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लडने वाला समाज अपनी भाषा भी गढ़ता चलता है- अनामिका


जब कोई समाज युध्दरत होता है, तो वह उसकी अस्मिता की लडाई होती है। उसकी भाषा में संघर्ष की चेतना होती है, एक तरह का ओज होता है। चाहे तो आप अफ्रीकी समाज की भाषा ही देख लें। वहां की बोली जानेवाली अंग्रेजी और ब्रिटिश अंग्रेजी या क्विन्स अंग्रेजी कह लें, में अंतर मिल जाएगा

कविता की ओर झुकाव आपने कब महसूस किया? घर के परिवेश का क्या असर आप महसूस करती हैं?
बचपन में पिताजी के साथ अंत्याक्षरी खेलती थी। पिताजी हमेशा मुझे हरा देते थे। मैं भी हार से बचने के लिए कुछ जोर-आजमाईश करने लगी थी। पिताजी ने भी लिखने के लिए प्रोत्साहित किया। नई डायरी लाई गई और खेल-खेल में ही कविता शुरू हो गई।

बाल्यावस्था का दौर काफी राजनीतिक रूप से उथल-पुथल भरा रहा होगा। आपातकाल, जयप्रकाश नारायण और लोहिया का दौर था वह। क्या उस राजनीतिक माहौल का भी कुछ असर रहा?
वो समय ही कुछ और था। पडाेस के बच्चे भी क्रांतिकारी बन स्कूल-कॉलेज छोडक़र आंदोलन में कूद पडे थे। ऐसा लगता था मानो दूसरा स्वतंत्रता-संग्राम लडा जा रहा हो। जगह-जगह लोग सरकार के विरोध में नारे लगाते थे। उसमें ज्यादातर हमारी उम्र के बच्चे ही होते थे। घर में भी भाई इस आंदोलन में बढ-चढक़र भाग ले रहे थे। जेल जाने वालों में भी वे आगे रहते थे। मुजप्फरपुर में एक बार जेपी आए थे, तो उन्होंने मंच से रामायण की एक पंक्ति कही थी-अब लौं नसानि, अब न नसैंहों। यानी कि अब तक तो बर्दाश्त कर लिया, आगे नहीं करेंगे। इस पंक्ति का आंदोलन में कुछ अलग ही राजनीतिक अर्थ निकाला गया। जेपी के दिए भाषण को मैं आजतक भूल नहीं पाई हूं। लेकिन इस आंदोलन का सच भी लोगों के सामने आ गया। जैसा कि हरेक आंदोलन में होता है, ऊपर के लोग तो आंदोलन का लाभ उठा लेते हैं, लेकिन जो आंदोलन का झंडा उठानेवाले लोग होते हैं, वे कहीं पीछे छूट जाते हैं। मैंने देखा कि जिन बच्चों ने आंदोलन के दौरान स्कूल-कॉलेज छोडे, ज़ेल भी गए, आज बेरोजगारी की त्रासदी झेलने को विवश हैं। मैंने आंदोलन में शरीक ऐसे लोगों की जिंदगी को गहरे से महसूस किया और 'सारिका' में इनकी व्यथा पर एक कहानी भी लिखी। जैसे एक पौधे को उखाडक़र, दूसरी जगह बो देंगे, तब भी वह जड पकड लेता है। वही टेक्निक कुछ-कुछ रचनाओं के क्षेत्र में भी होती है। एक संदर्भ से दूसरे संदर्भ जुडते चले जाते हैं और वे अपने आप आपकी रचनाओं में आकार ले लेते हैं। लोक घटना, लोक कहावतों और मुहावरों को रचनाओं में पुनर्रोपित करने का भी अपने ढंग से प्रयास किया।

बचपन की कोई घटना जिसे आज तक भूल नहीं पाई हों।
स्कूल के दिनों में एक खूबसूरत सी लडक़ी पढती थी। किसी से बात नहीं करती, बस अपने में खोई रहती। सहपाठियों को ऐसा लगने लगा था कि वह स्वभाव से घमंडी है। पता चला कि उसकी मां नर्तकी है। बाजार से जब गुजरती थी, तो एक ऐसी जगह थी, जहां केवल महिलाएं ही दिखती थी। घर के बाहर नेमप्लेट पर केवल महिलाओं का ही नाम लिखा होता था। हारमोनियम-तबले और घुंघरू की सुमधुर आवाज बाहर आती रहती थी। बचपन में कुछ समझ तो थी नहीं, मुझे लगता था कि यह कलाकारों की कोई बस्ती है। एक दिन जब मैं यों ही वहां से गुजर रही थी, तो मैंने उस बस्ती में स्कूल की खूबसूरत लडक़ी को खडे देखा। संयोग से मेरी आंखें उससे मिल गई। उसके आंखों में जो पीडा मैंने देखी, वो कभी भूल नहीं पाई। लेकिन इसके बाद की एक घटना ने मेरी सोच को ही बदल दिया। उसी दिन से उस मासूम बच्ची ने स्कूल आना छोड दिया। वो कभी दिखी भी नहीं। बाद में जब मैंने उसके बारे में जानने का प्रयास किया, तो पता चला कि उसकी शादी हो गई और वह कहीं शहर से दूर चली गई। उन मासूम आंखों की पीडा मेरी जिंदगी का हमसफर बन गई। आज भी वेश्याओं के बच्चों को देखती हूं, तो दिल मायूस हो जाता है।

