विगत दिनों अपने गांव गया। गांव म-प्र के होशंगाबाद जिले में शोभापुर नाम का है। दोपहर में खाना खाने के बाद खेतों की और गया । ढ़ोर चर रहे थे। श्याम ढ़ोर नहीं चरा रहा था, बल्कि पेड़ के नीचे बैठा था। ढ़ोर अपने मन से चरे जा रहे थे । बड़े खुश लग रहे थे। श्याम भी बड़ा खुश लग रहा है ।श्याम ने दूर से ही बगैर किसी आवाज के संकेतात्मक मुद्रा में अभिवादन किया। मैंने सोचा, श्याम से बात कर लूं। श्याम के पास गया तो, वह थोड़ा झेंपा । देखा किसी से मोबाईल फोन पर बात कर रहा था, मैंने ईशारा किया कि बातें कर लो। पहले मुझे अचरज हुआ कि श्याम के पास मोबाईल है !! अब जो आपको बताऊंगा, वह आपको अचरज में ड़ाल देगा। मैं लगभग 45 मिनिट वहां बैठा, लेकिन श्याम से बात नहीं कर पाया। यही अचरज भरी कहानी है । मैं शब्दश: बयां करूंगा तो आपको ज्यादा आनंद आयेगा। श्याम किसी मेडम से मुखातिब थे। जहां से मैंने बातचीत सुनी (हालांकि किसी की अंतरंग बातचीत सुनना मेरी फितरत नहीं लेकिन यहां प्रसंग भिन्न है।)वह यह कि श्याम ने कहा कि आपकी आवाज बहुत ही मीठी है।श्याम की बोली में कहें तो बहुतई उम्दा है ! आप कहां रहत हो (लगता था बात शुरू ही हुई थी)। सामने वाले का प्रत्युत्तर तो मुझे नहीं मालूम था, लेकिन श्याम कभी गंभीर होता तो कभी मुस्करा देता था। जब उसने यह पूछा कि काय मेडम जब हम उते गांव में रहत हैं तो उम्दा डंडा (कवरेज सिग्नल) मिलत है, मनु जैसईं हम इते गांव बाहर आत हैं तो डंडा कमजोर पड़ जात हैं। मैं समझ गया कि हो न हो सामने वाली कोई कस्टमर केयर एक्जीक्यूटिव है। एक और दृश्य आपसे बांटता हूं । हमारे मोहल्ले में एक काकी रहती है। काकी ने बड़े ही निराले अंदाज में कहीं (एक गली छोड़कर) फोन कर पूछा कि मही भुंआ है कि नहीं ? यानी मठा हुआ है कि नहीं ? गांवों में आज भी मही बिकता नहीं है, बल्कि बंटता है। सामने वाले ने शायद हां में जवाब दिया, तभी काकी ने कहा कि किसी को लेने भिजाती हूं। काकी व श्याम के इस प्रसंग से एक बात तो स्पष्ट है कि बाजार के इस दवाब से जिन लोगों को वास्तव में भी जरुरत नहीं है, उनके पास भी मोबाईल फोन हैं। दरअसल में श्याम और काकी दोनों ही अभिजीत सेन गुप्ता कमेटी रिपोर्ट के पात्र ही हैं, जिसमें वो कहते हैं कि भारत की 70 प्रतिशत से ज्यादा आबादी 20 रुपये प्रतिदिन से नीचे गुजर करती है। कंपनियां हमारी जेब से मोटा माल खींच कर ले जा रही हैं। नाम न छापने की शर्त पर गांव में ही एक कंपनी के डिस्ट्रीब्यूटर ने बताया कि अकेले वो ही शोभापुर व उसके आस-पास के 8-10 गांवों में 4-5 लाख रूपये मासिक का बैलेंस बेचते हैं। और ऐसी ही लगभग 4 कंपनियां और हैं। अंदाजा लगाईये कि एक माह में मेरे गांव व आसपास से लगभग 12 लाख रुपये का बैलेंस बिकता है। यानी वर्ष में लगभग सवा करोड़ रूपये का कारोबार। यह तो केवल बैलेंस की गणना है, बाकी हैंडसेट वगैरह तो अलग । सोचिये यदि यही पैसा गांव में ठहरता तो यह गांव की तस्वीर बदलने में काम आता ! एक चिंताजनक प्रसंग और भी छेड़ता हूं