भागीरथ श्रीवास
`पत्रकारिता की शिक्षा क्यों आवश्यक है´- विषय पर दिल्ली विश्वविद्यालय के दक्षिण परिसर में एक सेमिनार में बिना लाग लपेट प्रभाष जी ने पत्रकारिता का ककहरा सीख रहे छात्रों को साफ बता दिया था कि पत्रकारिता के संस्थान अब परचून की दुकान हो गए हैं, इसलिए अब यह शिक्षा जरूरी हो गई है। उनके इस वाक्य ने वर्तमान मीडिया संस्थानों की दशा बता दी थी और छात्रों को सचेत कर दिया था कि आगे की राह आसान नहीं है।
प्रभाष जी के सबसे पहले दर्शन 2006 में हिन्दी पत्रकारिता में दाखिला लेने के पहले दिन ही हो गए। सत्रारंभ संगोष्ठी में वे मुख्य अतिथि के तौर पर आए थे। उनकी तबियत ठीक नहीं थी, बावजूद इसके वे डॉक्टर प्रेमसिंह के कहने और छात्रों का उत्साह बढ़ाने, उनका मार्गदर्शन करने आ गए। उस संगोष्ठी से पहले प्रभाषजी के बारे में ज्यादा नहीं सुना था और न ही उनका लिखा पढ़ा था। लेकिन जब उनके बारे में थोड़ा बहुत जाना तो अपने उपर शर्मिंदगी महसूस होने लगी। बिना तैयारी ही पत्रकारिता का कोर्स करने आ गया था। उस संगोष्ठी के बाद दक्षिण परिसर में तीन-चार संगोस्ठिओं में वे और आए। उनकी तीन-चार संगोिष्ठयों में हमने जो सीखा उतना हमें पत्रकारिता के पूरे पाठ्यक्रम में सीखने को नहीं मिला। जिन लोगों ने प्रभाषजी के साथ काम किया होगा या उनके सानिध्य में रहे होंगे, उन्होंने प्रभाषजी से कितना सीखा होगा, इसकी कल्पना ही की जा सकती है।
प्रभाषजी को देखने और सुनने के बाद लाइब्रेरी जाकर जनसत्ता पढ़ना शुरू कर दिया। घर में अखबार डालने वाले से अनेक बार कहा तब कहीं जाकर उसने जनसत्ता देना शुरू किया। जनसत्ता लेने का सिर्फ एक ही मकसद था और वह था प्रभाषजी को उसमें पढ़ना।
अपने स्वास्थ्य की चिंता किए बिना वे अंत तक लोगों से मिलते रहे। उनसे जुडे़ रहे। उन्हें बहुत कुछ देते रहे। उनके गुजर जाने के बारे में मित्र नीरज ने जब एसएमएस से बताया तो यकीन नहीं हुआ। तुरंत अन्य दो पत्रकार मित्रों को फोन लगाया। उन्होंने भी यही बताया। उसके बाद छह नवंबर का पूरा दिन बेचैनी में गुजरा। सभा संगोिष्ठयों में कही गईं उनकी बातें याद आने लगीं। एक ख्याल यह भी आया कि जिनका लिखा पढ़ने के लिए जनसत्ता लेता था, अब वह पढ़ने को नहीं मिलेगा। पूरा दिन प्रभाष जी के बारे में इंटरनेट पर पढ़ता और दोस्तों से बात करता रहा। इस खबर के एक दिन पहले की जनसत्ता में पता चला था कि वे गोविंदाचार्य के साथ लखनउ में एक संगोष्ठी में हैं। इसलिए भी एकाएक इस घटना पर विश्वास करना मुश्किल था। पर यह एक कटु सत्य था और इसे झुठलाया नहीं जा सकता था।
