आप किसी सुरक्षा चेक पोस्ट पर खड़े हो जाएं। किसी बढ़ी हुई दाढ़ी वाले को मुल्लाजी की तरह टोपी लगाए एवं घुटने तक पायजामा पहने देखकर ही सुरक्षा अधिकारी कुछ ज्यादा ही मुस्तैद नजर आने लगते हैं। उनकी बकायदे चेकिंग के समय ऐसा लगता है मानो उन अधिकारियों की नजर में ये पहले से ही आतंकवादी घोषित हो चुके हों। कुछ ऐसी ही छवि को लेकर हमारा समाज भी बड़ा होता है। यही कारण है कि एक समरस कहे जाने वाले समाज में मुसलमानों की बस्ती आज भी हिन्दू बहुल कॉलोनियों से दूर ही बसी होती है और शायद दूर रहकर ही वे अपने को सुरक्षित भी महसूस करते हैं। सबकुछ खेल हमारे मनोमस्तिष्क में छवि क्रिऐट किए जाने को लेकर है। आज सरकार के नुमांइदों की नजर में हरेक मुसलमान आतंकी है और हरेक आदिवासी माओवादी। इस तर्क को लेकर उनके लिए अपराधियों की तलाश करने में आसानी होती है। ऐसे में इस समुदाय की ओर से किए गए सार्थक पहल भी अखबारों की सुर्खियां नहीं बटोर पाते। कुछ ऐसा ही हुआ लखनऊ के एक मुसलमान बहुल इलाके में। मुसलमानों ने जल संरक्षण को लेकर एक मुहिम की शुरूआत की है, कहते हैं ना कि किसी नेक काम की शुरूआत घर से होनी चाहिए, कुछ ऐसे ही अंदाज में लखनऊ के ये मुसलमान मस्जिदों में वजू करने के लिए लोटे के इस्तेमाल पर जोर दे रहे हैं। नेक मुसलमान खुदा की बंदगी में दिन में पांच बार नमाज अदा करता है। एक बार वजू करने में नल से करीब पांच लोटा पानी बर्बाद होता है, जबकि लोटे के इस्तेमाल से चार लोटा पानी बचाया जा सकता है। है न एक छोटी, लेकिन सार्थक पहल।
हम रोज शिवालयों में न जाने कई बाल्टियां शिवलिंग पर रोज उड़ेल आते हैं। कुछ इस सोच में कि जितना गंगा जल शिवलिंग पर चढ़ाया जाएगा, भगवान उतने ही प्रसन्न होंगे। ऐसे में अंधविश्वास का दौर चला तो इसी पानी की जगह दूध की नदियां बहाने में भी गुरेज नहीं करते। हो सकता है कि पड़ोस में बच्चा दूध के बिना छटपटा रहा हो, या कोई गरीब भूख से बेबस होकर दम तोड़ दे, लेकिन भगवान को खुश रखना जरूरी है। दुनिया का शायद ही कोई भगवान हो, जो भूखे बच्चे के हिस्से का दूध गटककर भी चैन से रह सके। भद्र समाज की कलियुगी लीलाएं देखकर तो किसी भी नेक इंसान का कलेजा मुंह को आ जाए। सड़क के बीचों-बीच चौराहे पर कई बार पूडिय़ां, चने, लड्डू, खीर के साथ सिंदूर और पता नहीं क्या-क्या पत्तलों पर बिखरे होते हैं। इस भूखे देश में चौराहे पर अनाज बिखेरकर न जाने किस भगवान की पूजा होती होगी। कुछ देर बाद ही उन प्रसादों पर कुत्तेां की फौज टूट पड़ती है। खैर इसी बहाने कुछ सड़कछाप कुत्तों की भूख तो मिट जाती है। लेकिन दुख तब होता है, जब इन्हीं के बीच अधनंगे बच्चे, बच्चियां भी प्रसाद में एक हिस्सा झपट लेने के लिए कुत्तों से संघर्ष करती दिखती हैं। हमारा भद्र समाज इन्हें एक भद्दी सी गाली देकर अपनी राह लेता है-स्स्स्...ाले, खिलाने की औकात नहीं, तो पैदा ही क्यों करते हैं? कोई इनके शहर आने पर ही लानत मलामत करते हुए सात पुश्तों को गाली से नवाजने में भी गुरेज नहीं करता। लेकिन इनमें शायद ही कोई ऐसा बंदा हो, जो किसी बच्चे का हाथ थामकर पास के होटल में ले जाकर एक रोटी ही खिला दे। हालांकि ये अभागे बच्चे आपके लाडले की तरह सोने का चम्मच लेकर नहीं पैदा हुए, लेकिन इनके मां-बाप को भी उतना ही दर्द होता होगा, जितना आप अपने बच्चे की कोई जिद पूरी करने में अपने को असमर्थ महसूस करते होंगे। लेकिन यहां जिद किसी हवाई जहाज या लग्जरी कार को लेकर नहीं होता, बल्कि एक सूखी रोटी के लिए होती है, जिसे सड़क पर बिखरा देखकर रोता हुआ बच्चा कुत्ते से भी झपट लेने के लिए तैयार होता है।
