Visit blogadda.com to discover Indian blogs कठफोड़वा: 2010

मेरी नई ग़ज़ल

मैं अपने हाथ में रखता हूं अब चाबी मुकद्दर की ।

ये दौलत भी मेरे अजदाद ने मुझको थमाई है ।।


वो होंगे और जो मुश्किल में तुमको देखके चल दें ।

मेरे मां बाप ने मुझको अलग आदत सिखाई है ।।


दे देंगे जान लेकिन बाज हम फिर भी न आएंगे ।

ये ज़िद मेरी अभी तक की उमर भर की कमाई है ।।


मैं हूं जिस हाल में खुश हूं मुझे छेड़ो न तुम ज्यादा ।



ये दौलत जो तुम्हें बख्शी गई हमने लुटाई है ।।


सफर में जो गए बाहर वो फिर वापस नहीं लौटे ।

कि हमने गांव में टिककर ही ये इज्जत बनाई है ।।


हमारे साथ तू न थी तो यही अंजाम था मेरा ।

बताओ हाल-ए-दिल मेरा तुम्हें किसने सुनाई है ।।

अंधरे समय के विरुद्ध, मुश्किलों से जूझती रोशनी के लिए आईये एक दीप जलाएं

एक दो भी नहीं छब्बीस दिये

एक इक करके जलाये मैंने

इक दिया नाम का आज़ादी के
उसने जलते हुये होठों से कहा
चाहे जिस मुल्क से गेहूँ माँगो
हाथ फैलाने की आज़ादी है

इक दिया नाम का खुशहाली के
उस के जलते ही यह मालूम हुआ
कितनी बदहाली है
पेट खाली है मिरा, ज़ेब मेरी खाली है

इक दिया नाम का यक़जिहती के
रौशनी उस की जहाँ तक पहुँची
क़ौम को लड़ते झगड़ते देखा
माँ के आँचल में हैं जितने पैबंद
सब को इक साथ उधड़ते देखा

दूर से बीवी ने झल्ला के कहा
तेल महँगा भी है, मिलता भी नहीं
क्यों दिये इतने जला रक्खे हैं
अपने घर में झरोखा न मुन्डेर
ताक़ सपनों के सजा रक्खे हैं

आया गुस्से का इक ऐसा झोंका
बुझ गये सारे दिये-
हाँ मगर एक दिया, नाम है जिसका उम्मीद
झिलमिलाता ही चला जाता है

-कैफ़ी आज़मी

दिल्ली मैं है अब काम नहीं, काम न वेल्थ




सर पर गठरी |
हाथ में छोटे से बच्चे की छोटी छोटी उंगलियाँ, और एक बच्चा गोद में |
सूखा पड़ा गाँव मैं, जीने की कोई गारंटी नहीं |
खचाखच भरा प्लेटफार्म, दिल्ली जाने की होड़ |
पारा 40 पार, स्टेशन पर पानी नहीं |
असमंजस में माँ, कि पानी ढूंढे या रेल |
मैली, कुचैली सी एक थैली में एक छोटी सी पोटली |
पोटली में छिपा है एक खजाना |
40 रूपये के बंधे नोट और कुछेक सिक्के |
और साथ में है बासी रोटियों का खजाना |
जब जब बिलखेंगे बच्चे, देखेंगे माँ की और बड़ी ही आस से,
दे दी जाएगी चूसने को यही रोटी, लोलीपॉप की तरह |
रेल आई, वह कब चढ़ी, पता नहीं , भीड़ जो बहुत थी |
कहने को तो रेल बहुत बड़ी थी, 20 डिब्बे रहे होंगे
पर उसके और उसके जैसों के लिए तो 2 ही डिब्बे थे, एक इंजन से लगा और एक पीछे को |
जब झपकी खुली तो मथुरा में गिनती चल रही थी, लोगो की, सबको उतारा जा रहा है वहीँ पर
दिल्ली में अब काम नहीं है, वहां काम न वेल्थ है |
वह अब खड़ी है प्लेटफार्म पर
और सोच रही है कि, जाये तो जाये कहाँ ??????

प्रशांत कुमार दुबे

किस भाँति जगे जन चेतनता....









प्रसिद्ध साहित्यकार -डॉ० तुकाराम वर्मा
के स्वर में उनके दो छंदो का आस्वादन
कीजिए।


प्रस्तोता
-डॉ० डंडा लखनवी

बाढ़ किसी भी वक़्त आ सकती है

इस कविता की हस्तलिखित प्रति मेरे पास सुरक्षित है और कवि का हस्ताक्षर है नाम नहीं है। जिस कवि की ये रचना हो वो कृपया सूचित करे जिससे उसके नाम पर इसे दुबारा प्रकाशित किया जा सके- सूर्या

देह की तलहटी में जमी हुई काई

और गुस्से के उपर

ठहरा हुआ रक्त

चरमराती हुई हड्डियों

से पूछता है

कब तक चलेगा बाँध?

बाढ़ किसी भी वक़्त आ सकती है.

कचरा सेठ

डायन

डायन है सरकार फिरंगी, चबा रही हैं दांतों से,
छीन-गरीबों के मुहं का है, कौर दुरंगी घातों से।
जिस तरह से एक समय में फिरंगी सरकार डायन थी उसी तरह से आज महंगाई डायन हो गयी है. उस फिरंगी सरकार और वर्तमान सरकार के बीच कई दशकों का फासला है लेकिन अभिव्यक्ति के स्वर और उनके आयाम नही बदले. आखिर इस सरकार और महंगाई के लिए कोई पुरुष उपमा भी तो दी जा सकती थी ?

यह पहली बार नही है जब डायन शब्द का इस्तेमाल समाज में व्याप्त किसी बुराई को दर्शाने के लिए किया गया हो. रांगेय राघव ने फिरंगी सरकार की फितरत बताने के लिए डायन का इस्तेमाल किया था लेकिन आज इस दौर में जब डायन प्रथा निरोधी अधिनियम को लागू किया जा रहा है वहां महंगाई को डायन का रूप देने से स्त्री की पहचान और छवि को गहरा आघात लग सकता है.

हमारे देश में जादू-टोना करने वाले पुरुष को ओझा कहा जाता है जिसको समाज में सम्मान की नज़रों से देखा जाता है लेकिन वहीँ ऐसी महिलाओं को डायन कहा जाता है और डायन की छवि ऐसी बन गयी है की वह किसी को भी अपने जादू-टोने से ख़तम कर सकती है पीपली लाइव के शब्दों में-सखी सैयां तो खूबे कमात हैं, महंगाई डायन खाए जात है. इस गाने की लोकप्रियता एक तरफ तो महंगाई की मार झेल रहे लोगों की आवाज बन रही है दूसरी तरफ उन सैकड़ों महिलाएं जिनका डायन के नाम पर पुरुष समाज शोषण कर रहा है उनके शोषण को बढ़ावा भी दे रहा है जो की सीधे-सीधे एक कुप्रथा और अन्धविश्वास को बढ़ावा देना है 

जिस तरह से एक समय में फिरंगी सरकार डायन थी उसी तरह से आज महंगाई डायन हो गयी है. उस फिरंगी सरकार और वर्तमान सरकार के बीच कई दशकों का फासला है लेकिन अभिव्यक्ति के स्वर और उनके आयाम नही बदले. आखिर इस सरकार और महंगाई के लिए कोई पुरुष उपमा भी तो दी जा सकती थी ? सवाल सिर्फ इतना ही नही है बल्कि मानसिकता का है. असल में हमारे पुरुष-प्रधान समाज ने अपने मतलब की खातिर डायन की ऐसी छवि विकसित की है जो गाँव के लोगों पर काला जादू करती है और उन्हें अपने वश में कर लेती है और उनसे अपना मनमाना काम कराती है लेकिन सच्चाई कुछ और है बिहार-झारखण्ड में हर साल सैकड़ों महिलाएं इसकी शिकार बनाई जाती है, किसी को नंगाकर गाँव में घुमाया जाता है, किसी को पेंड से बाँधकर पीटा जाता है, किसी को जिंदा जला दिया जाता है  और कितनो की तो मार-मारकर हत्या कर दी जाती है. 

रवीन्द्र केलेकर को श्रद्धांजलि

गाँधीवादी विचारक, कोकणी एवं मराठी के शीर्षस्थ लेखक और पत्रकार रवीन्द्र केलेकर का कल गोवा में देहावसान हो गया। कोंकणी भाषा के लिए दिए गए पहले ज्ञानपीठ पुरस्कार से सम्मानित रवीन्द्र केलेकर का जन्म सन १९२५ में हुआ था। उनकी अभी तक कोंकणी, हिन्दी व मराठी में विविध विधाओं के अंतर्गत बत्तीस से अधिक पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी है।

केलेकर का लेखन संघर्षशील चेतना की अदभुत अभिव्यक्ति है। उन्होंने व्यक्तिगत जीवन की कथा-व्यथा न लिखकर जन-जीवन के विविध, पक्षों, मान्यताओं और व्यक्तिगत विचारों को देश और समाज के परिप्रेक्ष्य में प्रस्तुत किया है। अनुभवी विमर्श से अपने चिन्तन की मौलिकता के साथ ही विविध प्रसंगों के माध्यम से मानवीय सत्य तक पहुँचने की सहज चेष्टा है। उन्हें ज्ञानपीठ पुरस्कार के अलावा पद्मभूषण, भाषा भारती सम्मान, साहित्य अकादमी अनुवाद पुरस्कार, गोवा कला अकादमी पुरस्कार, केंद्रीय हिन्दी निदेशालय पुरस्कार, गोमन्त शारदा पुरस्कार आदि प्राप्त हो चुके हैं।

कैसे

यहाँ हर दिल में है दोज़ख की आग, उसको बुझायें कैसे,
ज़मीन की इस जन्नत को फिर से जन्नत बनाएं कैसे।

पत्थर कश्मीर कि सड़कों पर गिर कर भी घिसते नहीं,
हिन्दुस्तां हर पत्थर से आज़ादी का नाम मिटाये कैसे।

चाहते तो ये हैं कि बदल दें जो खुदा ने तकदीर में लिखा,
पर उसके कागज़ पर उसका हि दस्तख़त हम बनाएं कैसे।

ऐ तेहरीक के अजनबी, जो लब्ज़ लिखे थे तुम्हारी शहादत
के पहले, अब हर उस कसीदे को मर्सिया हम बनाएं कैसे।

फुरसत हो, ऐ नबी, तो फिर से आना हमारी दुनिया में,
ये न सोचना कि इतना होने के बाद अब हम जाएँ कैसे।

ख़त तो तुम लिखने बैठे, अखिल, पर इस वतन में डाकखाने

हि नहीं, अब अपना पैगाम उस मुल्क तक पहुँचवायें कैसे।




akhilkatyalpoetry.blogspot.com

लिखता हूं, ताकि कुछ तो हलचल हो-प्रेमपाल शर्मा

कहानी-लेखन का विचार सबसे पहले कैसे आया?
मैं पश्चिम उत्तरप्रदेश के एक गांव में पैदा हुआ हूं। घर का पुश्तैनी काम खेती करना था। अक्सर मेरा बचपन खेल में हल चलाते ही बीता है। हालांकि पिताजी प्राइवेट नौकरी में थे। घर में साहित्यिक पत्रिकाएं आती रहती थीं। कहानियों से मेरा पहला परिचय उन्हीं किताबों को पढक़र हुआ। प्रेमचंद को मन से पढा। मन्मथनाथ गुप्त के क्रान्तिकारी विचारों ने काफी प्रभावित किया। इसी मोड पर मेरी पहली कहानी 'ऊपरी व्याधा' आई, जिसमें पडाेस में रहने वाली एक भाभी का जिक्र है, जो काफी झगडालू स्वभाव की है। उसपर अक्सर गांव की भाषा में कहें तो भूत आ जाता था। ऐसा करने के पीछे कारण यह था कि उसे लोगों की सहानुभूति मिल जाती थी। उसके बाद कहानी आई 'दलित दोस्त'। वह एक बडे परिवार से आता था। मेरे घर उसका बराबर आना-जाना था। गांव के माहौल में ये चीजें अलग रूप न ले लें, इस बात से भी डरा रहता था। मैंने मां को कभी उसकी जाति के बारे में नहीं बताया। दरअसल दिमाग में ये था कि आखिर बताऊं भी तो क्यों बताऊं? तीसरी कहानी आई 'दोस्त' जो बाद में किसी और नाम से छपी। इसके बाद 'मां और बेटा' जिसमें एक ऐसे दोस्त का जिक्र है जो अपनी मां की मौत को भी बहुत ही हल्के रूप से लेता है। इसके बाद तो कहानी लिखने का लंबा सिलसिला चलता रहा।

साहित्यिक पत्रिकाओं में छपने का सिलसिला कब शुरू हुआ?
'सारिका' में एक नियमित कॉलम छपता था 'आते हुए लोग' जिसमें मेरी पहली कहानी छपी 'तीसरी चिट्ठी'। तब तक मेरी नौकरी दिल्ली के रेल विभाग में लग चुकी थी। नौकरी के एक दो साल बाद जब गांव जाना हुआ, तो आस-पास के लोग कहने लगे- 'बेटा, अब तुम तो दिल्ली में सेटल हो ही गए हो, तो मेरे बच्चे को भी कहीं ढंग की जगह पर लगा दो।' हालांकि उन दिनों भी किसी के लिए नौकरी लगाने की स्थिति बडी विकट होती थी। बीच-बीच में नौकरी से जब समय मिलता, इधर-उधर हाथ भी मारता रहता था। लेकिन जब उसकी गांव में शादी हो गई, तो सोचा बुला ही लेता हूं दिल्ली। परिवार के लोगों ने कहा-भई, बुला तो लोगे, पर रखोगे कहां। उन दिनों किराए के छोटे से कमरे में रहना होता था। पत्नी की चिंता भी जायज थी। असमंजस में चिट्ठी का जवाब ही नहीं दिया। बाद में पता चला कि उसने पारिवारिक परेशानियों से आजिज होकर किसी सिंदूर फैक्ट्री में नौकरी कर ली, जिसके रासायनिक वातावरण में काम करने से उसको सांस की बीमारी रहने लगी और जल्द ही उसकी मौत भी हो गई। आज भी उस घटना को याद करता हूं तो सिहर जाता हूं। एक ही बात जेहन में रहती है कि काश, उसको दिल्ली ही बुला लिया होता। इस कहानी के बाद तो हंस, सारिका, दिनमान, आजकल में छपने लगा। लोग पूछते हैं कि गांव पर ज्यादा कहानियां क्यों नहीं लिखी। सोचता हूं, महानगर की भाग-दौड से फुरसत मिले तो इनपर जरूर लिखूं।


नौकरी की व्यस्तताओं के बीच कहानी-लेखन को साधना तो बडा मुश्किल होता होगा...
हां, कॉलेज से निकलते ही नौकरी में चला आया था। वो 77 का दौर था। इमरजेंसी के दौरान जेपी मूवमेंट से जुडने के कारण राजनीतिक और बौध्दिक स्तर पर सक्रियता बढ ग़ई थी। पहली प्रयास में ही आईएएस के इम्तिहान में सर्वोच्च स्थान पाने में सफल हुआ तो इसके पीछे वजह मेरी राजनीतिक सक्रियता को ही था, न कि कॉलेज की पढाई। पहले साहित्य मेरे लिए पहले स्थान पर था, नौकरी बाईप्रोडक्ट। लेकिन देखते-देखते प्राथमिकताएं बदलीं और नौकरी की आपा-धापी ने पहला स्थान ले लिया। लेकिन इन व्यस्तताओं के बीच थोडा भी समय मिलता है, तो उसे साहित्य-साधना में लगाता हूं।


