Visit blogadda.com to discover Indian blogs कठफोड़वा: जनवरी 2010

साथ छोड़ गए प्रभाष जी


पत्रकारिता के युगपुरुष को श्रधांजलि

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सिद्दांत-विमर्श

एक महान दर्शनशास्त्री ने एक बार बताया था कि इतिहास का अंत हो गया है काफी बहस हुआ इतिहासकार सकते में आ गए ढेर सारे लोगों ने इतिहास के अंत की बात को नकार दिया इस दर्शनशास्त्री ने लोगों की भावनाओं के साथ काफी खिलवाड़ किया इतिहास का अंत तो किया ही भगवान् को भी मार दिया लोगों को अपना भविष्य अंधकार में दिखने लगा अगर इतिहास ख़तम हो गया तो दोहराया क्या जाएगा?

समय के परिप्रेक्ष में अगर वर्तमान परिस्थितियों की बात करें तो सब कुछ खुला-खुला दिखता है लेकिन उतना ही बंधा जितना आदमी अपने इतिहास के समक्ष और अब आप को लगेगा कि वर्तमान परिस्थितियों का जब सीधा सम्बन्ध इतिहास के साथ होता है तो इसमें नया क्या है? लेकिन घटनाओं के घटने की प्रक्रिया के साथ में मुझे याद आता है की कई सिद्दांत दिए गए हैं जो संभवत: एक दुसरे को काटते दिखते हैं जैसे "इतिहास अपने आप को दुहराता है" इसे बाद में किसी ने पूरी तरह यह कहते हुए काट दिया की "इतिहास अपने आप को कभी भी नहीं दुहराता है" यहाँ पर किसी विवाद की जरुरत नहीं है बेसक दोनों सिद्दांतो को चलन में लाने वालों के मध्य देश-का ल-वातावरण के मद्दे-नज़र विभिन्न परिस्थितियां रही होंगी जिसके चलते उनके अनुभवों एवं अध्ययनों में पर्याप्त विवाद देखने को मिला जिससे दो अलग-अलग थेओ री चलन में आई चलन में आने कि बात को मै ज्यादा दबाव दे कर क्यों कह रहा हूँ यह भी समझ लेना चाहिए किसी ने पहले ही बता रखा है कि- आप जो भी कर रहे हैं ये पहले किया जा चूका है, आप जो भी कह रहे हैं ये पहले कहा जा चुका है, आप जो सोच रहे हैं ये पहले सोचा जा चुका है अब अगर इस थेओरी के मूल में जाए तो यह भी अपने आप सिद्ध हो जाएगा कि चीज़े और घटनाएं लगा तार अपने आप को दूहरा रही हैं फिर उस "कभी नहीं" दोहराने वाले सिद्दांत का क्या होगा?

एक
महान दर्शनशास्त्री ने एक बार बताया था कि इतिहास का अंत हो गया है काफी बहस हुआ इतिहासकार सकते में आ गए ढेर सारे लोगों ने इतिहास के अंत की बात को नकार दिया इस दर्शनशास्त्री ने लोगों की भावनाओं के साथ काफी खिलवाड़ किया इतिहास का अंत तो किया ही भगवान् को भी मार दिया लोगों को अपना भविष्य अंधकार में दिखने लगा अगर इतिहास ख़तम हो गया तो दोहराया क्या जाएगा? इतना ही काफी नहीं था ९० के दशक में एक और जैविक इतिहासकार ने इतिहास के खात्मे पर नये तरीके से सोचना शुरू किया कुछ और प्रमाणों-अनुभवों-घटनाओं की बदौलत दुबारा यह साबित किया गया की इतिहास का अंत हो गया है लेकिन तकनीकी आधुनिकीकरण और अमेरिका के नित नये हस्तछेप से वैश्विक व्यवस्था में बदलाव ने इस दर्शनशास्त्री को दुबारा सोचने पर मजबूर कर दिया और उसने खुद अपनी ही थेओरी को गलत साबित कर दिया

