खाप पंचायतों के बीस साल पहले के 'बंद' का भय भी अब इन्हें परेशान नहीं करता। ऐसे 'बंद' के दौरान भूपति श्रमिकों का बहिष्कार करते थे। अब दलित ही बहिष्कार करने की हिम्मत दिखा रहे हैं। ऐसे में एक सभ्य कहा जाने वाला समाज आखिर इन चीजों को कब तक बर्दाश्त करता? मिर्चपुर का दलित समाज राजधानी के जंतर-मंतर पर इकट्ठा है ताकि सरकार को अपना दुख-दर्द सुना सके। इनके चौपाल में राजधानी के बुध्दिजीवियों की चहलकदमी भी देखी जा रही है। मिर्चपुर के बहाने दलित फिर अपने अधिकारों के लिए एकजुट होते दिख रहे हैं। वे इस बात को जानते हैं कि वह दिन दूर नहीं, जब गांव में उनके भगवान का मंदिर होगा, जो दबंगों के विरोध के कारण अभी बारिश के थपेडे झेलने को मजबूर हैं
दिल्ली से महज डेढ सौ किलोमीटर की दूरी पर बसा है हरियाणा का मिर्चपुर गांव। बहुसंख्यक आबादी दबंग जाति जाटों की है, करीब दौ सौ घर वाल्मिकी समाज के हैं, जो भारत के दूसरे गांवों की तरह ही गांव के बाहर बसे हैं। इस देश की सामासिक संस्कृति ने विदेशी हमलावरों को तो गले लगाया, लेकिन दलितों को अछूत ही मानता रहा। इस गांव में गरीबी अगर कहीं दिखती है, तो इन दलितों के झोपडियाें में ही। गांव की जोत बहुसंख्यक जाटों के पास है और दूसरे लोग इनकी खेतों में ही खेती-मजूरी कर जिंदगी गुजारते हैं। जाट समुदाय के बच्चे गांव के अंग्रेजीदां स्कूलों में पढते हैं, तो दलितों के बच्चे सरकारी स्कूलों में। गांव में करीब 400 सरकारी शिक्षक हैं, जिनमें 380 के करीब जाट शिक्षक ही हैं। पुलिस विभाग में भी यहां के जाट बिरादरी के लोग भरे-पडे हैं। गांव में सामाजिक विभाजन स्पष्ट रूप से दिखता हैएक तरफ जाट तो दूसरी तरफ दलित एवं पिछडी ज़ातियां। वाल्मिकी समाज के लोग बाबू जी के रहमो-करम पर गुजर-बसर करते हैं, पर गांव के आवारा कुत्ते इस सोशल इंजीनियरिंग से अनभिज्ञ किसी पर भी भौंकने का दुस्साहस करने से बाज नहीं आते। इनका अकारण भौंकना इतने बडे हादसे को जन्म देगा, इसका अंदाजा लोगों को न था।
हुआ यूं कि वाल्मिकी समाज की ओर से गुजर रहे जाट युवकों को देखकर ये भौंकने लगे। इन युवकों को असमय इन कुत्तों का भौंकना रास नहीं आया। आम दिनों की तरह ही मामला गाली-गलौज से होता हुआ मार-पीट तक जाकर रुका। कर्णपाल और वीरभान नामक दलित युवक इनके हमलों में बुरी तरह जख्मी हो गए। मामला यहीं तक होता, तो गनीमत थी। गांव में अशांति को देखते हुए पुलिस की एक टीम आ चुकी थी। लेकिन जाटों का गुस्सा इनकी मार-पिटाई के बाद भी शांत नहीं हुआ था। पुलिस की मौजूदगी में ही 400 के करीब जाट समुदाय के लोगों ने दलितों के घरों को चारों ओर से घेर लिया। दलित भी आत्मरक्षा के लिए घरों की छतों पर चले गए और हमलावर भीड पर ईंट-पत्थर बरसाने लगे। पुलिस ने, जिसमें अधिकांश गांव के जाट परिवार के लोग ही थे, दलितों को बहला-फुसलाकर पंचायत के लिए चौपाल ले आए। जाटों को मौका मिल चुका था और उन्होंने दलितों के घरों को चारों तरफ से घेरकर आग लगा दी। बच्चे एवं महिलाएं चीखने-चिल्लाने लगीं। तब चौपाल में इकट्ठे दलितों को यह समझ में आया कि उनके साथ क्या साजिश रची गई थी। जाट युवक नंग-धडंग़ उन महिलाओं के आगे नाच रहे थे, जो दलित महिलाओं एवं लडक़ियों को अपमानित करने का उनका नायाब नुस्खा था। दलितों के छोटे-छोटे बच्चे और असहाय महिलाएं जलते हुए घरों की चहारदीवारियों में कैद थीं। इन्हीं जलते घरों में एक सोलह साल की विकलांग बच्ची थी सुमन, जो बचकर निकल भागने में असमर्थ थी। जब उसके पिता ताराचंद विकलांग जलती हुई बच्ची को बचाने के लिए दौडे, तो उपद्रवी भीड में से कुछ लोगों ने उन दोनों पर पेट्रोल छिडक़ दिया। कुछ ही समय में तडपते बाप-बेटी ने लोगों के सामने दम तोड दिया। बीस से ऊपर घर धू-धू कर जल रहे थे और उन्हें बुझाने वाला कोई न था।