आपने 'चूहा और सरकार' व्यंग्य में सरकारी अधिकारियों के विदेश यात्रा के बहाने तलाशने, भाई-भतीजावाद और इसमें सामाजिक न्याय का ख्याल रखने को प्रमुखता से उठाया है। क्या चूहे पकडने के मामले में भी हमें विदेशों से सीखने की जरूरत महसूस होती है?
मैंने विदेश यात्राओं पर कई कहानियां लिखी हैं। विदेश यात्राओं में जाने वाले सरकारी अधिकारियों में भी वरिष्ठ और कनिष्ठ का खास ख्याल रखा जाता है। मैंने इसके पीछे का सच भी देखा है। जब सरकारी अधिकारी विदेश दौरे पर जाते हैं, तो अपनी भूखी, अतृप्त इच्छाओं को दबा नहीं पाते। चाहते हैं कि तमाम विदेशी चीजों को घर में बटोर लें। इसपर मैंने एक कहानी 'मेड इन इंग्लैंड' लिखी है, जिसमें ऐसे अधिकारियों को ही ध्यान में रखकर लिखा गया है। दूसरी कहानी पेटू सरकारी अधिकारियों पर लिखा गया 'पिज्जा और छेदीलाल' जिसकी हजार प्रतियां देखते ही देखते रेलवे के अधिकारियों ने ही खरीद लीं। कहानी अप्रत्याशित रूप से चर्चा में रही। दरअसल ऐसी जगहों पर जाने के बाद प्रशिक्षण का ख्याल इनके मन में नहीं रहता। बस एक ख्याल होता है कि इसे अपने निजी टूर में कैसे बदलें। उनकी पत्नियां दूसरों पर विदेश यात्रा का रौब गांठने के लिए अक्सर चर्चा करती हैं। विदेश यात्रा बच्चों को बताने की चीज भर बनकर रह जाती है। इसमें ट्रेनिंग का अर्थ कहीं खो जाता है।


कथाकार संजीव जिनकी आर्थिक बदहाली का जिक्र कभी आपने अपनी रचनाओं में किया है, की तरह ही राजधानी के वैसे साहित्यकार नहीं रह रहे जिनके पास रोजगार का कोई दूसरा विकल्प नहीं।
संजीव की अच्छी याद दिलाई आपने, दोस्त। दरअसल साहित्य में कई ऐसे लोग हैं, जो अच्छा लिख-पढ रहे हैं, लेकिन उनको वो जगह नहीं मिल पाती। दिल्ली में कई ऐसे लोग मिल जाएंगे, जो अबूझ कविताएं लिख रहे हैं, लेकिन किसी अकादमी के अध्यक्ष पद पर सुशोभित हैं, तो कोई संस्कृति मंत्रालय से फेलोशिप ले रहे हैं। क्या संजीव जैसा गंभीर लेखक प्रूफ रीडिंग कर एक छोटे से कमरे में जिंदगी गुजार देगा, जो राजनीति की चांडाल-चौकडी में अपने को असहज महसूस करता है। संजीव ने अपने एक कहानी में इस बात को गंभीरता से उठाया है कि कैसे डॉक्टरी की तैयारी करती नायिका संघमित्रा माओवादियों के संपर्क में आ जाती है? सामंतवादी व्यवस्था की चूलें हिलाने के लिए कॅरियर को भी दांव पर लगाने को तैयार दिखती है। कोई किन परिस्थितियों में माओवादी बनता है, इसका कच्चा चिट्ठा संजीव ने बहुत पहले ही अपनी रचनाओं में व्यक्त किया है।


आपने एक जगह कहा था कि स्वतंत्र भारत के यथार्थ से तो स्वतंत्रता के पहले का यथार्थ अच्छा था। क्या अभी भी ऐसा महसूस करते हैं?
हमारे यहां आजादी के समय गणेश शंकर विद्यार्थी, अज्ञेय, निराला, महादेवी वर्मा की लंबी परंपरा रही है। राष्ट्रीय मसलों में इनकी भागीदारी तो होती ही थी, साथ ही गांधी, नेहरू के संपर्क में निरंतर अपने को निखारते भी थे। राजमोहन गांधी का भाषण सुना जिसमें उन्होंने 'यूनिटी इन इनिमिटी' का जिक्र किया है यानी शत्रुओं के बीच एकता। इकट्ठे तो हो गए एक शत्रु को देखकर, लेकिन आगे क्या करना है, इसका पता नहीं। आजादी के बाद गांधी की कांग्रेस से दूरी बढती गई, तो नेहरू गांधीवादी खेमे से दूर अपनी गोटी बिठाने मे लगे रहे, पटेल अलग अपना राग अलापते रहे। सभी आदर्श लडख़डाकर बिखर गए। आज के दौर में 70 के बाद जो पतन हुआ या फिर ग्लोबलाइजेशन के बाद की बात करें तो समाज का अधोपतन ही हुआ है। हम गर्त में नीचे और नीचे गिरते जा रहे हैं।
छल-कपट समाज में हावी होता जा रहा है। संबंधों का ताना-बाना बिखर गया है। हम गरीबी पैदा कर रहे हैं। आज दुख के साथ कहना पड रहा है दोस्त, शायद देश की आजादी समर्थ हाथों में नहीं सौंपी गई, इसलिए हमारा यह हाल हुआ है।
आज कल आप क्या कर रहे हैं?
पिछले दिनों 'अजगर करे ना चाकरी' तीसरा कहानी-संग्रह छपा है, जिसकी नामवर जी ने एक चैनल पर काफी तारीफ भी की है। नए कहानी-संग्रह पर काम कर रहा हूं। हर उस विधा पर लिखना चाहता हूं, जिससे समाज में कुछ परिवर्तन की गुंजाइश बनती हो।
वरिष्ठ कथाकार प्रेमपाल शर्मा से चंदन राय की बातचीत पर आधारित

आर.टी.आई. कार्यकर्ता : नए कानून के नए शिकार

साथियों चिन्मय भाई ने सूचना के अधिकार पर काम कर रहे कार्यकर्ताओं की हत्याओं के सम्बन्ध मैं एक विचारोत्तेजक आलेख लिखा है | आप सब के बीच मैं रख रहा हूँ |


समय की मुठभेड़ों ने ईजाद किया है मुझको,
मैं चाकू हूँ, आंसुओं में तैरता हुआ......।

चन्द्रकांत देवताले


सूचना का अधिकार कानून के सहारे गुजरात के गिर के जंगलों में अवैध खनन् के खिलाफ संघर्ष करने वाले 33 वर्षीय अमित जेठवा की हत्या के साथ इस वर्ष के पहले सात महीनों में सूचना का अधिकार कानून के कार्यकर्ताओं की हुई हत्याओं की संख्या 8 तक पहुंच गई है। अमित जेठवा की 20 अक्टूबर को अहमदाबाद उच्च न्यायालय परिसर में गोली मारकर हत्या कर दी गई थी। इस वर्ष 3 जनवरी को सतीष शेट्टी की पुणे महाराष्ट्र, 11 फरवरी को विश्राम लक्ष्मण् डोडिया की अहमदाबाद, गुजरात, 14 फरवरी को शशिधर मिश्रा, बेगुसराय, बिहार, 26 फरवरी को अरुण सावंत, बदलापुर महाराष्ट्र 11 अप्रैल को सोला रंगाराव, कृष्णा जिला आंध्रप्रदेष, 21 अप्रैल को विठ्ठल गीते, बीड जिला महाराष्ट्र और 31 मई की दत्ता पाटिल, कोल्हापुर महाराष्ट्र की भी नृषंस हत्याएं कर दी गई थीं।

उपरोक्त सभी हत्याओं के संबंध में संबंधित राज्य सरकारों का एक रटा-रटाया जवाब है, 'मामले की जांच चल रही है। हम शीघ्र ही दोषी को पकड़ लेंगे।' गौरतलब है कि जिन 8 आर.टी.आई. कार्यकर्ताओं की हत्या हुई है, उनमें से दो कार्यकर्ताओं सतीष शेट्टी और विश्राम लक्ष्मण डोडिया ने तो संबंधित राज्य सरकारों से पुलिस सुरक्षा की भी मांग की थी, जिस पर सरकार ने ध्यान ही नहीं दिया? नतीजा सबके सामने है। इसके अलावा पिछले 7 महीनो में देश भर में आर.टी.आई. कार्यकर्ताओं पर 20 गंभीर प्राणघातक हमले भी हुए हैं।

इन घटनाओं ने अक्टूबर 2005 से अस्तित्व में आए सूचना का अधिकार कानून के खतरनाक पक्ष को सामने ला खड़ा किया है। इनमें यह संदेश भी जा रहा है कि भारत में कानून का इस्तेमाल सिर्फ शासन और प्रशासन जनता के खिलाफ कर सकता है। अगर जनता सूचना का अधिकार कानून के माध्यम से किसी को कटघरे में खड़ा करना चाहती है तो उसका हश्र भी देख लो। इस संदर्भ में भारत में मुख्य सूचना आयुक्त वजाहत हबीबुल्लाह का कहना है, 'सूचना का अधिकार कानून का प्रभाव अब स्पष्ट रूप से दिखने लगा है, जो लोग सूचना को बाहर नहीं आने देना चाहते वे खतरनाक तरीके अपना रहे हैं।'

सवाल यह उठना है कि अंतत: सूचना कौन-कौन दबाना चाहते हैं? इसमें सिर्फ वे गैर सरकारी व्यक्ति नहीं हैं, जो अपने विरुध्द संभावित कार्यवाही से घबराकर हत्या तक करने से बाज नहीं आ रहे हैं। दुख की बात है कि आरटीआई कार्यकर्ताओं को सरकारी उत्पीड़न का भी सामना करना पड़ रहा है। पिछले वर्ष से दिल्ली स्थित पब्लिक काज रिसर्च फाउंडेशन ने सूचना का अधिकार कार्यकर्ताओं के लिए एक राष्ट्रीय पुरस्कार देने की शुरुआत की है। इसके अंतर्गत प्रथम पुरस्कार प्राप्त करने वाले आरटीआई कार्यकर्ता आसाम के अखिल गोगोई को भ्रष्टाचार के मामले सामने लाने की सजा के बतौर कई बार जेल भी जाना पड़ा था। देशभर में ऐसे अनगिनत मामले सामने आ रहे हैं।

देश का शासन, प्रशासन, उद्योग वर्ग, बाहुबली, भू-माफिया आदि यह बात हजम ही नहीं कर पा रहे हैं कि उनसे कोई कुछ पूछ भी सकता है। प्रधानमंत्री के स्तर पर इस कानून में बदलाव की पैरवी होने से इन तत्वों के हौंसले एकाएक बढ़ते नजर आ रहे हैं। आजादी के 6 दशक बाद पहली बार जनता को पूछने का हक मिलने से वह काफी संतोष का अनुभव कर रही थी। परंतु इन हिंसक वारदातों के माध्यम से उनका मनोबल तोड़ने का प्रयास किया जा रहा है। इस बीच उत्तरप्रदेश के सूचना आयुक्त ब्रजेश कुमार मिश्रा ने एक शिकायतकर्ता रामसेवक वर्मा के खिलाफ पुलिस जांच के आदेश दिए हैं। सूचना आयुक्त का मानना है कि यह व्यक्ति सरकारी अधिकारियों को परेशान करता है। अब इसके बाद और क्या कहा जा सकता है?

इस संदर्भ में एक और घटना पर गौर करना आवश्यक है। मध्यप्रदेश के बड़वानी जिले में जागृत आदिवासी दलित संगठन, महात्मा गांधी नरेगा, स्वास्थ्य सेवाओं में अनिमितताओं, राशन दुकानों से खाद्य वितरण जैसी समस्याओं के संबंध में कई बार आरटीआई के माध्यम से जानकारी लेकर और कई बार सीधे भी संघर्ष करता है। आदिवासियों का संघर्ष पूर्णत: शांतिपूर्ण होता है। इसलिए प्रशासन उनके विरुध्द ज्यादा सख्त धाराएं लगाने में असमर्थ रहता है। आदिवासियों में बढ़ती जागरूकता को दबाने के लिए अंतत: प्रशासन ने अपने हथकंडे अपनाए और इस संगठन के प्रमुख कार्यकर्ता वालसिंह को लूट और लकड़ी की तस्करी के आरोप में गिरफ्तार कर लिया। इस प्रकार भ्रष्टाचार का विरोध करने वाला स्वयं ही अपराधी करार कर दिया गया। यही वास्तविक भारतीय शासनतंत्र है।

यह लेख लिखते-लिखते ही समाचार मिला कि उत्तरप्रदेश के बहराइच जिले के कटघर गांव का रहने वाला विजय बहादुर उर्फ बब्बू सिंह जो लखनऊ में होमगार्ड में पदस्थ था, उसने अपने गांव में हो रहे निर्माण में बरती जा रही अनिमितताओं को लेकर आरटीआई के अंतर्गत आवेदन दिया था। इस बार जब वह गांव में आया तो संबंधित पक्षों ने 27 जुलाई को उसकी हत्या कर दी। इस तरह इस साल हत्याओं का यह आंकड़ा 9 तक पहुंच चुका है। पुणे महाराष्ट्र में मारे गए सतीश शेट्टी ने 10 वर्ष पूर्व पुणे मुम्बई एक्सप्रेस-वे परियोजना में हुए भूमि सौदों में भ्रष्टाचार उजागर किया था। वर्तमान में वे एक कंपनी द्वारा धोखाधड़ी करके अधिग्रहित की गई 1800 एकड़ भूमि से संबंधित दस्तावेजों को शासन से प्राप्त करने में प्रयासरत थे। वही बब्बू सिंह इसके मुकाबले बहुत छोटे भ्रष्टाचार का भंडाफोड़ करना चाहते थे। परंतु दोनों को अपनी जान से ही हाथ धोना पड़ा।

आरटीआई कार्यकर्ता आम आदमी की तकलीफों को समझते हुए स्वयं को एक हथियार में परिवर्तित कर रहे हैं। सेना में संघर्ष के दौरान हुई मृत्यु को 'सर्वोच्च बलिदान' की संज्ञा दी जाती है। हम सबके लिए संघर्ष करने वालों के बलिदान को क्या इससे 'कमतर' आंका जा सकता है? मगर यह हम सबका दुर्भाग्य है कि इन कार्यकर्ताओं की असामयिक मृत्यु अभी भी 'हत्या' की श्रेणी तक ही पहुंची है। हमें यह स्वीकार करना होगा कि हमारे ये कार्यकर्ता 'शहीद' हैं और उन्होंने देशहित में 'सर्वोच्च बलिदान' दिया है। इन कार्यकर्ताओं की शहादत देखकर श्रीकांत की ये पंक्तियां याद आ रही हैं,

मैं अपनी पीठ पर

अपनी कब्र के

पत्थर सा

ढोता

संसार !

- चिन्मय मिश्र
आप "सर्वोदय प्रेस सर्विस" के सम्पादक हैं |

kathphodwa logo


aapka sujhaw....