झक सफेद कुर्ता पजामा और आंखों में चश्मा लगाए प्रभाष जी जब बोलते थे, सबकी बोलती बंद हो जाती है। जब वे संगोिष्ठयों में बाजारू पत्रकारिता की बखिया उधेड़ते और उसके नुकसान गिनाते तो बडे़-बडे़ चैनलों और अखबार के संपादकों के पास भी उनकी बातों की काट नहीं होती थी। जब वे बोलते थे तो सब केवल उन्हें सुनते ही रहना चाहते थे। प्रभाषजी के व्यक्तित्व में कुछ ऐसा ही जादू था। जो भी उनके संपर्क में आया, उनसे प्रभावित हुए बिना नहीं रह सका। जिस मकसद से उन्होंने जनसत्ता शुरू किया था, हर कीमत पर उसे उसकी मकसद से निकालते रहे। बिना डरे। बिना झुके।
प्रभाषजी जिन सामाजिक आंदोलन में सक्रिय रहे, उनका नेतृत्व करने वाले भी जब राह से भटके, प्रभाषजी ने उन्हें भी नहीं बख्शा। उन पर भी इतनी बेरहमी से कलम चलाई कि यदि उन्होंने इसे पढ़ा होगा तो भीतर तक जरूर चोटिल हुए होंगे। सूचना के अधिकार आंदोलन का दिल्ली में नेतृत्व करने वाले और मैगसेसे अवार्ड से सम्मानित अरविंद केजरीवाल की संस्था पब्लिक कॉज रिसर्च फाउंडेशन (पीसीआरएफ) ने आरटीआई अवार्ड देने के लिए एक राष्ट्रीय अखबार के सीईओ और संपादक को ज्यूरी का सदस्य बनाया तो प्रभाषजी ने अरविंद केजरीवाल पर भी बड़ी निर्ममता से कागद कारे में लिखा। क्योंकि अरविंद केजरीवाल जवाबदेही और पारदर्शिता के लिए अवार्ड देने जा रहे थे और इसकी ज्यूरी में उन्होंने ऐसे शख्स को शामिल किया, जिस पर लालजी टंडन ने लोकसभा चुनावों के दौरान खबर के बदले पैसे मांगने के संगीन आरोप लगाए और पैसे न देने पर उनकी खबरें नहीं छापने की बात कही। किसी अखबार पर इस तरह खुलेआम आरोप पहली बार लगे। प्रभाषजी ने ऐसे अखबारों के खिलाफ भी मुहिम छेड़ दी और इनके लाइसेंस तक रद्द करने की सिफारिश कर दी। शायद यही वजह थी कि प्रभाषजी की मौत की खबर ने जहां सभी अखबारों और संपादकीय में जगह पाई, वहीं इस अखबार ने अपने राष्ट्रीय संस्करण में उनकी मौत की खबर को कहीं जगह नहीं दी।
प्रभाषजी ताउम्र बैखौफी और बेबाकी से लिखते रहे। आने वाले सालों में लोगों को यकीन करना मुश्किल होगा होगा कि प्रभाषजी जैसा कोई संपादक हुआ करता था, जो अपने अखबार के मालिक से ही खुद के वेतन बढ़ाए जाने पर लड़ा हो, अनेक प्रधनमंत्रियों से दोस्ती के बाद भी, जरूरत पड़ने पर उनके खिलाफ जमकर आग उगली हो और जिसने अखबार की बढ़ती मांग को देखकर अपने पाठकों से कहा हो कि आप लोग मिल बांट कर अखबार पढ़ें, हमारी क्षमता इससे ज्यादा अखबार छापने की नहीं है।
आज जहां तमाम मीडिया हाउसों में पत्रकार नौकरी कर रहे हैं, प्रभाषजी हमेशा पत्रकारिता करते रहे और सामाजिक सरोकारों से उनका अन्त तक जुड़ाव रहा।
हम लोग भाग्यशाली हैं कि हमने प्रभाषजी को देखा और सुना है। आने वाला वक्त बिना प्रभाषजी के होगा। अब कौन भटके पत्रकारों के कान ऐंठकर सही रास्ता दिखाएगा?
