संजय भास्कर
शिक्षा एक सपना ही बना हुआ है
संजय भास्कर , शनिवार, 27 मार्च 2010संजय भास्कर
लो क सं घ र्ष !: भारत सरकार का विज्ञापन है या निम्नकोटि के शोहदों का उवाच
Randhir Singh Suman, गुरुवार, 25 मार्च 2010फिर, वे मेरे पति को अगवा कर ले गए
फिर, उन्होंने गाँव के स्कूल को उड़ा डाला
अब, वे मेरी 14 साल की लड़की को ले जाना चाहते हैं
रोको, रोको, भगवान के लिए इस अत्याचार को रोको
सुमन
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आजादी के इन महानायकों को हम भी याद करते हैं
संजय भास्कर , बुधवार, 24 मार्च 2010मेरा रंग दे बसंती चोला, माहे रंग दे। इन लाइनों को सुनने के बाद देश पर जान कुर्बान करने वाले भगत सिंह, सुखदेव और राजगुरू की यादें ताजा हो जाती हैं। दो साल पहले भी एक फिल्म रंग दे बसंती के जरिए देश के युवाओं में भ्रष्टाचार आदि से लड़ने की अलख जगाने का प्रयास किया गया। युवाओं के इस देश में कुछ हलचल भी दिखी, लेकिन कोई बड़ा बदलाव नहीं दिखा। सच तो यह है कि आज एक बार फिर ऐसे ही भगत सिंह, सुखदेव और राजगुरू जैसे युवाओं की जरूरत है जो भारत को भ्रष्टाचार, अपराध समेत कई समस्याओं से निजात दिला सकें। भारत मां के लिए हंसते-हंसते फांसी का फंदा चूमने वाले इन तीनों क्रांतिकारियों को 23 मार्च 1931 को ही फांसी दी गई थी।
आजादी के इन महानायकों को भी हम भी याद करते हैं |
संजय भास्कर
आदत.. मुस्कुराने की तरफ से
लो क सं घ र्ष !: वीर भगत सिंह आज अगर, उस देश की तुम दुर्दशा देखते
Randhir Singh Suman, मंगलवार, 23 मार्च 2010
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जिस पर अपना सर्वस्व लुटाया, जिसके खातिर प्राण दिए थे।
वीर भगत सिंह आज अगर, उस देश की तुम दुर्दशा देखते॥
आँख सजल तुम्हारी होती, प्राणों में कटु विष घुल जाता।
पीड़ित जनता की दशा देखकर, ह्रदय विकल व्यथित हो जाता ॥
जहाँ देश के कर्णधार ही, लाशों पर रोटियाँ सेकते।
वीर भगत सिंह आज अगर........
तुम जैसे वीर सपूतों ने, निज रक्त से जिसको सींचा था।
यह देश तुम्हारे लिए स्वर्ग से सुन्दर एक बगीचा था॥
अपनी आँखों के समक्ष, तुम कैसे जलता इसे देखते ।
वीर भगत सिंह आज अगर........
जिस स्वाधीन देश का तुमने, देखा था सुन्दर सपना।
फांसी के फंदे को चूमा था, करने को साकार कल्पना॥
उसी स्वतन्त्र देश के वासी, आज न्याय की भीख मांगते।
वीर भगत सिंह आज अगर........
अपराधी, भ्रष्टों के आगे, असहाय दिख रहा न्यायतंत्र।
धनपशु, दबंगों के समक्ष, दम तोड़ रहा है लोकतंत्र।
जहाँ देश के रखवालों से, प्राण बचाते लोग घुमते॥
वीर भगत सिंह आज अगर........
साम्राज्यवाद का सिंहासन, भुजबल से तोड़ गिराया था
देश के नव युवकों को तुमने, मुक्ति मार्ग दिखाया था॥
जो दीप जलाये थे तुमने, अन्याय की आंधी से बुझते।
वीर भगत सिंह आज अगर........
जिधर देखिये उधर आज, हिंसा अपहरण घोटाला है।
अन्याय से पीड़ित जनता, भ्रष्टाचार का बोल बाला है॥
लुट रही अस्मिता चौराहे पर, भीष्म पितामह खड़े देखते।
वीर भगत सिंह आज अगर........
साम्राज्यवाद के प्रतिनिधि बनकर, देश लुटेरे लूट रहे।
बंधुता, एकता, देश प्रेम के बंधन दिन-दिन टूट रहे॥
जनता के सेवक जनता का ही, आज यहाँ पर रक्त चूसते।
वीर भगत सिंह आज अगर........
बंधू! आज दुर्गन्ध आ रही, सत्ता के गलियारों से।
विधान सभाएं, संसद शोभित अपराधी हत्यारों से।
आज विदेशी नहीं, स्वदेशी ही जनता को यहाँ लूटते।
वीर भगत सिंह आज अगर........
पूँजीपतियों नेताओं का अब, सत्ता में गठजोड़ यहाँ।
किसके साथ माफिया कितने, लगा हुआ है होड़ यहाँ ॥
अत्याचारी अन्यायी, निर्बल जनता की खाल नोचते।
वीर भगत सिंह आज अगर........
शहरों, गाँवों की गलियों में, चीखें आज सुनाई देती।
अमिट लकीरें चिंता की, माथों पर साफ़ दिखाई देती॥
घुट-घुट कर मरती अबलाओं के, प्रतिदिन यहाँ चिता जलते।
वीर भगत सिंह आज अगर........
घायल राम, मूर्छित लक्ष्मण, रावण रण में हुंकार रहा।
कंस कृष्ण को, पांडवों को, दुःशासन ललकार रहा॥
जनरल डायर के वंशज, आतंक मचाते यहाँ घूमते।
वीर भगत सिंह आज अगर, उस देश की तुम दुर्दशा देखते॥
-मोहम्मद जमील शास्त्री
( सलाहकार लोकसंघर्ष पत्रिका )
शहीद दिवस के अवसर पर भगत सिंह, राजगुरु व सहदेव को लोकसंघर्ष परिवार का शत्-शत् नमन
नाम गांव का अनाम कवि
जाएं तो जाएं कहां?