श्रमशील स्त्रियों पर स्वतंत्र विमर्श जरूरी: मंडलोई


यूरोप के नारी-स्वातंत्र्य को भारतीय परिवेश में लागू नहीं किया जा सकता। आदिवासी, दलित, निम्न जातियों की स्त्रियों की पीडा को समझने के लिए अलग नजरिए से चीजों को देखना होगा। श्रमशील स्त्रियों की चिंताओं को आधुनिक विचार के दायरे में लाना होगा। हालांकि इन स्त्रियों के उध्दार के लिए कोई अलग से रूप-रेखा समाज में दिखाई नहीं देती

स्कूल में मजदूर बच्चों के साथ गाली-गलौज होने पर आप सहपाठियों से मार-पीट पर उतारू हो जाते थे। आपने कभी कहा भी था कि अगर कवि नहीं होता, तो गुंडा-मवाली होता। इस उग्र तेवर ने कविता-लेखन की ओर कैसे प्रेरित किया?
ये तो बचपन के दौर की बातें हैं, जब कविता-लेखन शुरु भी नहीं किया था। घर के माहौल, आस-पास के परिवेश और सांस्कृतिक माहौल ने कभी गलत रास्ते पर जाने नहीं दिया। हालांकि पूरी गुंजाइश थी बिगडने की। मेरे भीतर बहुत गुस्सा भरा था जीवन की विपरीत परिस्थितियों को लेकर। इसके कारण मेरी सहपाठियों से मार-पीट और गाली-गलौज भी हो जाती थी। अगर अच्छा सांस्कृतिक माहौल न मिलता, तो जरूर वैसा ही हो जाता। घर की शिक्षा का वातावरण एवं खासकर मां जिनकी रुचि रामायण, धार्मिक-ग्रन्थों में थी, ने अच्छे संस्कार बचपन से ही डाले। पिता कबीर के गीतों को गाते थे। मानस-पाठ भी घर पर बराबर होता रहता था। कुछ इन्हीं कारणों से कभी गलत रास्ते पर नहीं भटके।

'तोडल मौसिया' जैसे किरदार क्या आज भी ग्रामीण परिवेश में देखने को मिलते हैं?
अभी भी कई ऐसे किरदार ग्रामीण परिवेश में मिल जाएंगे, जहां तक अभी नई हवाएं नहीं पहुंची हैं। खेती, किसानी, गरीबों की बस्तियों में अभी भी जीवन वैसे ही ठहरा है। किताबी शिक्षा तो वहां पहुंची नहीं, लेकिन जीवन की किताब से उन्होंने बहुत कुछ सीखा है। हाशिए के जीवन पर ऐसे किरदार बहुतायत में हैं-परसादी, श्री कृष्ण इंजीनियर, दमडू नाई अभी भी जिंदा हैं। लेकिन इनसे मिलने के लिए घुमक्कडी ज़ीवन जीना होगा, यायावर की तरह भटकना होगा। गांवों, सतपुडा जैसे घने जंगलों की खाक छाननी होगी। तोडल मौसिया ने तो गांव का भाईचारा निभाने के लिए जीते-जी अपना श्राध्द-कर्म कर लिया था ताकि पूरे गांव को एक साथ जिमाया जा सके। वे शादी-शुदा तो थे नहीं, गांव के हर भोज में उनकी उपस्थिति जरूरी थी तो उन्हें यह बुरा लगता कि वे ऐसे ही मरें और क्रिया-कर्म के बाद गांववालों को खिलाने वाला भी कोई न हो। तो उन्होंने लोगों को बिना कारण बताए पूरे गांव को न्यौता दे डाला। तो ऐसे थे हमारे तोडल मौसिया।

आपने बचपन में गरीबी को काफी नजदीक से महसूस किया है। कविता में 'श्रम-शक्ति को प्रतिष्ठा' देने के पीछे क्या यह भी एक वजह रही?
हां, ये तो है ही। लेकिन कुछ लोग अपने संदर्भ में ही नहीं, समाज के संदर्भ में भी जीते हैं। दरअसल कोई रचना सामाजिक परिप्रेक्ष्य को ध्यान में रखकर ही लिखी जाती है। मैं लिखता हूं, तो इसमें आस-पास के तमाम लोगों की जिंदगियां भी शामिल होती हैं। ये सभी स्मृति का हिस्सा हैं, जो जाने-अनजाने आपकी रचनाओं में चले आते हैं। ऐसा ही कोई भी रचनाकार करता है। मेरे अनुभव को ही देखें तो यह किसी भी मजदूर के अनुभव से मिलता जुलता होगा, जो दुनिया में कहीं का भी हो सकता है। मैंने कविता में एक जगह दमडू कक्का का जिक्र किया है, जो नाखून बनाने के लिए आया करते थे। शायद आपने पढी हो...
जी, उस कविता में कुछ ऐसा भाव था- 'देखता हूं नाखून तो, बस एक तीखी याद हिडस भरी, वह जो होती तो होते कक्का कहीं, नेलकटरों के इस दौर में, काट तो लेता हूं लेकिन रगडने की मशक्कत, सुविधा कोई कला नहीं।' इसी संदर्भ में आपने एक हुनर के मौत के गर्त में समा जाने की चर्चा भी की है।
हां, कुछ ऐसा ही भाव था। इस समाज में कई कलाएं यूं ही विलुप्त होती जा रही हैं, जिसकी ओर हमारा ध्यान नहीं जा रहा। इस भाग-दौड भरी जिंदगी में लोगों के पास समय ही कहां है कि इनके बारे में भी कुछ सोच सकें।

समुद्री हवाओं से उठते नमक की गंध, सघन वन की नीरवता और आदिम जन-जातियों का संगीत-आपकी कविता को व्यापक फलक देते हैं। प्रकृति से जुडाव आपने कब महसूस किया?
मेरा बचपन तो सतपुडा के जंगलों में ही बीता। चारों ओर प्रकृति अपने तमाम सौंदर्य को समेटे आस-पास ही पसरी थी। सरसराती हवाएं, चहचहाते पक्षी, पेडों से छनकर आती गोलाकार रोशनियों का पुंज, ऊंची पर्वत श्रृंखलाएं, खूंखार जंगली जानवर से लेकर आदिवासियों का जन-जीवन तक सबकुछ तो जीवन के संगीत के रूप में मौजूद था।
जरूरत थी, तो उस बिखरे संगीत को गुनगुनाने की। प्रकृति एवं जीवन के संगीत को बहुत नजदीक से सुनने का मौका मिला। प्रकृति में सौंदर्य तो है ही, जीवन का संघर्ष भी मौजूद है। इन सबों को अलग कर देखने की जरूरत नहीं। सतपुडा के जीव-जंतु, आदिवासी, वहां के बोल को संदर्भ से काटकर देखना कठिन होगा। मालवा, छत्तीसगढ, अंडमान-निकोबार न जाने कहां-कहां घुमक्कडी करता रहा। आदिवासी, समुद्र का संबंध तो जीवन का हिस्सा ही बन चुके हैं।

जीवन का बोध, जीवन-संघर्ष से ही अर्जित किया जाता है। निराला, मुक्तिबोध, नागार्जुन की लंबी परंपरा हमारे यहां रही है। वातानुकूलित कमरों में बैठकर साहित्य-सृजन को आप किस रूप में देखते हैं, जहां प्रकृति एवं आमजनों का संघर्ष नहीं दिखता?
हमारा समय तो रिएलिटी पर आधारित था। लेकिन आज रिएलिटी के साथ वर्चुअल रिएलिटी का भी दौर है। चीजें वर्चुअल ज्यादा हो गई हैं। स्क्रीन, फिल्मों, पत्र-पत्रिकाओं ने देखने की एक दृष्टि पैदा की ही है। जो रचनाकार जैसा होगा, उसी हिसाब से चीजों को देखेगा। जहां एक तरफ आज सही कविताएं हैं, तो दूसरे तरह की कविताएं भी मौजूद हैं। विशुध्द अनुभव से कविता तो क्या, कोई भी विधा नहीं लिखी जा सकती। जीवन का संघर्ष झेलने के बाद ही उनकी गहनतम पीडा रचनाओं में झलकती हैं और रचनाएं लोगों के दिलों में जगह बना पाती हैं।

भवानी प्रसाद मिश्र ने आदिवासी समाज के सामने अपनी अकिंचनता व्यक्त करते हुए कहा था-'मैं इतना असभ्य हूं कि तुम्हारे गीत नहीं गा सकता।' विलुप्त होते आदिवासी समाज की पीडा आपकी रचनाओं में मुखर हैं। आज आपके जन्मस्थान छिंदवाडा में उनकी क्या स्थिति है, किन हालातों में जीने को मजबूर हैं वे?
आदिवासी समाज तो पहले भी उपेक्षित था, आज भी हालात कमोबेश वैसे ही हैं। ग्लोबलाइजेशन के दौर में बाजार एवं सत्ता का घिनौना खेल जंगलों तक जा पहुंचा है। औद्योगिकरण के नाम पर जंगलों में जमीन का अधिग्रहण किया जा रहा है, पेडों की कटाई जारी है। चाहे छत्तीसगढ हो, मध्यप्रदेश या हिमाचल प्रदेश। यह समाज कहीं भी मुख्यधारा में जगह नहीं बना पाया है। महाश्वेता देवी उन लोगों के बीच रह रही हैं, उन्हें शिक्षित कर रही हैं। कुछ और लोग भी लगे हैं। शिक्षा के कारण ही स्वतंत्र चेतना का विकास हो पाता है और कोई समाज विचारवान बनता है। स्वतंत्र रूप से सोचने का विकास इस समाज में नहीं हो पाया है। इनकी सादगी, सरलता को शहरी समाज अपने तरीके से छलता रहा है। दरअसल जब तक वे शिक्षा से महरूम रहेंगे, विचार का आलोक उन तक नहीं पहुंचेगा, मुख्यधारा में जगह बना पाना मुश्किल होगा।

शहरी जीवन की चिंताएं एवं मध्यवर्ग के दोहरे चरित्र की ओर आपका ध्यान क्यों नहीं गया?
नहीं, मेरी रचनाओं में शहरी वर्ग की चिंताएं भी शामिल हैं। ये मेरी रचनाओं कविता, गद्य, निबंध, लेख में तमाम जगह बिखरी पडी हैं। दरअसल शहरी मध्य वर्ग अपने में ही सिमटा हुआ समाज है। शहरी जीवन में मालिक वर्ग की मक्कारियों के आगे मजदूरों की चालाकियां कुछ भी नहीं। मुझे लगता है कि जो चीज उनका है और उन्हें नहीं दिया जा रहा है, उसे मालिकों से छीन लेने में कोई बुराई नहीं।

स्त्री-विमर्श शहर की मॉडर्न एवं बुध्दि विलास महिलाओं का शगल मात्र बनकर रह गया है? ऐसे में एक मजदूर स्त्री का वात्सल्य भाव, जब मिल का भोंपू बजते ही वह बच्चे को दूध पिलाने बरसात में भींगती दौड पडती है, की चिंताएं कहां जगह पाती हैं?
सीमित अर्थ में ही जगह बना पाई हैं। यूरोप के नारी-स्वातंत्र्य को भारतीय परिवेश में लागू नहीं किया जा सकता। आदिवासी, दलित, निम्न जातियों की स्त्रियों की पीडा को समझने के लिए अलग नजरिए से चीजों को देखना होगा। श्रमशील स्त्रियों की चिंताओं को आधुनिक विचार के दायरे में लाना होगा। हालांकि इन स्त्रियों के उध्दार के लिए कोई अलग से रूप-रेखा समाज में दिखाई नहीं देती। मजदूर या आदिवासियों के लिए स्वतंत्र विमर्श की जरूरत है। इनकी चिंताओं एवं संघर्ष को महसूस करना होगा। नई सोच का उत्खनन करना होगा, सीमित सोच से कुछ नहीं होनेवाला। महाश्वेता देवी के उपन्यास, नागार्जुन की कविताएं और कुछ जगह तो ये चिंताएं दिखती हैं। हालांकि स्पांसर्ड विमर्श में ये चीजें नहीं मिलेंगी।

आजकल आप क्या कर रहे हैं? फिल्म, डाक्यूमेंट्री, कविता या गद्य लेखन।
शमशेर जी और बिरजू महाराज पर डॉक्यूमेंट्री बनाने की तैयारी चल रही है। इन दिनों मूलत: गद्य लिख रहा हूं। उर्दू के प्रभाव वाली कविताओं का संकलन निकालने की भी योजना है। 'कवि का गद्य' जिसमें आलोचना, लेख, निबंध, डायरी और कॉलम भी शामिल होगा, पर भी एक किताब लिख रहा हूं।

नए लेखकों के लिए कोई संदेश।
युवा लेखकों को बंद कमरों से निकलकर समाज, देश, दुनिया को देखना, समझना होगा। यायावरी की जिंदगी जीनी होगी, घुमक्कडी क़र दुनिया के फलसफे को समझना होगा। यही एक रास्ता है।

वरिष्ठ कवि लीलाधर मंडलोई के साथ चन्दन राय की बातचीत

भारत ने प्रचंड की स‌रकार गिरवाई-आनंद स्वरुप वर्मा

आनन्द स्वरूप वर्मा देश के जाने माने पत्रकार और मानवाधिकार कार्यकर्ता हैं। संभवत: नेपाल की राजनीति और खासतौर पर वहां की माओवादी राजनीति पर भारत में उनसे ज्यादा गहराई के साथ कम ही लोग जानते हैं। अपनी बेबाक बयानी के लिए जाने जाने वाले वर्मा जी जब रौ में बोलते हैं तो इतना सच कि जुबां कड़वी हो जाए। जाहिर है सच कड़वा ही होता है। छपास डॉट कॉम के राजनीतिक संपादक अमलेन्दु उपाध्याय ने उनसे नेपाली माओवाद और भारत नेपाल संबंधों पर लम्बी बातचीत की। प्रस्तुत है उनसे बातचीत के प्रमुख अंश :-


आपकी फिल्म ‘फ्लेम्स ऑफ स्नो’ पर सेंसर बोर्ड ने पाबंदी क्यों लगा दी?

सेंसर बोर्ड का कहना है कि इस देश में अभी जो माओवादी आन्दोलन है, उसका जो विस्तार हुआ है उसे देखते हुए हम इस फिल्म पर रोक लगा रहे हैं। लेकिन हमारा कहना है कि इस फिल्म में भारत के माओवादी आन्दोलन के विषय में एक शब्द भी नहीं कहा गया है, कोई फुटेज भी नहीं है कोई स्टिल भी नहीं है। ऐसी स्थिति में अगर नेपाल के आन्दोलन पर, केवल माओवादी आन्दोलन पर नहीं बल्कि वहां के समग्र आन्दोलन पर कोई फिल्म बनाई जा रही है तो उसको यह बहाना देकर रोकना एकदम अनुचित है। क्योंकि यह फिल्म माओवादी आंदोलन के ऊपर नहीं है बल्कि उसके ऊपर केन्द्रित है। क्योंकि इस फिल्म की शुरूआत होती है जब पृथ्वीनारायण शाह ने नेपाल की स्थापना की थी यानि दो सौ ढाई सौ साल के दौरान जो आन्दोलन हुए उनकी झलक देते हुए यह माओवादी आन्दोलन पर केन्द्रित हो जाती है। क्योंकि यह मुख्य आन्दोलन था जिसने वहां राजशाही को समाप्त किया। अब अगर आप यह कहते हैं कि इस फिल्म से यहां के माओवादियों को प्रेरणा मिलेगी तो किसी एक जनतांत्रिक देश में इस तरह की बात कहकर किसी फिल्म को रोकना अनुचित है। तब तो अगर नेपाल के आन्दोलन पर कोई पुस्तक लिखी जाएगी तो भी प्रेरणा मिलेगी? यह स्थिति तो बिल्कुल जो हमारा फन्डामेन्टल राइट यानि अभिव्यक्ति की आजादी है उसका गला घोंटना है।


क्या भारत का माओवाद और नेपाल का माओवाद अलग-अलग है?

मेरे विचार में हर देश का माओवाद अलग-अलग होता है। क्योंकि जितने भी विचारक रहे हैं मार्क्स, लेनिन, स्टालिन, माओत्से तुंग या आज के दौर में प्रचण्ड, सबका यही कहना है कि मार्क्सवाद-लेनिनवाद जो एक सिद्धान्त है, उसको आप अपने देश की सांस्कृतिक, भौगोलिक, राजनीतिक और सामाजिक पृष्ठभूमि के अनुरूप लागू कीजिए। हर देश की राजनीतिक सामाजिक पृष्ठभूमि अलग होती है। नेपाल में राजतंत्र था और वहां एक जबर्दस्त सामंती राजनैतिक व्यवस्था थी। उसमें उन्होंने वहां किस परिस्थिति में माओवाद को लागू किया यह उनका मामला है। भारत के माओवाद और नेपाल के माओवाद में बहुत फर्क है। क्योंकि उन्होंने तो चुनाव में भी हिस्सा लिया और सरकार बनाई। जबकि भारत में अभी ऐसी स्थिति नहीं है। दोनों स्थितियों में फर्क तो काफी है। लेकिन नेपाल के माओवादी आन्दोलन से भारत के माओवादी आन्दोलन को प्रेरणा लेने का सवाल है, जैसा कि सेंसर बोर्ड कहता है तो वह यह भी प्रेरणा ले सकते हैं कि किस तरह कोई आन्दोलन आम जनता के बीच न केवल आदिवासियों के बीच पॉपुलर हो सकता है, मध्यवर्ग को भी प्रभावित कर सकता है, मध्यवर्ग को भी अपने दायरे में ले सकता है और वह एक निरंकुश व्यवस्था के खिलाफ सफल हो सकता है। तो दोनों में फर्क तो है। अब भारत में जो लोग हैं जो सत्ता में बैठे हैं जो सेंसर बोर्ड देख रहे हैं उनकी अकल इतनी नहीं है कि इतना विश्लेषण कर सकें।


क्या आपको लगता है कि भारत की सम्पूर्ण राजनीतिक व्यवस्था माओवादियों के खिलाफ हो चुकी है?

