साहित्यिक जगत में 'बचपन' की सेंकडों परिभाषाएं मिल जाएँगी। हर तरह की कहानियाँ, उनके लिए, और उनके बारे में लिखी गई हैं । पर कुछ किरदार अपनी सरलता और मन के भोलेपन से एक पाठक का दिल जीत लेते हैं। वह अपना एक स्थान बना लेते हैं जिससे की एक पिता अपनी पुत्री में 'लाली', या एक माँ अपने पुत्र में 'ईदगाह' के उस बालक को ताकती है जो अपने लिए सोचने से पहले उसके लिए सोचेगा।
पर क्या सत्य सच-मुच साहित्य से परे है? क्या आज भी 'बचपन' अपने बचपन की सभी भावनाओं को सहेज कर रख पाया है? कई बार अंग्रेज़ी में “लॉस ऑफ़ इन्नोसेंस” का प्रयोग होता है, अर्थात “मासूमियत का खो जाना”। ऐसा कहते हैं, की आज कल के हाई-टेक बच्चे अपना बचपन खो चुके हैं । उम्र से पहले ही उन्हें बड़ा कर दिया गया।
हम सब पर एक अजब सा जादुई चश्मा चढ़ गया है जिसके चलते हम अपने बच्चों में अब लिटिल चेम्प्स, इंडियन आइडल, कॉमेडी किंग और जाने कौनसे किरदारों को तलाशते हैं । अब कोई माँ अपने बालक को ईदगाह के पात्रो सा नहीं चाहती क्यूंकि उससे उसका बालक बाकियों से पिछड़ जाएगा। हमारी आशाओं के माप दंड बदल गए हैं।
और एक बहुत बड़ा कारण है हमारा साहित्य से दूर होजाना ।आज भी हमें ऐसे कई व्यक्ति मिल जायेंगे जिन्होंने अपने जीवन में पाठ्यक्रम की पुस्तकों के अलावा किताबो को हाथ नहीं लगाया। वह इसमें गर्व महसूस करते हैं की उन्होंने कुछ पढा नहीं है। में नहीं समझती की इन सब के लिए आधुनिकता को कोसना सही है।
हाँ आधुनिकता ने हमें सुविधाएं दी पर सुविधाएं हम पर थोपी नहीं। पहले विकल्प नहीं थे जानकारी पानी के इसलिए पुस्तक और लिखित शब्द पवित्रता अविवाद्य थी।
आज हमारी कल्पना रहमत (काबुलीवाला) के भाँती ठहर गई है। रहमत के लिए मिनी दस साल बाद भी एक बच्ची ही थी। वैसे ही कहीं मैं आज भी इनके बचपन में अपना बचपन खोज रही हूँ । वही बचपन जो रोज़ नई कहानिया पढ़ कर एक नई दुनिया में रम जाता था।
आज का बचपन पंचतंत्र, जातक कथाएँ या अकबर बीरबल के किस्से सब चीज़ों ने टीवी/ कार्टून आदि के मध्यम से देखता है। इससे उनकी काल्पनिक योग्यता क्षीण होती जा रही है।
आज कल किसी और की कल्पना से बने भीम, राम, लक्ष्मन, हनुमान हमारे सामने आ कर कहानिया पेश करते थे। आज मेरे मान में जो टनल रामन बस्ता वोह बिलकुल वैसा ही है जैसा आपके। जबकि पहले हर बच्चे के मन में इन्ही पात्रों की एक अलग छवि बस्ती थी ।
हर्री पोट्टर जैसी किताबें इस को उभरने की कोशिश करते हैं । पर जब इन्ही पर सिनेमा की नज़र लग जाती है। फिर से वही दूरियां आजाती हैं। हम किरदारों की किसी और की नज़र से देखते हैं।
वास्तविकता और कल्पना का समागम साहित्य के पन्नो में जरूर अपनी जगह बना रह है। पर क्या यह बचपन के बचपने को कहीं गुम होने पर मजबूर कर रहा है। हमें एक नया रास्ता खोजना होगा जिससे की इस दोराहे को हम एक साथ एक पथ पर जोड़ सके. समय के साथ चलने में कोई बुराई नहीं है. पर समय से पहलने बदलने में कैसी समझदारी?
