हजार चौरासी की मां कहानी है एक ऐसी मां की जिसका सबसे प्यारा लाड़ला नक्सलबाड़ी आन्दोलन की भेंट चढ़ जाता है। यह कहानी है एक ऐसे लड़के की जो इस व्यवस्था के खिलाफ उठ खड़ा होता है- तमाम सुख सुविधाओं के बाजवूद। यह कहानी है पुलिस उस बर्बरता की जो लोकतन्त्र का मजाक उड़ाते हुए आदमी के साथ जानवरों का सा सलूक करते हैं। यह कहानी है उस मध्यवर्ग की जिसके लिए उसका तुच्छ स्वार्थ की सबकुछ है।
मां सुजाता और उसका बेटा ब्रती एक दूसरे को बहुत प्यार करते हैं। मां दिल खोलकर ब्रती पर अपनी ममता लुटाती है। बेटा अक्सर ऐसी बातें मां को बताता जो मां के समझ से बाहर है। बेटा माओ की बातें बताता है। अचानक एक दिन फोन आता है कि तुम्हारा बेटा नक्सलबाड़ी आन्दोलन में मारा गया है। मां सन्न रह जाती है। ब्रती का बाप बड़ा रईस है। उसे डर है कि लोग उसे नक्सलवादी का बाप न बोलें। किसी तरह पुलिस को मैनेज करके वह अखबारों में अपने बेटे का नाम न छपने का बन्दोबस्त कर लेता है। और नक्सलवादी के बाप के कलंक से बच जाता है। ब्रती का लाश लावारिश हो जाती है। इसी लावारिश लाश का नंबर है हजार चौरासी। ब्रती का बाप खुद अनैतिक सम्बंध रखता है, अव्वल दर्जे का भ्रष्टाचारी है लेकिन अपनी पत्नी के बाहर जाने पर ऐतराज जताता है। मर्दों के दोहरे चरित्र को भी नाटक बेनकाब करता है।
ब्रती की मौत के दो साल बाद मां को असल कहानी पता चलती है। ब्रती के दोस्त की मां जिसका बेटा भी ब्रती के साथ मारा जाता है, मां को तमाम घटनाक्रमों की जानकारी देती है। ब्रती का दोस्त अपने बाप के डरकर रहने से आक्रोशित रहता है। उसके दिल में व्यवस्था से घोर नाराजगी है। अपनी मां से कहता है- जैसे वह कुत्ते का बेटा है। यही बाप बेटे के मरने के बाद पुलिस की चौखट में सरपटपटकर लहूलुहान हो जाता है लेकिन पुलिस खाने पीने का बंदोबस्त करने में व्यस्त रहती है। यह दृश्य देखकर गुस्सा और तकलीफ ह्रदय को भीतर तक कचोट देती है।
ब्रती नन्दिनी से बेइन्तहां मोहब्बत करता है। नन्दिनी भी नक्सलबाडी से जुड़ी है। नन्दिनी मां को पुलिस की बर्बरता की दास्तान सुनाती है। उस बर्बरता की जिससे नन्दिनी को दो चार होना पड़ा था। पुलिस वाले नन्दिनी की जांघों, गले और शरीर के अलग-अलग अंगों में किस तरह जलती हुई सिगरेट दागते थे, मां को बताती है। ये दृश्य झकझोर कर रख देने वाले हैं।
मां सुजाता अपने बेटे की मौत का जिम्मेदार उस समाज को मानती है, जिसकी बेहतरी का सपना उसके बेटे ने देखा था। उस समाज को दोषी मानती है जो अपने बनाए झूठे आदर्शों और मूल्यों पर टिका है, जिसे अपने तुच्छ स्वार्थों के आगे बड़ी-बड़ी कुर्बानियां बेकार नज़र आती हैं।
महाश्वेता देवी की इस मूल कृति पर आधारित इस नाटक में एनएसडी के दूसरे वर्ष के छात्रों ने गजब का अभिनय किया है। लगभग तीन घंटे लगातार अभिनय करना आसान नहीं होता। छात्रों ने इसके लिए कितनी मेहनत की होगी, पात्रों में ढलने के लिए कितना अभ्यास किया होगा, नाटक देखकर अन्दाजा लगाया जा सकता है। निर्देशक शान्तनु बोस ने कमाल का काम किया है। रौशन एनजी ने पात्रों का बढ़िया मेकअप किया है। लाइट, सेट और ध्वनियों का बेहतरीन तालमेल है।
अफसोस की हम इसे देख नही पाए।
5 APRAIL TAK CHALEGA. SHAM 6:30 SE.
guru kuch suchna mujhe bej diya kro
मुझे जब भागीरथ ने नाटक देखने चलने के लिया कहा था तब मै भारी थकान की वजह से नही जा पाया था लेकिन उसका अफ़सोस अभी भी अन्दर से कचोटता है. बहरहाल इस रीव्यू के पढने के बाद नही देखने का दुःख कुछ कम हो गया है