आप कविता में प्रवेश कैसे करती हैं? लिखने की शुरूआत कैसे होती है?
जब आप शांति से बैठे होते हैं, तो बहुत सी असंबध्द चीजें यादों में उभर कर आती हैं। समाज में, घर-परिवार में, हर जगह दुख, अभाव, पीडा का भाव तो टपकता ही रहता है। आस-पास के जीवन का कोई टुकडा, बस में चलते हुए, कुछ पढा हुआ या बात करते हुए बच्चों को देखकर भी कभी-कभी कविता अपना आकार लेने लगती है। जैसे बचपन में घर-आंगन में सेमल की रूई उडती आती थी और उसे पकडने सभी बच्चे दौड पडते थे। वैसे ही कविता का एक सिरा पकड में आ गया, तो फिर कविता बनते देर नहीं लगती। कभी एक पंक्ति बनी, तो बाकी का आह्वान करना पडता है। कुछ ऐसे ही जैसे गांव में महिलाएं आटा गूंथकर छोड देती हैं, तो रोटी का मजा ही कुछ और हो जाता है। कुछ ऐसा ही कविताओं के साथ भी होता है।

स्थानीयता आपकी कविता की धरोहर हैं। क्या आप ऐसा महसूस करती हैं कि राजधानी में यह कहीं खो-सी गई है?
जो जिंदगी आप नहीं जी पाते, वही कविता के रूप में जीने का प्रयास करते हैं। बचपन के जो दस-पंद्रह साल होते हैं, वही जिंदगी को स्थाई भाव देते हैं और आपमें भाषा का संस्कार भी गढते हैं। जैसे आप सफर पर निकले हों और मां ने एक पोटली में बांधकर चूडा, चना-चबेना, सत्तू और अचार दिया हो तो हंसते-खेलते सफर आसानी से कट जाता है।
लोकसंदर्भ, लोककथाएं और अपने जीवन की कथाएं भी जिंदगी भर के लिए साथ नहीं छोडती। जब आप मशाल जलाते हैं, तो कतारबध्द दीयों को जलाते चलते हैं और वही ज्योति दूर तक चली जाती है। कविता में भी कुछ ऐसा ही मसलसल सिलसिला चलता रहता है और कविता अपने रूप में बनी रहती है। यही कारण है कि राजधानी की भाग-दौड में भी मैं अपनी कविता के माध्यम से स्थानीयता को ही जी रही होती हूं।

आपने कभी कहा था कि मनोवैज्ञानिक युध्द में भाषा हथियार का काम करती है। जिसको भी हाशिए पर धकेल दिया जाता है, उसकी भाषा ओजपूर्ण रूप ले लेती है। तो क्या एक लडता हुआ समाज अपनी भाषा भी आंदोलन के साथ-साथ गढता चलता है?
जब कोई समाज युध्दरत होता है, तो वह उसकी अस्मिता की लडाई होती है। उसकी भाषा में संघर्ष की चेतना होती है, एक तरह का ओज होता है। चाहे तो आप अफ्रीकी समाज की भाषा ही देख लें। वहां की बोली जानेवाली अंग्रेजी और ब्रिटिश अंग्रेजी या क्विन्स अंग्रेजी कह लें, में अंतर मिल जाएगा। ब्रिटिश अंग्रेजी में औपनिवेशिक संस्कार दिखेंगे, जबकि एशिया, अफ्रीकी, जर्मन, पोलैंड या एशिया की भाषा, जो संघर्षशील जनों की भाषा है, में एक तरह के विरोध का भाव दिखता है, आक्रोश दिखता है, वहां शिष्टता का ज्यादा ख्याल नहीं किया जाता।

