ये वही इलाके हैं जहां लोग प्यास से मर रहे हैं। ये वही इलाके हैं जहां लोग बीमारी से मर रहे हैं। ये वही लोग हैं, जिन्हें विदेशी कंपनियों के लिए अपने घरों से उजाडा जा रहा है। ये वही लोग हैं, जिनकी याचना को सरकार हमेशा अनसुनी करती आई है। सरकार को ये बात समझनी होगी कि खून चाहे इधर बहे या उधर बहे, अपना ही है।
जवानों को एक साथ दो मोर्चों पर लडना पड रहा है। माओवादी तो समस्या हैं ही, कब कहां से आएं और दन-दनाकर फायरिंग शुरू कर दें। लेकिन एक और हमलावर है जो उनसे ज्यादा फुर्तीला और खतरनाक है, गुरिल्ला वार में तो वह दुनिया की तेज-तर्रार फौज के भी छक्के छुडा सकता है। ये हैं मलेरिया के मच्छर, जो सुनसान जंगलों में जानलेवा साबित होते हैं, जहां इलाज के लिए दूर-दूर तक कोई अस्पताल नहीं। साथ में कोई डॉक्टर नहीं, जो वक्त-बेवक्त इलाज के लिए आगे आए। बिल्कुल असहाय, उपलब्ध जडी-बूटियों से अनभिज्ञ, धीमे-धीमे बीमार और कमजोर होने के अलावा कोई चारा नहीं और जंगल का कानून है कि वह कमजोर लोगों का साथ नहीं देता।
जंगलों में रहने-खाने-जीने के अभ्यस्त माओवादी, कहते हैं जंगल में मलेरिया के मच्छर और सांप-बिच्छू से लेकर खूंखार जानवर तक इनके पास नहीं फटकते। आसपास कोई अस्पताल नहीं, तो भी कोई समस्या नहीं, इनके भाई-बंधु आदिवासी जडी-बूटियों से ही अपना इलाज करते हैं। पीने का पानी नहीं, चलो जंगल में प्रकृति का दिया तालाब तो है। कमांडो ट्रेनिंग ने इनकी मारक क्षमता को कई गुना बढा दिया है। जंगल ही देवता है, वही पालनहार और वही तारणहार, सरकार के गुड गवर्र्नेंस का नारा अभी इन जंगलियों तक नहीं पहुंचा है। आखिर शहरों की सभ्यता को चीरकर गुंजती मीडिया की चीख-पुकार भी जंगल की सरहदों को पार नहीं कर पाती। इन्हीं के बीच है एक ऐसी आदिम सभ्यता, जो सरकारी हस्तक्षेप के कारण विलुप्त होने के कगार पर है। अगर इनके पास शैंपू या ब्रेड जैसी कोई चीज हो, तो पुलिस एक झटके में इन्हें नक्सली मान लेती है। जरुर शहर में आना-जाना होगा और जो शहर के संपर्क में है, वह माओवादी तो होगा ही। ऐसे खतरनाक लोगों को मारने के लिए सीआरपीएफ के जवानों को जंगल की सरहदों में छोड दिया गया है। बिना जंगल के नियम-कानूनों को समझे, बिना विशेष प्रशिक्षण के, बिना उचित दवाओं और मच्छरदानियों के, माओवादियों से भी ज्यादा खूंखार जंगली जानवरों के बीच।
सर्वाइवल ऑफ द फिटेस्ट, जिसके खिलाफ माओवादी समाज से लड रहे हैं, ही जंगल का कानून है। एक झटके में ही 76 सीआरपीएफ के जवान शहीद हो जाते हैं। ऑपरेशन ग्रीन हंट चलाने वाली सरकार को क्या इस बात का अंदाजा नहीं कि जंगल की लडाई के क्या कायदे-कानून होते हैं? आखिर क्यों सरहद की रक्षा करने वाले जवानों को देश की सीमा के अंदर युध्द जैसी स्थिति पैदा कर मरने के लिए छोड दिया जाता है। 9 फीसदी की विकास दर पर मचलने वाले देश के पास क्या इतना भी पैसा नहीं कि अपने सैनिकों के लिए एक मच्छरदानी भी खरीद सके।