सत्तारूढ क़ांग्रेस पार्टी इस बात में उलझी रही कि कहीं यह मामला राजनीतिक रंग न ले ले। दलितों के हिमायती कांग्रेस महासचिव एक बार फिर लाव-लश्कर के साथ दलितों के बीच थे। कुछ दिनों पहले ही दुनिया के सबसे अमीर व्यक्ति बिल गेटस के साथ चार्टर्ड प्लेन से अमेठी के गांवों के दौरे पर उनका जाना सुर्खियों में रहा था। उनका मकसद जो भी रहा हो, लेकिन मिर्चपुर की यात्रा के कई दिन बाद भी दलितों में आक्रोश है और प्रशासन इस मामले को रफा-दफा करने में लगा है। खाप पंचायतों ने अपने स्वभाव के अनुकूल आस-पास के गांवों में फरमान जारी कर दिया है कि कोई भी गांव इन्हें अपने यहां शरण नहीं देगा। दरअसल इस विवाद की जड में जाएं तो वहां भी इन पंचायतों का खौफ ही नजर आता है। अस्सी के दशक में खाप पंचायत ने एक जाट परिवार का हुक्का-पानी बंद करवा दिया था। इसकी अनदेखी करते हुए दलितों ने उस परिवार के फंक्शन में जाकर बैंड बजाने की हिमाकत की थी। यह एक तरह से सशक्त जाट समाज को चुनौती थी, जिसे वह आज तक नहीं भूल सका है। इसके पहले भी दबंग जाति के लोगों ने सांसियों एवं चमारों को मार-पीट कर इस गांव से भगा दिया था। सामंती व्यवस्था के टूटने से तिलमिलाया यह वर्ग अब गांव में दलितों-पिछडों की मौजूदगी को बर्दाश्त नहीं करना चाहता। दलित अब खेतों में काम नहीं करते, साफ-सफाई नहीं करते, मैला नहीं ढोते। अब युवा दलित दकियानूसी सामंती विचारों को ठुकराकर शहरों में मजदूरी करना ज्यादा पसंद करता है। बचे लोग नरेगा के तहत गांव में रोजगार कर रहे हैं, ऐसे में बाबू जी का यह आधार तो टूटना ही था। अब वे बराबरी की मांग करने लगे हैं। गुपचुप तरीके से अपने हक की बात करते हैं। खाप पंचायतों में जहां दबंग जातियों का दबदबा है, में शामिल किए जाने की मांग करने लगे हैं। खाप पंचायतें के बीस साल पहले के 'बंद' का भय भी अब इन्हें परेशान नहीं करता। ऐसे 'बंद' के दौरान भूपति श्रमिकों का बहिष्कार करते थे। अब दलित ही बहिष्कार करने की हिम्मत दिखा रहे हैं। ऐसे में एक सभ्य कहा जाने वाला समाज आखिर इन चीजों को कब तक बर्दाश्त करता?
मिर्चपुर का दलित समाज राजधानी के जंतर-मंतर पर इकट्ठा है ताकि सरकार को अपना दुख-दर्द सुना सके। इनके चौपाल में राजधानी के बुध्दिजीवियों की चहलकदमी भी देखी जा रही है। मिर्चपुर के बहाने दलित फिर अपने अधिकारों के लिए एकजुट होते दिख रहे हैं। वे इस बात को जानते हैं कि वह दिन दूर नहीं, जब गांव में उनके भगवान का मंदिर होगा, जो दबंगों के विरोध के कारण अभी बारिश के थपेडे झेलने को मजबूर हैं। गौरतलब है कि गांव के शिव मंदिर में दलितों का प्रवेश वर्जित है। डर है कि कहीं दलित समुदाय हिंदुओं के भगवान को ठुकरा अपने भगवान न गढ लें। ऐसा ही कुछ साल पहले साउथ अफ्रीका के कांगो में हुआ। अश्वेतों को बताया गया था कि भगवान श्वेत हैं और स्वर्ग में केवल श्वेत लोग ही जा सकते हैं। अश्वेतों ने अपना अलग चर्च बनाया, जिसमें अश्वेत भगवान की पूजा होने लगी और देखते-देखते इस चर्च के अनुयायियों की संख्या डेढ क़रोड पार कर चुकी है। दलितों पर आए दिन