भागीरथ, रविवार, 21 मार्च 2010अब दिल्ली सरकार के निशाने पर किसी तरह दो वक्त की रोटी कमा रहे ऑटोरिक्शा चालक हैं। सरकार कथित 55 हजार ऐसे चालकों को दिल्ली से खदेड़ने की पूरी तैयारी में है। वजह बताई जा रही है कि ये रिक्शा चालक सड़क पर जाम लगाते हैं। अव्यवस्था फैलाते हैं। सरकार को ऑटो से लगने वाला जाम नज़र आता है लेकिन हर रोज सड़कों पर उतर रही हजारों लंबी-लंबी कारें जाम की वजह नहीं लगतीं। चूंकीं ये कारें आम आदमी की नहीं हैं। ये सरकार के साथ सत्ता और उसकी नीतियों से सबसे ज्यादा नफे में रहने वाले और मलाई चाटने वाले चुनिन्दा लोग हैं। ये लोग सरकार के निशाने पर कैसे हो सकते हैं? सबसे आसान टारगेट तो कमजोर वर्ग है।
सरकार के गुण्डे पुलिसवालों ने कनाट प्लेस के जनपथ मार्केट में पटरियों पर दुकान लगाकर गुजारा करने वाली महिलाओं से रोजी छीन ली तो वे 20 मार्च को बीच सड़क पर बैठ गईं और रोरोकर अपना दर्द लोगों को बताने लगीं। किसी के पास वक्त नहीं था कि उनकी बातें सुने। दिक्कत इस बात से थी उनकी वजह से रोड़ जाम हो गया है। इनकी वजह से उनका वीकेण्ड खराब हो रहा है। बाद में महिला पुलिस ने सबको खदेड़ दिया। दिल्ली सरकार रोज-बरोज कुछ न कुछ ऐसा कर रही है।
कांग्रेस का हाथ आम आदमी के साथ कहकर सत्ता में आई कांग्रेस आम आदमी के पेट पर लात मारने और उसे दिल्ली और दुनिया से रूखसत करने पर अमादा है। हजारों भिखारियों को ठिकाने लगा चुकी है और बचे हुओं को ठिकाने लगाने का काम जोरों पर है।
दिल्ली में सरकार की नाक का सवाल बन चुके कॉमनवेल्थ खेल होने हैं। सरकार को दिखाना है कि वह कितनी काबिल है जिसने इसे ठीक से करवा लिया है। विदेशियों को चकाचक और भीडमुक्त सड़कें दिखानी हैं। बताना है कि दिल्ली कितनी सुंन्दर है। कितनी साफ़ है। ये वर्ल्डक्लास शहर से किसी मायने में कम नहीं है। इसकी गन्दगी (गरीब और आम आदमी) को एमसीडी की तरह कूडे़ के ट्रक के तरह शहर से दूर फिंकवा रही है। वैसे उसका बस चले तो वह दिल्ली को साफ सुधरा बनाने के लिए इन लोगों को अरब सागर में फिंकवा दे।
आजकल केन्द्र सरकार भी अखबारों में बड़े-बड़े विज्ञापन दे रही है। लोगों को बता रहा है कि माओवादी कितने खतरनाक और खूंखार हैं। ये देश के मध्यवर्ग को हकीकत से दूर रखकर माओवादियों के प्रति नफरत फैलाने का प्रचार और सरकारी पाखण्ड है। सरकार का अब तक इस बात का एहसास नहीं हुआ कि माओवाद समस्या नहीं विचारधारा है जो उसकी गलत नीतियों की उपह है। ऑपरेशन ग्रीन हंट के नाम पर वह इस विचारधारा को समस्या बताकर खत्म करने पर कृतसंकल्प है। सरकार को कौन बताए कि हिंसा से विचारधाराएं खत्म नहीं बल्कि और उग्र होती हैं।
लो क सं घ र्ष !: भगत सिंह के वैचारिक शत्रु
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भगत सिंह की याद में
उनकी शहादत के 75 वर्ष पूरे होने पर
1930 में जब भगत सिंह जेल में थे, और उन्हें फाँसी लगना लगभग तय था, उन्होंने एक पुस्तिका लिखी, “मैं नास्तिक क्यों हूँ।” यह पुस्तिका कई बार छापी गयी है और खूब पढ़ी गयी है। इसके 1970 के संस्करण की भूमिका में इतिहासकार विपिन चंद्र ने लिखा है कि 1925 और 1928 के बीच भगत सिंह ने बहुत गहन और विस्तृत अध्ययन किया। उन्होंने जो पढ़ा, उसमें रूसी क्रांति और सोवियत यूनियन के विकास संबंधी साहित्य प्रमुख था। उन दिनों इस तरह की किताबें जुटाना और पढ़ना केवल कठिन ही नहीं बल्कि एक क्रांतिकारी काम था। भगत सिंह ने अपने अन्य क्रांतिकारी नौजवान साथियों को भी पढ़ने की आदत लगायी और उन्हें सुलझे तरीके से विचार करना सिखाया।
1924 में जब भगत सिंह 16 साल के थे, तो वे हिन्दुस्तान रिपब्लिकन एसोसिएशन (HRA) में शामिल हो गये। यह एसोसिएशन सशस्त्र आंदोलन के जरिये ब्रिटिश साम्राज्यवाद को खत्म करना चाहता था। 1927 तक HRA के अधिकतर नेता गिरफ्तार किए जा चुके थे और कुछ तो फाँसी के तख्ते तक पहुँच चुके थे। HRA का नेतृत्व अब चंद्रशेखर आजाद और कुछ अन्य नौजवान साथियों के कंधों पर आ पड़ा। इनमें से प्रमुख थे भगत सिंह। 1928 बीतते भगत सिंह और उनके साथियों ने यह त्य कर लिया कि उनका अंतिम लक्ष्य समाजवाद कायम करना है। उन्होंने संगठन का नाम HRA से बदलकर हिन्दुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन एसोसिएशन (HSRA) रख लिया। यह सोशलिस्ट शब्द संगठन में जोड़ने से एक महत्त्वपूर्ण तब्दीली आयी और इसके पीछे सबसे बड़ा हाथ था भगत सिंह का। सोशलिज्म शब्द की समझ भगत सिंह के जेहन में एकदम साफ थी। उनकी यह विचारधारा मार्क्सवाद की किताबों और सोवियत यूनियन के अनुभवों के आधार पर बनी थी। ब्रिटिश साम्राज्यवाद के खिलाफ तब तक जो सशस्त्र संघर्ष हुए थे, उन्हें भगत सिंह ने मार्क्सवादी नजरिये से गहराई से समझने की कोशिश की।
दिल्ली असेम्बली में बम फेंकने के बाद 8 अप्रैल 1929 के दिन भगत सिंह बटुकेश्वर दत्त के साथ जेल पहुँचे। बम फेंककर भागने के बजाय उन्होंने गिरफ्तार होने का विकल्प चुना। जेल में उनकी गतिविधियों का पूरा लेखा-जोखा आज हमें उपलब्ध है। उन दिनों भगत सिंह का अध्ययन ज्यादा सिलसिलेवार और परिपक्व हुआ। लेकिन अध्ययन के साथ-साथ भगत सिंह ने जेल में राजनैतिक कैदियों के साथ होने वाले बुरे सलूक के खिलाफ एक लम्बी जंग भी छेड़ी। यह जंग सशस्त्र क्रांतिकारी जंग नहीं थी, बल्कि गांधीवादी किस्म की अहिंसक लड़ाई थी। कई महीनों तक भगत सिंह और उनके साथी भूख हड़ताल पर डटे रहे। उनके जेल में रहते दिल्ली एसेम्बली बम कांड और लाहौर षडयंत्र के मामलों की सुनवाई हुई। बटुकेश्वर दत्त को देशनिकाले की और भगत सिंह , सुखदेव और राजगुरू को फाँसी की सजा हुई।
