बात अगर यूं कहें कि भारत, एक ऐसा देश, जो अपने निर्माण के हजारों साल पहले से ही धर्म, जाति, क्षेत्र, समुदाय और विभिन्न संस्कृतियों के बीच उलझा हुआ देश था(है)। आज वही देश अनेको तरह के संक्रमण को झेलते हुए न सिर्फ दुनियां की महाशक्ति बनने को बेकरार है, बल्कि संसद में महिलाओं को 33 फीसदी आरक्षण देने को प्रतिबद्ध भी। भारत के लिए यह एक ऐतिहासिक समय ही है कि महिला दिवस के मौके पर दक्षिणपंथी-वामपंथी-कांग्रेसी और कुछ क्षेत्रीय दल भी राजनीति में महिलाओं को एक तिहाई हिस्सेदारी देने के लिए एकमत हो गये हैं। 'आरक्षण विरोधियों' या यूं कहिए कि पिछड़ों का प्रतिनिधित्व करने वाली नाममात्र की कुछ क्षेत्रीय पार्टियों को छोड़ दें तो आज पूरा देश इस बात पर सहमत है कि महिलाएं, जो किसी भी वर्ग,वर्ण,जाति,क्षेत्र,समुदाय, धर्म या संस्कृति की हों, 'दलित' ही हैं, इसलिए उन्हें आरक्षण देना देश और समाज के हित में है- जाहिर है यह सब बढ़कर बहुतों को अच्छा लग रहा होगा, और इनमें भी सबसे ज्यादा वे लोग होंगे जो महिला आरक्षण के मामले में भरत(भारत) के साथ हैं।
अब थोड़ा विषयान्तर, दीपक मिश्रा(जिक्र के लिए मांफी), मेरा एक ऐसा दोस्त, जो पाकिस्तान और मुसलमानों के मामले में तो दक्षिणपंथी और बाकी मामलों में खुद को प्रगतिशील कहलाना पसंद करता है। दीपक एक न्यूज चैनल में काम करता है। पिछले साल के एक दिन, मैं, दीपक और एक सहकर्मी(नाम याद नहीं) चाय पी रहे थे। वे दोनो इस बात से निराश थे कि किस तरह से सेटिंग-गेटिंग और जातिवाद ने मीडिया में 'गधों' का जमावड़ा लगा दिया। वे इस बात से भी दुखी थे कि किस तरह सालों की मेहनत के बाद भी चैनल ने उनकी तनख्वाह एक बार भी नहीं पढ़ाई और 'गधहों-चंपुओं' की सैलरी कई बार बढ़ा दी गयी। वे मेरी भी सैलरी नहीं बढ़ने पर दुख जता रहे थे। बातों ही बातों में सहकर्मी ने मेरी तरफ रुख किया-' मैंने आजतक जितने भी 'यादवों' को देखा , वे या तो बहुत ब्रिलीयंट थे या बहुत 'गधे'...बीच का एक भी यादव नहीं मिला।' मैंने उनकी बातों पर सहमति-असहमति जताए बिना ही तुरंत पूछा कि मीडिया में आरक्षण होना चाहिए कि नहीं? पहले तो दोनो अचकचाए, लेकिन बिना समय गवांए जवाब दिया-'नहीं'। मुझे हंसी आ गयी-'क्यों, मीडिया में गधे आ जाएंगे?' ये वही मीडिया है जिसमें 'तेजस्वी सवर्णों' का लगभग एकाधिकार है। और इन्हीं तेजस्वी जातियों के कब्जे में पूरा देश भी।
सभी को पता है कि मौजूदा महिला आरक्षण लागू हो जाने पर संसद में किस तबके और कौन से और धर्म की महिलाएं ज्यादा चुनकर आएंगी और वे महिला हितों की लड़ाई को कितना आगे ले जाएंगी। मनुवादियों का वर्गीय चरित्र महिलाओं को अपनी पार्टियों का माउथपीस बना देगा और वे भी सोच के मामले में उतनी ही अभिशप्त होंगी, जितने कि ये पार्टियां हैं। यहां पर मेरे कहने का मतलब यह नहीं है कि इस आरक्षण व्यवस्था में दलित-पिछड़ी-आदिवासी-अल्पसंख्यक महिलाओं की हिस्सेदारी तय होने पर संसद में कोई सुर्खाब के पर लग जाएंगे। बात बस एक बड़े तबके की महिलाओं के वाजिब अधिकारों का गला घोटने की है और ऐसा भारतीय 'लोकतंत्र' में खुलेआम हो रहा है।