लेकिन थोडा और आगे बढे मै तो इतिहास की व्याख्या में उलझ गया और मूल बा से भटक गया आगे की बात करते हैं एक और सिद्दांत आया "इतिहास अपने आप को निश्चित मात्रा एवं निश्चित अनुपात एवं निश्चित समयावधि में अपने आप को दुहराता है" बहुत सालों तक यह एक बहस का मुद्दा बना रहा की इस निश्चित मात्रा की व्याख्या कैसे हो सकती है इस 'निश्चित' को निर्धारित कैसे किया जाए ऐसी ही एक स्थिति पहले भी इतिहास के समक्ष आ चुकी है यह बात तब की है जब सारा विश्व जनसँख्या बढ़ाने को लेकर एकमत था अगर बच्चों के पैदा करने पर कोई अंकुश लगाने की बात करता तो उसे दंड तक दिया जाता था इन कठिन दिनों में एक महानुभाव ने कुछ देशो की यात्रायें की और निष्कर्ष निकला की "प्रकृति ने खाने की मेज सिमित व्यक्तियों के लिए लगाई है और जो भी बिना निमंत्रण के आएगा उसे अवस्य ही भूखो मरना होगा" और तभी डर की नयी प्रभुसत्ता का जन्म हुआ वही डर जो कभी देवी-देवताओं के जन्म का कारण बना था उसी डर को 'प्राकृतिक अवरोध' के रूप में इस्तेमाल किया जाने लगा गया लेकिन समय के साथ-साथ जैसे-जैसे इतिहास बड़ा होता गया इसके पीछे का झूठ और सिद्दांत का प्रयोगात्मक पक्ष सामने आने लगा और तब निश्चित अनुपात एवं समयावधि की अवधारणा पर आधारित नये विकल्प का जन्म हुआ एक देश के संसाधनों एवं उपभोग के आधार पर अनुकूलतम स्तर निर्धारित करने की बात कही गयी गयी लेकिन किसी प्रमाणिक मापन के नहीं होने की वजह से यह भी विफल करार दे दिया गया

तो इस प्रकार यह बात देखने में आती है कि कई सिद्दांत एक दुसरे को काटते तो हैं लेकिन बावजूद इसके इनका विकास एवं प्रचलन मानव सभ्यता एवं समाज के निरंतर विकास का प्रतीक है