हो रहे अत्याचारों के खबरें भी राष्ट्रीय अखबारों में जगह बनाने में सफल रही हैं। कभी अंबाला में दलित दुल्हे को घोडे से उतार अपमानित किया जाता है, तो कभी तमिलनाडु में दलितों को अपमानित करने के लिए मुंह में विष्ठा भर दिया जाता है। कहीं दलित महिलाओं को नंगा कर गांव में घुमाया जाता है, तो कहीं खेत में काम करने गई दलित महिलाओं के साथ सामूहिक बलात्कार किया जाता है। ऐसी कई घटनाएं हैं, जो हमें अब चौंकाती नहीं, हमारे संवेदनाओं को नहीं झकझोरती। लेकिन एक समुदाय है जो इन खबरों पर पैनी नजर रखता है और हर ऐसी घटना के बाद जार-जार रोता है। कहीं न कहीं मानवता के प्रति उसका सदियों का भ्रम जो टुकडे-टुकडे होकर बिखरता है।
जिस देश के इतिहास पर हम फूले नहीं समाते, उसी ने इन दलितों के गले में नगाडा बांधा था, ताकि सडक़ों पर इस बात की डुगडुगी बजाते चलें कि वे अछूत हैं और हमारा भद्र समाज इनसे दूरी बना सके। अपने गौरव ग्रंथों में हम आर्य विजेताओं को आज भी सम्मान देते हैं, जिन्होंने अनार्य कहे जाने वाले दलितों, आदिवासियों को उनके जमीन से उजाडा। रक्त शुध्दता बरकरार रखने के लिए समाज में मनुवादी ढांचा खडा किया। दलित वर्ग की इस पीढी क़ो अपने समाज और संस्कृति का ज्ञान होने पर निराशा ही हाथ लगती है, वह अपने इतिहास पर बौखलाता है और गैर दलितों के प्रति अपना आक्रोश व्यक्त करता है। मायावती लाख कडक़डिया नोटों की माला पहने, वह उन्हें जातिगत स्वाभिमान से जोडक़र देखता है। दलितों में लोकतंत्र की बढती चेतना से राजनीतिक पार्टियां बौखला गई हैं। तभी तो कभी कलावती, कभी शशिकला, तो कभी किसी और दलित महिला के यहां भोज का आयोजन होता है, तो अगली रात पंचसितारा होटलों के स्वादिष्ट व्यंजनों का रसास्वादन करते बीतती हैं।
दलित वर्ग आक्रोशित है। राहत के नाम पर मिर्चपुर के दलितों को दो बोरी गेंहू दी गई है। पिछले दिनों खाप पंचायतें एकतरफा समझौते करते हुए दलितों के साथ भाईचारापूर्वक गांव में रहने को तैयार हुए हैं। लेकिन दलित समुदाय इस कांड के दोषियों के लिए सजा की मांग कर रहा है। दलितों ने इस कांड में जान गंवाने वाले बाप-बेटी के अंतिम संस्कार से भी इंकार कर दिया है। सरकार चुप्पी साधे है। एक जागृत समाज में ऐसी बर्बर कार्रवाई करने का हौसला लोगों को कहां से मिलता है। जातीय उन्माद की स्थिति में सरकार और तंत्र इतने पंगु, असहाय क्यों हो जाते हैं, सोचने वाली बात तो यही है।
मिर्चपुर का दर्द
चन्दन राय, शुक्रवार, 28 मई 2010मगर उनका कहना.....
डॉ० डंडा लखनवी, मंगलवार, 18 मई 2010मुक्तक

किसी की तरक़्क़ी सियासत से होती।
मगर उनका कहना हमारी तरक़्क़ी-
पुलिस महकमे में हिरासत से होती॥
-डॉ० डंडा लखनवी
हमार लल्ला कैसे पढ़ी ...................
डॉ० डंडा लखनवी, मंगलवार, 11 मई 2010-डॉ0 डंडा लखनवी
मैं खामोश रहा
भागीरथ, शुक्रवार, 30 अप्रैल 2010जब नाजी कम्युनिस्टों के पीछे आए
मैं खामोश रहा
क्योंकि, मैं नाजी नहीं था
जब उन्होंने सोशल डेमोक्रेट्स को जेल में बंद किया
मैं खामोश रहा
क्योंकि, मैं सोशल डेमोक्रेट नहीं था
जब वे यूनियन के मजदूरों के पीछे आए
मैं बिल्कुल नहीं बोला
क्योंकि,मैं मजदूर यूनियन का सदस्य नहीं था
जब वे यहूदियों के पीछे आए
मै खामोश रहा
क्योंकि, मैं यहूदी नहीं था
लेकिन, जब वे मेरे पीछे आए
तब बोलने के लिए कोई बचा ही नहीं था
क्योंकि, मैं अकेला था
-पीटर मार्टिन जर्मन कवि
कर रहे थे मौज-मस्ती ............