भारत के माओवादियों के?


जी भारत के माओवादियों के

नहीं यह तो एक दूसरा सवाल हो गया क्योंकि इसका मुझसे कोई मतलब नहीं है। ( हंसते हुए) अगर आप हमसे भारत के माओवादी आन्दोलन पर बातचीत करना चाहते हैं तो एक अलग बात है। हमसे तो नेपाल पर ही बात करें।


चलिए नेपाल पर ही केन्द्रित होते हैं। अक्सर यह आरोप लगते रहे हैं कि नेपाल के माओवादियों से भारत के माओवादियों को समर्थन और मदद मिलती रही है और नेपाली माओवादियों का रुख हमेशा से भारत विरोधी रहा है। क्या नेपाली माओवादी वास्तव में भारत विरोधी हैं?

इसके लिए तो आपको यह देखना होगा कि भारत के माओवादियों की केन्द्रीय समिति और उनके बड़े नेता गणपति के हस्ताक्षर से अब से एक डेढ़ साल पहले खुली चिट्ठी नेपाल के माओवादियों को लिखी गई जिसमें नेपाली माओवादी आन्दोलन की तीखी आलोचना की गई। इस पत्र में यह आलोचना की गई कि नेपाली माओवादी क्रांति का रास्ता छोड़ करके संशोधानवादी हो गए। यह तो दोनों के संबंधों की बात है। जहां तक नेपाल के माओवादियों से मदद मिलते रहने की बात है तो वह इस स्थिति में कभी नहीं रहे कि भारत जैसे किसी विशाल देश के किसी संगठन को मदद कर सकें। अगर आप दोनों देशों के एरिया और आबादी की और रिसोर्सेस से तुलना करें तो देखेंगे कि वह भारत के मुकाबले कहीं ठहरते ही नहीं हैं। ऐसे में वह अपने को संभालेंगे कि भारत के माओवादियों की मदद करेंगे। इसलिए कोई भौतिक मदद या इस तरह की मदद की बात नहीं है लेकिन बिरादराना संबंध वह मानते हैं। वह तो भारत के माओवादियों के साथ, पेरू के माओवादियों के साथ, कोलंबिया के माओवादियों के साथ, हर देश के माओवादियों के साथ एक बिरादराना संबंध मानते हैं। वैसे ही भारत के माओवादियों के साथ मानते हैं। इससे ज्यादा उनका कोई लेना देना नहीं है।


लेकिन प्रचण्ड प्रधानमंत्री बनते ही पहले चीन गए जबकि परंपरा रही है कि नेपाल का राजनेता पहले भारत आता है। वैसे भी हम नेपाल के ज्यादा नजदीक हैं, क्योंकि हमारे सदियों पुराने संबंधा नेपाल से हैं। इस कदम से नहीं लगा कि प्रचण्ड के मन में भारत के प्रति कोई गांठ है?

देखिए यह कौन सी परंपरा है कि कोई प्रधानमंत्री जो बनेगा वह पहले भारत आएगा? भारत कोई मंदिर है जो वहां जाएगा और मत्था टेकेगा? जहां तक मेरा सवाल है मैं इस परंपरा के एकदम खिलाफ हूं। दूसरी बात किन परिस्थितियों में प्रचण्ड भारत न आकर चीन गए उसे देखना पड़ेगा। किसी भी विषय पर बात करते समय उस पूरी प्रक्रिया को देख लीजिए न कि केवल परिणिति। केवल परिणिति को देखने पर सही निष्कर्ष पर नहीं पहुंचेंगे। वह पूरी प्रक्रिया क्या थी मैं आपको थोड़ा संक्षेप में बता दूं। वहां पर बीजिंग में ओलंपिक खेल चल रहे थे चीन में। खेलों के उद्धाटन के समय चीन ने वहां के राष्ट्रपति को निमंत्रण दिया। रामबरन यादव को, जो नेपाली कांग्रेस के हैं। वह जब निमंत्रण मिला तो भारत के नेपाल में राजदूत राकेश सूद ने राष्ट्रपति से कहा कि आप चीन मत जाइए, इससे भारत को अच्छा नहीं लगेगा। तो राष्ट्रपति ने कहा कि हम नहीं जाएंगे। अब केवल बात राष्ट्रपति और राकेश सूद के बीच की होती तो यह किसी भी तरह स्वीकार्य हो सकती थी। मुझे व्यक्तिगत तौर पर यह भी स्वीकार्य नहीं है। लेकिन डिप्लोमैटिक रूप से एकबारगी यह स्वीकार्य हो सकता है। लेकिन राकेश सूद ने यह जानकारी प्रेस को दी कि हमने मना कर दिया और राष्ट्रपति नहीं गए। अब नेपाल की आम जनता को यह बात बहुत अच्छी नहीं लगी कि हमारे राष्ट्रपति को एक, मतलब राष्ट्रपति तो बहुत बड़ा पद है न, राष्ट्रपति को एक ब्यूरोक्रेट भारत का मना कर दे और वह मान जाए। जब समापन समारोह के लिए, तब यह प्रचण्ड प्रधानमंत्री नहीं बने थे, 15 अगस्त 2008 को बने हैं, और उनको जाना था 16 या 17 अगस्त को, इनको भी निमंत्रण मिला समापन समारोह के लिए और प्रचण्ड ने स्वीकृति दे दी थी। राकेश सूद ने उन्हें भी मना किया कि आप मत जाइए। तब प्रचण्ड ने कहा कि मैंने स्वीकृति दे दी है तो फिर सूद ने कहा कि आप मत जाइए भारत को अच्छा नहीं लगेगा। उन्होंने कहा मैं क्यों नहीं जाऊं जब मैंने स्वीकृति दे दी है मैं जाऊंगा। और वह चले गए। मान लीजिए कि प्रचण्ड उस समय नहीं जाते और राकेश सूद इस बात को भी प्रेस में देता ही कि हमने मना किया तो एक संप्रभु राष्ट्र के राष्ट्रपति और प्रधाानमंत्री को भारत का राजदूत मना कर दे कि आप यह न करें वह न करो, यह उचित नहीं है। इसलिए अपनी देश की जनता की भावनाओं को देखते हुए प्रचण्ड के लिए चीन जाना जरूरी हो गया था। अगर राकेश सूद ने यह गड़बड़ियां नहीं की होतीं तो शायद वह इसको एवायड भी कर सकते थे। इसलिए इस घटना का विश्लेषण पूरी परिस्थिति देखकर ही करना चाहिए। हालांकि प्रचण्ड ने भी इसके बाद जो कहा मैं उससे भी बहुत सहमत नहीं हूं कि ‘मेरी पहली राजनीतिक यात्रा तो भारत की ही होगी। क्या जरूरत थी यह भी कहने की। नेपाल एक संप्रभु राष्ट्र है वह भारत का कोई सूबा नहीं है कोई प्रॉविंस नहीं है कोई प्रांत नहीं है।

देखने में आ रहा है कि माओवादियों का आन्दोलन नेपाल में भी कुछ कमजोर पड़ता जा रहा है और आम जनता पर उनकी पकड़ कुछ ढीली पड़ती जा रही है। क्या कारण हैं कि माओवादी कमजोर पड़ रहे हैं?

यह कहने का आधार कोई है?

जी बिल्कुल। अभी उन्होंने हड़ताल का आह्वान किया और लोगों ने सड़को पर उतरकर उसका विरोध किया तो उन्हें हड़ताल वापस लेनी पड़ी?

नहीं। एक मई को जो हड़ताल का आह्वान किया था, वह आप नेपाल के किसी भी सोर्स से पता कर लीजिए अखबार से, जो बुर्जुआ अखबार हैं उनसे मालूम कीजिए वह अब तक का सबसे बड़ा प्रदर्शन था। रहा सवाल यह हड़ताल वापस लेने का तो वैसे भी उस को चार पांच दिन से अधिक नहीं चलाते क्योंकि उससे वहां की आम जनता को काफी दिक्कतें उठानी पड़तीं। लेकिन एक चीज का ध्यान दीजिए कि राजतंत्र समाप्त तो हो गया, भौतिक रूप से समाप्त हो गया। लेकिन अभी तमाम राजावादी तत्व सभी पार्टियों में मौजूद हैं। सामन्तवाद वहां अभी मौजूद है, वह तो समाप्त नहीं हुआ है। तो बहुत सारे ऐसे तत्व हैं जो इस समय अपने को माओवादियों के खिलाफ लामबंद कर रहे हैं। पिछले एक वर्ष के दौरान माओवाद विरोधी ताकतों को नजदीक आने का एक अच्छा मौका मिला है। इसमें बहुत सारी अन्तर्राष्ट्रीय ताकतें जिसमें अमेरिका और स्वयं भारत भी शामिल है, इन्होंने माओवाद के खिलाफ तत्वों की मदद की है। निश्चित रूप से जो खबरें आई हैं वह सही हैं कि कुछ प्रदर्शन हुए हैं काठमांडू में लेकिन काठमांडू और शहर तो कभी भी माओवादियों के आधार नहीं रहे उनका आधार तो ग्रामीण इलाका है। काठमांडू में जरूर इस तरह के तत्व हैं लेकिन केवल इस आधार पर हम यह नहीं कह सकते कि उनकी पकड़ कमजोर पड़ गई है। क्योंकि जिस दिन माओवादियों की पकड़ कमजोर पड़ जाएगी उन्हें नष्ट करने में एक मिनट का भी समय वह ताकतें नहीं लगाएंगी जो उनकी विरोधी हैं।


प्रचण्ड ने बीच में एक बार आरोप लगाया था कि उनकी सरकार गिराने में विदेशी ताकतों का हाथ था और खासतौर पर उन्होंने भारत की तरफ इशारा किया था और आपने सुना भी होगा कि योगी आदित्यनाथ ने बयान दिया था कि राजतंत्र की बहाली के लिए वह नेपाल जाएंगे, बाबा रामदेव भी वहां गए और आरएसएस के प्रचारक इन्द्रेश जी के भी नेपाल में पड़े रहने की खबरें आई थीं। तो क्या आपको लगता है कि भारत की दक्षिणपंथी ताकतें माओवादियों के खिलाफ नेपाल में काम कर रही हैं?

जी हां, प्रचण्ड ने केवल संकेत ही नहीं दिया था बल्कि उन्होंने खुलकर कहा था कि भारत ने उनकी सरकार गिराने में पूरी मदद की थी। और उसकी वजह थी कि सेनाध्यक्ष रुकमांगद कटवाल वाला प्रकरण। कटवाल को जब प्रचण्ड ने बर्खास्त किया तो तीन-तीन बार कटवाल ने प्रधानमंत्री के आदेशों की अवहेलना की थी। इसलिए जरूरी हो गया था उन्हें बर्खास्त करना। उस समय भी राकेश सूद ने प्रचण्ड से कहा था कि अगर आप कटवाल को बर्खास्त करेंगे तो इसके बहुत गम्भीर परिणाम होंगे। अपमानजनक शब्दावली प्रयोग की थी हमारे राजदूत ने। इस राजदूत ने तो ठेका ले रखा है नेपाल की जनता को भारत विरोधी बनाने का। जबकि हम लोग लगातार यह प्रयास करते हैं कि दोनों देशों की जनता के बीच एक सद्भाव बना रहे। लेकिन राकेश सूद की वजह से यह सद्भाव बहुत समय तक बना नहीं रह पाएगा। इसके बाद प्रचण्ड ने कटवाल को बर्खास्त किया। एक निर्वाचित प्रधानमंत्री को यह अधिकार है कि वह सेनाधयक्ष को बर्खास्त कर सके। उन्होंने बर्खास्त किया और राष्ट्रपति ने उन्हें बहाल कर दिया। उन राजनीतिक दलों ने खासतौर पर नेकपा एमाले जो वहां की प्रमुख राजनीतिक दल है उसके अधयक्ष झलनाथ खनाल ने, जिनकी पार्टी सरकार में शामिल थी, वायदा किया कि कटवाल की बर्खास्तगी का वह समर्थन करेंगे। लेकिन जब प्रचण्ड ने बर्खास्त किया तो उन्होंने समर्थन वापस ले लिया। यह प्रचण्ड का मानना है और वहां की जनता का मानना है कि नेकपा एमाले ने जो समर्थन वापिस लिया वह भारत के इशारे पर वापिस लिया। अब यह बात सही है या गलत मैं इस पर कोई टिप्पणी नहीं करूंगा। लेकिन आम नेपाली जनता के अन्दर धारणा यही है, राकेश सूद की हरकतों की वजह से, कि भारत ने ही प्रचण्ड की सरकार गिराने में मदद की। और यही बात प्रचण्ड ने भी कही है। तो एक बात तो है कि भारत की भूमिका इस समय अच्छी नहीं रही। जिस समय नवंबर 2005 में बारह सूत्रीय समझौता हुआ था उसके बाद से भारत की बहुत अच्छी गुडविल बन गई थी नेपाल में। और नेपाली जनता भारत सरकार के प्रति सकारात्मक रुख अख्तियार कर रही थी। लेकिन कटवाल प्रसंग के बाद से लगातार एक के बाद एक कई घटनाएं ऐसी हो चुकी हैं जिनसे नेपाली जनता को लग रहा है कि भारत उसके हितों के खिलाफ काम कर रहा है। हाल के ही अखबार उठाकर देखिए, कांतिपुर और काठमांडू पोस्ट जो वहां के दो बड़े अखबार हैं, और यह माओवादी अखबार नहीं हैं। बाकायदा अखबार हैं जैसे टाइम्स ऑफ इंडिया है या इंडियन एक्सप्रेस है, इनके प्रिन्ट के कोटा को अट्ठाइस दिन से यहां रोक रखा है कलकत्ता बंदरगाह पर भारत सरकार के अधिकारियों ने। महज इसलिए कि इस अखबार ने लगातार यह लिखा कि मौजूदा परिस्थिति में माधाव नेपाल को इस्तीफा दे देना चाहिए ताकि एक आम सहमति की सरकार बन सके। माधाव नेपाल की सरकार को चूंकि भारत सरकार समर्थन कर रही है इसलिए इनको यह चीज नागवार लगी। इतना ही नहीं राकेश सूद ने वहां के उद्योगपतियों को जो भारतीय उद्योगपति हैं, बुलाकर कहा कि आप लोग कांतिपुर को, काठमांडू पोस्ट को और कांतिपुर टेलीविजन को विज्ञापन देना बन्द कर दें। तो यह सारी चीजें जो हो रही हैं वह दोनों देशों की जनता के संबंधों को बहुत खराब करेंगी। मेरी चिन्ता यह है और अगर दोनों देशों के संबंध तनावपूर्ण होते हैं तो उससे नेपाल का नुकसान तो होगा ही क्योंकि वह छोटा देश है लेकिन भारत का भी कोई बहुत भला नहीं होने जा रहा है।


अगर प्रचण्ड यह समझ लेते कि कटवाल को बर्खास्त करने से भारत की तरफ से इस तरह का हस्तक्षेप हो सकता है तो क्या स्थिति थोड़ी सुधार सकती थी?