ब्लॉगर के लिए किसी एक विषय पर टिककर रहना बड़ा ही मुश्किल होता है। विचारों का ताना-बाना किसी बंधन को स्वीकार नहीं करता। अब देखिए, बात तो यहां हो रही थी वजू के लिए जल संरक्षण की और निकलते-निकलते अधनंगे बच्चों पर आ गई। क्या आपने गांव या आस-पास कभी सुना है कि पानी के लिए किसी ने पड़ोसी का गला काट दिया हो? आपका जवाब नहीं ही होगा, हालांकि वहां पानी के लिए एक दूसरी तरह की लड़ाई हो सकती है। सवर्णों के कुएं से अछूत मानी जाने वाली बिरादरी को पानी लेने पर रोक हो सकता है या फिर कुछ ऐसी विभत्स हिंसा का रूप देखने को मिल सकता है। लेकिन पानी की कमी को लेकर हिंसा तो कभी नहीं होती होगी। जैसे-जैसे मेट्रो सिटीज बसते गए, गांव का पानी शहरों की तरफ आने लगा, तब भी इन शहरातियों की प्यास नहीं बुझी। भला बुझती कैसे, सरकार ने शहर में पानी पर भी पहरा जो बिठा दिया था। पानी यहां कुओं की जगह बड़े-बड़े मशीनी टैंकरों में जो मिलने लगा था। फिर पानी के लिए लूट होनी ही थी, जिसमें दबंग लोग गरीबों के हक का पानी भी छीनने लगे। हालांकि मध्य वर्ग जो बिसलरी के पानी से ही नहाता था, उसके लिए शहर के हर मॉल, कॉलोनी के कोने वाली दुकान में बोतलबंद पानी उपलब्ध थी। कंपनियां लोगों की जरूरतों को आंकने में अव्वल होती हैं। यहां उनकी कल्पनाशीलता कवियों की रचना से भी तेज होती है। यही कारण है कि कभी रिलांयस को सब्जी के स्टॉल लगाने पड़ते हैं, तो कभी एमएनसीज को बोतलबंद पानी बेचना पड़ता है, तो कभी विदेशों में शुद्ध हवा लेने के लिए ऑक्सीजन बार में जाना पड़ता है। इनका बस चले तो अभी से चांद पर सब्जियां उगाने के लिए उन्नत प्रोद्योगिकी का दावा करने वाले बीज बेचना शुरू कर दें।
देश के राष्टï्रपिता बापू का कथन आज के राजनेताओं और पूंजीपतियों को तो नहीं याद रहा, लेकिन लखनऊ के इन मुसलमान भाईयों ने इसे आजमा कर समाज के सामने एक मिसाल कायम किया है। सचमुच प्रकृति सारे संसार का पेट भरने में समर्थ है, लेकिन कुछ लालची पूंजीपतियों का पेट भरने में नहीं। जल हमें प्रकृति ने एक विरासत के रूप में दिया था, ताकि हम अपने लिए इसका इस्तेमाल करते हुए आगे की पीढ़ी को सौंप सकें। लेकिन हमने प्रकृति के इस संदेश को किसी कोक बनाने वाली कंपनी या किसी बोतलबंद एमएनसी के हाथों एमओयू पर साईन कर उन्हें सौंप दिया। इन भद्र मुसलमान भाइयों का लक्ष्य महीने में सौ मस्जिदों में जाकर इस संदेश को फैलाना है ताकि लोग जल संरक्षण के लिए प्रेरित हो सकें। ऐसे में समाज में एक उम्मीद की किरण नजर आती है कि अभी भी समाज में कुछ लोग हैं, जो प्रकृति के अनमोल धरोहर को आने वाली पीढिय़ों के लिए बचाकर रखने के बारे में सोचते हैं।
बस इतनी सी बात है...
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I
कुछ मोहब्बतें बिस्तर में सिमटती हैं,
कुछ रूह में उतरती है,
और कुछ बस खामाखाँ होती हैं,
क्या ही होता जो
मेरी रूह तेरा बिस्तर होती।
II
कुछ मोहब्बतें बिस्त...
yahi to dikkat 60 sal ke is aazad bharat me ki naam ke aage ya pichhe agar mohammad or ahmad laga ho... to hindustan ki secular police kashmire se lekar kanyakumari tak aapse bina warrant ke puchhtach kar sakti haI....AAPNE LEKH KAFI ACHHA LIKHA HAI.
आप में मुझे कबीर की तरह खरी बात कहने का माद्दा दिखा है। समाज को धार्मिक कुरीतियों और अंधविशवासों की जकड़न से मुक्ति आवश्यता है। इस दिशा में आपका प्रयास सराहनीय है। साधुवाद।
सद्भावी- डॉ० डंडा लखनवी
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भद्र समाज की कलियुगी लीलाएं देखकर तो किसी भी नेक इंसान का कलेजा मुंह को आ जाए।
सत्य वचन।