कांग्रेस की शक्तिपीठ माने जाने वाली सोनिया परिवार एक बार फिर विवादों में है। कांग्रेस के निचले स्तर के नेता गणेश परिक्रमा में लग गए हैं, सोनिया परिवार की मान की खातिर। आखिर क्यों सोनिया पर लिखी कोई किताब, उपन्यास या सिनेमा को प्रतिबंधित करने का प्रयास किया जाता है? क्यों सोनिया नहीं चाहती कि वे भारत की राजनीति के केंद्र में आएं? क्या खतरा महसूस करती हैं वे सत्ता के सांप-सीढ़ी के खेल से? कई ऐसी जानी-अनजानी वजहें हैं, जिसके कारण यह परिवार मुख्यधारा की राजनीति से अलग होकर राजनीति की गंगोत्री ही बने रहना चाहता है। गंगोत्री पर खतरा महसूस होते ही कांग्रेस को ऐसा महसूस होने लगता है कि अब तो हमारी राजनीति की गंगा ही सूखने लगेगी। इसलिए इस पर आए खतरे को टालने के लिए कांग्रेस के दूसरे दर्जे के नेताओं को आगे कर लड़ाई लड़ी जाती है। अब कोई अभिषेक मनु सिंघवी बलिदान हो तो, अपनी बला से। लेकिन कांग्रेस अपने सिपाहसलारों की चारण-वंदना का पुरस्कार भी समय पर मंत्रिमंडल में जगह देकर अदा करती है। शर्त भी सिर्फ एक ही होती है कि वह अपनी निष्ठा इस शक्तिपीठ के प्रति राजनीति से संन्यास लेने तक बनाए रखे। जितनी बड़ी परिक्रमा करने वाला होता है, उसे राजनीति में उतने ही शीर्ष पद से नवाजा जाता है। जिसने भी इस परिवार की छत्रछाया को चुनौती दी, चाहे वे मराठा छत्रप हों या ममता बनर्जी, बाहर का रास्ता दिखा दिया जाता है। ये बातें कांग्रेस पार्टी में नेहरू के दौर से ही शुरू हो गई थी, जिस परंपरा को इस पार्टी ने आज तक जीवित रखा है। ताजा विवाद प्रसिद्ध उपन्यासकार डॉमिनिक लापियर के भतीजे जेवियर मोरो के उपन्यास 'एल सारी रोसोÓ यानी 'द रेड सारीÓ को लेकर है। इस उपन्यास को लेकर कांग्रेस के सिपाहसलार यह कयास लगा रहे हैं कि जरूर सोनिया के अनछुए पहलुओं की चर्चा भी इसमें होगी। सोनिया-राजीव के प्रेम-संबंधों से लेकर राजीव की हत्या के बाद वतन वापसी के मुद्दे को भी इस उपन्यास में उठाया गया है।
भारत के प्रबुद्ध वर्ग इस बात से अवगत होंगे कि सोनिया गांधी एक समय अपने बच्चों को लेकर इटली लौट जाना चाहती थीं। कांगे्रस के बुद्धिजीवियों के मान-मनुहार के बाद ही उन्होंने राजनीति में आने का फैसला लिया और देश में एक सशक्त राजनेता बनकर उभरी। कांग्रेस को इस बात का डर सालता रहा है कि सोनिया के कमजोर पहलूओं को जनता के बीच लाने से उनकी सशक्त छवि धूमिल होगी। इसलिए इस उपन्यास का अंग्रेजी संंस्करण भारत में आने से पहले ही वह चाहती है कि इस किताब को प्रतिबंधित कर दिया जाए। कुछ ऐसी ही गुस्ताखी हाल में फिल्म निर्देशक एवं राजनेता प्रकाश झा ने भी की थी। इस हिमाकत की वजह से उनकी फिल्म 'राजनीतिÓ को कड़े सेंसर के दौर से गुजरना पड़ा। कांग्रेस के सहयोगियों की एक कमिटी बना दी गई, जिसने अपनी मर्जी से फिल्म के दृश्यों की कांट-छांट की। आपात काल के दौर