डॉ० डंडा लखनवी, मंगलवार, 27 अप्रैल 2010कर रहे थे मौज-मस्ती जो वतन को लूट के।
रख दिया कुछ नौजवानों ने उन्हें कल कूट के।।
सिर छिपाने की जगह सच्चाई को मिलती नहीं,
सैकडों शार्गिद पीछे चल रहे हैं झूट के।।
तोंद का आकार उनका और भी बढता गया,
एक दल से दूसरे में जब गए वे टूट के।।
मंत्रिमंडल से उन्हें जब किक लगी, ऐसा लगा-
आशमा से भू पे आये बिन वे पैरासूट के।।
ऊंट समझे थे बुलन्दी में न उनसा कोई भी,
पर्वतों के सामने जा होश गुम हैं ऊंट के ॥
शाम से चैनल उसे हीरो बनाने पे तुले,
कल सुबह आया जमानत पे जो वापस छूट के।।
फूट के कारण गुलामी देश ये ढ़ोता रहा-
तुम भी लेलो कुछ मजा अब कालेजों से फूट के।।
अपनी बीवी से झगड़ते अब नहीं वो भूल कर-
फाइटिंग में गिर गए कुछ दाँत जबसे टूट के।।
फोन पे निपटाई शादी फोन ही पे हनीमून,
इस क़दर रहते बिज़ी नेटवर्क दोनों रूट के॥
यूँ हुआ बरबाद पानी एक दिन वो आएगा-
पाँच सौ भी कम पड़ेंगे साथियों दो घूंट के।।
फूट के कारण गुलामी देश ये ढ़ोता रहा-
तुम भी लेलो कुछ मजा अब कालेजों से फूट के।।
अब कहिये 'जय हो'!
कठफोड़वा, रविवार, 25 अप्रैल 2010अब कहिये 'जय हो'!
ऋषिकेश सुलभ को इंदु शर्मा कथा सम्मान
नीरज कुमार, मंगलवार, 20 अप्रैल 2010नर्मदा क्रिकेट ग्राउण्ड बनती जा रही है : मेधा पाटकर
गुड्डा गुडिया, शनिवार, 17 अप्रैल 2010नर्मदा बचाओ आंदोलन ने विगत, दो दशकों में विकास को नये सिरे से परिभाषित करने का एक मार्ग प्रशस्त किया है। उसने इस बात को प्रतिपादित किया कि विकास केवल विकास शब्द के साथ ही नहीं देखा जाना चाहिये बल्कि विकास को विनाश के साथ भी जोड़कर देखना होगा। वतर्मान विकास को लेकर कुछेक सवालों को लेकर नर्मदा आंदोलन की तेज-तर्रार नेत्री सुश्री मेधा पाटकर से प्रशान्त कुमार दुबे ने बातचीत की।
दर असल विकास को परिभाषित किये जाने की जरूरत है आज बड़ी नदियों पर बड़े बांध बनाने को भी विकास कहा जाता है लेकिन सवाल यह है कि नदियों को मारना क्या विकास है? और इसे भी ऐसा देखा जाना चाहिये कि इस कथित विकास पर कितने जनों की बलि चढ़ी है। सरदार सरोवर और महेश्वर बांध परियोजनायें इसके उदाहरण हैं। देश में ऐसे कई और उदाहरण है। मेरा मानना है कि विकास को पहले परिभाषित करने की आवश्यकता है। लेकिन इसकी न तो मंशा किसी की दिखती है और न ही तैयारी।
छत्तीसगढ़ में आप पर यह आरोप लगा कि आप नक्सलवाद समर्थित हैं और राज्य में हिंसा को बढ़ावा दे रही हैं?
देखिये, हम किसी भी तरह के सशस्त्र संघर्ष के विरोध में हैं फिर चाहे वह किसी वाद से सम्बन्धित है या फिर राज्य सत्ता से। सलवा-जुडूम भी इसी तरह की प्रक्रिया है, जिसका विरोध करने हम लोग छत्तीसगढ़ में थे। हमारा मानना है कि सशस्त्र संघर्ष कभी भी बुनियादी परिवर्तन का प्रतीक नहीं हो सकता है और जब हम यह मानते हैं तो हमारे द्वारा स्वयं हिंसा करना या हिसां की बात सोचना भी हास्यास्पद है।
देखिये, जो बुनियादी सवाल खड़े करते हैं वे विकास विरोधी हैं यह राज्य का एक ड्रामा है। राज्य अपने पक्ष में बात न करने वालों को कुछ भी करार दे सकता है। नक्सलवाद भी कहीं न कहीं राज्य की विफलता का परिणाम है। लेकिन हम लोकतंत्र में जी रहे हैं और हमें अपनी बात रखने का पूरा अधिकार है। हम विकास के इस नवीन ढांचे को हर जगह पर चीर-फाड करके देखेंगे और राज्य को बाध्य करते रहेंगे कि वह लोगों के पक्ष में अपनी कल्याणकारी भूमिका निर्वाहित करे।
क्या ऐसा नहीं लगता कि मेधा पाटकर लड़ाई हार रही हैं?
