यात्री गाडी (पैसिंजर) पर छ:-सात वर्ष बाद सवार हुआ। लगभग फांके के दिनो में इससे आया-जाया करता था। लेकिन एक बात तो दावे से कह सकता हूं कि निश्चित रूप से यदि किसी को सही रूप में भारत का दर्शन करना है तो उसे यात्री गाड़ी (पैसिंजर से) में सफर जरूर करना ही चाहिये। छोटे-बड़े-मध्यम-निम्नमध्यम, टिकिट, बेटिकिट, परिक्रमावासी, साधु-सन्यासी, लकड़ी के गट्ठे बेचने वाले,भिखारी, बच्चों का पहाड़ा, गुडिया , ताया के पत्ते, हाथ धाने का साबुन बेचने वाले सब लोग इसमें मिलते हैं। इस यात्री गाड़ी की दो-तीन प्रमुख विशेषतायें मुझे लगीं एक तो कम पैसे में ज्यादा सफर। दूजा यह कि कोई आरक्षण नहीं सब कुछ अपना है आरक्षण् होता भी है तो केवल रूमाल, चश्मा, छाता, बैग आदि। तीसरा यह कि इसमें यात्री एक दूसरे से वार्तालाप करते है। एक दूसरे के सुख-दुख बांटते है। साथ खाते-पीते हैं और यहां तक कि उतरते हुये पता लेना-देना नहीं भूलते हैं, वर्ना आज की इस भीड़-भाड़ भरी जिंदगी में कहां और किसके पास यह समय है। लेकिन यात्री गाड़ी के सवारों के पास यह समय है। इसमें मनोरंजन भी है।
पिपरिया की भीड़ भरे स्टेशन से मेरा सफर शुरू हुआ। गाड़ी पौन घंटे लेट। गाड़ी पहले से ही खचाखच थी । लेकिन यह भीड़ कहां समा गई पता ही नहीं चला। वैसे यह पैसिंजर ट्रेन की विशेषता है कि यह सभी को समेटते हुये चलती है। गाड़ी आने के पूर्व स्टेशन खचाखच भरा हुआ था लेकिन गाड़ी जाने के बाद मैदान साफ। पिपरिया में दो बड़ी गाड़ियां निकाल दी गई, दर असल यह ट्रेन पूरी तरह से भारतीय परिवेश का प्रतिनिधित्व करती है क्यंकि रेल विभाग द्वारा इस भारतीय ट्रेन का कथित बड़ी ट्रेन (सवर्ण) के कारण इसे रोककर रखा जाता है। यह एक अलग किस्म का बहिष्कार है। जैसे-तैसे ट्रेन आगे बढ़ी तो मनोरंजन शुरू। आप सोच भी नहीं सकते कि ''पाद'' भी एक मनोरंज का विषय हो सकता है।लेकिन जनाब इस ट्रेन में हो सकता है। जैसे ही किसी ने गैस पास की तो लोगों की टिप्पणियां शुरू। ''सड़े भटे''खाकर कौन आया? दीपावली के मिष्ठान्न निकल रहे हैं। किसी पढ़े-लिख ने कहा ब्व2 ! लगभग 20मिनिट इसी में निकल गये।
जरा ही आगे बढ़े तो घुमुक-घुम की आवाज आई। एक बच्चा डालडा के डिब्बे में एक वायर, एक छोटी लकड़ी लगाकर, बनाया गया अपना विशेष वाद्य यंत्र लेकर सामने खड़ा था। बड़े-बड़े संगीतकारों को अलग-अलग यंत्र बजाने पड़ते हैं लेकिन इस छोटू के इस वाद्य यंत्र पर ही सभी की धुन हैं। उसने परदेसी... परदेसी और तुम तो ठहरे परदेसाी गया। अल्ताफ राजा की यादें ताजा कर के ये भी गये।
लगभग 12 बज रहे हैं और कई लोगों की पोटलियां खुल गई। चपर-चपर के मधुर संगीत के बीच भोजन किये जा रहे हैं। सालीचौका स्टेशन पर गाड़ी फिर रोक दी गई । पता चला कि दो गाड़ियां फिर निकलेंगी। यहां पर जाकर खूब बिके, मसाले वाले और गैर मसाले वाले चने। मसाले वालों चने की विशेषता यह नहीं कि उसमें एमडीएच मसाले मिले हैं बल्कि उसमें नमक और हरी मिर्च साथ में मिलेगी .......... ।
यहां से दो मुंडन किये हुये नवयुवक चढ़े जो कि गले में एक छोटी मटकी टांगे थे। अपने रिश्तेदार की अस्थि विसर्जित करके। पैर न रखने वाली भीड़ में भी उन्हें रह दे दी गई। यहां किसी को उनके लिये जगह नहीं बनानी पड़ी बल्कि उन्हें जगह दी गई। यही है पैसिंजर टे्रेन। जो यह जानती है कि कौन संकट की घड़ी में है या किसके साथ कैसे पेश आना है !!!