वीर जवानों की शहादत ने कई ऐसे अहम सवाल छोड दिए हैं, जो हमें शर्मसार करते हैं। अब जानकारी मिल रही है कि माओवादियों के पास लाईट मशीन गन भी था, स्वचालित हथियारों से लैस करीब 1000 माओवादियों ने हमले की योजना महज वारदात के कुछ घंटे पूर्व ही बनाई थी। गुरिल्ला वार में माहिर माओवादियों को इस बात की जानकारी थी कि ये जवान आने-जाने के लिए इन्हीं रास्तों का उपयोग करते हैं। त्वरित कार्रवाई करते हुए उन्होंने जवानों पर हमला बोला था। हमारे जवान भी गोला, बारूद खत्म होने तक हमले का जवाब देते रहे। एक लंबी लडाई के लिए जरुरी है कि हमारे जवानों के हौसले बुलंद हों। उन्हें यह महसूस हो कि उनकी शहादत के पीछे देश की इज्जत, प्रतिष्ठा के साथ ही लोकशाही का समर्थन भी है। अगर जंगल में हमलों के दौरान उनका ध्यान जंगली जानवरों, मच्छरों, पीने के पानी की तरफ रहा, तो युध्द में हार निश्चित है। हमारे जवानों का मनोबल ऊंचा रखने के लिए जरुरी है कि उनकी छोटी-छोटी जरूरतों को पूरा किया जाए। उन्हें इलाके की पुख्ता जानकारी हो, माओवादियों की गतिविधियों पर पैनी नजर हो, साथ ही राज्य पुलिस भी खुलकर मदद करे। भूखे-प्यासे और आधे-अधूरे मनोबल से युध्द नहीं लडे ज़ाते।
जवानों को एक साथ दो मोर्चों पर लडना पड रहा है। माओवादी तो समस्या हैं ही, कब कहां से आएं और दन-दनाकर फायरिंग शुरु कर दें। लेकिन एक और हमलावर है जो उनसे ज्यादा फुर्तीला और खतरनाक है, गुरिल्ला वार में तो वह दुनिया की तेज-तर्रार फौज के भी छक्के छुडा सकता है। ये हैं मलेरिया के मच्छर, जो सुनसान जंगलों में जानलेवा साबित होते है, जहां इलाज के लिए दूर-दूर तक कोई अस्पताल नहीं। साथ में कोई डॉक्टर नहीं, जो वक्त-बेवक्त इलाज के लिए आगे आए। बिल्कुल असहाय, उपलब्ध जडी-बूटियों से अनभिज्ञ, धीमे-धीमे बीमार और कमजोर होने के अलावा कोई चारा नहीं। और जंगल का कानून है कि वह कमजोर लोगों का साथ नहीं देता। थके-हारे जवान माओवादियों से लडें या कमजोर साथियों को सहारा दें। कमोबेश जंगल में स्थित सभी कैंप कुछ ऐसे ही हालत से गुजर रहे हैं। तो ये है जंगल का सच, जो दुश्मन देशों के दांत खट्टे करने वाले सैनिकों के मनोबल को भी चकनाचूर कर देता है।
एक ऐसे युध्द में जहां जीत की कोई गुंजाइश नहीं, भूखे-प्यासे जवानों को भेजना कहां तक उचित है? सेना के लिए एक अलग से रसद-सामग्री ले जाने के लिए सैनिकों की टुकडी होती है। दिन में दुश्मनों से लडते समय भी उन्हें पता है कि चलो रात तो भूखे पेट नहीं सोना होगा। ड्राई फ्रूटस के अलावा कई तरह के पौष्टिक आहार सैनिकाें को दिए जाते हैं। लेकिन इस युध्द में क्या हमने उम्मीद लगाई थी कि सीआरपीएफ के जवान भूखे पेट लडक़र भी इन्हें चुटकियों में मसल देंगे। युध्द लडना ही है तो हमें जवानों को मूलभूत सुविधाएं देनी होंगी। जंगल में जवानों का तो ये हाल है कि प्यास लगने पर इन्हें मीलों दूर जाना पडता है। कैंप में पानी के लिए पंप तो लगे हैं, लेकिन बिजली रहे तब तो पानी मिले। जवानों को इस बात का अंदाजा भी नहीं होता कि पानी की तलाश में निकलने पर आगे कोई तालाब भी होगा। एक खतरा ये भी होता है कि माओवादी पानी की तलाश में निकले जवानों पर घात लगा सकते हैं क्योंकि उन्हें पता होता है कि जंगल की भीषण गर्मी जवानों को पानी के ठिकानों की ओर जरुर खींच लाएगी। अगर कभी जलाशय मिलते भी हैं, तो जानवर उसे इतना प्रदूषित कर चुके होते हैं कि ऐसे पानी पीना खुलेआम मौत को आमंत्रण देना होता है।
