दर्ज़नो जिंदगियां चलती हैं
कुछ सुलझी हुई कुछ उलझी सी
कुछ खुद में गुम लोगो की दुनिया
कुछ दुसरो में ढून्दते अपनी सी दुनिया
धक्के से चढ़ते धक्के से उतरते
जीवन की पटरी भी ऐसी ही लगती है
रुक रुक के चलने वाली
चलते चलते रुक जाने वाली
कुछ हँसते चेहरे, कुछ नम आँखें
कई चीखती आवाजें, कुछ गुदगुदाती किस्से
नए अजीब रिश्ते
रेल की पटरियों पर रोज़
चलती है दर्ज़नो जिंदगियां
एक बुरा दिन, एक सुहानी शाम
कुछ यहाँ की, कुछ वहां की
एक अनजान सफ़र पर
चंद जाने पहचाने चेहरों के बीच
यह दुनिया अपनी सी लगने लगती है
फिर हर दिन जीवन की पटरियां
रेल की पटरियों से मिल कर
एक नयी कहानी लिख्ती हैं
और में इन सब के बीच
खुद को खड़ा देख सोचती हूँ