वहीं से एक मुफ्त यात्रा कर रही बुजुर्ग माता बगैर टिकिट ही चढ़ी। शान के साथ बोलती भी रही कि मैया (नर्मदा) की परिक्रमा में काहे की टिकिट? मिले तो टीसी कमण्डल बता दूंगी ! ऐसी साफगोई हमें बड़े लोगों में नहीं मिलतीं। बड़े लोग तो होने के बाद भी आयकर के डर से छिपाते हैं। अंतत: यहां से भी ट्रेन बढ़ी। इस समय पूरे डब्बे में मूंगफली की सुगंध आ रही है लेकिन सभी जन छिलके ट्रेन में ही फेंकते थे। यह थोड़ा अटपटा लगा मुझे। मैंने कहा तो एक व्यक्ति ने तपाक से कहा कि पैसे दे रहे हैं,और यदि हम यहां कचरा न फेंके तो सफाई कर्मी तो भूखा मर जाये! यह बहुत ही रोचक अनुभव मेरे लिये था। मैने कभी ऐसा नहीं सोचा था।
इसके बाद का नजारा तो और ही रोचक था। गाड़ी करपबेल स्टेशन पर रूकी। यहां से फिर कथित रूप से एक बड़ी गाड़ी गुजरने वाली थी। इस स्टेशन पर एक हैंण्डपम्प था। सब्जी बेंचने वाले ने इस अवसर को भुनाया और अपनी धनिया पत्ती के बंडल निकालकर धोये। उन्हें पैक किया बाजार के लिये। और धुली धनिया पत्ती फिर गाड़ी में। इसके बाद एक बच्चा गर्मी के कारण रोया, मां अकेली थी। बच्चा बाहर जाने की जिद कर रहा था, पर मां कैसे जाये ! तो पूरा डिब्बा आतुर। हर कोई उस बच्चे को घुमाने को तैयार था। दो-चार बारी-बारी से लेकर गये भी। एक दो नवयुवकों ने धूपवाला चश्मा लगाकर बगल के डिब्बे में बैठी नवयुवती की तीन-चार परिक्रमा भी कर डाली। उसने एक बार पानी लाने के लिये बॉटल निकाली और तीन लोग पानी भरने के लिए निकले।
मेरा स्टेशन अगला ही था। गाड़ी चली और मैं चुटुर-पुटुर घटनाओं के बाद मैं उतर गया। लेकिन मैं यही सोच रहा था कि ऐसी गाड़ी जिसमें हर वर्ग को जगह है, हर वर्ग के व्यक्ति को शरण मिलती है। इस गाड़ी को हीन गाड़ी समझा जाता है। रेल विभाग भी इसी बात को वर्षों से स्थापित करने में कोई कसर नहीं छोड़ रहा है कि यह दीन-हीनों की गाड़ी है। लेकिन यह गरीबों के लिये केवल गाड़ी ही नहीं है ब िलक जीवन है। ये एक बार इस गाड़ी के चुक जाने पर 24 घंटे इसका इंतजार करते हैं क्योंकि इसमें पैसा कम है यात्रा ज्यादा है और उससे भी बढ़कर है इसमें अपनापन।
दसअसल व्यवस्था हर जगह बहिष्कार के अलग-अलग खेल खेलती है। यहां इस गाड़ी में न तो डिब्बों की संख्या बढ़ाई जाती है और न ही यात्री सुविधायें बढ़ाई जाती हैं । और न ही इन गाड़ियों की संख्या बढ़ाई जाती है। बल्कि केवल और केवल यही वह गाड़ी है जो नितांत भारतीयता का प्रतिनिधित्व करती है, जिसमें अपनापन है। उसे रेल विभाग और शासन दोनों ही हीन भावना से दखते हैं और हर स्टेशन पर रोककर करते हैं उसका बहिष्कार। मुझे याद है कि मेरे गांव से जाने वाली पैसिंजर ट्रेन में आज भी उतने ही डिब्बे हैं जितने मेरे बचपन के दिनों में थे। मतलब सब कुछ बदला और जो नहीं वो हैं पैसिंजर ट्रेन। सवाल एक और है कि इस यात्री गाड़ी को बदला नही गया, या ये बदली नहीं ।
कई बारगी तो लगता है कि इस रेल का कोई माईबाप इसलिये भी नहीं है कि इसमें भारत का सर्वहारा वर्ग यात्रा करता ह,ै जिसकी अपनी कोई आवाज नहीं है जो बार-बार गाड़ी के रोकने पर भी आवाज नहीं उठाता है। जो हर बार व्यवस्था को उसके अपने वर्तमान रूप में भी स्वीकार करता है इसलिये इसकी उपेक्षा भी की जाती है। यह वर्ग इसी कारण बार-बार लगातार चोट खाता है। इतने वर्षों की उपेक्षा के बाद वह अब यह स्वीकार कर बैठा है कि यही उसकी नियति है और वह इसका प्रतिकार नहीं करता है बल्कि इसका अंग हो चला है।
बड़ी गाड़ियों के एसी कोच में सफर करते समय मुझे राजू श्रीवास्तव का एक प्रसंग याद आता है जिसमें वो कहते हैं कि एसी डिब्बे में सब सफेद चादर ओढ़े मुर्दे की तरह सफर करते हैं। इसलिए मैं उसे मुर्दा गाड़ी मानता हूं। जहां सह यात्री से बात करना शान के खिलाफ है और बुरा भी माना जाता है। सुख-दुख में शामिल होना तो बहुत दूर की बात है। यहां पानी खत्म हो जाने पर व्यक्ति प्यासा मरना पसंद करेगा, अपितु इसके कि बाजू वाले से पानी मांग ले। पैसिंजर गाड़ी में कहानी इसके ठीक उलट है। आदमी न केवल पानी मांग लेता है बल्कि पूरा डिब्बा पानी लाने में मदद करता है। जैसा कि मैंने पहले भी कहा कि पैसेंजर गाड़ी नागर समाज, भारत के सर्वहारा वर्ग का प्रतिनिधित्व करती है इसलिये उपेक्षा का शिकार है लेकिन एक बात तो है कि जीवन भी यहीं बसता है।