प्रभाषजी को देखने और सुनने के बाद लाइब्रेरी जाकर जनसत्ता पढ़ना शुरू कर दिया। घर में अखबार डालने वाले से अनेक बार कहा तब कहीं जाकर उसने जनसत्ता देना शुरू किया। जनसत्ता लेने का सिर्फ एक ही मकसद था और वह था प्रभाषजी को उसमें पढ़ना।
अपने स्वास्थ्य की चिंता किए बिना वे अंत तक लोगों से मिलते रहे। उनसे जुडे़ रहे। उन्हें बहुत कुछ देते रहे। उनके गुजर जाने के बारे में मित्र नीरज ने जब एसएमएस से बताया तो यकीन नहीं हुआ। तुरंत अन्य दो पत्रकार मित्रों को फोन लगाया। उन्होंने भी यही बताया। उसके बाद छह नवंबर का पूरा दिन बेचैनी में गुजरा। सभा संगोिष्ठयों में कही गईं उनकी बातें याद आने लगीं। एक ख्याल यह भी आया कि जिनका लिखा पढ़ने के लिए जनसत्ता लेता था, अब वह पढ़ने को नहीं मिलेगा। पूरा दिन प्रभाष जी के बारे में इंटरनेट पर पढ़ता और दोस्तों से बात करता रहा। इस खबर के एक दिन पहले की जनसत्ता में पता चला था कि वे गोविंदाचार्य के साथ लखनउ में एक संगोष्ठी में हैं। इसलिए भी एकाएक इस घटना पर विश्वास करना मुश्किल था। पर यह एक कटु सत्य था और इसे झुठलाया नहीं जा सकता था।
झक सफेद कुर्ता पजामा और आंखों में चश्मा लगाए प्रभाष जी जब बोलते थे, सबकी बोलती बंद हो जाती है। जब वे संगोिष्ठयों में बाजारू पत्रकारिता की बखिया उधेड़ते और उसके नुकसान गिनाते तो बडे़-बडे़ चैनलों और अखबार के संपादकों के पास भी उनकी बातों की काट नहीं होती थी। जब वे बोलते थे तो सब केवल उन्हें सुनते ही रहना चाहते थे। प्रभाषजी के व्यक्तित्व में कुछ ऐसा ही जादू था। जो भी उनके संपर्क में आया, उनसे प्रभावित हुए बिना नहीं रह सका। जिस मकसद से उन्होंने जनसत्ता शुरू किया था, हर कीमत पर उसे उसकी मकसद से निकालते रहे। बिना डरे। बिना झुके।
प्रभाषजी जिन सामाजिक आंदोलन में सक्रिय रहे, उनका नेतृत्व करने वाले भी जब राह से भटके, प्रभाषजी ने उन्हें भी नहीं बख्शा। उन पर भी इतनी बेरहमी से कलम चलाई कि यदि उन्होंने इसे पढ़ा होगा तो भीतर तक जरूर चोटिल हुए होंगे। सूचना के अधिकार आंदोलन का दिल्ली में नेतृत्व करने वाले और मैगसेसे अवार्ड से सम्मानित अरविंद केजरीवाल की संस्था पब्लिक कॉज रिसर्च फाउंडेशन (पीसीआरएफ) ने आरटीआई अवार्ड देने के लिए एक राष्ट्रीय अखबार के सीईओ और संपादक को ज्यूरी का सदस्य बनाया तो प्रभाषजी ने अरविंद केजरीवाल पर भी बड़ी निर्ममता से कागद कारे में लिखा। क्योंकि अरविंद केजरीवाल जवाबदेही और पारदर्शिता के लिए अवार्ड देने जा रहे थे और इसकी ज्यूरी में उन्होंने ऐसे शख्स को शामिल किया, जिस पर लालजी टंडन ने लोकसभा चुनावों के दौरान खबर के बदले पैसे मांगने के संगीन आरोप लगाए और पैसे न देने पर उनकी खबरें नहीं छापने की बात कही। किसी अखबार पर इस तरह खुलेआम आरोप पहली बार लगे। प्रभाषजी ने ऐसे अखबारों के खिलाफ भी मुहिम छेड़ दी और इनके लाइसेंस तक रद्द करने की सिफारिश कर दी। शायद यही वजह थी कि प्रभाषजी की मौत की खबर ने जहां सभी अखबारों और संपादकीय में जगह पाई, वहीं इस अखबार ने अपने राष्ट्रीय संस्करण में उनकी मौत की खबर को कहीं जगह नहीं दी।
प्रभाषजी ताउम्र बैखौफी और बेबाकी से लिखते रहे। आने वाले सालों में लोगों को यकीन करना मुश्किल होगा होगा कि प्रभाषजी जैसा कोई संपादक हुआ करता था, जो अपने अखबार के मालिक से ही खुद के वेतन बढ़ाए जाने पर लड़ा हो, अनेक प्रधनमंत्रियों से दोस्ती के बाद भी, जरूरत पड़ने पर उनके खिलाफ जमकर आग उगली हो और जिसने अखबार की बढ़ती मांग को देखकर अपने पाठकों से कहा हो कि आप लोग मिल बांट कर अखबार पढ़ें, हमारी क्षमता इससे ज्यादा अखबार छापने की नहीं है।
आज जहां तमाम मीडिया हाउसों में पत्रकार नौकरी कर रहे हैं, प्रभाषजी हमेशा पत्रकारिता करते रहे और सामाजिक सरोकारों से उनका अन्त तक जुड़ाव रहा।
हम लोग भाग्यशाली हैं कि हमने प्रभाषजी को देखा और सुना है। आने वाला वक्त बिना प्रभाषजी के होगा। अब कौन भटके पत्रकारों के कान ऐंठकर सही रास्ता दिखाएगा?
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