नीरज कुमार

ये मिली"भगत"है |





इडियट शब्द का नितान्त हिंदी अनुवाद है मूर्ख | देश में अभी जो स्थिति चल रही है या चलाई जा रही हैं वैसी स्थति में तो यही सबसे उपयुक्त शब्द जान पड़ता है | वैसे इडियट शब्द का एक और अर्थ जो अभी एक पखवाड़े से ही समझ में आने लगा है वो है होशियार/ समझदार या फिर खबरदार | आप शायद इसे एसे ना स्वीकारें और स्वीकारना भी नहीं चाहिए लेकिन मैं इसे सिद्ध कर दूंगा कि इडियट शब्द के मायने होशियार /समझदार और फिर मूर्ख दोनों ही हैं | राजकुमार हिरानी, विधु विनोद चोपरा और चेतन भगत नाम के तीन इडियट (यहाँ इडियट का अर्थ समझदार से लगायें) जनता को इडियट ( यहाँ इडियट का अर्थ मूर्ख से लगायें) बनाए मैं लगे हैं | इस बोड़मपने का सूत्रधार है आमिर खान | और इसकी मूक दर्शक है जनता |
जरा इस बोड़मपने को शुरू से देखने की कोशिश करते हैं | आमिर खान ने इस फिल्म के प्रमोशन के लिए छिपने-छिपाने का सिलसिला शुरू किया | भेष बदलकर किरदार गढ़े और इधर से उधर भागते फिरे | जनता की रातों की नींद नींद हराम हो गई, हर कोई यही सोच रहा था कि आमिर बस हमारे शहर आ रहे हैं | आमिर पहेली बूझते रहे और पागल जनता उलझ कर रह गई | हर एक ऑटो वाला अपना ऑटो चमका कर खड़ा था कि बस अब तो आमिर आकर उसके ही ऑटो में बैठने वाला है| मीडिया को भी तोडू खबर (ब्रेकिंग न्यूज़) मिल गईं | तो चलने दो दिन रात तोडू पे तोडू खबर |
दूसरा बोड़मपना हुआ प्रीमिएर पार्टी पर | फिल्म इंडस्ट्री के तीनो खान (आमिर ,सल्लू और शाहरुख़) एक साथ एक मंच पर आये | जैसे कि स्क्रिप्ट लिखी गई हो, सल्लू ने शाहरुख़ को घूरा और शाहरुख़ ने सलमान को | इसी तरह आमिर और शाहरुख़नाम के दो छिछोरों ने एक दूसरे को गले लगाया और एक दूसरे के छिछोरेपन मैं कसीदे पढ़े | यह मीडिया के लिए इससे भी बड़ी तोडू खबर रही कि मिले आमिर, शाहरुख़ और सलमान और जनता फिर हैरान !!!! मैंने तो यहाँ तक देखा कि शहरों मैं लड़कियां चिप्स का आधा भाग मुंह में और आधा भाग अन्दर रख कर कह रही थीं कि आईला तीनो एक जगह !!!
तीसरी और अंतिम तोडू खबर रही चेतन भगत का ड्रामा| फिल्म ने पहले सप्ताह में रिकॉर्ड तोड़ व्यवसाय किया| इसका एक कारण तो फिल्म का ठीक-ठाक बन जाना तो था ही, साथ ही सर्दियों के मौसम पर किसानों के चेहरे पर खुशियाँ लाने वाले मावठे की तरह ही क्रिसमस और नव वर्ष की छुट्टियों ने कमाल कर दिया | जीवन की आपाधापी से फ्र्ष्टाऊ जनता ने खूब छक कर देखा और ३ बुध्दू सुपरहिट हो गई, लेकिन कमबख्त दूसरे हफ्ते में कैसे चले ये फिल्म ? बस यहीं से इंट्री हुई चेतनभगत की | चेतनभगत जो लगभग भुला दिए गए थे,इस प्रसंग से फिर वापिस लौटे और फिर लिखी गई एक और स्क्रिप्ट | ड्रामा शुरू हुआ और एक हफ्ते बाद उतरने वाली ३ बुध्दू फिर से पटरी पर आ गई | इस प्रसंग से वह बोद्धिक वर्ग भी उछल कूद मचाने लगा जिसने फाइव पॉइंट समवन (पांच दशमलव/बिंदु कोई) पढ़ी है | और वह अब दोनों की कुंडली मिलान के लिए जा रहा है, इस किताब में क्या है और उस फिल्म में क्या नहीं ?