बेहिसाब क्रूरता के बावजूद ब्रिटिश सरकार उनके हौसलों को पस्त नहीं कर पायी। सुश्री राज्यम सिन्हा ने अपने पति विजय कुमार सिन्हा की याद में एक किताब लिखी। किताब का नाम है “एक क्रांतिकारी के बलिदान की खोज।” इस पुस्तक में उन्होंने विजय कुमार सिन्हा और उनके दोस्त भगत सिंह के बारे में कुछ मार्मिक बातें लिखी हैं। इन क्रांतिकारी साथियों ने कोर्ट में हथकड़ी पहनने से इन्कार कर दिया था। कोर्ट मान भी गयी, लेकिन अपने दिये हुए वादे का आदर नहीं कर पायी। जब कैदी कोर्ट में घुसे तो झड़प शुरू हो गयी और फिर बेहिसाब क्रूरता और हिंसा हुई। - “जब पुलिस को यह लगा कि उनकी इज्जत पर बट्टा लग रहा है तो पठान पुलिस के विशेष दस्ते को बुलाया गया जिन्होंने निर्दयता के साथ कैदियों को पीटना शुरू किया। पठान पुलिस दस्ता अपनी क्रूरता के लिए खास तौर पर जाना जाता था। भगत सिंह के ऊपर आठ पठान दरिंदे झपटे और अपने कँटीले बूटों से उन्हें ठोकर मारने लगे। यही नहीं, उनपर लाठियाँ भी चलाई गयीं। एक यूरोपियन अफसर राबर्टस ने भगत सिंह की ओर इशारा करते हुए कहा कि यही वो आदमी है, इसे और मारो। पिटाई के बाद वे इन क्रांतिकारियों को घसीटते हुए ऐसे ले गये, जैसे भगत सिंह लकड़ी के ठूँठ हों। उन्हें एक लकड़ी की बेंच पर पटक दिया गया। ये सारा हँगामा कोर्ट कंपाउंड के भीतर बहुतेरे लोगों के सामने हुआ। मजिस्ट्रेट खुद भी यह नजारा देख रहे थे। लेकिन उन्होंने इसे रोकने की कोई कोशिश नहीं की। उन्होंने बाद में बहाना यह बनाया कि वे कोर्ट के प्रमुख नहीं थे, इसलिए पुलिस को रोकना उनकी जिम्मेदारी नहीं थी।
शिव वर्मा, जो बाद में सीपीएम के सीनियर कॉमरेड बने और अजय कुमार घोष, जो सीपीआई के महासचिव हुए, इस वारदात में बेहोश हो गये। तब भगत सिंह उठे और अपनी बुलंद आवाज में कोर्ट से कहा, “मैं कोर्ट को बधाई देना चाहता हूँ ! शिव वर्मा बेहोश पड़े हैं। यदि वे मर गये तो ध्यान रहे, जिम्मेदारी कोर्ट की ही होगी।”
भगत सिंह उस समय केवल बाईस वर्ष के थे लेकिन उनकी बुलंद शख्सियत ने ब्रिटिश सरकार को दहला दिया था। ब्रिटिश सरकार उन आतंकवादी गुटों से निपटना तो जानती थी, जिनका आतंकवाद उलझी हुई धार्मिक व राष्ट्रवादी विचारधारा पर आधारित होता था। लेकिन जब हिन्दुस्तान रिपब्लिक एसोसिएशन का नाम बदलकर हिन्दुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिक एसोसिएशन हो गया और भगत सिंह उसके मुख्य विचारक बन गये तो ब्रिटिश साम्राज्यवादी सरकार दहशत में आ गयी। भगत सिंह के परिपक्व विचार जेल और कोर्ट में उनकी निर्भीक बुलंद आवाज के सहारे सारे देश में गूँजने लगे। देश की जनता अब उनके साथ थी। राजनीतिक कैदियों के साथ जेलों में जिस तरह का अमानवीय बर्ताव किया जाता था, उसके खिलाफ भगत सिंह ने जंग छेड़ दी और बार-बार भूख हड़ताल की। उनका एक प्यारा साथी जतिन दास ऐसी ही एक भूख हड़ताल के दौरान लाहौर जेल में अपने प्राण गँवा बैठा। जब उसके शव को लाहौर से कलकत्ता ले जाया गया, तो लाखों का हुजूम कॉमरेड को आखिरी सलामी देने स्टेशन पर उमड़ आया।
कांग्रेस पार्टी का इतिहास लिखने वाले बी. पट्टाभिरमैया के अनुसार इस दौरान भगत सिंह और उनके साथियों की लोकप्रियता उतनी ही थी, जितनी महात्मा गांधी की !
जेल में अपनी जिन्दगी के आखिरी दिनों में भगत सिंह ने बेहिसाब पढ़ाई की। यह जानते हुए भी कि उनके राजनीतिक कर्मों की वजह से उन्हें फाँसी होने वाली है, वे लगातार पढ़ते रहे। यहाँ तक कि फाँसी के तख्ते पर जाने के कुछ समय पहले तक वे लेनिन की एक किताब पढ़ रहे थे, जो उन्होंने अपने वकील से मँगायी थी। पंजाबी क्रांतिकारी कवि पाश ने भगत सिंह को श्रध्दांजलि देते हुए लिखा है, “लेनिन की किताब के उस पन्ने को, जो भगत सिंह फाँसी के तख्ते पर जाने से पहले अधूरा छोड़ गये थे, आज के नौजवानों को पढ़कर पूरा करना है।” गौरतलब है कि पाश अपने प्रिय नेता के बलिदान वाले दिन, 23 मार्च को ही खालिस्तानी आतंकवादियों द्वारा मार दिये गये।
भगत सिंह ने जेल में रहते हुए जो चिट्ठियॉं लिखते थे, उनमें हमेशा किताबों की एक सूची रहती थी। उनसे मिलने आने वाले लोग लाहौर के द्वारकादास पुस्तकालय से वे पुस्तकें लेकर आते थे। वे किताबें मुख्य रूप से मार्क्सवाद, अर्थशास्त्र, इतिहास और रचनात्मक साहित्य की होती थीं। अपने दोस्त जयदेव गुप्ता को 24 जुलाई 1930 को जो ख़त भगत सिंह ने लिखा, उसमें कहा कि अपने छोटे भाई कुलबीर के साथ ये किताबें भेज दें : 1) मिलिटेरिज्म (कार्ल लाईपनिस्ट), 2) व्हाई मेन फाईट (बर्न्टेड रसेल), 3) सोवियत्स ऐट वर्क 4) कॉलेप्स ऑफ दि सेकेण्ड इंटरनेशनल 5) लेफ्ट विंग कम्यूनिज्म (लेनिन) 6) म्युचुअल एज (प्रिंस क्रॉप्टोकिन) 7) फील्ड, फैक्टरीज एण्ड वर्कशॉप्स, 8) सिविल वार इन फ्रांस (मार्क्स), 9) लैंड रिवोल्यूशन इन रशिया, 10) पंजाब पैजेण्ट्स इन प्रोस्पेरिटी एण्ड डेट (डार्लिंग) 11) हिस्टोरिकल मैटेरियलिज्म (बुखारिन) और 12) द स्पाई (ऊपटॉन सिंक्लेयर का उपन्यास)
भगत सिंह औपचारिक रूप से ज्यादा पढ़ाई या प्रशिक्षण हासिल नहीं कर पाए थे, फिर भी उन्हें चार भाषाओं का अच्छा ज्ञान था। उन्होंने पंजाबी, हिन्दी, उर्दू और अंग्रेजी भाषाओं में लिखा है। जेल से मिले उनके नोटबुक में 108 लेखकों के लेखन और 43 किताबों में से चुने हुए अंश मौजूद हैं। ये अंश मुख्य रूप से मार्क्स और एंगेल्स के लेखन से लिए गए हैं। उनके अलावा उन्होंने थॉमस पाएने, देकार्ट, मैकियावेली, स्पिनोजा, लार्ड बायरन, मार्क ट्वेन, एपिक्यूरस, फ्रांसिस बेकन, मदन मोहन मालवीय और बिपिन चंद्र पाल के लेखन के अंश भी लिए हैं। उस नोटबुक में भगत सिंह का मौलिक एवं विस्तृत लेखन भी मिलता है, जो “दि साईंस ऑफ दि स्टेट” शीर्षक से है। ऐसा लगता है कि भगत सिंह आदिम साम्यवाद से आधुनिक समाजवाद तक समाज के राजनीतिक इतिहास पर कोई किताब या निबंध लिखने की सोच रहे थे।
