एक दिन महान फ़िल्मकार करन जौहर अपने कमरे में अकेले बैठे देश की समस्याओं पर गहन चिन्तन कर रहे थे। अचानक उनकी अन्तरआत्मा (यह एक ऐसी चीज़ होती है जो अक्सर खूब सारे पैसे कमाने के बाद और विराट सफलता पाने के बाद हर इंसान में थोड़ी देर के लिये जाग जाती है और भुगतना दूसरों को पड़ता है। इस बार करन की अन्तरआत्मा का शिकार आम दर्शक हुये, खैर) उनके सामने आ खड़ी हुयी। अन्तरआत्मा ने उनसे पूछा के ऐ बॉलीवुड के सफलतम निर्माता निर्देशकों में से एक, बता आज तक तूने अपनी फ़िल्मों से कितने लोगों को जगाया है। सिनेमा जिसे समाज का दर्पण कहा जाता है, से कितनी ज्वलन्त समस्याओं की नब्ज़ पर उंगली रखी है। करन ने बताया कि उन्होंने स्त्रियों के कल्याण के लिये अपनी फिल्म में दिखाया है कि पुरुष का इन्तज़ार अगर स्त्री दस सालों तक करे तो वह भी एक दिन वापस ज़रूर आता है। उन्होंने अपनी एक दूसरी फ़िल्म में दिखाया है कि जिनके आंगन में हवाई जहाज़ उतरता है वे भी दीन दुखियारी लड़कियों से प्रेम विवाह कर सकते हैं और इस तरह समाज में वर्ग अन्तराल को कम करने की कोशिश की है। उन्होंने अपने बैनर द्वारा निर्देशित फि़ल्मों से प्रेम का प्रसार किया है और यहां तक बताने की कोशिश की है कि प्रेम किसी के भी बीच हो सकता है। और दो पुरुषों के बीच हुआ प्रेम भी उतनी ही सार्थक और बिकाऊ होता है। अन्तरआत्मा कनवेंस नहीं हुयी। उसने करन के कान में कुछ कहा और करन उठ खड़े हुये। उन्होंने सोचा कि यह सही वक्त आ गया है कि जब कुछ ऐसी चीज़ बनायी जाय जिससे पता चल सके कि वे भी देश की समस्याओं को लेकर गम्भीर हैं। हालांकि बाद में उन्हें याद आया कि वे इतने ग्लोबल हो चुके हैं कि उनसे देश की समस्याओं से ज्यादा दुनिया की चिन्ता करनी चाहिये। बहरहाल, उन्होंने अपने अभिन्न मित्र शाहरूख खान को याद किया और दोनों ने मिलकर एक शानदार फ़िल्म बना डाली जिसका नाम उन्होंने रखा ´माई नेम इज़ खान' हालांकि देश के अल्पसंख्यकों की भी समस्याएं भी कम विकराल नहीं थीं और आये दिन सन्दिग्ध इनकाउंटर हो रहे थे। यहां तक कि देश में अल्पसंख्यकों को किराये पर कमरा लेने तक की जद्दोजहद करनी पड़ रही थी लेकिन करन जानते थे कि ये तुच्छ समस्याएं दिखाने से रुपये आएंगे जबकि अमेरिका में एक अल्पसंख्यक की समस्याएं दिखाने से डॉलर पौण्ड सहित और भी बहुत कुछ आयेगा। फ़िल्म एस्पर्जर नामक बीमारी से ग्रस्त एक व्यक्ति रिज़वान खान की है जिसकी भूमिका शाहरूख ने पूरी ईमानदारी से निभायी है जैसा कि एक साक्षात्कार में उन्होंने खुद ही कहा था कि जहां उन्हें अच्छा पैसा मिलता है वहां वो अच्छा काम करते हैं (सबूत के लिये देखें हालिया रिलीज ´दूल्हा मिल गया´)। एस्पर्जरग्रस्त रिजवान हिन्दी फिल्म के नायकों से कहीं से भी पीछे नहीं है विकलांगता के बावजूद। वह अच्छे खासे पज़ल को चुटकियों में हल कर सकता है और पीले रंग से डर लगने के बावजूद कई दृश्यों में पीले रंग से डरना भूल जाता है। काजोल चुलबुली मन्दिरा के रोल में हैं जिनका पहले पति से एक बच्चा है। वह इतनी समझदार दिखायी पड़ती हैं कि एक एस्पर्जरग्रस्त व्यक्ति से शादी करने के लिये उन्हें सिर्फ सुबह का नज़ारा दिखाये जाने की ज़रूरत होती है। उन्हें न तो रिजवान का एस्पर्जरग्रस्त होने से कोई समस्या नहीं है और उसके मुसलमान होने को तो वह महान महिला एक बार भी रेखांकित नहीं करती। आपके मन में ये सवाल उठता है लेकिन आप यह सोच कर चुप रह जाते हैं कि नायिका वाकई बहुत समझदार और सुलझी हुयी है। 