हे परमपिताओं, परमपुरूषों, बख्शो, बख्शो, अब हमें बख्शो। ये आपकी कविता में किस तरह की बेचैनी है, छटपटाहट है आजादी की?
इस कविता में नए तरह के पुरूष गढने की कल्पना की गई है। पुरुष में जो पूर्वग्रह हैं, अहंकार हैं- चाहे वे जाति, लिंग, संप्रदाय या किसी और सोच को लेकर हों-उसे बदलने की जरूरत है। ईसा मसीह हंसते-हंसते सूली पर चढ ग़ए थे, उन्होंने कहा-'हे ईश्वर इन्हें माफ करना,ये नहीं जानते कि ये क्या करने जा रहे हैं।' जब कोई औरत अपने जख्म दिखाती है, तभी पुरुष को इसका भास होता है। अगर ये नहीं जानते कि वे भूलवश क्या कर रहे हैं तो मैं कहूंगी कि वे जानें कि वे क्या कर रहे हैं? स्त्री शरीर ही नहीं आत्मा भी गढती है। पुरुष ही कहीं भाई है, पिता है, मित्र है, बुरे वे नहीं, बल्कि वह सोच है जो सदियों से स्त्रियों का शोषण करती रही है। आज का पढा-लिखा पुरुष कल के मर्दवादी सोच से कहीं अलग है।

'राम की शक्ति पूजा' के लेखक निराला ने 'गर्म पकौडी' क़ी रचना कर कविता के आतंक को मिटाकर आमलोगों को भी कविता-लेखन से जोडा। नई कविता छंद-मुक्त हुई। क्या इस चलन को आप सही मानती हैं?
देखिए, कविता में किसी प्रकार का आग्रह नहीं होना चाहिए। छंद तो कविता में आते-जाते रहते हैं। हमारे यहां कविता का एक रूप लोकगीतों के रूप में भी देखने को मिलता है जो विवाह या किसी उत्सव के अवसर पर गाए जाते रहे हैं। 'आग लगी झोपडिया में, हम गावईं मल्हार' तो गेयता में एक तरह का सेलिब्रेशन भी होता है। हमारे यहां तो सबकुछ एक साथ रहा है। बाबा नागार्जुन ने भी तो कहा है-'लय करो ठीक फिर फिर गुनगुनाओ, मत करो परवाह-क्या है कहना, कैसे कहोगे, इस पर ध्यान रहे, चुस्त हो सेंटेंस, दुरूस्त हो कडियां, पके इतमीनान से गीत की बडियां।' कहीं छंद-मुक्त तो कहीं छंद भी। कविता तो अंतरंगता की भाषा है, मेल-जोल की भाषा- आदेशात्मक स्वर में तो कविता नहीं हो सकती ना। फिर वहां राग नहीं रहेगा और राग नहीं हो, तो कविता गेय भी नहीं रह जाती। लोक गीत संस्कार में रचे-बसे हों, तो कविता में गेयता बनी रहेगी।

क्या आप ऐसा महसूस करती हैं कि कविता समकालीन परिवेश से कट सी गई है? यही कारण है कि कविता लोगों से दूर होती चली गई।
जीवन के दुख-दर्द कविता में शामिल हैं। हां, व्यस्तता के कारण लोगों के पास समय नहीं रहा फिर इतने बडे देश में शिक्षा भी कितने लोगों के पास है? कवि कहने से किसी को भी लगता है कि अपना व्यक्ति होगा, हमारे हित की बात करेगा, खिलाफ नहीं जाएगा। कोई भी आदमी विश्वास की नजरों से आपको देखेगा, तो यही अपनापन ही तो एक कवि की धरोहर है।

लेकिन कुछ लोग तो कविता के मौत की भी घोषणा करने लगे हैं। धर्मवीर भारती ने भी एक बार ऐसे लोगों को ललकारते हुए कहा था-'कौन कहता है कि कविता मर गई।' आप क्या सोचती हैं इसके बारे में।
'हम न मरें, मरिहैं संसारा।' आप बताएं, कविता कहां नहीं है? आप हंसकर किसी को सडक़ पार करा दें, वहीं कविता है। जब तक मनुष्यता में विश्वास है, धरती पर हरियाली है, संवेदनशीलता जीवित है, कविता बनी रहेगी। सिर्फ जो लिखी जाए, वही कविता नहीं है। कविता वह भी है जो महसूस की जाती है। जब तक लोगों में उम्मीद की किरण, प्रेम का भाव जिंदा है, कविता मर ही नहीं सकती। आए दिन हम किसी न किसी चीज की मौत की घोषणा करते रहते हैं। नदी बहती रहती है, आप तो आते-जाते रहेंगे। ऐसा ही कविता के प्रवाह के साथ भी है। आप आए दिन की जिंदगी में भी कविता को ही जी रहे हैं। कविता तो संबंधों की भाषा है। नामी-गिरामी कंपनियां भी जीवन की कविता को ही मार्केटिंग के जरिए भुनाती हैं।

आजकल रचनाएं कालजयी क्यों नहीं होती?
रचनाएं तो चरैवेति, चरैवेति अपना सफर तय करती हैं। समय तय करता है कि क्या ढह गया और क्या बचा रह गया? समकालीन रचनाओं को आप कैसे तय कर सकते हैं कि वे कालजयी हैं या नहीं। ये तो 50 साल बाद ही पता चलेगा ना।
हमसे बात करने के लिए आपका बहुत-बहुत धन्यवाद।

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