो गेंहू की हरी बालें भी हैं ओढ़ने के लिए
तुम माटी के ढ़ेले का सिरहाना बना लेना
मैं कुलापे मैं बहते पानी को ||
तुम्हारा साथ ................!!


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