कि गांव में रक्षाबंधन पर घर के सामने एक नवयुवती की मृत्यु हुई । पूरा घर बेहाल । ऐसे में तो गांव का चरित्र ही रहा है कि सुख-दु:ख में सहभागी होने का। मैंने मोहल्ले में युवाओं से कहा कि चलें । अर्थी वगैरह बनवाना पड़ेगा। उन्होंने जेब में से मोबाईल फोन निकाला और कहा कि अभी पूछ लेते हैं । उसने गमी वाले घर में बैठे किसी सज्जन को फोन लगाया गया। पूछा कितनी देर है। उसने कहा कि अभी तो दो घंटे लगेंगे। नवयुवक वापस अपने घरों को यह कहते हुये लौटे कि यार जब अर्थी निकलने लगे तो मिस कॉल मार देना। यानी इस विपरीत दौर में जबकि सब मिलकर उस पूरे परिवार को ढांढस बंधा सकते थे। अपने -अपने घरों में दुबक कर मिस कॉल की प्रतीक्षा कर रहे थे।अफसोस कि यह मोबाईल फोन श्मशान घाट में भी शांत नहीं हुआ। लोगों ने लकड़ी की व्यवस्था भी मोबाइल पर ही की। मैंने इस बात का जब विष्लेशण किया कि वास्तव में गांव में खुशहाली की स्थिति है या फिर यह दिखावा मात्र है। मैंने पाया कि आधे से ज्यादा किसान तो कर्जे में डूबे हैं। और जिस तरह से भूमंडलीकरण के दौर में मोटरगाडियों पर कर्ज का चलन बढ़ा है, तो भला शोभापुर कैसे पीछे रहता ा मैंने दुबे ऑटोमोबाइल के संचालक श्री श्रवण दुबे से बातचीत की तो उन्होंने बताया कि पिछले तीन वर्षों में लगभग 675 गाडियां बेची हैं जिनमें से 75 प्रतिशत कर्ज पर बेची गई हैं। अधिकांश लोग अभी कर्ज पटा पाने की स्थिति में नहीं है। बैंक द्वारा नियुक्त किये गये रिकवरी एजेन्ट श्री सचिन दुबे का कहना है कि कुछ दिन पूर्व उनके पास 550 ऐसे लोगों की सूची थी, जो कि कर्ज नहीं पटा पाये हैं । उनका कहना है कि इनमें से 300 गाडियां खिंचा गई यानी जब्त हो गईं। इसके मायने यह तो कदापि नहीं कि क्षेत्र में खुशहाली है। कंपनियां प्रलोभन देकर उन्हें फांसने की कोशिश कर रही हैं।
श्याम की इस बातचीत में मुझे भी बड़ा रस आ रहा था । उसने आगे कहा कि वे कल वारी मेडम से बात करा दईयो । कोई नई जोजना (योजना) आये तो भी बता दईयो। हमरो नाम श्याम है, हम जई शोभापुर में रहत हैं। इसी बीच मैंने देखा कि ढ़ोर चरते-चरते सोयाबीन के खेत में चले गये हैं। मैंने श्याम को इशारा किया । लेकिन श्याम ने उठकर उन्हें भगाने की चेष्टा नहीं की। मैं ही गया और हांक कर आ गया। लगभग 40 मिनिट की बातचीत के बाद मैं वहां से उठ गया और श्याम से कहा कि फिर मिलते हैं। श्याम की बाते जारी रहीं ।मैं लौटकर यह विश्लेषण ही कर रहा था कि गांव के सबसे विश्वसनीय और कर्त्तव्यनिष्ठ समझे जाने वाले चरवाहे ने आखिर अपने कर्त्तव्य से राह क्यों मोड़ ली ? ढ़ोर उसके सामने खेतों में घुस गये और वो फोन पर ही बातों में लगा रहा । एक सवाल मन में यह भी आया कि आखिर कस्टमर केयर एक्जीक्यूटिव को श्याम में ऐसी क्या रुचि है कि वह 45 मिनिट तक फोन नहीं काटती है!! विशेषज्ञों से बात की तो पता चला कि वे फोन नहीं काट सकती हैं क्योंकि यह उनके परफार्मेंस रिकार्ड में दर्ज होता है । अब मुझे समझ आया कि वह श्याम से क्यों बात कर रही थीं !
