जिसने इस बार के तहलका का हिंदी संस्करण पढ़ लिया होगा उसे जरूर पता चल गया होगा लेकिन जिन लोगों ने नहीं पढ़ा उनके लिए तो थोडा बात का सन्दर्भ समझाना ही होगा
इधर लम्बे समय से मेरी उदय प्रकाश जी से मुलाकात नहीं हुई. कुछ दिनों पहले उनके ब्लॉग पर पढ़ा था कि जर्मनी की यात्रा पर जा रहें हैं वो भी भला क्यों? फ़्रैंकफ़ुर्ट विश्व पुस्तक मेला में सिरकत करने. अब इसे साहित्य अकादेमी के पूर्व अध्यक्ष माननीय गोपीचंद नारंग के फ़्रैंकफ़ुर्ट के विश्व पुस्तक मेले में सरकारी खर्चे पर अपने बीवी को घुमाने जैसा नहीं समझ लीजियेगा (हालाँकि बाद में हो-हल्ला करने पर उन्होंने अपनी पत्नि पर खर्च हुए धन को वापस कर दिया था) असल में उदय को अपनी पुस्तक "पीली छतरी वाली लड़की" के जर्मन संस्करण के लोकार्पण के अवसर पर बुलाया गया था वही "पीली छतरी वाली लड़की" जिसे प्रत्यक्षा नाम की एक कथाकारा, जिनके बारे में कुछ बताना तो "सूरज को दिया दिखाना है या फिर ऐसा कहें कि पूरे पढ़े लेख के नीचे उसका लिंक देना है। वे कवियत्री है, कथाकार है, चित्रकार हैं, मूर्तिकार हैं, धुरंधर पाठिका हैं, संगीतप्रेमी हैं और चिट्ठाकार तो खैर हैं हीं।" ये सब मैं नहीं कह रहा हूँ बल्कि ये शब्द फुरसतिया के हैं जो प्रत्यक्षा जी के लिए लिखे गए हैं. इन शब्दों पर किसी को आपति भी नहीं होनी चाहिए सबकी अपनी अपनी समझ है-समझदारी है मुझे भी कोई आपति नहीं है लेकिन प्रत्यक्षा जी से जब तहलका ने एक साक्षात्कार के दौरान पूछा कि ऐसी रचना का नाम बतायें "जिसे बेमतलब की शोहरत मिली" प्रत्यक्षा का जवाब था- "पीली छतरी वाली लड़की". अब पता नहीं इस कथाकार-चित्रकार-मूर्तिकार ने ये जवाब किताब को पढने के बाद दिया था या अब तक पढ़ा ही नहीं है मुझे लगता है पढ़ा नहीं होगा कई बार ऐसा हो जाता है लेकिन यदि यह जवाब पीली छतरी वाली लड़की को पढ़कर दिया गया है तब तो हमें प्रत्यक्षा की समझदारी पर सवाल खड़ा करना ही होगा
बेमतलब कि शोहरत क्या होती है?
अच्छा सन्दर्भ तो हो गया मैं मुद्दे पर आता हूँ आखिर बेमतलब कि शोहरत होती क्या है? वर्ष १९४६ में कुरुर्तुल-एन-हैदर की "आग का दरिया" को PEN USA Translation Fund Award दिया गया था उसके एक लम्बे अन्तराल के बाद कहीं २००५ में यह अवार्ड फिर किसी हिंदी लेखक को दिया गया और यह उदय प्रकाश कि "पीली छतरी वाली लड़की" थी यह बेवजह हो सकता है जरूरी नहीं कि कोई अवार्ड किसी पुस्तक को पर्याप्त वजहों के बाद ही दिया जाए और वैसे भी अवार्ड किसी पुस्तक के उत्कृष्ट होने का प्रमाण नहीं होते है नहीं तो हर दिन जो अवार्ड के लिए मारामारी होती है वह ना होती
अभी हाल ही में दुनिया भर के तमाम भाषाओं के पुस्तकों के सन्दर्भ में लोगों से राय मांगी जा रही है उस लिस्ट में पीली छतरी वाली लड़की का अंग्रेजी संस्करण भी शामिल है लेकिन इसे भी सर्वोत्कृष्ट का पैमाना नहीं माना जा सकता आजकल तो किसी भी बुक स्टाल पर जाओ बेस्ट सेलर कि भरमार लगी रहती है
पीली छतरी वाली लड़की का अंग्रेजी एवं जर्मन भाषा में अनुवाद तो हुआ ही तमाम भारतीय भाषाओं में भी अनुवाद हो चुका है हालाँकि आजकल प्रकाशक जिस पुस्तक का देखो उसी पुस्तक का अनुवाद कराकर मार्केट में लांच कर दे रहें हैं जैसे अमरीशपुरी पर लिखे गए किताब के इंग्लिश अनुवाद का विमोचन मान्यवर अरुण महेश्वरी ने विश्व पुस्तक मेले के दौरान अभिनेता इरफ़ान खान से कराया लेकिन मुझे एक बात पता नहीं चली कि आखिर यह पुस्तक मूल भाषा में कब छप कर आई
बहरहाल एक खबर आई थी कि पीली छतरी वाली लड़की पर न्यूजीलैंड में एक फिल्म भी बनायीं जा रही है प्रत्यक्षा जी अगर ये सब बेवजह हो रहा है तो एक बार इस बेवजह की वजह जरूर तलाशनी चाहिए और इस तलाश में शायद आपको पीली छतरी वाली लड़की की सार्थकता का एहसास हो जाए
मेरे द्वारा बताई गयी सारी बातें बेवजह हो सकती हैं लेकिन जितनी बार मैंने पीली छतरी वाली लड़की पढ़ी उतनी बार मेरें आँखों के सामने बाज़ार का 'दर्शन' घूमने लगा है
ye Pratyaksha hai kaun???
'Peeli Chhatari wali ladki' jaisi pustak ko bekar batane wala koi pagal ya mansik diwaliya hi ho sakta hai..
क्यों भाई, क्या किसी को अपनी व्यक्तिगत राय रखने का हक नहीं है? क्या आप लोगों से पूछ पूछ कर ही अपनी राय कायम करनी चाहिये?
वैसे तो सभी को अपने राय रखने की पूर्ण स्वतंतरता है, मगर "पीली छतरी वाली लड़की" के बारे में ऐसा कहना....शायद उनके समझ में नहीं आई. "दोबारा पढ़े"
भाई मेरे, हर किसी को अपनी राय रखने का हक़ है या नहीं है? आप भलकामियों ने आखिर प्रत्यक्षा को किसी कक्षा में रखा, नहीं रखा? फिर ऐसे किसी को घेरने और पिनकने की क्या वज़ह है? मुझे स्लमडॉग मिलियनेयर दो कौड़ी की फ़िल्म लगती है और इससे कोई फर्क़ नहीं पड़ता कि उसे कितने ऑस्कर मिले, पड़ता है? आप भलकामियों को पड़ता होगा, मुझे नहीं पड़ता, फिर? उसी तरह उदय का लिखा काफी सारा कुछ महज़ विवरणात्मक आख्यान लगते हैं, मुझे तो क्या, स्वयं लेखक को अपने लिखे से कितना रस मिला होगा सोचकर शंका होती है, तब? मेरी ऐसी सोच के लिए क्या कीजिएगा, मेरी जान लीजिएगा, या दोबारा पढ़े को भेजवाइयेगा?
हद है, भले आदमियो..