किसी की आंख में आंसू थे। कोई सिसक रहा था। किसी से बोला नहीं जा रहा था। तो किसी का गला बोलते-बोलते रुंधा जा रहा था। कहने को इतना था कि शायद शाम और रात भी कम पड़ती। गांधी शांति प्रतिष्ठान में 18 नवंबर की शाम का कुछ ऐसा ही नजारा था। देश के अलग-अलग हिस्सों से आए लोग प्रभाष जोशी को श्रद्धांजलि देने के लिए उमडे़ थे। इनमें वो लोग भी थे जिनका प्रभाष जी से करीबी रिश्ता रहा और वो लोग भी जो प्रभाषजी से न कभी मिले थे और न ही उन्हें व्यक्तिगत रूप से जानते थे, उनका और प्रभाषजी के बीच सिर्फ एक रिश्ता था और वह था पाठक और लेखक के बीच का रिश्ता। इनमें मेधा पाटकर थीं, अरूणा राय भी, प्रशांत भूषण, कुलदीप नैयर, सुरेन्द्र मोहन, अरविंद मोहन, सुमित चक्रवर्ती, तपेश्वर भाई, विजय प्रताप, रामजी सिंह भी। और न जाने कितने नाम। कोई सर्वोदय आंदोलन का कार्यकर्ता था, कोई सूचना के अधिकार अभियान का तो कोई नर्मदा बचाओ आंदोलन का। देश भर में चल रहे सभी जमीनी आंदोलनों से प्रभाषजी कितने करीब से जुडे़ थे, यहां आए लोग इसकी एक छोटी-सी बानगी पेश कर रहे थे।
महादेव विद्रोही प्रभाषजी को याद करते-करते फफक-फफक कर रो पडे़। बोले- प्रभाषजी का सर्वोदय आंदोलन से गहरा नाता था, वे उनके संपादक थे। रामजी सिंह ने बताया कि प्रभाषजी केवल पत्रकार नहीं थे, अगर पत्रकार थे तो प्रोफेशनल नहीं थे, बाजार में रहते हुए वे बाजार के प्रभाव से दूर थे। अरूणा राय का कहना था कि प्रभाषजी का न रहना देशभर में चल रहे सभी आंदोलनों को झटका है। उन्होंने आरटीआई की नींव डाली और हम जानेंगे, हम जिएंगे का नारा दिया। एक वाकया याद करते हुए अरूणा राय ने बताया कि प्रभाषजी जब भीलवाड़ा में आए तो उन्होंने कहा था कि मैं आजकल यमराज को गच्चा दे रहा हूं। वो मुझे बारात लेकर दिल्ली लेने आता है तो मैं भीलवाड़ा आ जाता हूं, भीलवाड़ आता है तो मणिपुर चला जाता हूं।
सभा में आए राजकुमार जैन ने प्रभाषजी को याद करते हुए बताया कि शुरूआत में वे प्रभाष जोशी से नफरत करते थे, वे उन्हें जूतों की माला पहनाना चाहते थे क्योंकि वे मधु लिमये के खिलाफ रोज अनाप-शनाप लिखा करते थे, लेकिन जब बाबरी मस्जिद गिराने के बाद उन्होंने जनसत्ता में प्रभाषजी का लेख पढ़ा तो अपने को कोसने लगे। प्रभाषजी के सहयोगी कुलदीप नैयर बोले कि कोई शिद्दत से काम करें तो लोग उसकी कदर करते हैं। प्रभाषजी बडे़ इंसान थे, वे ऐसे ही आदमी थे।
मेध पाटकर प्रभाषजी को याद करते-करते भावुक हो उठीं। अपनी भावुकता को नियंत्रित कर वे बोलीं कि जनसुनवाइयों के लिए जो लिस्ट बनती थी, उनमें पहला नाम प्रभाष जोशी का होता था। वो आसमान और धरती को एक साथ छूने वाले व्यक्ति थे। वे पत्रकार नहीं आंदोलनों के मित्र थे। अंत में समाजवादी चिंतक सुरेन्द्र मोहन से प्रभाषजी के बारे में बताया कि उनके भीतर हमेशा एक आग जलती रहती थी जो उन्हें चैन से नहीं बैठने देती थी, वो इस आग को सबके दिलों में जलाना चाहते थे। वे पत्रकार भी थे, सामाजिक सरोकारों से भरे थी थे और स्वयं एक आंदोलन थे।
Palestine
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The West inks red lines
filled with beheaded kids,
of people peeled inside out,
And the rest of us hung dry.
Will the winds turn?
If they do, what become...
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