महिला दिवस पर महिलाओं को आरक्षण का तोहफा देने के प्रधानमंत्री की प्रतिबद्धता से पूरा देश खुश है, सवर्ण खुश हैं, कांग्रेस खुश है, वर्गीय चेतना को व्याख्यायित करते वामपंथी खुश हैं, कनविंस कर ली गयी छोटी पार्टियां खुश हैं, मीडिया खुश है, महिला संगठन खुश हैं, दलितों-गरीबों के घर घूम-घूमकर खाना खा रहे युवराज खुश हैं...दुखी है तो बस देश का बहुसंख्यक जन, जिसे एकबार फिर खुलेआम ठगा जा रहा है और वे कुछ नहीं कर पा रहे हैं। पहले शुद्रों के नाम पर भारत की महान संस्कृति ने हजारों साल तक उन्हें समाज से बहिस्कृत किये रखा और अब सत्ता से उनकी मां-बहनों को भी बेदखल करने का पूरा इंतजाम कर लिया गया है। और इन्हीं दबे-कुचले-शोषित लोगों का प्रतिनिधित्व करने वाले नेता और उनकी पार्टियां आज इस मसले पर रिरियाती नजर रही हैं, ये वही पार्टियां हैं, जो महिलाओं के अधिकारों के मामले में मनुवादियों से रत्तीभर भी पीछे नहीं हैं। उनकी इस बात पर कि वे महिला आरक्षण के विरोधी नहीं है, बशर्ते इसमें पिछड़ी-दलित-आदिवासी-अल्पसंख्यक महिलाओं की भी जगह सुनिश्चत की जाये, को अनसुना कर दिया जा रहा है और उल्टे उन्हें ही महिला आरक्षण का विरोधी कहकर मजाक उड़ाया जा रहा है।
कितनी अजीब बात है कि इस अन्याय में वामपंथी भी बराबर के साझीदार है और उन्हें इस बार भी किसी ऐतिहासिक गलती का अहसास तक नहीं है। संसदीय वामपंथ भारतीय लोकतंत्र का एक ऐसा सवर्ण चेहरा है जो भूख, गरीबी, शिक्षा, भेदभाव, शोषण और वर्गविहीन समाज के नाम पर वंचितो-शोषितों को बरगलाने का काम करता है और इस 'लोकतंत्र' को चिरंजीवी बनाने का भी।
यहां पर मुझे भारतीय जनसंचार संस्थान के अध्यापक आनंद प्रधान( यहां उनपर लगे ब्लॉगीय जातिवाद को दूर रखें) की वह बात याद आ रही है जो कि उन्होंने मंडल विरोधियों को संबोधित करते हुए कही थी- 'आरक्षण लागू करके वीपी सिंह ने एक तरह से भारतीय लोकतंत्र को बचाने का ही काम किया है।' जरा सोचिए, अगर मंडल कमीशन नहीं लागू होता तो आज देश के क्या हालात होते(शायद,चिदंबरम का ग्रीन हंट अब कंट्री हंट बन गया होता)? और आज, दलितों, पिछड़ों, आदिवासियों और अल्पसंख्यक महिलाओं का हक मारकर किस लोकतंत्र को रचा जा रहा है। मंडल के विरोध में जल मरने वाले सवर्ण(और सवर्ण वामपंथ भी) आज दीवाली मना रहा है, लेकिन दलितों, पिछड़ों, आदिवासियों और अल्पसंख्यकों के घरों में मातम है, दिल उदास है और लाचार भी...
आज भी लोग सर पर मैला ढो रहे हैं यादव जी. यहीं पर सामाजिक समरसता और आरक्षण के सभी महत्व चूर-चूर हो जाते हैं. उनके लिये क्या कहेंगे जो सर पर मैला ढोते हैं, उनके लिये किस आरक्षण को लेकर आयेंगे. महिला के अन्दर दलित और पिछड़ी महिलाओं के आरक्षण के हथियार से दूर करेंगे उनका यह दर्द.
मैं जिस सत्ता-समाज की बात कर रहा हूं, उससे ऐसी अपेक्षा बेमानी है...पहले पूरा लेख पढ़िए, तब कुछ मर्म समझ आएगा...
अजय जी,
ये सवर्ण इतने धूर्त हैं कि देखना कल को अगर हवा इनके उल्टी बही तो यही देश के सबसे बड़े क्रांन्तिकारी और बन बैठेगे.अभी तो इन्हीं का देश और इन्हीं की सत्ता है.