जिस बहादुरी और दृढ़ता के साथ भगत सिंह ने मौत का सामना किया, आज के नौजवानों के सामने उसकी दूसरी मिसाल चे ग्वारा ही हो सकते हैं। चे ग्वारा ने क्रांतिकारी देश क्यूबा में मंत्री की सुरक्षित कुर्सी को छोड़कर बोलिविया के जंगलों में अमेरिकी साम्राज्यवाद से लड़ने का विकल्प चुना। चे ग्वारा राष्ट्रीय सीमाएँ लाँघकर लातिनी अमेरिका के लोगों को पढ़ना-लिखना सिखाते थे। ये सच है कि चे ग्वारा का व्यक्तिगत अनुभव भगत सिंह की तुलना में बहुत ज्यादा विस्तृत था, और उसी वजह से उनके विचार भी अधिक परिपक्व थे। लेकिन क्रांति के लिए समर्पण और क्रांति का उन्माद दोनों ही नौजवान साथियों में एक जैसा था। दोनों ने साम्राज्यवाद और पूँजीवादी शोषण के खिलाफ लड़ाई लड़ी। दोनों ने ही अपने उस मकसद के लिए जान दे दी, जो उन्हें अपनी जिन्दगी से भी ज्यादा प्यारा था।
20 मार्च 1931 को, अपने शहादत के ठीक तीन दिन पहले भगत सिंह ने पंजाब के गवर्नर को एक चिट्ठी लिखी, “हम यह स्पष्ट घोषणा करें कि लड़ाई जारी है। और यह लड़ाई तब तक जारी रहेगी, जब तक हिन्दुस्तान के मेहनतकश इंसानों और यहाँ की प्राकृतिक सम्पदा का कुछ चुने हुए लोगों द्वारा शोषण किया जाता रहेगा। ये शोषक केवल ब्रिटिश पूँजीपति भी हो सकते हैं, ब्रिटिश और हिन्दुस्तानी एक साथ भी हो सकते हैं, और केवल हिन्दुस्तानी भी। शोषण का यह घिनौना काम ब्रिटिश और हिन्दुस्तानी अफसरशाही मिलकर भी कर सकती है, और केवल हिन्दुस्तानी अफसरशाही भी कर सकती है। इनमें कोई फर्क नहीं है। यदि तुम्हारी सरकार हिन्दुस्तान के नेताओं को लालच देकर अपने में मिला लेती है, और थोड़े समय के लिए हमारे आंदोलन का उत्साह कम भी हो जाता है, तो भी कोई फर्क नहीं पड़ता। यदि हिन्दुस्तानी आंदोलन और क्रांतिकारी पार्टी लड़ाई के गहरे अँधियारे में एक बार फिर अपने-आपको अकेला पाती है, तो भी कोई फर्क नहीं पड़ेगा। लड़ाई फिर भी जारी रहेगी। लड़ाई फिर से नये उत्साह के साथ, पहले से ज्यादा मुखरता और दृढ़ता के साथ लड़ी जाएगी। लड़ाई तबतक लड़ी जाएगी, जबतक सोशलिस्ट रिपब्लिक की स्थापना नहीं हो जाती। लड़ाई तब तक लड़ी जाएगी, जब तक हम इस समाज व्यवस्था को बदल कर एक नयी समाज व्यवस्था नहीं बना लेते। ऐसी समाज व्यवस्था, जिसमें सारी जनता खुशहाल होगी, और हर तरह का शोषण खत्म हो जाएगा। एक ऐसी समाज व्यवस्था, जहाँ हम इंसानियत को एक सच्ची और हमेशा कायम रहने वाली शांति के दौर में ले जाएँगे......... पूँजीवादी और साम्राज्यवादी शोषण के दिन अब जल्द ही खत्म होंगे। यह लड़ाई न हमसे शुरू हुई है, न हमारे साथ खत्म हो जाएगी। इतिहास के इस दौर में, समाज व्यवस्था के इस विकृत परिप्रेक्ष्य में, इस लड़ाई को होने से कोई नहीं रोक सकता। हमारा यह छोटा सा बलिदान, बलिदानों की श्रृंखला में एक कड़ी होगा। यह श्रृंखला मि. दास के अतुलनीय बलिदान, कॉमरेड भगवतीचरण की मर्मांतक कुर्बानी और चंद्रशेखर आजाद के भव्य मृतयुवरण से सुशोभित है।”
उसी 20 मार्च्र के दिन नेताजी सुभाष चंद्र बोस ने दिल्ली की एक आम सभा में कहा, “आज भगत सिंह इंसान के दर्जे से ऊपर उठकर एक प्रतीक बन गया है। भगत सिंह क्रांति के उस जुनून का नाम है, जो पूरे देश की जनतापर छा गया है।”
फ्री प्रेस जर्नल ने अपने 24 मार्च 1931 के संस्करण में लिखा, “शहीद भगत सिंह, राजगुरू और सुखदेव आज जिन्दा नहीं हैं। लेकिन उनकी कुर्बानी में उन्हीं की जीत है, यह हम सबको पता है। ब्रिटिश अफसरशाही केवल उनके नश्वर शरीर को ही खत्म कर पायी, उनका जज्बा आज देश के हर इंसान के भीतर जिन्दा है। और इस अर्थ में भगत सिंह, राजगुरू और सुखदेव अमर हैं। अफसरशाही उनका कुछ भी नहीं बिगाड़ सकती। इस देश में शहीद भगत सिंह और उनके साथी स्वतंत्रता के लिए दी गयी कुर्बानी के लिए हमेशा याद किए जाएँगे। “सचमुच, 1931 के ब्रिटिश राज के उन आकाओं और कारिंदों की याद आज किसी को नहीं, लेकिन तेईस साल का वह नौजवान, जो फाँसी के तख्ते पर चढ़ा, आज भी लाखों दिलों की धड़कन है।”
आज अगर हम भगत सिंह की जेल डायरी और कोर्ट में दिये गये वक्तव्य पढ़ें, और उसमें से केवल “ब्रिटिश” शब्द को हटाकर उसकी जगह “अमेरिकन” डाल दें, तो आज का परिदृश्य सामने आ जाएगा। भगत सिंह के जेहन में यह बात बिल्कुल साफ थी, कि शोषक ब्रिटिश हों या हिन्दुस्तानी, इससे कोई फर्क नहीं पड़ता। आज लालच के मारे हिन्दुस्तानी नेता और अफसर अमरीकी खेमे में जा घुसे हैं। लेकिन भगत सिंह के ये शब्द हमारे कानों में गूँज रहे हैं - “लड़ाई जारी रहेगी।” आज के बोलिविया में चे ग्वारा और अलान्दे फिर जीवित हो उठे हैं। लातिनी अमेरिका की इस नयी क्रांति से अमरीका सहम गया है। उसी तरह हिन्दुस्तान में भगत सिंह के फिर जी उठने का डर बुशों और ब्लेयरों को सताता रहे।
विपिन चंद्र ने सही लिखा है कि हम हिन्दुस्तानियों के लिए यह बड़ी त्रासदी है कि इतनी विलक्षण सोच वाले व्यक्ति के बहुमूल्य जीवन को साम्राज्यवादी शासन ने इतनी जल्दी खत्म कर डाला। उपनिवेशवाद और साम्राज्यवाद ऐसे घिनौने काम करता ही है, चाहे हिन्दुस्तान हो या वियतनाम, इराक हो, फिलीस्तीन हो या लातिन अमरीका। लेकिन लोग इस तरह के जुर्मों का बदला अपनी तरह से लेते हैं। वे अपनी लड़ाई और ज्यादा उग्रता से लड़ते हैं। आज नहीं तो कल, लड़ाई और तेज होगी, और ताकतवर होगी। हमारा काम है क्रांतिकारियों की लगाई आग को अपने जेहन में ताजा बनाए रखना। ऐसा करके हम अपनी कल की लड़ाई को जीतने की तैयारी कर रहे होते हैं।