नहीं प्रचण्ड को तो यह मालूम पड़ गया था कि अगर हम कटवाल को बर्खास्त करेंगे तो ऐसा होगा क्योंकि उन्हें बहुत खुलकर धामकी दी थी राकेश सूद ने और शायद इस धामकी के जवाब में ही उन्हें कटवाल को बर्खास्त करना और ज्यादा जरूरी हो गया था। क्योंकि अतीत में भारत सरकार के राजदूतों के या भारत सरकार के ब्यूरोक्रेट्स की यह आदत पड़ गई थी कि वह नेपाल के प्रधानमंत्रियों को कुछ भी कह कर अपनी मनमर्जी करवाते थे। कम से कम प्रचण्ड के साथ यह बात नहीं है। उन्होंने कभी यह नहीं कहा, देखिए अगर आज नेपाल के अन्दर साक्षात् माओत्से-तुंग भी शासन करने आ जाएं तो भारत के साथ किसी तरह की दुश्मनी एफोर्ड नहीं कर सकते। इसको प्रचण्ड अच्छी तरह जानते हैं कि भारत से नेपाल तीन तरफ से घिरा हुआ है, यूं कहिए इण्डिया लॉक्ड कंट्री है। ठीक है। भारत से यह नाराजगी मोल लेंगे तो भारत उनकी जनता को कितना कष्ट पहुंचाएगा? तो अगर कोई पार्टी या कोई पार्टी का राजनेता जो सचमुच जनता के हितों की परवाह करता होगा, मैं यह मानता हूं कि माओवादी जनता की हितों की ज्यादा परवाह करते हैं और पार्टियों के मुकाबले, तो वह कभी नहीं चाहेगा कि भारत के साथ शत्रुतापूर्ण संबंधा हों, और प्रचण्ड ने कई मौकों पर यह कहा है कि हमारे पड़ोसी दो जरूर हैं चीन और भारत। हम राजनीतिक तौर से एक समान इक्वल डिस्टेंस रखेंगे दोनों से। लेकिन भारत के साथ हमारे जो संबंध हैं, सांस्कृतिक संबंध, भौगोलिक संबंध, इनकी कोई तुलना ही नहीं हो सकती चीन से। हमारे और भारत के बीच में रोटी और बेटी का संबंध है, यह शब्द प्रचण्ड ने इस्तेमाल किए थे। तो जब पूरा कल्चरली एक है, दोनों की खुली सीमा है। बिहार का एक बहुत बड़ा हिस्सा खुले रूप से नेपाल आता जाता है। तो ऐसी स्थिति में प्रचण्ड खुद ऐसा नहीं चाहेंगे कि भारत के साथ हमारे संबंधा कटु हों। लेकिन उसके साथ-साथ एक संप्रभु राष्ट्र होने के नाते प्रचण्ड यह जरूर चाहेंगे कि भारत हमारी संप्रभुता का सम्मान करे। छोटे देश और बड़े देश में आकार तो हो सकता है कि अलगृअलग हों लेकिन कहीं यह नहीं होता है कि छोटे देश की संप्रभुता छोटी हो और बड़े देश की संप्रभुता बड़ी हो। अगर ऐसा होता तो इंग्लैण्ड की संप्रभुता तो बड़ी छोटी होती, जो ढाई सौ तीन सौ साल तक भारत पर शासन कर सकी। इसलिए संप्रभुता छोटी बड़ी नहीं होती है देश का आकार छोटा बड़ा होता है। इस बात को भारत का ब्यूरोक्रेट नहीं समझता है। इसलिए जरूरत यह है रूलिंग क्लास के माइंड सेट को बदलने की।

एक आरोप यह लगता रहा है कि जैसा आपने भी कहा कि यहां का जो रूलिंग क्लास ब्यूरोक्रेट है, यह भारत की विदेश नीति के साथ हमेशा कुछ न कुछ गड़बड़ करता रहता है। कहीं न कहीं इसके पीछे इस वर्ग के अपने कुछ निहित स्वार्थ होते हैं या कुछ और इंट्रैस्ट होते हैं? क्या यह आरोप सही है?

देखिए प्रमाण तो कोई नहीं हैं। लेकिन निश्चित तौर पर आखिर क्या वजह है कि किसी भी पड़ोसी देश के साथ हमारे संबंधा अच्छे नहीं हैं। कुछ चीजें तो हैं जो हमारे वश में नहीं हैं। भौगोलिक सीमा, ठीक है भारत एक बड़ा देश है, उसके लिए हम कुछ नहीं कर सकते। बड़े देश का एरोगेन्स तो हम रोक सकते हैं न! तो यह जो प्रॉब्लम है। भूटान के राजतंत्र को हम लगातार समर्थन देते रहे हैं। आप समर्थन दीजिए लेकिन किसकी कॉस्ट पर? वहां की जनता जो रिफ्यूजी बना दी गई जनतंत्र की मांग करने पर! यह हमारी नीति है। और हम दुनिया के सबसे बड़े जनतंत्र हैं और हम दुनिया के सबसे सड़े गले राजतंत्र को समर्थन देते रहे आम जनता के साथ धोखा करके। तो यह बड़ी शर्मनाक स्थिति है और यह हमारी विदेश नीति की असफलता है कि आज सारे पड़ोसी देश हमसे खतरा महसूस करते हैं। बजाय इसके कि अगर आप एक बड़े भाई की तरह रहते या जुड़वां भाई की तरह रहते तो वह चीज नहीं है।

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लो क सं घ र्ष !: शमशान



चुप्पी ख़ामोशी उदासी ओढ़े
हर शमशान
लाशों, लकड़ियों और कफन के
इंतजार में शिद्दत के साथ
मुद्दत से अपनी भूमिका में खड़ा है
न जाने कितनी लाशें
अब तक हो चुकी होंगी पंचतत्व में विलीन
गुमनामी के अँधेरे में खो चुके हैं -
न जाने कितने हाड़-मास के पुतले
स्मृतियों में कुछ शेष रह जाती हैं आकृतियाँ
कुछ आकृतियाँ छोड़ जाती हैं
अपने कामों का इतिहास
-सुनील दत्ता

लो क सं घ र्ष !: नये विचारों की रोशनी में


संघर्ष
देखा है मैंने तुम्हें
ताने सुनते/जीवन पर रोते
देखा है मैंने तुम्हे सांसों-सांसों पर घिसटते
नये रूप / नये अंदाज में
देखा है मैंने तुम्हें
पल-पल संघर्ष में उतरते
मानो कह रही हो तुम
बस - बस -बस
अब बहुत हो चुका ?
सहेंगे अत्याचार, सुनेंगे ताने
हर जुर्म का करेंगे प्रतिकार
नये विचारों की रोशनी में।

-सुनील दत्ता

आकर दिल्ली में












तमाम
दिक्कतों के बाद
गुज़ारा चल रहा था उनका
आकर दिल्ली में.
तीस रूपए रिक्शे का भाडा
चुकाने के बाद
बच जाते थे कुछ पैसे
आ जाते थे थोड़े चावल
थोड़ी सब्जी, थोड़ी दाल
भूखा नहीं सोना पड़ता था
आकर दिल्ली में.
सुना है रहनुमाओं को अब
बुरी लगने लगी हैं
इनकी शक्लें
मेहमान इनको देखकर क्या सोचेंगे
सता रही है यह चिंता.
बन गई हैं योजनायें
बेदखली की
अब कहां ढूंढें ये ठौर ठिकाना
आकर दिल्ली में.

लडने वाला समाज अपनी भाषा भी गढ़ता चलता है- अनामिका


जब कोई समाज युध्दरत होता है, तो वह उसकी अस्मिता की लडाई होती है। उसकी भाषा में संघर्ष की चेतना होती है, एक तरह का ओज होता है। चाहे तो आप अफ्रीकी समाज की भाषा ही देख लें। वहां की बोली जानेवाली अंग्रेजी और ब्रिटिश अंग्रेजी या क्विन्स अंग्रेजी कह लें, में अंतर मिल जाएगा

कविता की ओर झुकाव आपने कब महसूस किया? घर के परिवेश का क्या असर आप महसूस करती हैं?
बचपन में पिताजी के साथ अंत्याक्षरी खेलती थी। पिताजी हमेशा मुझे हरा देते थे। मैं भी हार से बचने के लिए कुछ जोर-आजमाईश करने लगी थी। पिताजी ने भी लिखने के लिए प्रोत्साहित किया। नई डायरी लाई गई और खेल-खेल में ही कविता शुरू हो गई।

बाल्यावस्था का दौर काफी राजनीतिक रूप से उथल-पुथल भरा रहा होगा। आपातकाल, जयप्रकाश नारायण और लोहिया का दौर था वह। क्या उस राजनीतिक माहौल का भी कुछ असर रहा?
वो समय ही कुछ और था। पडाेस के बच्चे भी क्रांतिकारी बन स्कूल-कॉलेज छोडक़र आंदोलन में कूद पडे थे। ऐसा लगता था मानो दूसरा स्वतंत्रता-संग्राम लडा जा रहा हो। जगह-जगह लोग सरकार के विरोध में नारे लगाते थे। उसमें ज्यादातर हमारी उम्र के बच्चे ही होते थे। घर में भी भाई इस आंदोलन में बढ-चढक़र भाग ले रहे थे। जेल जाने वालों में भी वे आगे रहते थे। मुजप्फरपुर में एक बार जेपी आए थे, तो उन्होंने मंच से रामायण की एक पंक्ति कही थी-अब लौं नसानि, अब न नसैंहों। यानी कि अब तक तो बर्दाश्त कर लिया, आगे नहीं करेंगे। इस पंक्ति का आंदोलन में कुछ अलग ही राजनीतिक अर्थ निकाला गया। जेपी के दिए भाषण को मैं आजतक भूल नहीं पाई हूं। लेकिन इस आंदोलन का सच भी लोगों के सामने आ गया। जैसा कि हरेक आंदोलन में होता है, ऊपर के लोग तो आंदोलन का लाभ उठा लेते हैं, लेकिन जो आंदोलन का झंडा उठानेवाले लोग होते हैं, वे कहीं पीछे छूट जाते हैं। मैंने देखा कि जिन बच्चों ने आंदोलन के दौरान स्कूल-कॉलेज छोडे, ज़ेल भी गए, आज बेरोजगारी की त्रासदी झेलने को विवश हैं। मैंने आंदोलन में शरीक ऐसे लोगों की जिंदगी को गहरे से महसूस किया और 'सारिका' में इनकी व्यथा पर एक कहानी भी लिखी। जैसे एक पौधे को उखाडक़र, दूसरी जगह बो देंगे, तब भी वह जड पकड लेता है। वही टेक्निक कुछ-कुछ रचनाओं के क्षेत्र में भी होती है। एक संदर्भ से दूसरे संदर्भ जुडते चले जाते हैं और वे अपने आप आपकी रचनाओं में आकार ले लेते हैं। लोक घटना, लोक कहावतों और मुहावरों को रचनाओं में पुनर्रोपित करने का भी अपने ढंग से प्रयास किया।

बचपन की कोई घटना जिसे आज तक भूल नहीं पाई हों।
स्कूल के दिनों में एक खूबसूरत सी लडक़ी पढती थी। किसी से बात नहीं करती, बस अपने में खोई रहती। सहपाठियों को ऐसा लगने लगा था कि वह स्वभाव से घमंडी है। पता चला कि उसकी मां नर्तकी है। बाजार से जब गुजरती थी, तो एक ऐसी जगह थी, जहां केवल महिलाएं ही दिखती थी। घर के बाहर नेमप्लेट पर केवल महिलाओं का ही नाम लिखा होता था। हारमोनियम-तबले और घुंघरू की सुमधुर आवाज बाहर आती रहती थी। बचपन में कुछ समझ तो थी नहीं, मुझे लगता था कि यह कलाकारों की कोई बस्ती है। एक दिन जब मैं यों ही वहां से गुजर रही थी, तो मैंने उस बस्ती में स्कूल की खूबसूरत लडक़ी को खडे देखा। संयोग से मेरी आंखें उससे मिल गई। उसके आंखों में जो पीडा मैंने देखी, वो कभी भूल नहीं पाई। लेकिन इसके बाद की एक घटना ने मेरी सोच को ही बदल दिया। उसी दिन से उस मासूम बच्ची ने स्कूल आना छोड दिया। वो कभी दिखी भी नहीं। बाद में जब मैंने उसके बारे में जानने का प्रयास किया, तो पता चला कि उसकी शादी हो गई और वह कहीं शहर से दूर चली गई। उन मासूम आंखों की पीडा मेरी जिंदगी का हमसफर बन गई। आज भी वेश्याओं के बच्चों को देखती हूं, तो दिल मायूस हो जाता है।

आप कविता में प्रवेश कैसे करती हैं? लिखने की शुरूआत कैसे होती है?
जब आप शांति से बैठे होते हैं, तो बहुत सी असंबध्द चीजें यादों में उभर कर आती हैं। समाज में, घर-परिवार में, हर जगह दुख, अभाव, पीडा का भाव तो टपकता ही रहता है। आस-पास के जीवन का कोई टुकडा, बस में चलते हुए, कुछ पढा हुआ या बात करते हुए बच्चों को देखकर भी कभी-कभी कविता अपना आकार लेने लगती है। जैसे बचपन में घर-आंगन में सेमल की रूई उडती आती थी और उसे पकडने सभी बच्चे दौड पडते थे। वैसे ही कविता का एक सिरा पकड में आ गया, तो फिर कविता बनते देर नहीं लगती। कभी एक पंक्ति बनी, तो बाकी का आह्वान करना पडता है। कुछ ऐसे ही जैसे गांव में महिलाएं आटा गूंथकर छोड देती हैं, तो रोटी का मजा ही कुछ और हो जाता है। कुछ ऐसा ही कविताओं के साथ भी होता है।

स्थानीयता आपकी कविता की धरोहर हैं। क्या आप ऐसा महसूस करती हैं कि राजधानी में यह कहीं खो-सी गई है?
जो जिंदगी आप नहीं जी पाते, वही कविता के रूप में जीने का प्रयास करते हैं। बचपन के जो दस-पंद्रह साल होते हैं, वही जिंदगी को स्थाई भाव देते हैं और आपमें भाषा का संस्कार भी गढते हैं। जैसे आप सफर पर निकले हों और मां ने एक पोटली में बांधकर चूडा, चना-चबेना, सत्तू और अचार दिया हो तो हंसते-खेलते सफर आसानी से कट जाता है।
लोकसंदर्भ, लोककथाएं और अपने जीवन की कथाएं भी जिंदगी भर के लिए साथ नहीं छोडती। जब आप मशाल जलाते हैं, तो कतारबध्द दीयों को जलाते चलते हैं और वही ज्योति दूर तक चली जाती है। कविता में भी कुछ ऐसा ही मसलसल सिलसिला चलता रहता है और कविता अपने रूप में बनी रहती है। यही कारण है कि राजधानी की भाग-दौड में भी मैं अपनी कविता के माध्यम से स्थानीयता को ही जी रही होती हूं।

आपने कभी कहा था कि मनोवैज्ञानिक युध्द में भाषा हथियार का काम करती है। जिसको भी हाशिए पर धकेल दिया जाता है, उसकी भाषा ओजपूर्ण रूप ले लेती है। तो क्या एक लडता हुआ समाज अपनी भाषा भी आंदोलन के साथ-साथ गढता चलता है?
जब कोई समाज युध्दरत होता है, तो वह उसकी अस्मिता की लडाई होती है। उसकी भाषा में संघर्ष की चेतना होती है, एक तरह का ओज होता है। चाहे तो आप अफ्रीकी समाज की भाषा ही देख लें। वहां की बोली जानेवाली अंग्रेजी और ब्रिटिश अंग्रेजी या क्विन्स अंग्रेजी कह लें, में अंतर मिल जाएगा। ब्रिटिश अंग्रेजी में औपनिवेशिक संस्कार दिखेंगे, जबकि एशिया, अफ्रीकी, जर्मन, पोलैंड या एशिया की भाषा, जो संघर्षशील जनों की भाषा है, में एक तरह के विरोध का भाव दिखता है, आक्रोश दिखता है, वहां शिष्टता का ज्यादा ख्याल नहीं किया जाता।

हे परमपिताओं, परमपुरूषों, बख्शो, बख्शो, अब हमें बख्शो। ये आपकी कविता में किस तरह की बेचैनी है, छटपटाहट है आजादी की?
इस कविता में नए तरह के पुरूष गढने की कल्पना की गई है। पुरुष में जो पूर्वग्रह हैं, अहंकार हैं- चाहे वे जाति, लिंग, संप्रदाय या किसी और सोच को लेकर हों-उसे बदलने की जरूरत है। ईसा मसीह हंसते-हंसते सूली पर चढ ग़ए थे, उन्होंने कहा-'हे ईश्वर इन्हें माफ करना,ये नहीं जानते कि ये क्या करने जा रहे हैं।' जब कोई औरत अपने जख्म दिखाती है, तभी पुरुष को इसका भास होता है। अगर ये नहीं जानते कि वे भूलवश क्या कर रहे हैं तो मैं कहूंगी कि वे जानें कि वे क्या कर रहे हैं? स्त्री शरीर ही नहीं आत्मा भी गढती है। पुरुष ही कहीं भाई है, पिता है, मित्र है, बुरे वे नहीं, बल्कि वह सोच है जो सदियों से स्त्रियों का शोषण करती रही है। आज का पढा-लिखा पुरुष कल के मर्दवादी सोच से कहीं अलग है।