अजय जी आरक्षण के मसले पर मेरी राय स्पष्ट हैं मैं केन्द्र सरकार के आरक्षण बिल से पूरी तौर पर सहमत हूं मैं बिहार का रहने वाला हूं और इस बिल का विरोध करने वाले अधिकांश नेता भी बिहार के ही रहने वाले हैं।बिहार में 40लोकसभा क्षेत्र हैं 243विधान सभा क्षेत्र हैं।केन्द्र सरकार के आरक्षण बिल को लेकर आपकी जो चिंता हैं उस और आपका ध्यान आकृष्ट कराना चाहता हू।आज की तारीख में जहां किसी भी तरह के आरक्षण का प्रावधान नही हैं (दलित को छोड़कर)बिहार के 65 से 70प्रतिशत सीटो पर पिछड़े और दलित वर्ग के लोग सांसद और विधायक हैं।आप भी आकड़ो को देख ले।
बिहार लोकसभा के 40 सीटो पर जातिगत संख्या इस प्रकार हैं।
पिछड़ी जाति-17सांसद
अगड़ी जाति-13सांसद
दलित-6सांसद
मुस्लिम-3सांसद
अब आप ही बताये की आपके दर्द में कितना दम हैं इस मसले को पोलिटिकल मत बनाये और जहां तक आपकी चिन्ता पिछड़े और दलित वर्ग के लोगो के प्रतिनिधुत्व को लेकर हैं तो इसको लेकर आप निश्चित रहे जमाना बदल गया हैं कोई भी इन जातियों का हक नही मार सकता और भारत में तो सम्भव हैं ही नही जहां लोग बेटी और वोट कितना भी अयोग्य क्यो न हो अपने जाति के लोगो को ही देता हैं।
अजय भाई ! भारत, एक ऐसा देश, जो अपने निर्माण के हजारों साल पहले से ही धर्म, जाति, क्षेत्र, समुदाय और विभिन्न संस्कृतियों के बीच उलझा हुआ देश 'था' , तो क्या अब नहीं है? विषयांतर -- मुझे नहीं मालूम की यादव लोग कितने तेज़ और कितने गधे है ! हाँ इतना जरुर कहूँगा की अब आरक्षण १९५० के ज़माने की बात हो गयी है! जब उस समय देश आजाद हुआ था , तो दलितों महिलाओं और पिछड़ों के लीए आरक्षण होना चाहिए था ; पर अब इसमे इक गहरे संशोधन की जरुरत है ! और ये आरक्षण भी सरकार की तरफ से बहुत सोच samaj कर टीक समय पर आया ! असल में जो वी पी सिंह ने किया वो भी इक महान राज्नायितिक कदम था और जो कोंग्रेष कर रही है वो भी ऐसा ही है! ये सब कोई लोकतंत्र- वोक्तंत्र को बचानी की कोशिश नहीं है बल्कि १००% सुद्ध वोट की राजनीती है! हाँ! हम ऐसे जरुर किसी खास विचारधारा से प्रभावित हो कर कह सकतें हैं! सचाई सबको मालूम है की किसको कितना फ़ायदा होगा! अभी तक आदिवासियों ने मातम मनाया और अब इस पित्रसत्तामक समाज में महिलाओं की बारी है!
अजय भाई और बेनामी भाई, पता नहीं आप किस सवर्ण सत्ता की बात कर रहे हैं… मैं भी सवर्ण हूं, मुझे तो आज तक सत्ता या प्रशासन से कोई फ़ायदा नहीं मिला (और मेरे जैसे लाखों लोग हैं), मुझे तो एक बच्चे का पालन-पोषण करने में ही दांतों तले पसीना आ रहा है, मुझे यह भी पता है कि मेरे बेटे को आरक्षण मिलेगा नहीं इसलिये उसे और भी अधिक मेहनत करनी है, मुझे यह भी पता है कि उसे किसी संस्थान में प्रवेश फ़ीस तो क्या आवेदन फ़ार्म में भी कोई छूट मिलने वाली नहीं है। कड़ी मेहनत करके और किस्मत हो तो अच्छी नौकरी मिलने के बाद भी हो सकता है कि मेरा बेटा प्रमोशन के लिये आजीवन तरसता ही रहे और उसके पीछे से आने वाले उसके बॉस बन बैठें, हर वक्त ये डर लगा रहता है कि मुंह से कोई गलत शब्द न निकल जाये और दलित एक्ट में शिकायत दर्ज न हो जाये… फ़िर भी आपको लगता है कि मेरे जैसे निम्न-मध्यमवर्गीय सवर्ण मजे मे हैं, तो क्या किया जा सकता है।
दलित होना किसी समय अभिशाप होता होगा, इस समय के राजनैतिक-सामाजिक-आर्थिक हालत तो यह है कि अब निम्न-मध्यमवर्गीय "सवर्ण" होना सबसे बड़ा गुनाह है, उसकी मदद कोई नहीं करने वाला क्योंकि इनका कोई वोट-बैंक नहीं है, लॉबी नहीं है।
suresh chipalankarji itane me hi padeshan ho gaye. savarno nr to 1000 saal se dusare logo ko galam banakar rakha hai. me ajayji ke lekh se puri tarah sahamat hu. savarn shabd to gali hona chahiye. ab jaruri hai ki ki chabuk dalito ke haath me aaye. mujhe viswas hai dalit savarno se gulami nahi karavaayega, kyonki vah jaanata hai gulami karvana kitana badaa gunah hai.