--लेखक, श्री चमनलाल, प्राध्यापक, जे एन यू, दिल्ली
शलाका पर घमासान
नीरज कुमार, गुरुवार, 18 मार्च 2010यह एक पुराना भूत है जो अकादमी के खंडहरों में घूमता रहता है। गाहे-बगाहे कभी अशोक चक्रधर की नियुक्ति पर, कभी गबन पर, कभी डॉ. प्रेम सिंह समेत कई मूर्धन्य लेखकों का अकादमी छोड़े जाने, राजनितिक दबाव पर और अब सम्मान के नाम पर यह भूत अवतरित हुआ है। लेकिन इस बार इस भूत ने अकादमी के गलियारों में हलचल तो ला ही दी साथ ही साहित्यकारों ने भी अकादमी की औकात बता दी है।
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माइ नेम इज़ आम दर्शक और मैं बेवकूफ़ नहीं हूं
addictionofcinema, बुधवार, 17 मार्च 2010
एक दिन महान फ़िल्मकार करन जौहर अपने कमरे में अकेले बैठे देश की समस्याओं पर गहन चिन्तन कर रहे थे। अचानक उनकी अन्तरआत्मा (यह एक ऐसी चीज़ होती है जो अक्सर खूब सारे पैसे कमाने के बाद और विराट सफलता पाने के बाद हर इंसान में थोड़ी देर के लिये जाग जाती है और भुगतना दूसरों को पड़ता है। इस बार करन की अन्तरआत्मा का शिकार आम दर्शक हुये, खैर) उनके सामने आ खड़ी हुयी। अन्तरआत्मा ने उनसे पूछा के ऐ बॉलीवुड के सफलतम निर्माता निर्देशकों में से एक, बता आज तक तूने अपनी फ़िल्मों से कितने लोगों को जगाया है। सिनेमा जिसे समाज का दर्पण कहा जाता है, से कितनी ज्वलन्त समस्याओं की नब्ज़ पर उंगली रखी है। करन ने बताया कि उन्होंने स्त्रियों के कल्याण के लिये अपनी फिल्म में दिखाया है कि पुरुष का इन्तज़ार अगर स्त्री दस सालों तक करे तो वह भी एक दिन वापस ज़रूर आता है। उन्होंने अपनी एक दूसरी फ़िल्म में दिखाया है कि जिनके आंगन में हवाई जहाज़ उतरता है वे भी दीन दुखियारी लड़कियों से प्रेम विवाह कर सकते हैं और इस तरह समाज में वर्ग अन्तराल को कम करने की कोशिश की है। उन्होंने अपने बैनर द्वारा निर्देशित फि़ल्मों से प्रेम का प्रसार किया है और यहां तक बताने की कोशिश की है कि प्रेम किसी के भी बीच हो सकता है। और दो पुरुषों के बीच हुआ प्रेम भी उतनी ही सार्थक और बिकाऊ होता है। अन्तरआत्मा कनवेंस नहीं हुयी। उसने करन के कान में कुछ कहा और करन उठ खड़े हुये। उन्होंने सोचा कि यह सही वक्त आ गया है कि जब कुछ ऐसी चीज़ बनायी जाय जिससे पता चल सके कि वे भी देश की समस्याओं को लेकर गम्भीर हैं। हालांकि बाद में उन्हें याद आया कि वे इतने ग्लोबल हो चुके हैं कि उनसे देश की समस्याओं से ज्यादा दुनिया की चिन्ता करनी चाहिये। बहरहाल, उन्होंने अपने अभिन्न मित्र शाहरूख खान को याद किया और दोनों ने मिलकर एक शानदार फ़िल्म बना डाली जिसका नाम उन्होंने रखा ´माई नेम इज़ खान' हालांकि देश के अल्पसंख्यकों की भी समस्याएं भी कम विकराल नहीं थीं और आये दिन सन्दिग्ध इनकाउंटर हो रहे थे। यहां तक कि देश में अल्पसंख्यकों को किराये पर कमरा लेने तक की जद्दोजहद करनी पड़ रही थी लेकिन करन जानते थे कि ये तुच्छ समस्याएं दिखाने से रुपये आएंगे जबकि अमेरिका में एक अल्पसंख्यक की समस्याएं दिखाने से डॉलर पौण्ड सहित और भी बहुत कुछ आयेगा। फ़िल्म एस्पर्जर नामक बीमारी से ग्रस्त एक व्यक्ति रिज़वान खान की है जिसकी भूमिका शाहरूख ने पूरी ईमानदारी से निभायी है जैसा कि एक साक्षात्कार में उन्होंने खुद ही कहा था कि जहां उन्हें अच्छा पैसा मिलता है वहां वो अच्छा काम करते हैं (सबूत के लिये देखें हालिया रिलीज ´दूल्हा मिल गया´)। एस्पर्जरग्रस्त रिजवान हिन्दी फिल्म के नायकों से कहीं से भी पीछे नहीं है विकलांगता के बावजूद। वह अच्छे खासे पज़ल को चुटकियों में हल कर सकता है और पीले रंग से डर लगने के बावजूद कई दृश्यों में पीले रंग से डरना भूल जाता है। काजोल चुलबुली मन्दिरा के रोल में हैं जिनका पहले पति से एक बच्चा है। वह इतनी समझदार दिखायी पड़ती हैं कि एक एस्पर्जरग्रस्त व्यक्ति से शादी करने के लिये उन्हें सिर्फ सुबह का नज़ारा दिखाये जाने की ज़रूरत होती है। उन्हें न तो रिजवान का एस्पर्जरग्रस्त होने से कोई समस्या नहीं है और उसके मुसलमान होने को तो वह महान महिला एक बार भी रेखांकित नहीं करती। आपके मन में ये सवाल उठता है लेकिन आप यह सोच कर चुप रह जाते हैं कि नायिका वाकई बहुत समझदार और सुलझी हुयी है। 9/11 के हमले के बाद नायिका का बेटा एक हमले में मार दिया जाता है जिसे बहुत सतही तरीके से फिल्म में नस्लीय हमला करार दिया गया है पर दरअसल वह दूसरी समस्या है। उसके बाद वही नायिका जिसके लिये अलग धर्म का होना बहुत मामूली बात थी अचानक प्रवीन तोगड़िया और मौलाना बुखारी की तरह उन्माद में आ जाती है। वह रिज़वान खान को भला बुरा कहती है, हिस्टीरिया के मरीज़ की तरह चीखती है और यह जानते हुये भी कि उसके पति का इसमें कोई हाथ नहीं है, उसे अपने से दूर कर देती है। यहां करण को कहानी में एक ज़बरदस्त टिवस्ट मिलता है कि नायक को अमेरिका के राष्ट्रपति से मिलने भेजा जाय तो अमेरिकी दर्शक बहुत खुश होंगे। तो वह नायिका को सिखाते हैं। नायिका कुछ संवाद बोलने के बाद यह प्रस्ताव नायक को देती है और नायक अपने अभियान पर चल देता है। मगर नायक और उसके साथ निर्देशक दोनों ही असली सफ़र पर जाने की बजाया इधर उधर ज्यादा भटकते दिखायी देते हैं। एस्पर्जरग्रस्त नायक तूफ़ान में जाकर वह वह काम करता है जो सुपरमैन भी न कर पाता। वह महामानव बनने लगता है और अन्तत: अपने मिशन में कामयाब होता है। वह नवनिर्वाचित राश्ट्रपित बराक ओबामा से हाथ मिलाकर बोलता है-माइ नेम इज़ खान एण्ड आयम नॉट ए टेररिस्ट। फ़िल्म खत्म होती है और जैसा कि उम्मीद थी, भारत के दर्शक शाहरूख की उम्दा एक्टिंग के लिये यह अझेल फ़िल्म देख ले जाते हैं और टारगेट ऑडियंस अपनी समस्या से आइडेंटिफाई करती हुयी। विदेशों में फ़िल्म सफ़लता के झण्डे गाड़ देती है और कई रिकॉर्ड तोड़ देती है और करन का यह भ्रम बरक़रार रह जाता है कि वे बड़ी शानदार फिल्में बनाते हैं।
