प्रिय मित्रों,
यह अधूरा लेख जो एक लम्बे समय से लंबित पड़ा हुआ है जो हमारे महत्वपूर्ण योगदानकर्ता द्वारा लिखी जानी थी लेकिन पूरी नहीं हो पाई है. इस लेख को बिना किसी एडिटिंग या छेड़-छाड़ के आपके समक्ष प्रस्तुत कर रहा हूँ इससे पहले की लेख से जुड़ा मुद्दा ठंडा न पड़ जाए.
कठफोड़वा
अब कहिये 'जय हो'!
दीपक कुमार सिंह
महिला आरक्षण बिल राज्य सभा में भारी हंगामे के बावजूद पास हो गया। हंगामा हुआ, शोर मचा, सस्पेंशन हुआ लेकिन आखिर बिल पास हुआ। आह! क्या दृश्य था। सुषमा स्वराज-वृंदा करात गले मिल रही हैं। वामपंथ और दक्षिणपंथ एक है, जैसा लग रहा है। कोई राजनितिक व विचारात्मक अड़ंगेबाजी नहीं। आंखे छलछला आई हैं। 'sisterhood' फ़ैल रहा है। महिला आरक्षण के इस पूरे प्रकरण में मेरे एक मित्र बहुत परेशां रहे। मुझे 'सामाजिक अवसाद' शिकार बताया। उपरोक्त मित्र 'कोटा में कोटा' के हिमायती हैं। लेकिन मैं इस पूरे प्रकरण को एक किस्म की बेमानी ही मानता हूँ। बहरहाल, बिल अपने मौजूदा स्वरुप में ही पास हो गया, देश की अस्सी फीसद महिलाओं के साथ दगाबाज़ी करके। मेरे ये मित्र और अधिक परेशां हो गए होंगे। पिछले पंद्रह वर्षों से लंबित पड़ा ये मामला अब लगता है सुलझ जाएगा, महिलाओं का मुकद्दर संवर जाएगा?
मैंने अपने पहले लेख में एक बात स्पष्ट की थी जिसे मैं फिर से कहना चाहूँगा क्या की इस आरक्षण विधेयक के पास हो जाने और इसके कानूनी जामा पहन लेने से महिलाओं की हालत में कोई वास्तविक व सकारात्मक बदलाव आएगा? या कहीं ऐसा तो नहीं इसकी आड़ में 'राजनितिक सवर्ण ' फिर से सक्रिय हो गया है। कुछ लोगों का मानना है की आरक्षण से महिला उत्थान की अपेक्षा करना बेमानी होगी क्यूंकि आरक्षण महिलाओं कि व्यापक हिस्सेदारी का मामला है.
बहुत सही