गुरिल्ला वार से अनभिज्ञ जवान जिन गाड़ियां में थे, वे बारूदी सुरंग निरोधी नहीं थीं बल्कि महज बुलेट प्रुफ थीं। क्या सरकार को इस बात की जानकारी थी कि माओवादियों ने जगह-जगह पर बारूदी सुरंगें बिछा रखी हैं। फिर ऐसे वाहन में उन्हें भेजना, तो सीधे मौत के मुंह में भेजना ही कहा जा सकता है। जांच के दौरान पता चला है कि उस दिन माओवादियों ने जवानों को चारों तरफ से घेर लिया। माओवादी पहाड़ी पर थे और उन्होंने गांव को जोड़ने वाले रास्ते को भी बंद कर रखा था। ऊंचाई पर होने का फायदा उन्हें इस लडाई में मिला। अभी सरकार ने इस बात की घोषणा की है कि जवानों को जंगल में विशेष प्रशिक्षण दिया जाएगा। इन्हें भारी हथियार लेकर पेड पर चढने की भी टे्रनिंग दी जाएगी। एकाएक हमला करने एवं हमले के बाद छुप जाने की ट्रेनिंग भी इसका एक हिस्सा होगा। लेकिन जंगल के चप्पे-चप्पे से वाकिफ माओवादियों से लड पाना जवानों के लिए फिर भी एक चुनौती होगी।
यों भी 76 जानें कोई मामूली नहीं, वीर जवानों की थीं, जिनके प्रशिक्षण पर देश के करोडाें रुपए लगे होते हैं। अगर एक व्यक्ति पर पांच लोग भी निर्भर थे तो इससे 380 लोगों के जीवन में अंधकार और दुख का साया मंडराने लगा है। सरकार को इस बात की तलाश करनी होगी कि आखिर इन इलाकों में माओवादी क्यों एकाएक बढ़े। ये वही इलाके हैं जहां लोग प्यास से मर रहे हैं। ये वही इलाके हैं जहां लोग बीमारी से मर रहे हैं। ये वही लोग हैं, जिन्हें विदेशी कंपनियों के लिए अपने घरों से उजाडा जा रहा है। ये वही लोग हैं, जिनकी याचना को सरकार हमेशा अनसुनी करती आई है। सरकार को ये बात समझनी होगी कि खून चाहे इधर बहे या उधर बहे, अपना ही है। इनसे लडने वाले कई जवानों की भी शायद वही पारिवारिक पृष्ठभूमि हो। जवानों को भी जानकारी है कि वे ऐसी लडाई में अपनी जान गंवा रहे हैं, जिसका कोई सैनिक हल नहीं। भूखों को बुलेट नहीं, रोटी चाहिए। ऐसे में देश के दुश्मनों से लडने वाला मनोबल उनके सामने नहीं होता। और जब मनोबल में दुश्मनों को मारने वाला जज्बा न हो, तब हथियार तो कुंद हो ही जाएंगे।
दिल्ली के वातानुकूलित कमरों में बैठकर युध्द के नियम बनाने तो आसान हैं, लेकिन जमीन पर लडने वाले जवानों की असली समस्याओं को समझ पाना मुश्किल। जवानों की शहादत पर घडियाली आंसू बहाने वाले राजनेताओं को इनके प्रति मानवीय रुख अपनाना होगा। पिछले दिनों सुप्रीम कोर्ट ने युध्द लडने वाले सैनिकों के साथ भिखारियों की तरह व्यवहार करने के लिए केंद्र सरकार को फटकार लगाई। अपने फैसले में सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि राजधानी के किसी हिस्से में भीख मांगकर गुजारा करने वाला व्यक्ति भी हर रोज एक हजार रुपए कमा लेता है, और हम दुनिया की सबसे ऊंची चोटी पर जंग लडने वाले सिपाहियों को एक हजार रुपए महीने भत्ता दे रहे हैं, जिसने इस जंग में अपने हाथ तक गंवा दिए हों। क्या बहादुर सैनिकों के साथ व्यवहार करने का सरकार का यही तरीका है? क्या कोर्ट की इस फटकार के बाद सरकार से अपने जवानों के प्रति संवेदनशील होने की उम्मीद की जा सकती है? अगर हालात यही रहे और देश पर जान देने वालों का जज्बा कम हो गया, तो यकीन मानिए, यह देश के अब तक के हुए बडे हादसों से सौ गुना अधिक होगा।
aapki chinta jayaz hai...poori duniya me sitamgaron ki tadaad badhti ja rahi hai. har aur hahakar macha hai, har aur aag lagi hai.. ye kis yug me jee rahe hain hum???
bahut gambhir samasya ki or apne ungli uthai hai lekin behron ko munadi kitni bhi tez ho sunai nahi deti
क्या सानदार लिखा सर आपने दो तिन बार चट कर गया |समस्या हमारे देश के नकास्ल्वाद और माओवाद नहीं |
असली समस्या को जानना बहुत जरुरी है |
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