बहरहाल, फ़िल्म बहुत ही बोझिल तरीके से शुरू होती है और उससे भी बोझिल तरीके से ख़त्म। शुरूआत फिर भी अच्छी है जहां ज़रीना वहाब ने एक मां की भूमिका में कई अच्छे दृश्य दिये हैं। मगर पूरी फ़िल्म में अतार्किक कहे जा सकने वाले दृश्यों की भरमार है। 9/11 की बरसी पर जब सभी श्रद्धांजलि अर्पित कर रहे हैं, हमारा नायक जो भारत में डिजायनर कपड़े पहनता था अचानक शलवार कुर्ते में सूरा फतह पढ़ता दिखायी देता है। वह बहुत प्यारा मुसलमान है जो उस माहौल में भी कहीं भी नमाज पढ़ सकता है। मस्जिद में एक कहानी सुनते वक़्त वो ढेर सारे मुसलमानों के बीच असली कहानी सुनाता है और आश्चर्य है कि वहां बैठे सभी मुसलमानों में से किसी को भी उसका जवाब नहीं मालूम। सभी पूछते हैं तो रिज़वान जवाब देता है- वह शैतान था।
फ़िल्म के सफल होने के बाद करन एक दिन अपने कमरे में बैठे कुछ गठीले अभिनेताओं की तस्वीरें देख रहे थे कि उनकी अन्तरआत्मा वहां आ गई। उसने कहा कि फिल्म में भारत के अल्पसंख्यकों की समस्याओं को दिखाया जाना चाहिये था जो अपेक्षाकृत ज्यादा असहाय हैं। करन मुस्कराये, दरवाज़ा खोला और उसे लात मार कर बाहर धकेल दिया।
विमल चन्द्र पाण्डेय
मासूमा
Javed Khan, शनिवार, 13 मार्च 2010
किताब जहां से शुरू होती है-
चार महीने का मकान का किराया
नौकरों की तन्ख्वाह-बनिये का कर्ज
बिजली का बिल-धोबी की धुलाई
बच्चों की फीस-पानी सर से गुज़र जाता है
मैं डूबते-डूबते उभरकर देखती हूं
मेरी सोलह बरस की जीती जागती बेटी
नौ-उम्र सहेलियों के साथ रस्सी कूद रही है।
और किताब के अन्त में-
मेरी सोलह बरस की जीती जागती बेटी
नौ-उम्र सहेलियों के साथ रस्सी कूद रही है
ऐ काश मैं वापस उसे अपनी कोख में छुपा सकती !
जुगाड़ से पहले का जुगाड़
shashi shekhar, शुक्रवार, 12 मार्च 2010मीडिया में नौकरी यानि 'फुलटू' जुगाड़
भागीरथ, बुधवार, 10 मार्च 2010
उत्तम बनर्जी
चाहे टीवी हो या फिर प्रिंट ...पत्रकारिता में अपना भविष्य तलाश रहे स्टूडेंट इस बात को अच्छी तरह समझते हैं कि बिना जुगाड़ के इस इण्डस्ट्री में कुछ होने वाला नहीं। वजह साफ है...इक्के दुक्के मीडिया इंस्टीट्यूट को छोड़ दिया जाए तो देश में कुकुरमुत्ते की तरह फैले तमाम संस्थानों से निकले स्टूडेंट्स जिनका कोर्स कंपलीट करने के बाद एक ही ख्वाब होता है मीडिया में आते ही छा जाना। मगर हकीकत की जमीन पर कदम रखते ही इनका ये ख्वाब आइने की तरह चकनाचूर हो जाता है। तमाम योग्यता के बावजूद देश के टॉप-मोस्ट टीवी चैनल या फिर अखबार में नौकरी पाने की उम्मीद कहीं दूर दूर तक नज़र नहीं आती।
वजह इनके पास यहां तक पहुंचकर अपनी काबिलियत दिखाने के लिए किसी जुगाड़ का न होना। कुछ दिनों मीडिया हाउसों के चक्कर लगाने के बाद इन्हें ये बात समझते देर नही लगती कि जिस ग्लैमर के फेर में इन्होंने समाज में कुछ अलग से कर गुजरने के लिए ये पेशा चुना... अन्दरखाने इसकी हकीकत कुछ और ही कहानी बयां करती है। टीवी चैनल हो या अखबार का दफ्तर... रेज्यूमे लेकर पहुंचते ही स्टूडेंट्स का पाला सबसे पहले दफ्तर के बाहर खड़े सुरक्षा गार्ड से होता है जिसे सुरक्षा करने के साथ साथ पूरी तरह से ये अघोषित अथारिटी मिली होती है कि नए नवेले पत्रकारों से वो अपने तरीके से ही निपटे। आज के जमाने के हिसाब से महज साक्षरता की डिग्री लिए (कई सुरक्षा गार्ड के पास तो लम्बे चौड़े शरीर के अलावा कोई सर्टिफिकेट तक नहीं होता) ये गार्ड होनहार पत्रकारों का बाहर से ही इंटरव्यू लेकर इन्हें गुडबॉय बोल देता है। अगर दो चार मिनट ठहरकर गार्डों से संस्थान के बारे में पता किया जाए तो ये सुनकर वाकई हैरानी होती है कि इन्हें संस्थान की अन्दरूनी खबर ऐसे मालूम रहती है जैसे ये मैनेजमेंट टीम के ही कोई सीक्रेट एजेंट हों। एक जगह से निपटकर स्टूडेंट दूसरे मीडिया संस्थान पहुंचता है, ये सोचकर कि शायद वहां कुछ भला हो जाए लेकिन यहां की स्थिति भी वही ढाक के तीन-पात।
लिहाजा, कुछ दिनों में ही इन्हें एकेडमिक और प्रोफेशनल के बीच करियर का फर्क समझ में आना शुरू हो जाता है। आखिर में नौकरी को छोड़कर स्टूडेंट इस समझौते पर राजी हो जाते हैं कि किसी मीडिया संस्थान में इंटर्नशिप ही मिल जाए। इंटर्नशिप के दौरान शोषण और त्रासदी का एक नया दौर शुरू होता है। इसके ठीक उलट कुछ मीडिया संस्थानों में बहुतायत में लड़के-लड़कियों को सिर्फ इसलिए इंटर्नशिप दी जाती है ताकि चैनल या अखबार को मुफ्त में काम करने वाले लोग मुहैया हो सके। इंटर्नशिप पाने वाले स्टूडेंटस जी जान से मेहनत करते हैं ताकि उनकी मेहनत और प्रतिभा पर उनके बास की नज़र पड़े और उनके भाग्य का पिटारा खुल जाए लेकिन ऐसा कभी कभार ही हो पाता है। आलम ये है कि कई स्टूडेंटस इसी गलतफहमी में एक-एक साल तक अलग-अलग मीडिया संस्थान में केवल इंटर्नशिप ही करते नज़र आते हैं लेकिन आखिर में सिवाय मायूसी के इनके हाथ कुछ नही लगता।