यह सिर्फ एक सोच है जिसको में उन सभी लोगों तक पहुँचाना चाहती हूँ जो बच्चों को सिर्फ अपना ही एक छोटा रूप समझते हैं. रोलैंड बार्थ के एक निबंध में इस बात को बहुत ही गंभीरता से दर्शाया गया है. उनका कहना है की खिलौने भी बच्चों के नज़रिए से बनने बंद हो गए हैं. वह केवल वही चीज़ें हैं जिन्हे हम चाहते है की बच्चे पसंद करें. अगर हमें जंग/ लड़ाई अच्छी लगती है तोह एक बन्दुक हमारे लिए बाचे के खिलौने का रूप ले लेती है. तो चाहे वह सिर्फ एक फटे टायेर की ट्यूब और डंडे से ही खुश हो. हम उसे वही खिलौना ला कर देंगे जो की हमारी नज़रों में उसके लिए ठीक है.
में जानती हूँ की हर माँ बाप बच्चे की भलाई चाहता है. पर कहीं न कहीं हम उन पर वह चीज़ें थोपना चाहते हैं जो की हम नहीं कर पाए या फिर हम चाहते थे की हम करें. अपने सपने बच्चों की नज़रों से देखने में कोई बुराई नहीं है. बस यह ध्यान रहे की कहीं उस बीच हम उनके सपने ना तोड़ दे.
पर क्या सत्य सच-मुच साहित्य से परे है? क्या आज भी 'बचपन' अपने बचपन की सभी भावनाओं को सहेज कर रख पाया है? कई बार अंग्रेज़ी में “लॉस ऑफ़ इन्नोसेंस” का प्रयोग होता है, अर्थात “मासूमियत का खो जाना”। ऐसा कहते हैं, की आज कल के हाई-टेक बच्चे अपना बचपन खो चुके हैं । उम्र से पहले ही उन्हें बड़ा कर दिया गया।
हम सब पर एक अजब सा जादुई चश्मा चढ़ गया है जिसके चलते हम अपने बच्चों में अब लिटिल चेम्प्स, इंडियन आइडल, कॉमेडी किंग और जाने कौनसे किरदारों को तलाशते हैं । अब कोई माँ अपने बालक को ईदगाह के पात्रो सा नहीं चाहती क्यूंकि उससे उसका बालक बाकियों से पिछड़ जाएगा। हमारी आशाओं के माप दंड बदल गए हैं।
और एक बहुत बड़ा कारण है हमारा साहित्य से दूर होजाना ।आज भी हमें ऐसे कई व्यक्ति मिल जायेंगे जिन्होंने अपने जीवन में पाठ्यक्रम की पुस्तकों के अलावा किताबो को हाथ नहीं लगाया। वह इसमें गर्व महसूस करते हैं की उन्होंने कुछ पढा नहीं है। में नहीं समझती की इन सब के लिए आधुनिकता को कोसना सही है।
हाँ आधुनिकता ने हमें सुविधाएं दी पर सुविधाएं हम पर थोपी नहीं। पहले विकल्प नहीं थे जानकारी पानी के इसलिए पुस्तक और लिखित शब्द पवित्रता अविवाद्य थी।
आज हमारी कल्पना रहमत (काबुलीवाला) के भाँती ठहर गई है। रहमत के लिए मिनी दस साल बाद भी एक बच्ची ही थी। वैसे ही कहीं मैं आज भी इनके बचपन में अपना बचपन खोज रही हूँ । वही बचपन जो रोज़ नई कहानिया पढ़ कर एक नई दुनिया में रम जाता था।
आज का बचपन पंचतंत्र, जातक कथाएँ या अकबर बीरबल के किस्से सब चीज़ों ने टीवी/ कार्टून आदि के मध्यम से देखता है। इससे उनकी काल्पनिक योग्यता क्षीण होती जा रही है।
आज कल किसी और की कल्पना से बने भीम, राम, लक्ष्मन, हनुमान हमारे सामने आ कर कहानिया पेश करते थे। आज मेरे मान में जो टनल रामन बस्ता वोह बिलकुल वैसा ही है जैसा आपके। जबकि पहले हर बच्चे के मन में इन्ही पात्रों की एक अलग छवि बस्ती थी ।
हर्री पोट्टर जैसी किताबें इस को उभरने की कोशिश करते हैं । पर जब इन्ही पर सिनेमा की नज़र लग जाती है। फिर से वही दूरियां आजाती हैं। हम किरदारों की किसी और की नज़र से देखते हैं।
वास्तविकता और कल्पना का समागम साहित्य के पन्नो में जरूर अपनी जगह बना रह है। पर क्या यह बचपन के बचपने को कहीं गुम होने पर मजबूर कर रहा है। हमें एक नया रास्ता खोजना होगा जिससे की इस दोराहे को हम एक साथ एक पथ पर जोड़ सके. समय के साथ चलने में कोई बुराई नहीं है. पर समय से पहलने बदलने में कैसी समझदारी?