'राम की शक्ति पूजा' के लेखक निराला ने 'गर्म पकौडी' क़ी रचना कर कविता के आतंक को मिटाकर आमलोगों को भी कविता-लेखन से जोडा। नई कविता छंद-मुक्त हुई। क्या इस चलन को आप सही मानती हैं?
देखिए, कविता में किसी प्रकार का आग्रह नहीं होना चाहिए। छंद तो कविता में आते-जाते रहते हैं। हमारे यहां कविता का एक रूप लोकगीतों के रूप में भी देखने को मिलता है जो विवाह या किसी उत्सव के अवसर पर गाए जाते रहे हैं। 'आग लगी झोपडिया में, हम गावईं मल्हार' तो गेयता में एक तरह का सेलिब्रेशन भी होता है। हमारे यहां तो सबकुछ एक साथ रहा है। बाबा नागार्जुन ने भी तो कहा है-'लय करो ठीक फिर फिर गुनगुनाओ, मत करो परवाह-क्या है कहना, कैसे कहोगे, इस पर ध्यान रहे, चुस्त हो सेंटेंस, दुरूस्त हो कडियां, पके इतमीनान से गीत की बडियां।' कहीं छंद-मुक्त तो कहीं छंद भी। कविता तो अंतरंगता की भाषा है, मेल-जोल की भाषा- आदेशात्मक स्वर में तो कविता नहीं हो सकती ना। फिर वहां राग नहीं रहेगा और राग नहीं हो, तो कविता गेय भी नहीं रह जाती। लोक गीत संस्कार में रचे-बसे हों, तो कविता में गेयता बनी रहेगी।

क्या आप ऐसा महसूस करती हैं कि कविता समकालीन परिवेश से कट सी गई है? यही कारण है कि कविता लोगों से दूर होती चली गई।
जीवन के दुख-दर्द कविता में शामिल हैं। हां, व्यस्तता के कारण लोगों के पास समय नहीं रहा फिर इतने बडे देश में शिक्षा भी कितने लोगों के पास है? कवि कहने से किसी को भी लगता है कि अपना व्यक्ति होगा, हमारे हित की बात करेगा, खिलाफ नहीं जाएगा। कोई भी आदमी विश्वास की नजरों से आपको देखेगा, तो यही अपनापन ही तो एक कवि की धरोहर है।

लेकिन कुछ लोग तो कविता के मौत की भी घोषणा करने लगे हैं। धर्मवीर भारती ने भी एक बार ऐसे लोगों को ललकारते हुए कहा था-'कौन कहता है कि कविता मर गई।' आप क्या सोचती हैं इसके बारे में।
'हम न मरें, मरिहैं संसारा।' आप बताएं, कविता कहां नहीं है? आप हंसकर किसी को सडक़ पार करा दें, वहीं कविता है। जब तक मनुष्यता में विश्वास है, धरती पर हरियाली है, संवेदनशीलता जीवित है, कविता बनी रहेगी। सिर्फ जो लिखी जाए, वही कविता नहीं है। कविता वह भी है जो महसूस की जाती है। जब तक लोगों में उम्मीद की किरण, प्रेम का भाव जिंदा है, कविता मर ही नहीं सकती। आए दिन हम किसी न किसी चीज की मौत की घोषणा करते रहते हैं। नदी बहती रहती है, आप तो आते-जाते रहेंगे। ऐसा ही कविता के प्रवाह के साथ भी है। आप आए दिन की जिंदगी में भी कविता को ही जी रहे हैं। कविता तो संबंधों की भाषा है। नामी-गिरामी कंपनियां भी जीवन की कविता को ही मार्केटिंग के जरिए भुनाती हैं।

आजकल रचनाएं कालजयी क्यों नहीं होती?
रचनाएं तो चरैवेति, चरैवेति अपना सफर तय करती हैं। समय तय करता है कि क्या ढह गया और क्या बचा रह गया? समकालीन रचनाओं को आप कैसे तय कर सकते हैं कि वे कालजयी हैं या नहीं। ये तो 50 साल बाद ही पता चलेगा ना।
हमसे बात करने के लिए आपका बहुत-बहुत धन्यवाद।

असली गांधी तो दक्षिण अफ्रीका में मिले


हासिम सीदास ने बताया कि देखिए, गांधी को तो हम लोगों ने तराशा है। जब वे भारत से यहां आए थे, तो एक अनगढ हीरे की तरह थे। हमने दुनिया को गांधी नाम का सबसे बडा हीरा दिया है। असली गांधी तो यहां हैं। अगर तुम्हें लिखना ही है, तो यहां के गांधी पर लिखो-
साक्षात्कार
गांधी पर लिखने का विचार कहां से आया? आपने अपने उपन्यास 'पहला गिरमिटिया' में भारत के गांधी से ज्यादा दक्षिण अफ्रीका के गांधी को महत्व दिया है? इसके पीछे क्या वजह रही होगी?
मैंने 1947 में गांधी को देखा था। हताश, निराश गांधी को, जो देश के विभाजन से दुखी थे। हुआ यूं कि गांधी जी दिल्ली से हरिद्वार जा रहे थे। मैं उस समय छठी कक्षा में पढ रहा था। स्कूल में अध्यापक महोदय ने कहा कि चलो, आज तुम लोगों को गांधी का दर्शन करवाते हैं। हम लोग लाइन लगाकर सडक़ के किनारे गांधी के इंतजार में खडे थे। उस समय तक गांधी के बारे में बस इतनी जानकारी थी कि उन्होंने हमें आजादी दिलाई है। लेकिन देखने की ललक थी। एक कार तेजी से गुजरी। पता चला कि वो महिला मीरा बेन थी। बाद में गांधी एक बस से आए। संयोग ऐसा था कि गांधी जिस खिडक़ी के पास से बाहर झांक रहे थे, वो मेरे सामने ही थी। बापू नीचे हमारी ओर ही देख रहे थे। बापू की वो तस्वीर, वो आवाज आज भी हमारे दिल में रिकाडर्ेड है। गांधी को सुस्त, उदास देखकर मन उदास हो गया था। विभाजन के बाद देश की राजनीति में बापू को लोगों ने अप्रासंगिक बना दिया था। मामा आचार्य जुगल किशोर गांधी के निकट रहे हैं। उनसे भी बापू के बारे में बहुत कुछ जाना-समझा। गांधी मेरी जिंदगी में ऐसे व्यक्ति थे, जो हमेशा अपनी ओर आकर्षित करते रहे। इस किताब को लिखने में मुझे आठ साल लगे। जब मैं दक्षिण अफ्रीका गया, तो वहां हासिम सीदास नाम के एक व्यक्ति ने बताया कि देखिए, गांधी को तो हमने तराशा है। जब वे भारत से यहां आए थे, तो एक अनगढ हीरे की तरह ही थे। हमने दुनिया को गांधी नाम का सबसे बडा हीरा दिया है। तब असली गांधी तो यहां हैं। अगर तुम्हें लिखना ही है, तो यहां के गांधी पर लिखो। देश-विदेश भटकते हुए मैंने गांधी के बारे में जानकारियां बटोरी और तब पहला गिरमिटिया लोगों के सामने आया।
आईआईटी कानपुर के परिवेश की क्या भूमिका रही इस उपन्यास-लेखन में?
हिन्दी का होने की वजह से लोग शुरू से ही मुझे नापसंद करते थे। वहां का माहौल ही अंग्रेजियत भरा था। वहां की अमरीकन फैकल्टी मुझे बार-बार परेशान करती रही। कभी सस्पेंड किया, तो कभी कुछ और। ऐसे समय में मुझे बापू की दक्षिण अफ्रीका की पीडा याद आती थी, जब उन्हें वहां उपेक्षित, प्रताडित किया जा रहा था। वहां के परिवेश और संघर्ष में मुझे गांधी का प्रतिबिंब ही दिखा, जिसने मेरी रचना को निखारने के लिए अंर्तदृष्टि दी।
एक बार आपने मुलायम सिंह यादव के बारे में कहा था, 'एक बार मैंने चंदन का वृक्ष देखा तो मुझे सांप याद आया। लेकिन आज मुझे सचमुच का चंदन का वृक्ष याद आया।' तो क्या आज भी आप इन बातों को मानते हैं?
स्व. मित्र जनेश्वर मिश्र ने मुलायम सिंह से मिलवाया था। उस समय मुझे पैसे की जरूरत थी। उन्होंने मुझे 75 हजार रुपए दिए जिसके कारण मैं दक्षिण अफ्रीका जा सका, नहीं तो इस किताब के आकार लेने में काफी मुश्किलें आती। जनेश्वर मिश्र के जन्मदिन के अवसर पर एक सेमिनार का आयोजन किया गया था, जिसमें अध्यक्षीय भाषण देते हुए मैंने समाजवादियों की खूब खबर ली थी। समाजवादी धीरे-धीरे सामान्य जनों से दूर ग्लैमर की दुनिया में खोते जा रहे थे। जनता के बीच पकड दूर होती चली गई थी। मेरे जैसे लोग भी मुलायम सिंह से नहीं मिल पाते थे। सिक्यूरिटी वाले इधर का उधर दौडाते रहते थे। मुझे बडा अफसोस होता था कि गांधी के देश में यह कैसी स्थिति है कि नेता लोगों से मिलना तो दूर, सुरक्षा के घेरे में चलने में ही अपनी शान समझते हैं।
लोहिया जी हमेशा आपको लिखने के लिए प्रेरित करते रहे। उनका क्या प्रभाव मानते हैं अपनी रचनाओं पर?
इलाहाबाद के कॉफी हाउस में मैं अक्सर जाता रहता था। लोहिया जी भी वहां पर आते थे। वे हमेशा पूछते थे-क्या कर रहे हो? क्या लिख-पढ रहे हो? वे अक्सर समझाते हुए कहते थे कि जैसे हमारे लिए राजनीति जरूरी है, उसी तरह साहित्यकारों के लिए लिखते-पढते रहना जरूरी है। जैसे मैं राजनीति में किसी से नहीं डरता, उसी तरह तुम भी निडर होकर खूब लिखो। ये सब बातें आज भी जब कलम उठाता हूं, याद आती हैं।
बाजार जब अपना प्रभाव बढाती है तो खुद की भाषा भी गढती चलती है, क्या आप इससे सहमत हैं?
यह एक दुखद घटना है। हमारे देश में जो भी भाषा रही, वो राजा-महाराजों की भाषा रही या उनके माध्यम से होकर आई। बाजार अपने साथ एक सभ्यता भी लेकर आती है। गांधी ने इसे ही शैतानी सभ्यता कहा है। आप कल्पना करें कि भारत के गांव में जैसे कोई यूरोपियन महिला चली आए, कुछ ऐसा ही दुर्भाग्य रहा हिंदुस्तान में कि राजा की भाषा यहां चली आई। गांधी ने देश के हरेक गांव को समृध्द और आत्मनिर्भर बनाना चाहा। लेकिन नेहरू इस बात को मानने को तैयार नहीं थे। वे कहते थे कि मैं नहीं मानता कि गांव में कोई उजाला है। गांव तो अंधेरे में डूबा है, फिर वे क्या रास्ता दिखलाएंगे। अगर नेहरू ने गांधी की बात मान ली होती, तो कई समस्याएं जो आज विकराल रूप लेती जा रही हैं, नहीं होती। इसी में भाषा की समस्या भी शामिल है। देशी एवं ग्रामीण बाजार से स्थानीय भाषा का ही भला होना था।
आपके उपन्यास में एक जगह एक छात्र के आत्महत्या की बात आई है। ऐसा ही संदेश थ्री इडियटस फिल्म के माध्यम से भी दिया गया। क्या आप इसमें कुछ समानता पाते हैं?
नहीं, बात ही दूसरी है। मेरे उपन्यास में परीक्षा के तनाव की चर्चा नहीं है। इसमें दलितों के दाखिले को लेकर आईआईटी कैंपस में किस तरह लोग सोचते हैं, इसको लेकर है। दरअसल आईआईटी कानपुर में मेरी लडाई की शुरुआत भी यहीं से हुई। उस समय मैं वहां पर रजिस्ट्रार था। वहां दलित छात्रों को बहुत अपमानित किया जाता था। जिस लडक़े ने आत्महत्या की थी, वो अन्य छात्रों की तरह ही कंपटीशन पास कर आया था। स्वभाव से विद्रोही था, किसी की नहीं सुनने वाला। पता नहीं क्या हुआ, कि इनके तनावों से उबकर एक दिन उसने आत्महत्या कर ली। इंक्वायरी हुई। लेकिन देश में जैसा दूसरे तरह के जांच का नतीजा होता है, वही यहां भी हुआ। आठ-दस साल बाद भी स्थिति में कोई सुधार नहीं आया है।
पहला गिरमिटिया और आज के मॉडर्न गिरमिटिया में आप क्या अंतर पाते हैं?
पहले गिरमिटिया को दस पाउंड मिलता था सालाना। जबकि आज के लोग लाखों डॉलर लेते हैं। पता नहीं इनका देश के प्रति क्या कमिटमेंट है, लेकिन यहां रह गए मां-बाप को पैसे भेजकर ये अपने कर्तव्य की इतिश्री कर लेते हैं। गिरमिटिया समाज को दक्षिण अफ्रीका से निकाला जा रहा था, जिसकी लडाई बीस सालों तक गांधी ने लडी। अाज ओबामा भारतीय, चीनी छात्रों का भय दिखाकर अमरीका में यही करने जा रहे हैं। आईआईटी फैकल्टी की शिक्षा पध्दति भी अमरीका-केंद्रित है। वहां के सिलेबस और उदाहरण देकर छात्रों को पढाया जा रहा है। फिर तो वे धन कमाने की मशीन ही बनेंगे, अच्छे नागरिक, सुपुत्र नहीं। पहला गिरमिटिया जब यहां से गया था, तो अपने साथ रामायण का गुटका, माला और गंगा जल लेकर रोजी-रोटी के लिए वहां गया था। वे चाहे हिंदू थे, मुसलमान, तमिल या पारसी। लेकिन आज के गिरमिटिया तो सब कुछ यहीं छोडक़र जाते हैं, भारतीयता को भी और वहां से अंग्रेजियत लेकर आते हैं। हमारे समाज में मजदूर 100 रुपए भी कमाता है, तो 5 रुपए बचा लेता है। जबकि वहां सबकुछ वीजा कार्ड पर चलता है। अमरीकन दिवालिएपन का कारण यही वीजा कार्ड ही रहा, जिसने कर्ज लेकर लोगों को मकान, गाडी ख़रीदना सीखाया।
एक अंतिम सवाल, कवि भवानी सिंह ने एक बार साक्षात्कार के दौरान कहा था कि 'मुरारजी भाई की ऐसी की तैसी, गांधी से लोगों का काम हल नहीं होगा, तो मार्क्स तक जाने में उन्हें कोई रोक नहीं पाएगा।' क्या आप इससे सहमत हैं?
जहां तक मार्क्स की बात है, उनका सिध्दांत बहुत ही उपयोगी है। लेकिन भारत में स्थितियां दूसरी रही। यहां मजदूर से ज्यादा किसानों की हालत खराब थी। कम्यूनिस्ट भाई तो केवल मजदूरों की बात करते थे। गांधी ही थे जिन्होंने मजदूरों, किसानों को एकजुट किया। मार्क्स आज सब जगह से बाहर किए जा रहे हैं। पार्टी वर्कर भी जनता से कट रहे हैं, ऐश कर रहे हैं। आजादी के समय पुराने मार्क्सवादियों में कुछ लोग ही थे जो इसे कैपिटलिस्ट की लडाई न मान सीधे आंदोलन में शरीक हुए। जब तक गरीब, संघर्षशील लोग रहेंगे, गांधी लोगों को रास्ता दिखाते रहेंगे। आज दुनिया के लोग गांधी को स्वीकार कर रहे हैं। आज के मार्क्सवादी तो जनता की राजनीति से ही कट गए हैं। एक बात तो तय है कि नेताओं को देश के लोगों से जुडना होगा, चाहे आप गांधी, मार्क्स, गोलवलकर को स्वीकार करें या नहीं।

हमसे बातचीत करने के लिए आपका बहुत-बहुत धन्यवाद

(साहित्यकार गिरिराज किशोर से चंदन राय की बातचीत)

लो क सं घ र्ष !: अपसंस्कृति


दुनिया की आप़ा धापी में शामिल लोग
भूल चुके है अलाव की संस्कृति
नहीं रहा अब बुजुर्गों की मर्यादा का ख्याल
उलझे धागे की तरह नहीं सुलझाई जाती समस्याएं
संस्कृति , संस्कार ,परम्पराओं की मिठास को
मुंह चिढाने लगी हैं अपसंस्कृति की आधुनिक बालाएं
अब वसंत कहाँ ?
कहां ग़ुम हो गयीं खुशबू भरी जीवन की मादकता
उजड़ते गावं -दरकते शहर के बीच
उग आई हैं चौपालों की जगह चट्टियां
जहाँ की जाती ही व्यूह रचना
थिरकती हैं षड्यंत्रों की बारूद
फेकें जाते हैं सियासत के पासे
भभक उठती हैं दारू की गंध -और हवाओं में तैरने लगती हैं युवा पीढ़ी
गूँज उठती हैं पिस्टल और बम की डरावनी आवाज़
सहमी-सहमी उदासी पसर जाती हैं
गावं की गलियों ,खलिहानों और खेतों की छाती पर
यह अपसंस्कृति का समय हैं |

-सुनील दत्ता
मोबाइल- 09415370672

यह निवेश किस काम का...




