वैसे ये कला मैंने रवीश जी से सीखी है कि जहाँ भी जाओ, वहां की कुछ चीजें कैमरे में कैद कर लाओ और यादगार बनाओ | इस तरह की अपनी पहली पोस्ट में दुष्यंत साहेब की ग़ज़ल का पोस्टमार्टम आपके सामने रख रहा हूँ |
दुष्यंत साहेब ने सोचा भी नहीं होगा की उनकी ग़ज़ल का ये हश्र होगा | आप इसे रचनात्मकता भी कह सकते हैं | बहरहाल जो भी है आप भी पढ़ें और अपनी टिप्पणियों से अवगत कराएं |
हो कहीं भी शौचालय लेकिन शौचालय बनना चाहिए
गुड्डा गुडिया, गुरुवार, 3 जून 2010
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