अब एक दिलचस्प बात...मीडिया के दिग्गजों के बारे में ...मीडिया के महारथी माने जाने वाले दिग्गज पत्रकारों का एक हुजुम ऐसा भी है जिन्हें अगर गलती से फोन कर नौकरी की बात कर दी जाए तो वे ऐसे रिएक्ट करते हैं जैसे उनसे राह चलते कोई भिखारी टकरा गया हो। फोन करने वालों से इनका पहला सवाल यही होता है कि तुम्हें मेरा नंबर किसने दिया। मीडिया के इन महारथियों को शायद इस बात का इल्म तो होगा ही कि इस इण्डस्ट्री में उनके फोंन नंबर तो क्या आज की तारीख में किसी का भी नंबर हासिल करना कोई टेढ़ी खीर नही है। हैरानी की बात तो ये है कि अपने बीते दिनों को ऐसे लोग जरा भी याद नही रखते जब इन्होंने भी नौकरी के लिए इधर-उधर खाक छानी होगी।
ये बात जगजाहिर है कि अब पुराने पत्रकारिता के दिन लद गए जब पत्रकार मतलब कुर्ता-पजामा और कंधे पर बैग होता था। उस दौर में पत्रकारिता का मकसद भी कलम की ताकत से हवा का रूख मोड़ देना था...आज पत्रकारिता के मॉडर्न लुक में ज्यादातर बड़े पत्रकारों के पास नए मॉडल की चार-पहिया गाड़ी होती है। तनख्वाह तो पूछिए मत....सुनते ही होश उड़ जाएंगे। ज्यादातर संपादक अपने संस्थान में इस बात को अक्सर कहते सुने जाते हैं कि चैनल या अखबार मैं समाजसेवा के लिए नही चला रहा हूं। अखबारों में जहां सर्कुलेशन को लेकर भस्सड़ मची रहती है, ठीक यही हाल टीवी चैनलों में टीआरपी को लेकर दिखाई देता है। कही फलां न्यूज चैनल या अखबार उनसे आगे नही निकल जाए इस बात को लेकर संपादक दफ्तर के हर कर्मचारी को अक्सर नसीहत झाड़ते नज़र आते हैं। अगर गलती से भी टीआरपी या सर्कुलेशन कम हुआ तो गाज गिरना तय है।
ऐसे हालात में मैं मीडिया के उन तमाम स्टूडेंटस को यही ताकीद करना चाहूंगा कि अगर प्रतिभा, पेशेंश और सबसे महत्वपूर्ण चीज जुगाड़ है तभी इस फील्ड में कदम रखें। नही तो..... ये राह नहीं आसां बस इतना समझ लीजै। इक आग का दरिया है और डूब के जाना है।
(लेखक प्रज्ञा टीवी में एसोसिएट प्रोड्यूसर और स्क्रिप्ट राइटर हैं)
आनंद प्रधान
अपने समाचार चैनलों में कुछ अपवादों को छोड़कर आक्रामकता और शोर बहुत है। इस हद तक कि खबरें चीखती हुई दिखती हैं। एंकर और रिपोर्टर चिल्लाते हुए से लगते हैं। चर्चाएं हंगामाखेज होती हैं। धीरे-धीरे यह शोर और आक्रामकता चैनलों की सबसे बड़ी पहचान बन गई है। संपादक इस बात को बड़े फाख्र से अपने दमखम, साहस और स्वतंत्रता की निशानी के बतौर पेश करते हैं। उनका दावा है कि उन्होंने हमेशा बिना डरे, पूरी मुखरता से न्याय के हक में आवाज उठाई है। इसके लिए आवाज ऊंची भी करनी पड़ी है तो उन्होंने संकोच नहीं किया है।
चैनलों के कर्ता-धर्ताओं का तर्क है कि उनकी आक्रामकता और शोर आम लोगों को जगाने और ताकतवर लोगों को चुनौती देने के लिए जरूरी हैं। बात में कुछ दम है। कई मामलों में यह आक्रामकता और शोर जरूरी भी लगता है। पहरेदार की उनकी भूमिका को देखते हुए यह स्वाभाविक भी है। यह भी सही है कि कई मामलों में चैनलों के इस शोर से सत्ता या उसका संरक्षण पाए शक्तिशाली अपराधियों को पीछे हटना पड़ा या कमजोर लोगों को न्याय मिलने का अहसास हुआ़ भले ही चैनलों के भ्रष्टाचार विरोधी या न्याय अभियान का दायरा ज्यादातर कुछ सांसदों, छोटे-मोटे नेताओं-अफसरों, बड़े शहरों और उनके उच्च मध्यमवर्गीय लोगों तक सीमित रहा हो लेकिन इसके लिए भी चैनलों की तारीफ होनी चाहिए। आखिर कुछ नहीं से कुछ होना हमेशा बेहतर है।
कल्पना करिए कि आज से 50 या 100 साल बाद जब इतिहासकार हमारे मौजूदा चैनलों की रिकॉर्डिंग के आधार पर आज का इतिहास लिखेंगे तो उस इतिहास में क्या होगा? वह किस देश का इतिहास होगा और उस इतिहास के नायक, खलनायक और विदूषक कौन होंगे? लेकिन समाचार चैनलों से उनके दर्शकों की अपेक्षाएं इससे कहीं ज्यादा हैं। मशहूर लेखक आर्थर मिलर ने अच्छे अखबार की परिभाषा देते हुए लिखा था कि अच्छा अखबार वह है जिसमें देश खुद से बातें करता दिखता है। बेशक, समाचार चैनलों के लिए भी यह कसौटी उतनी ही सटीक है। सवाल यह है कि हमारे शोर करते चैनलों में हमारा वास्तविक देश कितना दिखता है? क्या उनमें देश खुद से बातें करता हुआ दिखाई देता है? याद रखिए, चैनल कहीं न कहीं हमारे दौर का इतिहास भी दर्ज कर रहे हैं। जाहिर है कि स्रोत के बतौर चैनलों को आधार बनाकर लिखे इतिहास में मुंबई, दिल्ली और कुछ दूसरे मेट्रो शहरों का वृत्तांत ही भारत का इतिहास होगा जिसमें असली नायक, खलनायक की तरह, खलनायक, विदूषक और विदूषक, नायक जैसे दिखेंग़े। इस इतिहास में कहानी तो बहुत दिलचस्प होगी लेकिन उसमें गल्प अधिक होगा, तथ्य कम। शोर बहुत होगा पर समझ कम। थोथापन, आक्रामकता, कट्टरता, जिद्दीपन जैसी चीजें ज्यादा होंगी मगर न्याय और तर्क कम। बारीकी से देखें तो साफ तौर पर चैनलों के शोर और आक्रामकता के पीछे एक षड्यंत्रपूर्ण चुप्पी और भीरुपन भी दिखाई देगा। लगेगा कि चैनल जान-बूझकर शोर-शराबे और आक्रामक रवैए के पीछे कुछ छुपाने में लगे रहते हैं। आखिर वे क्या छुपाते हैं? गौर से देखिए तो वे वह हर जानकारी छुपाते या नजरअंदाज करते हैं जिससे नायक, नायक, खलनायक, खलनायक और विदूषक, विदूषक की तरह दिखने लग़े, इसीलिए चैनल आम तौर पर उन मुद्दों से एक हाथ की दूरी रखते हैं जो सत्ता तंत्र द्वारा तैयार आम सहमति को चुनौती दे सकते हैं।
नहीं तो क्या कारण है कि माओवादी हिंसा को लेकर जो चैनल इतना अधिक आक्रामक दिखते और शोर करते हैं, वे छत्तीसगढ़, उड़ीसा, झारखंड और बंगाल में जमीन पर क्या हो रहा है, उसकी रिपोर्टिंग के लिए टीम और कैमरे नहीं भेजते? क्या ये जगहें देश से बाहर हैं? इन राज्यों में जमीन, जंगल, नदियों और संसाधनों के साथ ही वहां के मूल निवासियों की क्या स्थिति है, इसके बारे में खबर हर कीमत पर, सच दिखाने का साहस, आपको रखे आगे और सबसे तेज होने का दावा करने वाले चैनलों से नियमित वस्तुपरक रिपोर्ट की अपेक्षा करना क्या चांद मांगने के बराबर है?