krantidut.blogspot.com
mai bhi brahman hun, but a true brahmin jise brahmin kahalana shrm ki baat lagati hai.brahman our unake purvajone bahut hi gunah kiya hai ab praayaschit kare.
अजय जी, एक अनुभव बाँटना चाहूंगी....मेरी स्कूल है जंहा बमुश्किल ३० % बच्चे ही सवर्ण होंगे ,जाहिर है बाकि बच्चे आरक्षण कोटा वाले है , जो कि तुलनात्मक रूप से(कुछ अपवादों को छोड़कर ) सवर्णों कि अपेक्षा कम मेहनत करते है,और हमें आश्चर्य तब होता है जब वो बच्चे एक्सक्यूज देते है कि इतनी मेहनत में भी उनका सलेक्शन उनकी मनपसंद जगह हो जायेगा....इसकी तुलना में सवर्ण ये कहते हुए मिल जाते है कि "हम कितना भी पढ़ ले हमारा सलेक्शन नहीं होगा ,हमारे दुसरे साथियो का सलेक्शन तो हमारी आधी मेहनत से भी कम में हो जायेगा."इस मामले में मै सुरेश जी से पूरी तरह सहमत हू....लेकिन......
अजय जी ,में सिर्फ महिला नहीं बल्कि हर तरह के आरक्षण के खिलाफ हू ,मेरा मानना है कि आरक्षण कि मानसिकता ,उसे पंगु और कमजोर बना देती है , दुसरे शब्दों में कहा जाये तो कामचोर बना देती है .वाकई में स्वतंत्रता के समय विभिन्न आरक्षण कि ज़रूरत थी लेकिन अब समय और परिस्थिति बदल चुकी है अब किसी भी तरह के आरक्षण को तवज्जो नहीं देनी चाहिए हमारे सामने ऐसे कई उदाहरण है जिनमे आरक्षित वर्ग ने बिना किसी आरक्षण के अपनी प्रतिभा का लोहा मनवाया है...
मुझे लगता है, जो लोग महिला आरक्षण के खिलाफ है, उन्हें महिलाओं के वजूद से ही नफरत है, इतनी कठोर बात कहन के लिए माफी चाहूंगा पर ऐसा है जरूर। लेकिन ऐसे लोगों को समझना चाहिए जो उन्हें जन्म देती है, उन्हें हम बोलने तक का अधिकार नहीं देना चाहते है। कुछ लोग इस आरक्षण के प्रारूप से भयभीत हैं कि यह महिलाओं के साथ छलावा है, है तो सही लेकिन इसके नाम पर जो एक ऐतिहासिक शुरुआत होने जा रही है, उस पर हम बमला क्यों कर रहे हैं.....
चंदन जी, शायद आप देश में चल रही बहसों से वाकिफ नहीं है...सीधे तौर पर कोई भी इस महिला आरक्षण का विरोध नहीं कर रहा है और न ही किसी को 33 फीसदी से चिढ़ है...मामला दलितों-पिछड़ों की हिस्सादारी का है...इसे पचा क्यों नहीं पा रहे हैं...मैने कहीं से भी आरक्षण का समर्थन नहीं किया है...देश की 80 फीसदी महिलाओं के हक मारने पर सवाल खड़ा किया है।
मेरी इस पोस्ट में आपको कहां से महिला आरक्षण की खिलाफत दिख गयी...ठीक से पढिए
अजय आपने ने एक जरूरी बहस यहाँ रखी है . धन्यवाद.