नहीं, कदापि नहीं। आज भी सरदार सरोवर परियोजना का काम रूका हुआ है। दरअसल लोग संघर्षों को सीमित दायरों में देखते हैं इसलिये ऐसा लगता है कि लड़ाई हारी जा रही है। बल्कि नित नई लड़ाई जीती जाती है और दूसरी लड़ाई खड़ी हो रही है। आप पास्को का उदाहरण ले सकते हैं, आप सिंगुर का उदाहरण ले सकते हैं। आप नर्मदा का ही उदाहरण ले सकते हैं। इस पूरे दौर में भ्रष्टाचार की कलई खुली है। राज्य का चरित्र सामने आया है हम लोग आंदोलन में एक परिणाम मूलक लड़ाई नहीं लड़ते है। इसलिये वे लोग जो संघर्ष को बाहर से देखते उन्हें यह नही समझ में आता है, जबकि हम रणनीतियां बदलते हुये लड़ाई लड़ते हैं।
सिंगूर की बात आपने की, तो बात जेहन में आती है कि अधिकांश संघर्ष की बुनियाद में आम सोच रही है लेकिन सिंगूर प्रकरण में आम सोच धराशाई हो गई इस पर आपका क्या मत है?
वामपंथ टूटा नहीं है केवल मोर्चा टूटा है। हर एक पार्टियों में कमजोर लोग है। पश्चिम बंगाल में भी यही हुआ। पार्टी के कुछेक लोगों ने अपनी कमजोरी उजागर की। गांधीवादी या विवेकानंद के समर्थक कोई भी हो आज सभी के समक्ष तो है। यह मैं मानती हूं। लेकिन यह भी कहना चाहती हूं कि पश्चिम बंगाल में जो हुआ वह विचार की हार नहीं बल्कि कुछेक लोगों की हार है और हमारी जीत है।
नर्मदा समग्र जैसे कुछ प्रयास चल रहे हैं उन पर आपका क्या मत है?
देखिये, एक ओर तो नर्मदा क्रिकेट ग्राउण्ड बनती जा रही हैं और दूसरी ओर कहीं-कहीं पर इस तरह की खोखली कवायदें की जा रही हैं एक ओर इसी राज्य में नर्मदा एक छोर पर जीती जागती जिंदगियों का म्यूजियम बना डाला और दूसरी ओर वहीं राज्य नर्मदा समग्र जैसे प्रयासों को सहायता देता है। नर्मदा नदी का अध्ययन हेलीकॉप्टर में बैठकर तो संभव ही नहीं है। नर्मदा पर किये गये जिस अध्ययन में नर्मदा नदी के प्रभावितों का प्रश्न ही नहीं आया है यह नर्मदा नदी के साथ अन्याय है। इस तरह के कई संकट इस समय हमारे समक्ष हैं। वे नर्मदा नदी में प्रवाहित की जाने वाली प्लॉस्टिक तो साफ करना चाहते हैं लेकिन नर्मदा को साफ करने वाली गतिविधियों पर बात नहीं करते हैं।
न्याय व्यवस्था में भी लोगों का विश्वास उठता जा रहा है, विगत कुछ समय से लोगों को उच्चतम न्यायालय से ऐसे फैसले मिले है।
यह सही है कि न्याय व्यवस्था ने हमें निराश किया है। हम हतोत्साहित भी हुये हैं लेकिन ज्यूडिशियरी स्टेट का ही एक भाग है इसलिए यह होना स्वाभाविक है। हम विचलित नहीं होते हैं बल्कि हम इसे एक प्रक्रिया मानते हैं। हम न्याय व्यवस्था के साथ भी जूझ रहे हैं और यह हर दौर में होता रहेगा।
लगातार यह बात आ रही है कि अब संगठन के पास कार्यकर्ता नहीं है तो इसे यह मानें कि आपकी या आप जैसे साथियों की पकड़ कमजोर हो रही है।
देखिये जीने मरने का संकट जिनका है उन्हें संघर्ष के लिये प्रेरित करने की जरुरत नहीं होती है । हां इस संघर्ष में कुछ लोग जरुर साथ आते हैं और छोड़ते जाते हैं। वे पूर्णकालिक हैं भी नहीं । घाटी के लोगों का संघर्ष और मजबूत हुआ है, लोग तकनीकी रुप से भी समृध्द हुये हैं। अब वे अपने अधिकारों को पूर्ण रुप से जानते हैं और अपनी लड़ाई खुद लड़ रहे हैं।
खबर किसकी कीमत पर?
नीरज कुमार, मंगलवार, 13 अप्रैल 2010प्रेस क्लब मैं बैठकर दारू की चुस्कियां लेते हुए सब कुछ ठीक लगता है, कुछ भी ख़राब नही लगता. असल में जब नशा टूटेगा तब ना तो खबर बांचने के लिए कुछ होगा ना ही कोई सुनने वाला होगा सब कुछ पूंजीवाद की भेंट चढ़ चुका होगा."