में तमाम फिल्म निर्माता-निर्देशकों पर भी इसी तरह का अघोषित सेंसर लागू था। अगर आप कांग्रेस की विचारधारा से सहमत हैं, तो फिल्म बेरोकटोक 'केवल व्यस्कों के लिएÓ होते हुए भी 'यूÓ सर्टिफिकेट से मुक्त। अगर आपने कांग्रेस के विचारों से अलग लाईन लेने की कोशिश की तो फिर आपकी खैर नहीं। सरकार का दिखाई नहीं देनेवाला डंडा इन निर्देशकों को हमेशा लाईन पर रखता था। कुछ ऐसा ही डर फिल्मकार जो राइट की रातों की नींद हराम किए है जिन्होंने लेडी माउंटबेटेन और नेहरू के संबंधों को लेकर इंडियन समर नाम से फिल्म बनाने की तैयारी कर ली थी। जिस डर ने उनकी नींद छीन ली थी, वही हुआ।
हमेशा सत्ताधारी पार्टियों ने अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता से अपने अस्तित्व पर खतरा महसूस किया है। ये राजनीतिक हमले पहले दबे-छुपे रूप में होते थे, अब खुलकर होने लगे हैं। राजनेताओं का छद्म आवरण इन दिनों जनता के आगे उतर चुका है। चाहे जसवंत सिंह की किताब को लेकर संघ परिवार में मचा तूफान हो या फिर कभी भाजपा अध्यक्ष रह चुके आडवानी के जिन्ना को लेकर पाकिस्तान की सरजमीं पर दिया गया बयान। राजनेताओं में 'सच का सामनाÓ करने की लोकतांत्रिक आदत इस देश का जाग्रृत समाज विकसित नहीं कर पाया है। यहां एक तरफ तो महामहिम होते हैं, तो दूसरी तरफ भूखी-नंगी जनता। एक तरफ सत्ता की नजदीकियों का मजा लेते पूंजीपति वर्ग हैं, तो दूसरी तरफ अपने हक के लिए सड़क पर उतरे किसान, मजदूर, आदिवासी । हम सशस्त्र नक्सली संघर्ष की हिमायत करने वाली अरुंधति राय की अभिव्यक्ति की आजादी के तर्क पर समर्थन करते हैं, तो वहीं स्पेनिश लेखक मूर के सोनिया गांधी के जीवन पर आधारित उपन्यास पर लाल-पीले हो जाते हैं। प्रकाश झा की 'राजनीतिÓ पर झल्लाने लगते हैं। क्यों? आखिर यह दोहरे मानदंड क्यों? अगर अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता ही कसौटी है, तो अरुंधति और मूर में अंतर कैसे किया जा सकता है? हम मानते हैं कि अरुंधति के बयान से सुरक्षा बलों से लेकर देश का वह बड़ा तबका भी आहत हुआ, जो नक्सली हिंसा से ग्रस्त है। लेकिन फिर भी हमने बोलने-लिखने की आजादी के मूलभूत सिद्धांत का सम्मान किया। लेकिन मूर को तो कांग्रेस ने कानूनी नोटिस थमा दिया। जबकि मूर यह कह चुके हैं कि उनकी यह कृति सोनिया गांधी की जीवनी नहीं है,महज एक उपन्यास है। इस नाते उपन्यास में जिस कल्पनाशीलता के लिए अवकाश रहता है, वह यहां भी रहना चाहिए। एक बात और मूर ने इस पुस्तक की पांडुलिपि सोनिया की बहन के जरिए प्रकाशन से पूर्व सोनिया गांधी तक भिजवाई थी- इस अपेक्षा से कि अगर कुछ कहना हो तो कहें। लेकिन तब गांधी परिवार की ओर से कोई आपत्ति नहीं जताई गई थी।
