मैं अपने हाथ में रखता हूं अब चाबी मुकद्दर की ।
ये दौलत भी मेरे अजदाद ने मुझको थमाई है ।।
वो होंगे और जो मुश्किल में तुमको देखके चल दें ।
मेरे मां बाप ने मुझको अलग आदत सिखाई है ।।
दे देंगे जान लेकिन बाज हम फिर भी न आएंगे ।
ये ज़िद मेरी अभी तक की उमर भर की कमाई है ।।
मैं हूं जिस हाल में खुश हूं मुझे छेड़ो न तुम ज्यादा ।
ये दौलत जो तुम्हें बख्शी गई हमने लुटाई है ।।
सफर में जो गए बाहर वो फिर वापस नहीं लौटे ।
कि हमने गांव में टिककर ही ये इज्जत बनाई है ।।
हमारे साथ तू न थी तो यही अंजाम था मेरा ।
बताओ हाल-ए-दिल मेरा तुम्हें किसने सुनाई है ।।
बहुत अच्छी ग़ज़ल. हजज की गज़लें बहुत कर्णप्रिय लगती हैं.
"ये दौलत जो तुम्हें बख्शी गयी.." बहुत अच्छा शेर लगा. मतला भी ज़ोरदार है. आखिरी शेर में 'हाले दिल मेरा' और 'किसने सुनाई है' जंच नहीं रहा है.
फ़ोड़ कर रख दिया!
bahot sunder likhe hain aap.