क्या चैनलों से यह उम्मीद करना गलत है कि वे मुंबई में बाल-उद्घव-राज ठाकरे को दिन-रात दिखाने और शोर मचाने के बाद कुछ समय निकालकर युवा वकील शाहिद आजमी की हत्या पर भी थोड़ी आक्रामकता दिखाएंगे? या देश भर में कहीं नक्सली, कहीं माओवादी और कहीं आतंकवादी बताकर पकड़े-मारे जा रहे नौजवानों के बारे में थोड़े स्वतंत्र तरीके से खोजबीन करके निष्पक्ष रिपोर्ट दिखाएंगे? क्या वे उन बुद्घिजीवियों-पत्रकारों के बारे में तथ्यपूर्ण रिपोर्ट सामने लाएंगे, जिन्हें नक्सलियों का समर्थक बताकर गिरफ्तार किया गया है या जिनकी हिरासत में मौत हुई है? क्या वे चंडीगढ़ की रुचिका की तरह छत्तीसगढ़ के गोंपद गांव की सोडी संबो की कहानी में भी थोड़ी दिलचस्पी लेंगे और उसे न्याय दिलाने की पहल करेंगे? दरअसल, शोर-शराबे और आक्रामकता के बावजूद ऐसे सैकड़ों मामलों में चैनलों की चुप्पी कोई अपवाद नहीं। यह एक बहुत सोची-समझी चुप्पी है जिसे चैनलों के शोर-शराबे में आसानी से सुना जा सकता है।
(आनंद प्रधान भारतीय जनसंचार संस्थान (IIMC) में असोसिएट प्रोफ़ेसर हैं और उनका यह लेख तहलका से साभार लिया गया है)
आधी के लिए तिहाई क्यों?
नीरज कुमार, मंगलवार, 9 मार्च 2010आखिर क्यों किसी पार्टी कि औकात नहीं हुई कि वह आरक्षण बिल का विरोध कर सके सिर्फ इसलिए कि कोई अपने वोट बैंक में सेंध नहीं लगवाना चाहता है लेकिन जैसे ही किसी पार्टी से पूछा जाता है कि आप ने चुनाव में कितनी टिकटें महिलाओं को दी थी सभी के मुंह पर टेप चिपक जाती है, अपनी बगलें झाँकने लगते हैं. भाई साहब नियत में ही खोट है अगर नियत साफ़ होती तो कोई पार्टी भला करने के लिए बिल का इंतज़ार नहीं करती समाज सेवा करने के लिए सामाजिक कार्यकर्ता का ठप्पा लगाना जरुरी है क्या? कोई बिल कोई आरक्षण कभी भी किसी समाज का भला नहीं कर सकता है मेरी इस बिल को लेकर कोई आपति नहीं है लेकिन कृपया इसे किसी नैतिकता या आदर्श राजनैतिक पहल के रूप में मत देखिये.
'जंग में क़त्ल सिपाही ही होंगे, सुर्ख रु जिल्ले इलाही ही होंगे'
deepak k singh,मुझे हैरानी हो रही है इस हाय तोबा को देखकर जो महिला आरक्षण के सवाल पर मची हुई है। मैं इस हालत में नहीं हूँ की इस पर कोई स्टैंड ले कर अपनी बात कह सकूं। क्योंकि ये व्यवस्था स्टैंड के मुद्दे पर केवल दो विकल्पों को पेश कर रही है। एक, या तो आप इसका समर्थन करें और दो के इसका विरोध करें। इनके अलावा और कोई विकल्प प्रस्तुत ही नहीं किया जा रहा और न ही ऐसी कोई गुंजाईश ही छोड़ी है की कोई विकल्प पेश किया जा सके। ये ठीक उसी किस्म की रिक्तता है जो हमारी लोकतान्त्रिक व्यवस्था में विधमान है। यानी की घूम फिर कर बात वहीँ आ जाएगी जहाँ से शुरू हुई। हमारी महिलाएं भी पोलिटिकल सवर्ण बन्ने को बेक़रार हैं? यदि हां, तो कितनी ? इसका समुचित उत्तर दिए बिना कोई फैसला करना बेमानी ही होगी क्यूंकि इस मुल्क की सभी महिलाएं शहरों में नहीं रहती हैं और सभी की समस्या केवल तैंतीस फीसद आरक्षण से समाप्त नहीं हो जाएँगी। फिर इसका लाभ किन लोगों को मिलने वाला है? वो कौन भारतीय नारियां हैं जिनका जीर्णोधार इससे होने वाला है। कहीं ये वो ही पोलिटिकल सवर्ण तो नहीं जिसने इस बार नारी की शकल अख्तियार कर ली है?
मैं इस बात से बिलकुल इत्तेफाक रखता हूँ की राजनितिक प्रतिनिधित्व सामाजिक परिवर्तन का और सामाजिक रूप से शोषित व उपेक्षित लोगों को शाश्क्त करने का ठोस जरिया है। संविधान में राजनितिक आरक्षण कुछ इन्ही आदर्शों को सोच कर रखा गया था। लेकिन अफ़सोस की बात ये है की इसने केवल कुछ का ही भला किया है। तो क्या फिर हम ये मान ले की महिला आरक्षण भी उन्ही 'कुछ' को ध्यान में रखकर प्लान किया गया है। आरक्षण मिल जाने की हालत में भी इस बात की क्या गारंटी है की जिनकी (पुरुष प्रधानता) की वजह से ये पूरा मामला उठा उस की मानसिकता या सोच में कुछ बुनियादी बदलाव आएगा? ऐसे कई सवाल हैं जिनका जवाब या विकल्प तक ये व्यवस्था नहीं देती।