माओवाद-मार्क्सवाद की अत्रप्त शवसाधना
नीरज कुमार,आशुतोष
लो क सं घ र्ष !: लड़ते हो, और हाथ में तलवार भी नहीं
Randhir Singh Suman, मंगलवार, 6 अप्रैल 2010एक खबर पढ़िए, फिर एक चुटकुला भी सुन लीजिये- खबर यह है- स्वास्थ्य एवं परिवार कल्याण मंत्रालय भारत सरकार ने सिगरेट, बीडी, गुटखा तथा अन्य तम्बाकू उत्पादों पर मूंह के कैंसर की तस्वीर छापने के आदेश पारित कर दिए हैं। तम्बाकू कैंसर समेत 26 जानलेवा बीमारियों की जनक है, आगामी जून से इसके उतापदों पर सचित्र चेतावनी छापना आवश्यक होगा।
अब चुटकुला- एक शहर बार-बार बाढ़ से प्रभावित होता था, भारी बर्बादी होती थी सरकारी अफसरों के उपाय बेकार चले जाते। हल निकालने के लिए मीटिंग की गयी, बहुत से सुझाव पेश हुए, परन्तु एक हल ऐसा था जिसमें कोई वित्तीय भार भी न था- वह यह कि बाढ़ का डेंज़र पॉइंट बढ़ा दिया जाए।
अब यह भी देखिये कि शराब के सेवन से आये दिन सैकड़ो व्यक्तियों के मरने की खबरें आ रही हैं- समाज कल्याण विभाग अपने काम में लगा है, मध् निषेध विभाग की भी कुछ उपलब्धियां जरूर होगी- परन्तु उत्तर प्रदेश सरकार इस बात से अति उत्साहित है कि इस वर्ष शराब के उत्पादों की 22 प्रतिशत तक सेवन- वृद्धि हुई है जिससे वित्तीय लाभ बढ़ा।
जनता और सरकारों-दोनों को सोचना चाहिए कि तम्बाकू, शराब, जुआ, प्रदूषण, प्लास्टिक का प्रयोग आदि जो भी मसले हैं - उन पर 'जागरूकता' के नाम पर अपना दामन बचाना ठीक नहीं है। अगर कोई बुराई है तो उसे दृढ़ता से रोकना चाहिए, वैधानिक उपाय करने चाहिए ।
सिगरेट पर बहुत समय से चेतावनी लिखी हुई है। क्या कभी कोई ऐसा अध्ययन हुआ जिसके द्वारा यह बताया गया हो कि अमुक काल-खंड में इतनी संख्या के सेवन कर्ता इस जागरूकता-अभियान से प्रभावित हुए ? समस्याओं को सुलझाने के यूरोपीय नुस्खें और भी दिलचस्प हैं - जब कोई जुर्म वह रोक नहीं पाते तो उसकी वैधानिक इजाजत दी जाती है।
ढुलमुल नीति के लिए हम अपनी सरकार से यह जरूर कहेंगे - लड़ते हो, और हाथ में तलवार भी नहीं ?
डॉक्टर एस.ऍम हैदर
loksangharsha.blogspot.com
1084 की मां: आततायी व्यवस्था का प्रतिरोध
भागीरथ, शनिवार, 3 अप्रैल 2010हजार चौरासी की मां कहानी है एक ऐसी मां की जिसका सबसे प्यारा लाड़ला नक्सलबाड़ी आन्दोलन की भेंट चढ़ जाता है। यह कहानी है एक ऐसे लड़के की जो इस व्यवस्था के खिलाफ उठ खड़ा होता है- तमाम सुख सुविधाओं के बाजवूद। यह कहानी है पुलिस उस बर्बरता की जो लोकतन्त्र का मजाक उड़ाते हुए आदमी के साथ जानवरों का सा सलूक करते हैं। यह कहानी है उस मध्यवर्ग की जिसके लिए उसका तुच्छ स्वार्थ की सबकुछ है।
मां सुजाता और उसका बेटा ब्रती एक दूसरे को बहुत प्यार करते हैं। मां दिल खोलकर ब्रती पर अपनी ममता लुटाती है। बेटा अक्सर ऐसी बातें मां को बताता जो मां के समझ से बाहर है। बेटा माओ की बातें बताता है। अचानक एक दिन फोन आता है कि तुम्हारा बेटा नक्सलबाड़ी आन्दोलन में मारा गया है। मां सन्न रह जाती है। ब्रती का बाप बड़ा रईस है। उसे डर है कि लोग उसे नक्सलवादी का बाप न बोलें। किसी तरह पुलिस को मैनेज करके वह अखबारों में अपने बेटे का नाम न छपने का बन्दोबस्त कर लेता है। और नक्सलवादी के बाप के कलंक से बच जाता है। ब्रती का लाश लावारिश हो जाती है। इसी लावारिश लाश का नंबर है हजार चौरासी। ब्रती का बाप खुद अनैतिक सम्बंध रखता है, अव्वल दर्जे का भ्रष्टाचारी है लेकिन अपनी पत्नी के बाहर जाने पर ऐतराज जताता है। मर्दों के दोहरे चरित्र को भी नाटक बेनकाब करता है।
