Visit blogadda.com to discover Indian blogs कठफोड़वा: सिद्दांत-विमर्श

सिद्दांत-विमर्श

एक महान दर्शनशास्त्री ने एक बार बताया था कि इतिहास का अंत हो गया है काफी बहस हुआ इतिहासकार सकते में आ गए ढेर सारे लोगों ने इतिहास के अंत की बात को नकार दिया इस दर्शनशास्त्री ने लोगों की भावनाओं के साथ काफी खिलवाड़ किया इतिहास का अंत तो किया ही भगवान् को भी मार दिया लोगों को अपना भविष्य अंधकार में दिखने लगा अगर इतिहास ख़तम हो गया तो दोहराया क्या जाएगा?

समय के परिप्रेक्ष में अगर वर्तमान परिस्थितियों की बात करें तो सब कुछ खुला-खुला दिखता है लेकिन उतना ही बंधा जितना आदमी अपने इतिहास के समक्ष और अब आप को लगेगा कि वर्तमान परिस्थितियों का जब सीधा सम्बन्ध इतिहास के साथ होता है तो इसमें नया क्या है? लेकिन घटनाओं के घटने की प्रक्रिया के साथ में मुझे याद आता है की कई सिद्दांत दिए गए हैं जो संभवत: एक दुसरे को काटते दिखते हैं जैसे "इतिहास अपने आप को दुहराता है" इसे बाद में किसी ने पूरी तरह यह कहते हुए काट दिया की "इतिहास अपने आप को कभी भी नहीं दुहराता है" यहाँ पर किसी विवाद की जरुरत नहीं है बेसक दोनों सिद्दांतो को चलन में लाने वालों के मध्य देश-का ल-वातावरण के मद्दे-नज़र विभिन्न परिस्थितियां रही होंगी जिसके चलते उनके अनुभवों एवं अध्ययनों में पर्याप्त विवाद देखने को मिला जिससे दो अलग-अलग थेओ री चलन में आई चलन में आने कि बात को मै ज्यादा दबाव दे कर क्यों कह रहा हूँ यह भी समझ लेना चाहिए किसी ने पहले ही बता रखा है कि- आप जो भी कर रहे हैं ये पहले किया जा चूका है, आप जो भी कह रहे हैं ये पहले कहा जा चुका है, आप जो सोच रहे हैं ये पहले सोचा जा चुका है अब अगर इस थेओरी के मूल में जाए तो यह भी अपने आप सिद्ध हो जाएगा कि चीज़े और घटनाएं लगा तार अपने आप को दूहरा रही हैं फिर उस "कभी नहीं" दोहराने वाले सिद्दांत का क्या होगा?

एक
महान दर्शनशास्त्री ने एक बार बताया था कि इतिहास का अंत हो गया है काफी बहस हुआ इतिहासकार सकते में आ गए ढेर सारे लोगों ने इतिहास के अंत की बात को नकार दिया इस दर्शनशास्त्री ने लोगों की भावनाओं के साथ काफी खिलवाड़ किया इतिहास का अंत तो किया ही भगवान् को भी मार दिया लोगों को अपना भविष्य अंधकार में दिखने लगा अगर इतिहास ख़तम हो गया तो दोहराया क्या जाएगा? इतना ही काफी नहीं था ९० के दशक में एक और जैविक इतिहासकार ने इतिहास के खात्मे पर नये तरीके से सोचना शुरू किया कुछ और प्रमाणों-अनुभवों-घटनाओं की बदौलत दुबारा यह साबित किया गया की इतिहास का अंत हो गया है लेकिन तकनीकी आधुनिकीकरण और अमेरिका के नित नये हस्तछेप से वैश्विक व्यवस्था में बदलाव ने इस दर्शनशास्त्री को दुबारा सोचने पर मजबूर कर दिया और उसने खुद अपनी ही थेओरी को गलत साबित कर दिया

लेकिन थोडा और आगे बढे मै तो इतिहास की व्याख्या में उलझ गया और मूल बा से भटक गया आगे की बात करते हैं एक और सिद्दांत आया "इतिहास अपने आप को निश्चित मात्रा एवं निश्चित अनुपात एवं निश्चित समयावधि में अपने आप को दुहराता है" बहुत सालों तक यह एक बहस का मुद्दा बना रहा की इस निश्चित मात्रा की व्याख्या कैसे हो सकती है इस 'निश्चित' को निर्धारित कैसे किया जाए ऐसी ही एक स्थिति पहले भी इतिहास के समक्ष आ चुकी है यह बात तब की है जब सारा विश्व जनसँख्या बढ़ाने को लेकर एकमत था अगर बच्चों के पैदा करने पर कोई अंकुश लगाने की बात करता तो उसे दंड तक दिया जाता था इन कठिन दिनों में एक महानुभाव ने कुछ देशो की यात्रायें की और निष्कर्ष निकला की "प्रकृति ने खाने की मेज सिमित व्यक्तियों के लिए लगाई है और जो भी बिना निमंत्रण के आएगा उसे अवस्य ही भूखो मरना होगा" और तभी डर की नयी प्रभुसत्ता का जन्म हुआ वही डर जो कभी देवी-देवताओं के जन्म का कारण बना था उसी डर को 'प्राकृतिक अवरोध' के रूप में इस्तेमाल किया जाने लगा गया लेकिन समय के साथ-साथ जैसे-जैसे इतिहास बड़ा होता गया इसके पीछे का झूठ और सिद्दांत का प्रयोगात्मक पक्ष सामने आने लगा और तब निश्चित अनुपात एवं समयावधि की अवधारणा पर आधारित नये विकल्प का जन्म हुआ एक देश के संसाधनों एवं उपभोग के आधार पर अनुकूलतम स्तर निर्धारित करने की बात कही गयी गयी लेकिन किसी प्रमाणिक मापन के नहीं होने की वजह से यह भी विफल करार दे दिया गया

तो इस प्रकार यह बात देखने में आती है कि कई सिद्दांत एक दुसरे को काटते तो हैं लेकिन बावजूद इसके इनका विकास एवं प्रचलन मानव सभ्यता एवं समाज के निरंतर विकास का प्रतीक है

नीरज कुमार

Comments :

3 comments to “सिद्दांत-विमर्श”
बेनामी ने कहा…
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bahut badhiya

बेनामी ने कहा…
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bhai saheb siddanton ka ant to mat karo
ye saare pothi-patre dhare ke dhare rah jaayenge

abhishek ने कहा…
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नीरज, आपका आखरी वाक्य एकदम सही है! आपने इतिहास और सिध्हांत में अच्छा घालमेल किया है और अंत में उसे साफ़ भी किया है! घालमेल इसलिए कहूँगा की पहले के लोगों ने भी घालमेल किये जिसकी बदौलत हम कुछ नतीजों पर पहुचे! लोगों ने कहा, " इतिहास अपने आपको दुहराता है! ; इतिहास अपने आपको कभी नहीं दुहराता है! ; "इतिहास अपने आप को निश्चित मात्रा एवं निश्चित अनुपात एवं निश्चित समयावधि में अपने आप को दुहराता है!" फिर लोगों ने भगवान की बात भी की! असल में इतिहास और कुछ नहीं है बल्कि, अपने समूचे अस्तित्वा के साथ मानव सभ्यता के संग्रह में समाये हुए यादों का संचयन है!

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