यह सिर्फ एक सोच है जिसको में उन सभी लोगों तक पहुँचाना चाहती हूँ जो बच्चों को सिर्फ अपना ही एक छोटा रूप समझते हैं. रोलैंड बार्थ के एक निबंध में इस बात को बहुत ही गंभीरता से दर्शाया गया है. उनका कहना है की खिलौने भी बच्चों के नज़रिए से बनने बंद हो गए हैं. वह केवल वही चीज़ें हैं जिन्हे हम चाहते है की बच्चे पसंद करें. अगर हमें जंग/ लड़ाई अच्छी लगती है तोह एक बन्दुक हमारे लिए बाचे के खिलौने का रूप ले लेती है. तो चाहे वह सिर्फ एक फटे टायेर की ट्यूब और डंडे से ही खुश हो. हम उसे वही खिलौना ला कर देंगे जो की हमारी नज़रों में उसके लिए ठीक है.
में जानती हूँ की हर माँ बाप बच्चे की भलाई चाहता है. पर कहीं न कहीं हम उन पर वह चीज़ें थोपना चाहते हैं जो की हम नहीं कर पाए या फिर हम चाहते थे की हम करें. अपने सपने बच्चों की नज़रों से देखने में कोई बुराई नहीं है. बस यह ध्यान रहे की कहीं उस बीच हम उनके सपने ना तोड़ दे.
लौट आओ बचपन की करूण पुकार हमें अंदर तक मर्माहत करती है। लेकिन एक बात आज तक समझ नहीं पाया हूं कि हमें अतीत से इतना लगाव क्यों है। आखिर इसकी वजह क्या हो सकती है।क्यों बचपन हमें अपनी अनजानी गलियों में बार बार पुकारती है। हम खींचे चले जाते हैं- इस बचपन की पुकार की ओर। क्या जिंदगी की लडाइयों को झेलते हुए आगे बढना,रोज गिर गिर कर उठना,फिर एक नई लडाई की तैयारी -ये भी तो जिंदगी का एक सच है। इससे भी किसी को प्यार हो सकता है। लेकिन हम इन संघषों से बचकर निकलना चाहते हैं। ये हमें नहीं लुभाती। मां की गोद में सर रखकर सो जाने का अलग मजा होता है। जहां कोई चिंता,कोई फिक्र करने की जरूरत नहीं। पर क्या यही जिंदगी है हम बडे कब होंगे और जीवन के संधषो को बचपन की तरह ही प्यार करना कब सीखेंगे। रूमानी कल्पनाओं से दूर जिंदगी के यथार्थ धरातल से टकराने का मजा ही कुछ और है। यहां रोज आप अपनों की पहचान करना सीखते हैं। समुद्र से टकराकर लौटने वाली लहरें हर बार कुछ नयापन लेकर जाती हैं। अब उससे कोई कहे कि तुम चटटानों से क्यों टकराते हो। तो शायद वो हमारे मासूम से सवाल पर हंसेगा ही। खैर मैं रिद्धी के विचारों से कुछ हद तक सहमत हूं। जहां वे अपने विचारों को बच्चों पर थोपने की बात करती हैं। समस्या तो ये है कि हम उन मासूमों से उनका बचपन छीन रहे हैं। प्ले स्कूल से लेकर नर्सरी के जाल में उलझे पैरेंटस अपने सपनों की बोझ उनपर लादने से नहीं चूकते। मेटो कल्चर ने जरूर उनका बचपन छीन लिया है। दुख इस बात का तो जरूर है। कूडा बीनते बच्चों,छोटी-छोटी खुशियों की तलाश में हाथ पसारते बच्चों, नट की तरह करतब दिखाकर झोली फैलाते बच्चों के बचपने के बारे में क्या ख्याल है खुशी है कि एनजीओ के लूट कल्चर से दूर रिद्धी कुछ बेहतर करने की सोच रही है। मेरी ओर से उन्हें नए साल की ढेरों बधाइयां।