ब्रती की मौत के दो साल बाद मां को असल कहानी पता चलती है। ब्रती के दोस्त की मां जिसका बेटा भी ब्रती के साथ मारा जाता है, मां को तमाम घटनाक्रमों की जानकारी देती है। ब्रती का दोस्त अपने बाप के डरकर रहने से आक्रोशित रहता है। उसके दिल में व्यवस्था से घोर नाराजगी है। अपनी मां से कहता है- जैसे वह कुत्ते का बेटा है। यही बाप बेटे के मरने के बाद पुलिस की चौखट में सरपटपटकर लहूलुहान हो जाता है लेकिन पुलिस खाने पीने का बंदोबस्त करने में व्यस्त रहती है। यह दृश्य देखकर गुस्सा और तकलीफ ह्रदय को भीतर तक कचोट देती है।
ब्रती नन्दिनी से बेइन्तहां मोहब्बत करता है। नन्दिनी भी नक्सलबाडी से जुड़ी है। नन्दिनी मां को पुलिस की बर्बरता की दास्तान सुनाती है। उस बर्बरता की जिससे नन्दिनी को दो चार होना पड़ा था। पुलिस वाले नन्दिनी की जांघों, गले और शरीर के अलग-अलग अंगों में किस तरह जलती हुई सिगरेट दागते थे, मां को बताती है। ये दृश्य झकझोर कर रख देने वाले हैं।
मां सुजाता अपने बेटे की मौत का जिम्मेदार उस समाज को मानती है, जिसकी बेहतरी का सपना उसके बेटे ने देखा था। उस समाज को दोषी मानती है जो अपने बनाए झूठे आदर्शों और मूल्यों पर टिका है, जिसे अपने तुच्छ स्वार्थों के आगे बड़ी-बड़ी कुर्बानियां बेकार नज़र आती हैं।
महाश्वेता देवी की इस मूल कृति पर आधारित इस नाटक में एनएसडी के दूसरे वर्ष के छात्रों ने गजब का अभिनय किया है। लगभग तीन घंटे लगातार अभिनय करना आसान नहीं होता। छात्रों ने इसके लिए कितनी मेहनत की होगी, पात्रों में ढलने के लिए कितना अभ्यास किया होगा, नाटक देखकर अन्दाजा लगाया जा सकता है। निर्देशक शान्तनु बोस ने कमाल का काम किया है। रौशन एनजी ने पात्रों का बढ़िया मेकअप किया है। लाइट, सेट और ध्वनियों का बेहतरीन तालमेल है।
अब और मूर्ख तो नहीं बनायेगी ना सरकार.....?
गुड्डा गुडिया, शुक्रवार, 2 अप्रैल 2010‘’मुफ्त एवं अनिवार्य शिक्षा का कानून’’ लागू होने पर विशेष सर, इस कानून में नया क्या होगा ! स्वतंत्र भारत में संविधान बनाते समय तो प्रत्येक बच्चे को वचन दिया गया था कि दस वर्ष के भीतर सारे बच्चे शिक्षित होंगे। लेकिन आजाद हुये भी 6 दशक बीत गये ! सर्व शिक्षा अभियान के समय भी तो सरकार ने यही सब वायदे किये थे, लेकिन मेरे पड़ोस में रहने वाली कल्ली तो अभी भी पन्नी बीनने जाती है। सर, समझ में यह भी नहीं आता कि सरकार जब राष्ट्रमण्डल खेलों पर 1 लाख करोड़ रूपये का व्यय करने को आतुर है तो फिर उसकी यह तत्परता शिक्षा के लिये क्यूं नहीं दिखती ! उस मासूम के एक और सवाल ने सबको चौंका दिया कि सर1 अप्रैल को कानून लागू होने जा रहा है और इस दिन मूर्ख दिवस है। क्या सरकार इस बार भी हमें मूर्ख तो नहीं बनायेगी। कल्ली पढ़ तो पायेगी ना सर ! भोपाल में बचपन परियोजना द्वारा आयोजित एक बाल चौपाल में ''शिक्षा का अधिकार '' विषय पर विमर्श के दौरान अनिवार्य एवं मुफ्त शिक्षा का कानून लागू होने की बात करने पर आकाश ने बड़ी ही मासूमियत से सवाल किया कि क्या सचमुच में हमें शिक्षा का अधिकार मिलेगा? मंच पर उपस्थित पैनल के सदस्यों ने उसे 1 अप्रैल से लागू होने वाले मुफ्त एवं अनिवार्य शिक्षा कानून की बात की, उसने फिर सवाल किया कि हाँ वो तो मालूम है, लेकिन सर्व शिक्षा अभियान के समय भी तो सरकार ने यही सब वायदे किये थे, लेकिन मेरे पड़ोस में रहने वाली कल्ली तो अभी भी पन्नी बीनने जाती है। इस बार भी पैनल ने आकाश को दिलासा दी कि अब सभी को शिक्षा मिलेगी। लेकिन जो सवाल आकाश का है वह आज सभी का सवाल है कि क्या वाकई सभी को शिक्षा मिल