इस देश का दुर्भाग्य नहीं तो और क्या है कि वही यूनियन कार्बाइड, जो भोपाल के लोगों का सबसे बडा गुनहगार है, धड़ल्ले से गुजरात में कारोबार कर रहा है। अगर इस कंपनी के गुनाहों को धोना है तो एंडरसन का इस देश में प्रत्यर्पण कराने के बाद देश के कटघरे में खडा करना होगा। जनता को यह भी ध्यान रखना होगा कि फिर कोई जस्टिस अहमदी इनकी मौत को अदालत में कम आंकने की तिकडम न करे। फिर कोई देश का सौदा करने वाला राजनेता एंडरसन को बचाने के लिए सरकारी गाडी में मेहमान न बनाए
धीरे-धीरे मौत के आगोश में दम तोडता हुआ मध्यप्रदेश का एक शांत शहर भोपाल। पुराना भोपाल के छोला इलाके के पास ही है जेपी नगर जहां सैकडाें एकड में फैला है यूनियन कार्बाइड का कारखाना। एकाएक टैंक नंबर 610 के दैत्य ने जहरीली गैस उगलना शुरू किया। पल भर में भोपाल शहर एक गैस चैंबर में बदल चुका था जिसमें हर भोपालवासी तडप-तडप कर मरने को विवश था। कुछ ही दिनों में करीब पंद्रह हजार बच्चे, जवान, बुजुर्ग, स्त्रियां सभी इसकी जद में थे और चारों ओर बिखरा था अपनों का शव। सरकार ने अलग-अलग नंबर उन लावारिस लाशों पर टांग दिए थे, ताकि मरे हुए लोगों की पहचान हो सके। भोपाल शहर का हर वाशिंदा चारों तरफ पसरे मौत के सन्नाटे को नजदीक से महसूस कर रहा था और अपनों की तलाश में भटक रहा था। अभी भी 26 साल पहले हुए मौत का तांडव फिजाओं में चारों तरफ पसरा है। अमीया बानो कि एक ही चाह है कि उसकी ढाई साल की पोती रेशमा दूसरे बच्चों की तरह दौडती हुई आए और उसके गले से चिपट जाए। न जाने कई विकलांग रेशमाओं का दोषी एंडरसन अमरीका के एक आलीशान कोठी में अपनी बची-खुची जिंदगी गुजार रहा है। अंधाधुंध विकास की कीमत चुका रहे हैं भोपालवासी। कभी माओत्से तुंग ने कहा था कि अगर चीन पर साम्राज्यवादी देशों का हमला होता है, तो कुछ लाख लोग मरेंगे, लेकिन जितने लोग बचेंगे वही समाजवाद लेकर आएंगे। कुछ ऐसा ही तर्क आज 'ग्लोबलाइजेशन' के दौर में भी गढा जा रहा है, जहां विकास की कीमत चुकाने के लिए कुछ लाख या करोड लोग भी मर जाएं, तो बचे हुए लोग ही उदारीकरण की असली संतान के रूप में पेश किए जाएंगे। इस बुलंद इमारत की नींव में तो कुछ लाख आदिवासियों, किसानों, मजदूरों और गरीबों को तो दफन होना ही होगा। इस मामले में आला दर्जे के नेता चुप्पी साधे हैं, दूसरे स्तर के नेता मैदान में हैं, जिन्हें पता है कि ऊपर के लोगों को कब बोलना है और कब मौन धारण करना है। मामला एंडरसन का हो या क्वात्रोची का, देश के विदेशी गुनहगारों के लिए हर खून माफ है। बस शर्त एक ही है वे यहां निवेश करें और मुनाफे में कुछ हिस्सेदारी भी दें और चाहें तो उसका एक बडा हिस्सा अपने देश ले जाएं। विदेशी कंपनियां भी भारत की मजबूरी समझती हैं और समय पर सरकार की बांह मरोडने में परहेज नहीं करती। भारत अभी भी उनके लिए सोने की चिडियों वाला देश है, जो रोज उनके लिए सोने के अंडे देती है। ये दुनिया का सबसे बडा औद्योगिक हादसा था, जिसने करीब ढाई लाख लोगों को किसी न किसी बीमारी की चपेट में ले लिया। अभी भी जन्म लेते बच्चे जहरीली गैस के प्रभावों से अछूते नहीं हैं। बच्चे अपने पैरों पर खडे नहीं हो पाते, बोलते हैं तो हकलाकर, कितने बच्चे तो मानसिक विकलांग पैदा हो रहे हैं, जहरीली गैस की घुटन उन्हें तिल-तिल कर मार रही है। अभी भी वहां की सरकार आंखें मूंदकर लोगों को खनन के पट्टे दे रही है, पर्यावरण मानकों को धत्ता बताते हुए। इसके कारण यहां के जलाशयों में लेड, कैडमियम, आर्सेनिक की मात्रा बढ ग़ई है। ये तो वही मिसाल है कि बोझ से दबे जानवर के ऊपर चार मन का बोझ लादो या दस मन का, क्या फर्क पडता है? पर भोपाल के लोग आखिर करें भी तो क्या? भारत का पूरा तंत्र जिस अपराधी को बचाने में लगा हो, उसके आगे इन बेबसों की क्या बिसात? कहते हैं, इस त्रासदी की धमक अमरीकी सत्ता गलियारें में भी सुनी गई थी। अमरीकी सरकार परेशान हो तो क्या केंद्र, क्या राज्य, सबों के लिए अमरीका की सलाह निर्देश के रूप में लेने की होड लग जाती है। इस आपाधापी में इन्हें यह ख्याल भी नहीं रहता कि पांच साल बाद उन्हें जनता को मुंह भी दिखाना है।
विदेशी कंपनियों का अपने देश में स्वागत है, चाहे वे मॉरीशस के रास्ते आएं या दुबई से, सरकार का एक ही मकसद है कि वे निवेश के साथ लोगों को रोजगार भी दें। लेकिन निवेश और रोजगार के लोभ में लोगों की जिंदगियों से तो समझौता नहीं किया जा सकता। देश की सुरक्षा को दांव पर नहीं लगाया जा सकता। निवेश के बहाने अगर बहुराष्ट्रीय कंपनियां देश की राजनीति में हस्तक्षेप करें, तो यह बर्दाश्त नहीं किया जा सकता। इसके लिए जरूरी है कि मल्टीनेशनल कंपनियों से सियासी दल चंदा लेना बंद करें। आप चंदा लेंगे तो वे राजनीति में दखल देंगे ही। क्या भारत की जनता को इतनी समझ नहीं कि इन चंदों का सच क्या है? सीमित संसाधनों की लूट में छूट मिले तो कुछ करोड ड़ॉलर का चंदा भला उनके लिए क्या मायने रखता है। आने वाली सदी में वही देश शक्तिशाली होगा, जिसके पास अधिक से अधिक आर्थिक संसाधन होंगे। अफ्रीका से लेकर एशिया एवं लातिन अमरीकी देशों के संसाधनों पर कब्जे की होड में विदेशी कंपनियां जाल बिछाने में लगी हैं। जो कंपनियां 'कंपनी सोशल रिस्पांसिबिलिटी' यानी सीएसआर के नाम पर कुछ लाख डॉलर खर्च कर सरकार से तमाम करों से रियायत लेने में लगी होती हैं, वे भला मुफ्त में चंदा क्यों देंगी? इन कंपनियों के लिए दूसरे देशों में रास्ता तलाशने के लिए खतरनाक खुफिया एजेंसियों मोसाद, सीआइए का नेटवर्क भी होता है, जो इनके इशारों पर किसी भी देश में तख्ता पलट के लिए तैयार होती हैं। लातिन अमरीका हो या अफ्रीका या फिर अफगानिस्तान से लेकर पाकिस्तान तक, लोकतंत्र के नाम पर दूसरे देशों में सरकार पर हमला बोलना, उन्हें हराकर कठपुतली सरकार बिठाना और फिर कंपनियों को लूटने की खुली छूट देना। इसमें खुफिया एजेंसियां और कंपनियां सरकार की शह पर दूसरे देशों में उखाड-पछाड क़ा खेल खेलती रही हैं। भारत में विदेशी कंपनियों का इतिहास फिर से दोहराया जा रहा है। सरकार के पास जनता को फुसलाने के लिए विकास का नारा है। विदेशी कंपनियां अपनी कही जाने वाली सरकार के कान में मंतर फूं क चुकी है। परमाणु करार का ही अगला चरण लायबिलिटी बिल के रूप में जनता के सामने पेश किया जा रहा है। जिम्मेदारी सरकार की, मरें देश के नागरिक और माल उडाकर ले जाएं विदेशी कंपनियां। फिर एंडरसन की तरह हमें उनके प्रत्यर्पण की मांग करने का अधिकार भी तो नहीं होगा। वे कुछ लाख चुकाकर तमाम जिम्मेदारियों से मुक्त हो जाएंगे। इस देश का दुर्भाग्य नहीं तो और क्या है कि वही यूनियन कार्बाइड, जो भोपाल के लोगों का सबसे बडा गुनहगार है, धड़ल्ले से गुजरात में कारोबार कर रहा है। अगर इस कंपनी के गुनाहों को धोना है तो एंडरसन का इस देश में प्रत्यर्पण कराने के बाद देश के कटघरे में खडा करना होगा। जनता को यह भी ध्यान रखना होगा कि फिर कोई जस्टिस अहमदी इनकी मौत को अदालत में कम न आंकने की तिकडम करे। फिर कोई देश का सौदा करने वाला राजनेता एंडरसन को बचाने के लिए सरकारी गाडी में सरकारी मेहमान न बनाए। फिर देश-सेवा की कसमें खाने वाला सरकारी अधिकारी राजनेता को देश से ऊपर मानने की गुस्ताखी न करे। हाल में आंध्र प्रदेश सरकार जॉर्जिया टेक यूनिवर्सिटी को अपने यहां बुलाने के लिए रियायती दरों पर जमीन उपलब्ध कराने के लिए बिछी जा रही थी। विदेशी यूनिवर्सिटी उस जमीन का ज्यादा कीमत देने के लिए तैयार थी, लेकिन सरकार ने सदाशयता दिखाते हुए एक करोड प्रति एकड क़ी जमीन एक से डेढ लाख प्रति एकड में ही देने की पेशकश की। एक विदेशी यूनिवर्सिटी अगर जमीन का अधिक पैसा देने के लिए तैयार हो और रियायत की मांग भी न करे, तो क्या जरूरत है कि उन्हें छूट देने के लिए हम गिडग़िडाएं ही। इस बात का खुलासा लोगों को सूचना के अधिकार से मिला। क्या कारण है कि हमारे यहां का पूरा तंत्र और राजनैतिक नेतृत्व विदेशी कंपनियों के सामने वफादारी दिखाने की होड में लग जाता है। नियम-कायदों को ताक पर रखकर सारी सुविधाएं देने की होड लग जाती है। यहीं से इन विदेशी कंपनियों को यह संदेश जाता है कि भारत जैसे देश में सबकुछ चलता है। जनता हर घटना पर प्रतिक्रिया देने के लिए सामने नहीं आती और जब लोकतंत्र के चुनावी दंगल में जवाब देती है, तो फिर सरकार औंधे मुंह मैदान पर धूल चाट रही होती है। एक ईस्ट इंडिया कंपनी के जख्म को सहलाते हमारी कई पीढियां गुजर चुकी, फिर एक यूनियन कार्बाइड के घाव भला इतनी जल्दी कैसे भरेंगे? भोपाल में जो हो गया, उन मासूमों की जान को वापस तो नहीं लाया जा सकता, लेकिन इससे मिले सबक को हमेशा याद रखना होगा कि विदेशी कंपनियां भारत को चारागाह न समझ सकें।

स्वर्ग में पहुँच संभव

स्वर्ग में अधिकार अपार हैं और कर्तव्य नहीं के बराबर। भोग के एक से एक उत्तम साधन भी वहाँ मुफ़्त में सुलभ हैं। रमण के लिए चारों ओर रमणीक वातावरण भी है। ऐसी आम जनों की धारणा है। इस संबंध में मेरी अवधारणा से अवगत होने के निम्न मुक्तक पढ़िए।

"चेन्नई में पहुँचना, गुलमर्ग में पहुँचना।
उपसर्ग में पहुँचना, संसर्ग में पहुँचना॥
सारी पहुँच के ऊपर बस एक पहुँच यारो-
सुवर्ग में पहुँचना, है "स्वर्ग" में पहुँचना॥"