9/11 के हमले के बाद नायिका का बेटा एक हमले में मार दिया जाता है जिसे बहुत सतही तरीके से फिल्म में नस्लीय हमला करार दिया गया है पर दरअसल वह दूसरी समस्या है। उसके बाद वही नायिका जिसके लिये अलग धर्म का होना बहुत मामूली बात थी अचानक प्रवीन तोगड़िया और मौलाना बुखारी की तरह उन्माद में आ जाती है। वह रिज़वान खान को भला बुरा कहती है, हिस्टीरिया के मरीज़ की तरह चीखती है और यह जानते हुये भी कि उसके पति का इसमें कोई हाथ नहीं है, उसे अपने से दूर कर देती है। यहां करण को कहानी में एक ज़बरदस्त टिवस्ट मिलता है कि नायक को अमेरिका के राष्ट्रपति से मिलने भेजा जाय तो अमेरिकी दर्शक बहुत खुश होंगे। तो वह नायिका को सिखाते हैं। नायिका कुछ संवाद बोलने के बाद यह प्रस्ताव नायक को देती है और नायक अपने अभियान पर चल देता है। मगर नायक और उसके साथ निर्देशक दोनों ही असली सफ़र पर जाने की बजाया इधर उधर ज्यादा भटकते दिखायी देते हैं। एस्पर्जरग्रस्त नायक तूफ़ान में जाकर वह वह काम करता है जो सुपरमैन भी न कर पाता। वह महामानव बनने लगता है और अन्तत: अपने मिशन में कामयाब होता है। वह नवनिर्वाचित राश्ट्रपित बराक ओबामा से हाथ मिलाकर बोलता है-माइ नेम इज़ खान एण्ड आयम नॉट ए टेररिस्ट। फ़िल्म खत्म होती है और जैसा कि उम्मीद थी, भारत के दर्शक शाहरूख की उम्दा एक्टिंग के लिये यह अझेल फ़िल्म देख ले जाते हैं और टारगेट ऑडियंस अपनी समस्या से आइडेंटिफाई करती हुयी। विदेशों में फ़िल्म सफ़लता के झण्डे गाड़ देती है और कई रिकॉर्ड तोड़ देती है और करन का यह भ्रम बरक़रार रह जाता है कि वे बड़ी शानदार फिल्में बनाते हैं।
बहरहाल, फ़िल्म बहुत ही बोझिल तरीके से शुरू होती है और उससे भी बोझिल तरीके से ख़त्म। शुरूआत फिर भी अच्छी है जहां ज़रीना वहाब ने एक मां की भूमिका में कई अच्छे दृश्य दिये हैं। मगर पूरी फ़िल्म में अतार्किक कहे जा सकने वाले दृश्यों की भरमार है। 9/11 की बरसी पर जब सभी श्रद्धांजलि अर्पित कर रहे हैं, हमारा नायक जो भारत में डिजायनर कपड़े पहनता था अचानक शलवार कुर्ते में सूरा फतह पढ़ता दिखायी देता है। वह बहुत प्यारा मुसलमान है जो उस माहौल में भी कहीं भी नमाज पढ़ सकता है। मस्जिद में एक कहानी सुनते वक़्त वो ढेर सारे मुसलमानों के बीच असली कहानी सुनाता है और आश्चर्य है कि वहां बैठे सभी मुसलमानों में से किसी को भी उसका जवाब नहीं मालूम। सभी पूछते हैं तो रिज़वान जवाब देता है- वह शैतान था।
फ़िल्म के सफल होने के बाद करन एक दिन अपने कमरे में बैठे कुछ गठीले अभिनेताओं की तस्वीरें देख रहे थे कि उनकी अन्तरआत्मा वहां आ गई। उसने कहा कि फिल्म में भारत के अल्पसंख्यकों की समस्याओं को दिखाया जाना चाहिये था जो अपेक्षाकृत ज्यादा असहाय हैं। करन मुस्कराये, दरवाज़ा खोला और उसे लात मार कर बाहर धकेल दिया।
विमल चन्द्र पाण्डेय
बस इतनी सी बात है...