पायेगी? आकाश की चिंता को केन्द्र में रखकर यदि इतिहास को खंगालें तो गोपालकृष्ण गोखले ने 1915 में, महात्मा गांधी ने 1931 में और भगत सिंह ने भी आम शिक्षा पर जोर दिया था। माना तब भारत स्वतंत्र नहीं था लेकिन स्वतंत्र भारत में संविधान बनाते समय हमने प्रत्येक बच्चे को वचन दिया था कि दस वर्ष के भीतर सारे बच्चे शिक्षित होंगे। लेकिन अभी तक तो आजाद हुये भी 6 दशक बीत गये! और नतीजा वही । ज़रा और आगे बढें तो 1989 में संयुक्त राष्ट्र बाल अधिकार समझौता हुआ, भारत ने 1992 में इसका अनुमोदन किया। इस समझौते के अनुच्छेद 28 व 29 में भी अनिवार्य शिक्षा की बात कही गई है। 1986 का बालश्रम अधिनियम भी शिक्षा की बात करता है । 1993 में माननीय उच्चतम न्यायालय ने अपने एक महत्वपूर्ण (उन्नीकृष्णन) फैसले में संविधान के अनुच्छेद 45में निर्देशित 14 वर्ष तक की उम्र के बच्चों की शिक्षा को मौलिक अधिकार का दर्जा दे दिया था। इस फैसले के चलते ही6 वर्ष से कम उम्र के बच्चों को पूर्व प्राथमिक शिक्षा का अधिकार मिला। दरअसल यह तो शिक्षा के अधिकार के इस नये कानून की पृष्ठभूमि है । इस कानून की पृष्ठभूमि में या शिक्षा को बाजारवाद की जद में ले जाने और बाजारु करने हेतु'सबको शिक्षा' पर एक विश्वव्यापी सम्मेलन 1990 में थाईलैण्ड़ के जामेतियन में हुआ था। शिक्षा के अधिकार के इस ऐतिहासिक घटनाक्रम को समझने के बाद भी आकाश का सवाल तो जस का तस है । अब यदि कुछ समय के लिये यह मान भी लें कि सरकार संसद में बहुत बेहतर कानून लाई है तो क्या यह नया कानून आकाश की चिंता को हल कर देगा, जवाब है नहीं! बल्कि यह कानून तो चिंता को और बढ़ाने वाला है। दरअसल में इस कानून में केवल 6 से 14 आयुवर्ग तक के बच्चों को ही शिक्षा की बात कही है तो फिर उन्नीकृष्णन फैसले का क्या होगा?उन्नीकृष्णन फैसले से 6 वर्ष तक की उम्र के प्रत्येक बच्चे को संतुलित पोषणाहार, स्वास्थ्य देखभाल और पूर्व प्राथमिक शिक्षा का अधिकार दिया था। तो यूं कहें कि वर्तमान कानून देश के6 वर्ष तक के 17 करोड़ बच्चों को शिक्षा से दूर रखेगा। यह तब है कि जबकि यह सिध्द हो चुका हैं कि 6 वर्ष से कम उम्र के बच्चों का 80 प्रतिशत मानसिक विकास इसी उम्र में होता है। महत्वपूर्ण यह भी है कि किसी भी कानून के लागू होने के समय कम से कम सात वर्षों तक का बजटीय अनुमान व नियोजन किया जाता है लेकिन इस पारित बिल में इसका जिक्र ही नहीं है। हालांकि कोठारी आयोग तो बहुत पहले ही यह सुझाव दे चुका है कि सरकार कुल राष्ट्रीय आय के 6प्रतिशत की राशि शिक्षा पर खर्च करे, लेकिन यह आज तक नहीं हो पाया। वर्ष 01 में केन्द्र व राज्य सरकारों का शिक्षा खर्च कुल राष्ट्रीय आय का 3.19 प्रतिशत था और यह बढ़ने की अपेक्षा 07 में घटकर 2.84 प्रतिशत रह गया। विश्व के स्तर पर भारत राष्ट्रीय आय में से शिक्षा पर खर्च करने वाले देषों में115 वें नंबर पर है। सवाल फिर वही कि सरकार जब राष्ट्रमण्डल खेलों पर 1 लाख रूपये का व्यय करने को आतुर है,रक्षा के नाम पर पैसा पानी की तरह बहाने को तैयार है तो फिर यह तत्परता शिक्षा के लिये क्यूं नहीं दिखती। मध्यप्रदेश सरकार ने तो कानून लागू होने के पहले ही 13000 करोड़ रूपये का व्यय होने की चिंता करते हुये केन्द्र सरकार से मदद के लिए हाथ फैलाने की बात कही है । यानी अब बच्चों की शिक्षा के बजट के लिये केन्द्र और राज्य सरकारें एक दूसरे पर दोषारोपण करती रहेंगी, राजनीति का एक नया अखाड़ा खुल जायेगा और बच्चे पढ़ नहीं पायेंगे। You can aslo read it on www.atmadarpan.blogspot.com