शाम को श्याम घर आया । दिन में मुझसे बात न कर पाने के लिये माफी मांगने लगा। मैंने कहा, कोई बात नहीं । लेकिन आगे उसने जो कहा, वह और भी चौंकाने वाला है । उसने कहा कि रोज एक नई मेडम से बात होती है। मजा आता है। मैंने कहा कि, पैसे कितने लगते हैं । उसने मेरी ओर मूर्खतापूर्ण कौतुहल से देखते हुआ कहा कि बिल्कुल नहीं । भला कस्टमर केयर से बात करने के भी कोई पैसे लगतै हैं क्या ? बिल्कुल मुफ़त है यह । मैंने कहा महीने के, तो उसने कहा कि 250 रुपये। यानी वर्ष के 3000 रुपये। मैंने कमाई में बढ़ोतरी का पूछा तो उसने कहा कि वही 1500 रुपये और कुछेक गल्ला (अनाज)। श्याम से तो मैंने कहा कि ''लगे रहो मुन्ना भाई'', लेकिन मुझसे रहा नहीं गया।
पता लगाया कि अभी गांव की जनसंख्या कितनी है । पता चला लगभग 8000 । गांव में माबाईल फोन कितने हैं तो पाया लगभग 3900। यानी औसतन हर घर में एक मोबाईल । मेरे गांव की परिधि एक किलोमीटर है। अत्यावश्यक काम करने पर यदि कोई किसी को ढूंढ़ने निकले तो 15-20 मिनिट में ढूंढ़ कर ला सकता है।तो सवाल यह कि मोबाईल फोन की जरूरत ही क्या ? बाजार का दवाब ही ऐसा है कि श्याम जैसे हरवाहे भी मोबाइल लेते हैं । अभी शनिवार को बाजार के दिन ही मेरे गांव में एयरटेल ने 1 रुपये में सिम बेची। यह वह सिम है जो तीन दिन तक चलेगी लेकिन उसका एड्रेस प्रूफ व अन्य आवश्यक दस्तावेज किसी ने भी न तो चाहे और न ही किसी ने उपलब्ध कराये। और हम सभी जानते हैं कि एक बार सिम ले ली तो फिर मानवीय भावनाओं के ज्वार को रोक पाना थोड़ा मुश्किल ही है।
एक और भा्ंति वह यह कि मोबाईल फोन से संवाद बढ़ा है। जबकि वास्तव में तो इससे संवाद घटा है। अब हमारे संवाद बातचीत से नहीं बल्कि मैसेज (एसएमएस)से होते हैं। पहले घरों में लैंडलाईन फोन थे तो उस पर घर के सभी जनों का बराबर अधिकार था, लेकिन अब मोबाईल फोन ने स्त्रियों को इस सुविधा से थोड़ा और दूर खड़ा कर दिया है। मोबाईल फोन तो पुरूषों के पास होता है। अभिषेक बच्चन बनाम आईडिया अपने चमकीले विज्ञापनों में खूब चमकदार लफ्फाजी बताये कि ''वाक वेन यू टॉक'' लेकिन वास्तव में तो मोबाईल फोन ने हमें स्थूल बना दिया है। काकी और श्याम अब पहले की तरह काम नहीं करते हैं ।एक और बड़ा दुष्प्रभाव यह भी कि गांवों मेंं /उपयोगकर्ताओं में झूठ बढ़ गया है।
ऐसा नहीं कि मोबाईल फोन खराब ही हैं बल्कि इसके कुछ अच्छे उदाहरण भी हैं। भोपाल में हमीदिया रोड पर एक चायवाले ने अपनी दुकान के आसपास के लगभग 50 दुकानदारों के नंबर अपने मोबाईल फोन में ड़ाल रखे हैं । दुकानदार चाय मंगाते समय केवल एक फोन करता है और काट देता है (मिस कॉल करता है) । दुकानदार नंबर देखकर उस दुकान की और देखता है, वहां से चाय का गिनती के साथ इशारा होता है। यहां से उतनी चाय पहुंच जाती है। न तो दुकानदार का पैसा खर्च हुआ और न ही चायवाले का। ऐसे ही ऑटोवालों के व्यवसाय में भी वृध्दि हुई है। लोग घरों से रात-बिरात फोन करते हैं और ऑटो घर पहुंच जाती है।
बहरहाल इन चंद अच्छे उदाहरणों के बीच श्याम और काकी भी हैं जिन्हें वास्तव में तो मोबाईल फोन की कोई आवष्यकता ही नहीं है। लेकिन विकास की इस अंधी दौड़ में ''स्टेटस सिंबल'' की होड़ भी अजब ही है। इस दौड़ ने काकी और श्याम को भी हर लिया है। मोबाईल का वायरस भी सुअर बुखार की तरह ही है, जो जकड़ लेता है तो फिर छोड़ता नहीं है। गांव के नवयुवकों से इस संदर्भ में बात की तो वे कहते हैं भैया ! गांव तरक्की कर रहा है। मैंने अपने मन में सोचा, यह तरक्की नहीं है, बल्कि बाजार के जाल में वह अपना मूल स्वभाव खो रहा है। संवाद का, आपसी सामंजस्य का, सुख-दु:ख में सहभागी होने का
बस इतनी सी बात है...
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I
कुछ मोहब्बतें बिस्तर में सिमटती हैं,
कुछ रूह में उतरती है,
और कुछ बस खामाखाँ होती हैं,
क्या ही होता जो
मेरी रूह तेरा बिस्तर होती।
II
कुछ मोहब्बतें बिस्त...
bahut gambhir sawal uthaya hai aapne. mujhe bhi bundelkhand ka apna gaon yaad aa gaya. panch saal se sookha pad raha hai, vikas ka koi nishan nahin dikhta lekin iss tathakathit vikas ki ek nishani jaroor gaon me aa gayi gayi. khet me khada mobile tower. ghar me khane ke liye anaj nahin hai lekin ladke mobile ke liye maa-baap se jhagda karte hain. yahi hai bazar ka mayajaal.
kaahe ko pareshaan hote ho ab to karoro ka package mil gaya hai....
ek-do tower aur kuch mobile phone aap log bhi le lijiyega...