-
I
कुछ मोहब्बतें बिस्तर में सिमटती हैं,
कुछ रूह में उतरती है,
और कुछ बस खामाखाँ होती हैं,
क्या ही होता जो
मेरी रूह तेरा बिस्तर होती।
II
कुछ मोहब्बतें बिस्त...
वाकयी अब शब्द नहीं बचे। बेहद ही श्रेष्ठ व्यंग्य। बधाई।
Maine MNIK nahi dekhi abhi tak.....karan to zahir hai....lekin ye to movie se jada jabardast kosish lagti hai....movie dekh kar phir comment karunga....aam darshak bewkoof nahi hai lekin kafi jada aam jarur hai...satire is the greatest wepon in democracy...use it more and more like it...it is a very good attempt !!
--- VIVEK bodhisatva
film ka aslee
sach to aap ne hi hume batya.
fantastic
superbbbbbbbbbbbb
kya bat hai. jabardast. Chaukase ji ke bad ab tumahra number hai. Lucknow ko alvida kah mumbai jao.
Shashi Shekhar
Shukriya Shashi jee apki zarranavazi ke liye
अगर भोजपुरी मुहावरे का इस्तेमाल करने की इजाज़त हो तो कहेंगे हिला के रख देले बाड़ा बउवा! जीया!
vah aapne sabdo ko sanjokar esse aisa likha hai ki, lag raha hai ki es film ke aap hi director hon.aapke es lekhni ko padhn ker bin dekhe mai es film ko dekh leya.
वाकई गुरु फिल्म की बखिया उधेड़ दी
bhut bdiya film ke liye
badaa niman laagal.
vimal bhai, ab tak is nazaria se nahin dekha tha aur na hee socha tha. film aur karan johar ki apne parten udhed dee hain. bahut hee bahtareen vishleshan hai. badhai.
इस आर्टिक्ल से आप क्या कहना (साबित करना) चाहते है ये तो मैं नहीं समझ पाया....लेकिन जहाँ तक फ़िल्म और अंल्प्संख्यक लोगों के बारे में आपने बात की है ....तो मैं मेरे मुताबिक ये वर्तमान दौर वैश्वीकरण का है...अगर इस दौर में आप ये सारी बतें जो कर रहे है ....मुझे तर्क हीन लग रही है.....अरे यार ...सरकार,न.जी.वो,बाबा,संत महात्मा,नेता(वोट के लिए ही सही),बड़े-बड़े बिजनेस मैन, सब तो सोच ही रहेहै न....तो ज़रा हम भारत वासियों को ...ये सोचने तो दो की हम कभी कभी धरेलू मुद्दे छोड़ के सारी दुनिया के बारे में भी सोच सकते है.... Allow for experiment ....i know film is not good but its a try....if we keep trying so may be ONe day we won the oscar ......THANKs ...sandeep mishra
Hi Sandeep
Good to see a blatant remark among al wah wah but let me ask u one thing.....is this worth to make a film keeping oscar in our mind? Do u think Kurosawa, Scorsese or Fellini made movies keeping oscar in their mind? No sir, absolutely not.....they made what they believed and yes attempts or having a try is a far different thing. If we go for something new and necessary which should be told then we take risks and say what must be said. I am sorry to say, I cant say same for Karan's type of Cinema. This type of cinema dont experiment, experiments are having the chances of hit or flop but Karan Johar makes film for sure success and the success of this film was also sure at least in NRI market and it happened. This was an experiment for the sake of experiment and in such a boring diction, a good cinema lover never can tolerate .........even Khuda Ke Liye with the same message was far better in tis diction jabki Pakistan ka cinema abhi hindustan ke cinema se bahut pichhe hai. Shoaib Mansoor and Karan Johar have a big gap because their aims were different............
Vimal Chandra Pandey
The basic point of debate should not be- the topic. But- How the story has been told and what is the paradigm of the director. I think despite of all the shortcomings..NEWYORK was a very good movie. And a change in the paradigm is the only thing the cinema can produce & should aim for, otherwise for entertainment there are many other ways (like..%$#@&*^*#@). So I think instead of Obama our hero should go to Osama and say that - My name is Khan, I am a real Muslim, I love peace, I love my life & other's as well.
If we can produce the desired effect by a movie then Oscar will chase it....but it should be a by-product...let's keep the real aim intact !!
- VIVEK bodhisatva