पर वह कुहरा नहीं था
वह तो जिन्दगी और मौत के बीच की धुंध थी
आज तक बहता है आंखों से पानी
मोमबत्ती की रोशनी भी नहीं पी पाती हैं, ये आंखें
शोपीस से पैदा होते हैं बच्चे
लाखों आंखों में ऐनक हैं
जिनमें रह-रह कर दिखती हैं, 3 दिसंबर की काली रात
काश वो कुहरा ही होता .............. !!
त्रासद तो यह है कि
हम जान की बाजी लगाकर भी दर्शक ही रहे
नहीं बन पाये हिस्सा, इस खेल का
त्रासद तो यह भी है कि, हम अभी भी कुहरे में ही जी रहे है !!
काश वो कुहरा ही होता ..............!!
गुड्डा गुडिया, गुरुवार, 3 दिसंबर 2009साथियों
यह कविता मैंने विगत वर्ष लिखी थी लेकिन आज गैस काण्ड की २५ वी बरसी पर आपके बीच मैं रख रहा हूँ |
वो भ्रम ही तो था
उस धुंध को चंद तो कुहरा ही समझ बैठे थे
काश वो कुहरा ही होता ..............!!
खेल चल रहा है, कंपनी और सरकारों के बीच
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