इस पूरे प्रसंग में मीडिया का एक चरित्र सामने आता है कि वह खूब दूसरों पर छिछालेदारी करे लेकिन जब खुद पर आये तो गाल बजाने लगे | लेकिन इस चौथे स्तम्भ के भीतर की सड़ांध पर कौन बात करेगा मेरे भाई !!!! भगत की कहानी उसने चुरा ली ये तो खबर है लेकिन खुद एक चैनल दूसरे की खबरें उड़ा लेते हैं, उसका क्या ? राजधानी के अखबार में तो उन विशेषज्ञों की नियुक्ति की जाती है तो नेशनल डेली से खबरें उड़ाने में माहिर हो | उनका एक सूत्रीय काम है टीपो और चेपों |और ये तो पुनीत काम समझा जाता है | उसकी विशेषज्ञता ही कुशलता से चेंपने पर निर्भर है | दरअसल में यह कहना चाह रहा हूँ की यही तो मीडिया में हो रहा है जो चेतन भगत या विधु के बीच हुआ तो मीडिया इसमें इतना हो हल्ला क्यूँ मचा रहा है ? और यदि यह इतना ही बुरा है तो फिर अपने यहाँ क्यूँ होने देते हैं मीडिया वाले ?
हमेशा से जन सामान्य के अधिकारों के संरक्षण की दुहाई देने वाले मीडिया कर्मियों के अपने अधिकारों का क्या !!! ना समय पर तनख्वाह, ना सम्पादक से जवाब-तलब, अपने ही अखबार में सर झुकाओ और जो बीट (बीट के कई मायने हैं, आप समझदार हैं ) दी गई है,माफ़ करिए लेकिन यहाँ पर विषय की पकड़ मायने नहीं रखती है, उस पर काम करते रहो| यहाँ चूँ-पटाक की भी गुंजाईश नहीं | और रही सही तो स्वर्गीय प्रभाष जी ही उघाड़ कर चले गए कि "खबर बिकती है बोलो खरीदोगे " | मीडिया सोच रहा था कि ये मुद्दा तो उनके साथ ही चला जायेगा लेकिन एडिटर्स गिल्ड के हस्तक्षेप के बाद तो ये और भी परवान चढ़ गया और चढ़ना भी चाहिए |
तो साहेब हम ३ मूर्ख पर थे | स्व. प्रभाष जी के इस सनसनीखेज खुलासे के बाद से तो यही लगता है की जिस रिपोर्टर ने विधु विनोद से सवाल पूछा था वो भी स्क्रिप्ट का हिस्सा रहा हो | लेकिन इस पूरे खेल में यह भी समझ से परे है की जैसा ये तीन समझदार खेल चलते रहे मीडिया भी उसी खेल में उलझता रहा | किसी भी मीडिया ने इस बात को क्यों नहीं उछाला की इसमें रैगिंग को दिखाया गया है और जिससे छात्र देखकर उत्तेजित होंगे और इसके गंभीर परिणाम होंगे ? किसी ने भी मौलिक प्रयोग के नाम पर प्रसव पीड़ा से जूझ रही महिला को खिलवाड़ का विषय बनाने की बात क्यूँ नहीं की ? केवल फिल्म राजकुमार हिरानी की है और इसलिए पूरी मीडिया को सब कुछ "आल इज वेल" ही लगा या किसी को कहीं कोई तकलीफ भी हुई ? यदि नहीं तो मुझे किसी से कुछ नहीं कहना|
बहरहाल इस पूरे खेल में वे तीन-चार या उनकी पूरी जमात तो सफल रही और वे तो समझदार थे और हैं | जो खेल खिलाते रहे और जनता बनती रही मूर्ख | तो प्यारे मोहन आल इज नोट वेल | दरअसल में यह पूरा प्रसंग ही मिली "भगत" है |