क्या कारण है कि अरूंधति राय और महाश्वेता देवी जैसे लोगों को सशस्त्र क्रांति की वकालत करने के लिए मजबूर होना पड़ता है। इस सवाल में ही व्यवस्था के सारे दुख-दर्द का हल छुपा है। हम कह सकते हैं कि गांधीवादी तरीकों से विमुख होते समाज की पीठ सहलाने को सरकार ही उन्हें मजबूर करती है। लेकिन देश के तमाम बुद्धिजीवियों की मांग ठुकराते हुए हमारे गृहमंत्री माओवादियों पर किसी तरह का बहस नहीं चाहते। चाहेंगे भी क्यों, फिर तो विकास का मुद्दा आएगा, आदिवासियों को 'जल, जंगल, जमीनÓ से बेदखल करने की बात सामने आएगी, देशी-विदेशी कंपनियों को जंगल के खनिज संपदाओं के दोहन के लिए अवैध तरीके से एमओयू का मामला भी उठेगा, वनरक्षकों एवं स्थानीय पुलिस की आदिवासी महिलाओं पर अत्याचार की बातें सामने आएगी। सरकार बेवजह एक चर्चा को तूल देकर क्यों 'आ बैल मुझे मारÓ का खतरा घर बैठे मोल लेगी।
कई राज्य सरकारों का ध्येय तो 'माओवादी, माओवादीÓ चिल्लाकर ही केंद्र से पैसा ऐंठना होता है। नक्सलियों की खबरों को प्रमुखता दी जाती है, वहीं गुपचुप तरीके से जंगल में 'आपरेशन ग्रीन हंटÓ के नाम पर आदिवासियों को निशाना बनाया जाता है। कितने माओवादी मरते हैं और कितने आदिवासी, इसका आंकड़ा तो सरकार की फाइलों में भी नहीं दर्ज होता होगा। मरते तो आदिवासी ही हैं, नक्सलियों के साथ न जाओ, तो नक्सली मारते हैं, सलवा जुड़ुूम का साथ दो, तब भी उनकी बंदूकें तनी होती हैं और बाकि कोर-कसर वनरक्षक, स्थानीय पुलिस और आपरेशन ग्रीन हंट चलाने वाले पूरा करते हैं। सरकार को यह सोचना होगा कि आदिवासी डर कर नक्सलियों का समर्थन करते हैं या विकास की धारा वहां तक नहीं पहुंचने के कारण। उनका तो सरकार से एक ही आग्रह हैै कि उन्हें उनके हाल पर छोड़ दिया जाए। जंगलों में रहना उनके लिए वैसा ही है जैसे किसी जंगली जानवर को जंगल की सरहदें से बाहर निकालकर शहर में बसाना। उन्हें घर से उजाड़ेंगे, तब वे किसी का भी दामन थामने को तैयार होंगे, चाहे वे नक्सली हों या मिशनरी या फिर कोई संघी। शहरों में कई ऐसे लोग मिल जाएंगे जो आदिवासियों की कल्पना नंगे रहने वाले, मुंह से जंगली आवाज निकालने वाले, नरबलि देने वाले, अजीब से देवता की पूजा करने वाले समुदाय के रूप में ही करते हैं। ह्वïाईट मैन बर्डेन की तरह नहीं, बल्कि समाज के सबसे कमजोर तबके के साथ खड़े होने का साहस आज हमें दिखाना होगा और गांधी के अंतिम आदमी की तरह उसका हाथ थामकर चलना होगा। तभी माओवादियों के लाल गलियारे पर शांति के फूल बिखेरे जा सकते हैं। मुख्यधारा की पार्टियों को भी जनता के लोकतांत्रिक अधिकारों को महत्व देना होगा ताकि लोकतंत्र का नवजात पौधा इस देश की मिट्टी में जड़ पकड़ सके और हम गर्व से कहें कि हम दुनिया के सबसे बड़े लोकतांत्रिक देश हैं।
बस इतनी सी बात है...
-
I
कुछ मोहब्बतें बिस्तर में सिमटती हैं,
कुछ रूह में उतरती है,
और कुछ बस खामाखाँ होती हैं,
क्या ही होता जो
मेरी रूह तेरा बिस्तर होती।
II
कुछ मोहब्बतें बिस्त...
durust likhe hai chavdan babu.....