कॉंग्रेस और भाजपा जहां इस बहस को डाउनप्ले कर रहें हैं और यूथ फॉर इक्वालिटी जैसे 'अराजनीतिक' संगठन इस पर चुप्पी साधे हैं, वहीँ वामपंथी सिद्धांतकार सारी महिलाएं दलित हैं जैसे मुहावरे गढ़ने में शायद सबसे आगे हैं.
निवेदिता मेनन ने लगभग एक साल पहले इस पर बहस चलाई थी, जिसके जवाब में कविता कृष्णन ने यह कहा कि संसद में आरक्षण इस अर्थ में भिन्न है कि यहाँ 'मेरिट' जैसी कोई चीज नहीं चलती बल्कि अंततः सामाजिक गोलबंदी से अवसरों का फैसला होता है. और चूंकि ओबीसी राजनीतिक तौर पर एक गोलबंद है, जैसा कि संसद में आरक्षण के बगैर भी 27% से ज़्यादा ओबीसी सांसद पहुँचने से ज़ाहिर होता है, अगर बिना अलग कोटे के भी आरक्षण दिया जाय, तो भी ओबीसी महिलाएं अपने अनुपात में स्वाभाविक तौर पर आयेंगी. (देखें - http://kafila.org/2009/06/07/and-arent-obc-women-women-loud-thinking-on-the-womens-reservation-bill/ ).
कुछ ऐसा ही अफलातून जी ने भी लिखा हैं - http://samatavadi.wordpress.com/2010/03/07/nitish_womens_quota/
लेकिन मुझे अभी भी यह तर्क साफ़ समझ में नहीं आया. अगर जनसंख्या की वजह से ओबीसी सीधे ही अच्छी तादाद में संसद में आ गए बिना आरक्षण, तो औरतों को भी उनकी आधी आबादी की ताकत के भरोसे ही क्यों न छोड़ दिया जाए. और अगर हम यह कहते हैं कि औरतों को नहीं छोड़ सकते क्योंकि औरतें राजनीतिक रूप से गोलबंद कौम नहीं हैं, तो फिर ओबीसी औरतों को भी क्यों छोड़ा जाय.
दिलीप जी का क्रीमी लेयर वाला सवाल भी वाजिब और ज़रूरी है.
ajay kya ap ko lagta hai aj ke smay me reservation jaruri hai kyoki reservation pakar kuch un wanted log bhi wha phuch jate hai jha unka stan hi nahi hai upar kuch esi tarah ke comment hai unpe aap kya khana chahenge
बेनामी जी,
निश्चित तौर पर जो नाकाबिल हैं, उनको लेकर कष्ट होता है। लेकिन ये नाकाबिल लोग आपको सिर्फ रिजर्वेशन वाले ही क्यों दिखते है। मेरे हिसाब से तो यह देश, उसकी सत्ता और उसका तंत्र ही नाकाबिल है और इस व्यवस्था के कभी कामयाबी की उम्मीद मत रखिए...लेकिन जो चिज व्यापक जनता के हक में है, उस पर पक्ष तो लेना ही पड़ेगा, रिजर्वेशन उन्हीं में से एक है...
मुझे तो कत्तई यह व्यापक जन हित में नहीं दिखता है बात सिर्फ इतनी है कि क्या इन शोषित महिलाओं को मुट्ठी भर आरक्षण दे देने से उनका समूल विकास हो जायगा अभी भी पंचायतों के कई चुनाव में महिलाओं का सीट आरक्षित है लेकिन वहां सत्ता किसके हाथ में होती है प्रधान पति के हाथ में. सच्चाई से मुह मत मोड़िये आज आरक्षण जैसे लालच कि कोई प्रासंगिकता नहीं है ये सिर्फ वोट बैंक का चक्कर है जिसे राजनैतिक पार्टियाँ भुना रहीं हैं
आप को यह नहीं लगता कि आखिर क्यों किसी पार्टी कि औकात नहीं हुई कि वह आरक्षण बिल का विरोध कर सके सिर्फ इसलिए कि कोई अपने वोट बैंक में सेंध नहीं लगवाना चाहता है जैसे ही किसी पार्टी से पूछा जाता है कि आप ने चुनाव में कितनी सीटें महिलाओं को दी हैं सभी अपने बगलें झाँकने लगते हैं भाई साहब नियत में ही खोट है कोई बिल कोई आरक्षण कभी भी किसी समाज का भला नहीं कर सकता है मेरी इस बिल को लेकर कोई आपति नहीं है लेकिन कृपया इसे किसी नैतिकता या आदर्श राजनैतिक पहल के रूप में मत देखिये