धुंध में नया साल

बहुत देर से कम्प्यूटर के की-बोर्ड से उलझता रहा। कुछ ऐसा था जो गले में फंसा था, निकलना चाह रहा था लेकिन लंबे समय तक इसी उहापोह में उलझा रहा। इसी समय नया साल भी दरवाजे पर बार-बार दस्तक दे रहा था। कोई साल नया कैसे होता है,समझ नहीं पा रहा हूं। क्या कोई नया सूरज उगता है,आसमान नया होता है, प्राकृतिक छटाएं कुछ अलग रंग बिखेरती हैं। कुछ भी तो नया नहीें होता। बस एक सोच,एक विचार कि नया साल है और उसका स्वागत करना है। कभी-कभी तो इसका एहसास भी तब होता है जब यार-दोस्तों के हैपी न्यू ईयर मैसेज आने शुरू होते हैं। नई सोच,नई उमंगें होती तो इसे हरेक सुबह महसूस किया जाना चाहिए था। सिर्फ नए साल की पहली तारीख को ही क्यों। क्या गरीबों के आगे से थालियां नहीं छीनने का वादा ये समाज के ब्लडसकर जोंक करेंगे। क्या नए साल में फिर किसी की नौकरी तो नहीें छीनेगी,क्या इसकी कोई गारंटी है। क्या भूख के कारण मासूमों की बिखरी लटें फिर से संवारे जाने का वादा सरकार करेगी। क्या दलितोंं पर होने वाले अत्याचारों में कोई कमी होगी। क्या आदिवासियों को उनके जंगल,जमीन से विस्थापित नहीं करने का वादा सरकार के नुमांइदे करेंगे। क्या हमने अपनी आवश्यकताओं को सीमित करने का कोई प्रण लिया है। गरीबों के बीच काम करने वालों ने क्या उनकी तरह ही रहने-खाने का फैसला लिया है। या केवल मीडिया में चेहरा चमकाने एवं गरीब बच्चों के साथ फोटो खींचा लेने तक ही उनकी जिम्मेदारियां हैं। अगर नहीं ,तो ऐसा नया साल आपको ही मुबारक हो। मेरे राम तो अपनी झोपडी में ही मगन हैं।
एक बाद और बार-बार भीतर तक मन को कुरेदती है। अमेरिका को गाली देना लगभग हमारी आदत में ‘शुमार हो चुका है। लेकिन भारत के पूंजीपतियों का चाल-चरि तो उनसे भी गंदा होता है। इस मामले में तो हम समृद्धि के उच्च शिखर पर बैठे अमेरिका को भी पीछे छोड चुके हैं। वहां के रईसों को भी भारत के रईसों की लाइफस्टाइल को देखकर रश्क हो सकता है। जब पूरी दुनिया आर्थिक मंदी से कराह रही थी,तब भारत में एक वर्ग 200 करोड रूपए की याट से अपनी बीबी को लुभा रहा था। गुटखा किंग न जाने कितने करोड की विदेशी गाडी अपने रिश्तेदारों को बर्थडे प्रेजेन्ट करने में मशगुल थे। कम से कम इस मामले में हम अमेरिका के रईसों को आगे मानते हैं। वो दूसरों को लूटते तो हैं,लेकिन उस पैसे का समाज के आगे नंगा प्रदशZन नहीं करते। कुछ समाज सेवा के नाम पर फांउडेशन बनाकर ही लगा देते हैं,या गरीब देशों को मदद के नाम पर अपना हित साधते हैं। हालांकि इसके पीछे भी उनकी दूरगामी नीति काम कर रही होती है,लेकिन इसी बहाने चलो कुछ तो पाप धुला। भारत के मामले में लूटनीति मंथन करी का विचार ही फलता-फूलता है। फिर जब समाज का उपेक्षित वर्ग इन तमाशों से उबकर विरोध करता है, तो सरकार की नजर में नक्सली या कोई देशद्रोही नजर आता है। सरकार को उनकी भूख से कुलबुलाती आंतें नहीं दिखती,जहां अगर वो विरोध नहीं करता तो शायद परिवार में सामूहिक आत्महत्या के अलावा कोई चारा नहीं था।एक बात और सोचता हूं कि भारत की तस्वीर ही कुछ और होती अगर भारत का हरेक अमीर एक गांव गोद लेने का प्रण करता। अगर भारत का हरेक शिक्षित नागरिक एक को शिक्षित करने का प्रण लेता। अगर ऐसा संभव है,तभी नए साल की खुशियों में शरीक होने का हमें हक है।

हर बार नए साल का सूरज करता है हमसे वायदा

हर बार नए साल का सूरज करता है हमसे वायदा


कि

इस साल खत्म कर दूंगा
कुपोषण, भ्रष्टाचार, गरीबी, महंगाई, बेरोजगारी, अनाचार
इस नए साल मैं मिलेगी सभी को सूचना
मिलेगा सभी को काम और काम का पूरा दाम
लेकिन नहीं निभाता है यह वायदा अपना !!!!!

हम भी तो करने देते हैं सूरज को बेवफाई

उम्मीद है इस साल
सूरज को हम नहीं सोने देंगे
उसे जगाते रहेंगे और कराएँगे उससे हर वायदा पूरा
इस नए साल मैं |

नया साल मुबारक

2010 उन सभी चेहरों पर मुस्कान बिखेरे जो तरस रहे हैं एक अदद मुस्कान के लिए !!