असंतोष से ही सर्जनात्मक लेखन संभव : चित्रा

चित्रा मुद्गल से चंदन राय की बातचीत

आपने बचपन में एक बार अम्मा से शेर की खाल मांगी थी, लेकिन मिला आपको बप्पा का लिखा हुआ नाटक और कुछ कविताएं। तो क्या साहित्य-लेखन में इस घटना का भी कोई योगदान आप महसूस करती हैं?
आश्चर्य से...अरे, आपको कैसे पता। हां, सफाई तो नहीं, रिनोवेशन हो रहा था, बप्पा के न रहने पर मैं उनकी याद अपने पास रखना चाहती थी। बप्पा के शिकार किए कई शेर की खालें और बारहसिंगा की झाडीदार नुकीली सिंगें ड्राइंगरूम में लगी रहती थी। अम्मा ने देने से मना कर दिया था। घर का माहौल तो था ही, साथ ही आस-पास के परिवेश से प्रभावित होकर ही लिखने की ओर उन्मुख हुई। उस समय समाज सामंतवादी माहौल की जकडन में था। औरतों की स्थिति को देखकर मन खटकता था। साथ ही इस बात पर अफसोस भी होता था कि दूसरे लोगों को भी क्यों इनके हालात पर गुस्सा नहीं आता। गांव की स्थितियां शहरों से और भी बदतर थी। शहर में तो एक तरफ का खुलापन होता था, लेकिन गांव का वातावरण तो संकीर्ण था। महिलाओं को घर के पिछवाडे बनी खिडक़ी से ही घर में आना-जाना होता था। इस सवाल ने बचपन से परेशान किया कि अगर भैय्या और अन्य लोग घर के मुख्य दरवाजे से भीतर आ सकते हैं, तो हम क्यों नहीं? एक बात और भीतर तक कचोटती थी- यह करना है, यह नहीं करना है-के निर्देश खासकर घर की महिलाओं के लिए। जबकि भैय्या कुंवर कमलेश प्रताप सिंह के लिए कोई रोक-टोक नहीं। इसी तरह के असंतोष और टूटन ने लिखने को प्रेरित किया।
आपकी रचनाओं में समाज के छोर पर खडे व्यक्ति की आवाज सुनाई पडती है, जिन लोगों की सत्ता के गलियारों में आवाज कभी नहीं सुनी गई। क्या जुडाव महसूस करती हैं आप उस वर्ग से?
मैं बचपन से ही इनसे एक प्रकार का अपनापन महसूस करती रही हूं। हंसते हुए...पिछले जन्म में मैं जरूर इसी वर्ग से रही होऊंगी। हुआ यूं कि जब मैं स्कूल से घर लौटी, तो दत्ता सावंत को घर में पाया, जो किसी बात पर जोर-जोर से बहस कर रहे थे। हमारे घर के पास से ही मजदूरों के आने-जाने का रास्ता था। कुर्ला से लेकर मुलुंड तक जहां से पहाडी ड़ॉकयार्ड शुरू होती है, तक पत्थर का दीवाल बनाया जा रहा था। इस तरफ अफसरों की बस्तियां थी, दूसरी तरफ मजदूरों की बस्ती, जो इधर के औद्योगिक इलाकों में काम करने जाते थे। इन्हीं के घर के पास से छोटा सा रास्ता गुजरता था, जहां से सुबह-शाम मजदूर अपनी ही मस्ती में खोए, फावडा-कुदाल लिए गुजरते थे। अफसर शाम को बंगले के बाहर लॉन में अपने परिवार या मित्रों के साथ कुर्सी लगाकर बैठे होते थे। अफसरों की पत्नियां भी नाक-भौं सिकोडती थीं, जब मजदूरों का झुंड हु-हु करता हुआ मदमस्ती में गाते हुए बगल के रास्ते से गुजरता था। अगर यह दीवाल बनाई जाती, तो मजदूरों को 3-4 किलोमीटर सुबह-शाम आने-जाने में ज्यादा चक्कर लगाना पडता। मैंने कहा कि अगर मेरा बस चले तो मैं इस दीवाल पर फावडा चला दूं। दत्ता सावंत आश्चर्य से मेरी ओर देखने लगे और अगले ही दिन से मुझे कुछ अशिक्षित मजदूर स्त्रियों को पढाने का काम सौंप दिया गया। सिर्फ शहरों में बदहाल मजदूर ही नहीं, बल्कि गांव की दुनिया को भी इससे जोडा। अनायास प्रतिबंध से चिढ क़े कारण ही इस वर्ग के दुख-दर्द में महिलाओं को भी शरीक किया। गांव में जब मेले या हाट में जाना होता था, तो अम्मा बैलगाडी में चादर डालकर पीछे के दरवाजे से आती थी। बैलों को घुमाकर आगे लाया जाता था, तभी महिलाएं घर से निकलती थी। गांव से बाहर निकलते ही दलितों की बस्तियां थीं, जिनसे होकर जाने की मनाही थी। इन सभी बातों का विरोध करते हुए मैंने हमेशा अपने को इस वर्ग के आस-पास ही पाया।
आप विचारों से लोहियावादी रही हैं। आप साहित्य में विचार को कितना महत्व देती हैं?
लोहियावादी तो नहीं, हां लोहिया जी के विचारों से प्रभावित जरूर रही हूं। बहुत कुछ सीखा है, पाया है, तो प्रभावित होना स्वाभाविक ही था। बराबर ट्रेड यूनियन के आंदोलन में शरीक होती रही, दत्ता अंकल का सहयोग भी मिलता रहा। हालांकि वे थे तो कांग्रेसी, लेकिन इससे लोगों के बीच काम करने पर कोई प्रभाव नहीं पडा। बाद में सीपीआई के संपर्क में भी आई। जगदंबा प्रसाद दीक्षित जी लोगों को विचारों से दीक्षित करने में ही लगे रहते थे, जिसका असर काम पर पडता था। पार्टी अनुशासन से ज्यादा रूचि मेरी लोगों के भले के लिए काम करने की थी। अहिल्या ताई के साथ हम लोगों से चंदा लेकर ही काम करते थे, कोई डॉलर या पाउंड के अनुदान से चलने वाली संस्था नहीं थी, हम लोगों की। आज दुख होता है जब चंदे के पैसे को लोगों को दारू, मीट पर खर्च करते हुए देखते हैं। क्रांति और शराब का भला कैसा संबंध। उतना ही दुखी होती हूं किसी मजदूर को देशी शराब की दुकान पर खडे देखकर। यही पैसा एक वक्त परिवार को भूखा सुलाता है। मैं लोहिया जी के देसी समाजवाद से प्रेरित रही। समाजवाद में भी तो भूगोल, इतिहास का ख्याल रखना ही होगा। क्या सीमोन द बउआर के देश में विधवा नारियों को चिता पर जलाया जाता था। अगर नहीं, तो नारी विमर्श के स्वरूप भी तो देश काल में बदलने स्वाभाविक हैं। आज राजनीति ने पूंजीपतियों के साथ मिलकर मजदूर-शक्ति का क्षरण किया है। जेपी के आह्वान पर पूरे देश में छात्रों ने बगावत का झंडा बुलंद कर दिया था। साहित्य के केंद्र में विचार का तो अपना महत्व है ही।
आज के उग्र वामपंथ को आप किस रूप में देखती हैं?
हम लोगों का घर तो सबों के लिए खुला होता था, दूसरों के बारे में नहीं जानती। समाज में जब तक कुछ लोगों के पैसे कमाने की हवस के कारण अधिकांश हाशिए पर धकेले जाते रहेंगे, लोग सडक़ पर उतरेंगे या गुरिल्ला लडाई में शामिल होंगे ही। क्या हमने इन लोगों की बात सुने जाने के लिए लोकतंत्र में कोई स्पेस छोडा है? हालांकि नक्सल अपने शुरूआती दौर में जेनुइन था। बहुत बडे नाटककार गौतम घोष बराबर इन लोगों के बीच जागरूकता फैलाने का काम करते रहते थे। दुबले-पतले, मरियल-से दिखने वाले मिथुन चक्रवर्ती सहित उस समय के सभी नाटककार इफ्टा के तहत वहां प्रचार में लगे थे। लोग खुलकर चंदा देते थे, जबरदस्ती जेब में पैसा निकालकर डाल देते थे। लेकिन आज मजदूरों की शक्तियों को सत्ता ने पूंजीपतियों के साथ मिलकर तोड दिया है, यही कारण है कि ऐसे आंदोलन अब विकराल रूप लेते जा रहे हैं।
आज मिर्चपुर से लेकर तमाम जगहों पर दलितों पर अत्याचार बढे हैं, सत्ता का स्वरूप भी बदला है, अब वह कमजोर की बजाय ताकतवर के साथ खडी दिखती है, आपका क्या विचार है?
छत्तीसगढ हो या अमरीका, हर जगह सत्ता का एक ही चरित्र होता है। पूंजीपति सरकार के साथ मिलकर देश के संसाधनों को जमकर लूट रहे हैं। स्वराज को आकार-प्रकार देने वाली राजनीति का यह कैसा रूप है? हत्यारे एंडरसन को भगाने के लिए केंद्र से लेकर राज्य सरकार तक पूरा अमला लगा था। अर्जुन सिंह चाहते तो जनता की जवाबदेही का हवाला देकर केंद्र के आदेश को मानने से इंकार कर सकते थे। ऐसे नेताओं को तो सरेआम चौराहों पर फांसी लगा देनी चाहिए। इसे छद्म राजनीति नहीं तो, और क्या कहेंगे?
एक अंतिम सवाल, आपको पाठक किस रूप में जानें-एक उपन्यासकार, कहानीकार, समाजसेविका या कुछ और...?
पाठकों के पास वही अनुभव पहुंचते हैं, जो उन्हीं के परिवेश से अर्जित किए गए हैं। यह सवाल मैं पाठकों पर ही छोडती हूं। हालांकि अब उनके पत्र कम ही आते हैं, हां फोन जरूर आते रहते हैं। पाठक ही तय करें कि वे मुझे किस रूप में अपने नजदीक महसूस करते हैं। हमसे बात करने के लिए आपका बहुत-बहुत धन्यवाद...

एक लापरवाह धार्मिक देश में...

आप किसी सुरक्षा चेक पोस्ट पर खड़े हो जाएं। किसी बढ़ी हुई दाढ़ी वाले को मुल्लाजी की तरह टोपी लगाए एवं घुटने तक पायजामा पहने देखकर ही सुरक्षा अधिकारी कुछ ज्यादा ही मुस्तैद नजर आने लगते हैं। उनकी बकायदे चेकिंग के समय ऐसा लगता है मानो उन अधिकारियों की नजर में ये पहले से ही आतंकवादी घोषित हो चुके हों। कुछ ऐसी ही छवि को लेकर हमारा समाज भी बड़ा होता है। यही कारण है कि एक समरस कहे जाने वाले समाज में मुसलमानों की बस्ती आज भी हिन्दू बहुल कॉलोनियों से दूर ही बसी होती है और शायद दूर रहकर ही वे अपने को सुरक्षित भी महसूस करते हैं। सबकुछ खेल हमारे मनोमस्तिष्क में छवि क्रिऐट किए जाने को लेकर है। आज सरकार के नुमांइदों की नजर में हरेक मुसलमान आतंकी है और हरेक आदिवासी माओवादी। इस तर्क को लेकर उनके लिए अपराधियों की तलाश करने में आसानी होती है। ऐसे में इस समुदाय की ओर से किए गए सार्थक पहल भी अखबारों की सुर्खियां नहीं बटोर पाते। कुछ ऐसा ही हुआ लखनऊ के एक मुसलमान बहुल इलाके में। मुसलमानों ने जल संरक्षण को लेकर एक मुहिम की शुरूआत की है, कहते हैं ना कि किसी नेक काम की शुरूआत घर से होनी चाहिए, कुछ ऐसे ही अंदाज में लखनऊ के ये मुसलमान मस्जिदों में वजू करने के लिए लोटे के इस्तेमाल पर जोर दे रहे हैं। नेक मुसलमान खुदा की बंदगी में दिन में पांच बार नमाज अदा करता है। एक बार वजू करने में नल से करीब पांच लोटा पानी बर्बाद होता है, जबकि लोटे के इस्तेमाल से चार लोटा पानी बचाया जा सकता है। है न एक छोटी, लेकिन सार्थक पहल।
हम रोज शिवालयों में न जाने कई बाल्टियां शिवलिंग पर रोज उड़ेल आते हैं। कुछ इस सोच में कि जितना गंगा जल शिवलिंग पर चढ़ाया जाएगा, भगवान उतने ही प्रसन्न होंगे। ऐसे में अंधविश्वास का दौर चला तो इसी पानी की जगह दूध की नदियां बहाने में भी गुरेज नहीं करते। हो सकता है कि पड़ोस में बच्चा दूध के बिना छटपटा रहा हो, या कोई गरीब भूख से बेबस होकर दम तोड़ दे, लेकिन भगवान को खुश रखना जरूरी है। दुनिया का शायद ही कोई भगवान हो, जो भूखे बच्चे के हिस्से का दूध गटककर भी चैन से रह सके। भद्र समाज की कलियुगी लीलाएं देखकर तो किसी भी नेक इंसान का कलेजा मुंह को आ जाए। सड़क के बीचों-बीच चौराहे पर कई बार पूडिय़ां, चने, लड्डू, खीर के साथ सिंदूर और पता नहीं क्या-क्या पत्तलों पर बिखरे होते हैं। इस भूखे देश में चौराहे पर अनाज बिखेरकर न जाने किस भगवान की पूजा होती होगी। कुछ देर बाद ही उन प्रसादों पर कुत्तेां की फौज टूट पड़ती है। खैर इसी बहाने कुछ सड़कछाप कुत्तों की भूख तो मिट जाती है। लेकिन दुख तब होता है, जब इन्हीं के बीच अधनंगे बच्चे, बच्चियां भी प्रसाद में एक हिस्सा झपट लेने के लिए कुत्तों से संघर्ष करती दिखती हैं। हमारा भद्र समाज इन्हें एक भद्दी सी गाली देकर अपनी राह लेता है-स्स्स्...ाले, खिलाने की औकात नहीं, तो पैदा ही क्यों करते हैं? कोई इनके शहर आने पर ही लानत मलामत करते हुए सात पुश्तों को गाली से नवाजने में भी गुरेज नहीं करता। लेकिन इनमें शायद ही कोई ऐसा बंदा हो, जो किसी बच्चे का हाथ थामकर पास के होटल में ले जाकर एक रोटी ही खिला दे। हालांकि ये अभागे बच्चे आपके लाडले की तरह सोने का चम्मच लेकर नहीं पैदा हुए, लेकिन इनके मां-बाप को भी उतना ही दर्द होता होगा, जितना आप अपने बच्चे की कोई जिद पूरी करने में अपने को असमर्थ महसूस करते होंगे। लेकिन यहां जिद किसी हवाई जहाज या लग्जरी कार को लेकर नहीं होता, बल्कि एक सूखी रोटी के लिए होती है, जिसे सड़क पर बिखरा देखकर रोता हुआ बच्चा कुत्ते से भी झपट लेने के लिए तैयार होता है।
ब्लॉगर के लिए किसी एक विषय पर टिककर रहना बड़ा ही मुश्किल होता है। विचारों का ताना-बाना किसी बंधन को स्वीकार नहीं करता। अब देखिए, बात तो यहां हो रही थी वजू के लिए जल संरक्षण की और निकलते-निकलते अधनंगे बच्चों पर आ गई। क्या आपने गांव या आस-पास कभी सुना है कि पानी के लिए किसी ने पड़ोसी का गला काट दिया हो? आपका जवाब नहीं ही होगा, हालांकि वहां पानी के लिए एक दूसरी तरह की लड़ाई हो सकती है। सवर्णों के कुएं से अछूत मानी जाने वाली बिरादरी को पानी लेने पर रोक हो सकता है या फिर कुछ ऐसी विभत्स हिंसा का रूप देखने को मिल सकता है। लेकिन पानी की कमी को लेकर हिंसा तो कभी नहीं होती होगी। जैसे-जैसे मेट्रो सिटीज बसते गए, गांव का पानी शहरों की तरफ आने लगा, तब भी इन शहरातियों की प्यास नहीं बुझी। भला बुझती कैसे, सरकार ने शहर में पानी पर भी पहरा जो बिठा दिया था। पानी यहां कुओं की जगह बड़े-बड़े मशीनी टैंकरों में जो मिलने लगा था। फिर पानी के लिए लूट होनी ही थी, जिसमें दबंग लोग गरीबों के हक का पानी भी छीनने लगे। हालांकि मध्य वर्ग जो बिसलरी के पानी से ही नहाता था, उसके लिए शहर के हर मॉल, कॉलोनी के कोने वाली दुकान में बोतलबंद पानी उपलब्ध थी। कंपनियां लोगों की जरूरतों को आंकने में अव्वल होती हैं। यहां उनकी कल्पनाशीलता कवियों की रचना से भी तेज होती है। यही कारण है कि कभी रिलांयस को सब्जी के स्टॉल लगाने पड़ते हैं, तो कभी एमएनसीज को बोतलबंद पानी बेचना पड़ता है, तो कभी विदेशों में शुद्ध हवा लेने के लिए ऑक्सीजन बार में जाना पड़ता है। इनका बस चले तो अभी से चांद पर सब्जियां उगाने के लिए उन्नत प्रोद्योगिकी का दावा करने वाले बीज बेचना शुरू कर दें।
देश के राष्टï्रपिता बापू का कथन आज के राजनेताओं और पूंजीपतियों को तो नहीं याद रहा, लेकिन लखनऊ के इन मुसलमान भाईयों ने इसे आजमा कर समाज के सामने एक मिसाल कायम किया है। सचमुच प्रकृति सारे संसार का पेट भरने में समर्थ है, लेकिन कुछ लालची पूंजीपतियों का पेट भरने में नहीं। जल हमें प्रकृति ने एक विरासत के रूप में दिया था, ताकि हम अपने लिए इसका इस्तेमाल करते हुए आगे की पीढ़ी को सौंप सकें। लेकिन हमने प्रकृति के इस संदेश को किसी कोक बनाने वाली कंपनी या किसी बोतलबंद एमएनसी के हाथों एमओयू पर साईन कर उन्हें सौंप दिया। इन भद्र मुसलमान भाइयों का लक्ष्य महीने में सौ मस्जिदों में जाकर इस संदेश को फैलाना है ताकि लोग जल संरक्षण के लिए प्रेरित हो सकें। ऐसे में समाज में एक उम्मीद की किरण नजर आती है कि अभी भी समाज में कुछ लोग हैं, जो प्रकृति के अनमोल धरोहर को आने वाली पीढिय़ों के लिए बचाकर रखने के बारे में सोचते हैं।