ये मेरी पहली कहानी है, अपना बहुमूल्य कमेन्ट अवश्य दें। जहा सुधारकी गुन्जायिश हो वो भी बताएं.
बाबुल के प्रीत............
चेहरे पे सदा मुस्कान उसकी पहचान थी, पर आज उसकी मुस्कान कोसों दूर थी उसके चेहरे से। छीन लिया था लोगों ने उसके सबसे प्यारे चीज को, जिसे वो ख़ुद से भी ज्यादा मानने लगी थी।कहा जाता है किइंसान सबसे ज्यादा अपनी माँ को मानता है, माँ ही उसकी सबसे करीबी होती है। वो भी अपनी माँ को बहुत मानती थी, शायद ख़ुद से भी ज्यादा। पर जाने कैसे वो अपने प्रीत भैयाको मानने लगी। कहती कि माँ से भी ज्यादा...ख़ुद से बहुत ज्यादा मानती हूँ आपको प्रीत भैया।याद है शुरुवात के वो दिन, जब वो नाटक सिखने आया करती थी वहीँ पे उसके प्रीत भैया अपने दोस्तों के साथ नाटक सीखते थे। " दीदी " जो हमे नाटक सिखाती थी उन्होने उसका परिचय प्रीत व उसके दोस्तों से करवाया। उसने अपना नाम " बाबुल " बताया। धीरे- धीरे नाटक का रिहर्सल शुरू हुआ वैसे-वैसे बाबुल का अपने प्रीत भैया के प्रति लगाव बढ़ता गया। जाने क्या दिखा जो वो इतना ज्यादा प्रीत को मानने लगी, जबकि दोनों के बिच बातें भी कम या यूँ कहे की होती ही नही थी। ................प्रीत भैया आप मोना से बातें मत कीजिये, वो बोलती है कि आप उसे घूरते रहते हैं......मैं जानती हूँ कि आप ऐसे नही हैं.......वो झूठ बोलती है, इसलिए आज उससे झगडा करके आई हूँ.......मुँह नोच लुंगी उसका अगर वो अब ज्यादा बोलेगी तो। कुछ देर के लिए शांत हो जाने के बाद अचानक बोली, " क्या मैं आपको प्रीत भैया बोल सकती हूँ?" क्यूँ? मेरे नाम में कुछ खराबी है...........नही पर जाने क्यों आपको इसी नाम से बुलाने को जी चाहता है।धीरे-धीरे वो अपने प्रीत भैया के और करीब होती गई, इतनी करीब कि जब तक वो साड़ी बातें कह न लेती तब तक उसे चैन नही आता। घर में जाती तो प्रीत भैया......दोस्तों के बिच प्रीत भैया.......हर जगह उसके जुबान पे रहने लगे थे प्रीत भैया। जो थोड़ा सा भी उसे जानता , उसके प्रीत भैया को बहुत अच्छी तरह से जानने लगा, जैसा उसने सबसे अपने प्रीत भाई के बारे में बताया।कोई लड़की किसी गैर लड़के कि तारीफ कैसे कर सकती है, ये बातें भी उसके जानने वाले सोचने लगे। भाई- बहन के पाक रिश्ते को देखने का नजरिया बदल गया.......धीरे-धीरे सुगबुगाहट होने लगी...लोग कानाफूसी करने लगे । रही सही कसार बाबुल के भाई अमित ने पुरी कर दी। वो बाबुल के प्रीत भैया को जानता था , क्युकी बाबुल के प्रीत भैया अभी के कई ग़लत कामों में खलल daal चुका था। लोगों कि कानाफूसी को उसने बढ़ा-chadhkar अपनी माँ को बताया, ये जानते हुए भी कि बाबुल और प्रीत के बिच rishta ootna ही पाक है, जितना उसके और बाबुल के बिच। पर कोई कैसे bardast कर सकता है कि उसकी अपनी बहन उससे ज्यादा उसके दुश्मन को मानने लगी थी, और उसे ही अपने बड़े भाई के रूप में देखने लगी थी।अमित कि बातें सुन उसके घर waalon ने नाटक सिखने जाने से mana कर दिया और कहा कि wahan सही लोग नही रहते हैं इसलिए abse waha नही jaana है। बाबुल कि बातें किसी ने नही सुनी।अगले दिन चुपके से sidhe collage से वो नाटक सिखने आई और साड़ी बातें batayi .......... पर laachaar उसका प्रीत भैया क्या कर सकता था, जब ये फ़ैसला उसके घर वालों का ही था। दोनों के aankho से सिर्फ़ आंसू ही निकल रहे थे, बाबुल का masoom चेहरा krodhagni से जल रहा था। क्युकी लोगों ने उसके प्रीत भैया को उससे छीन लिया था, और घर वाले भी उसके ही khilaf थे......
दलितों के मसीहा की पुत्री अपने ही गाँव में दलितों की विलेन.
दलितों के मसीहा कहे जाने वाले जगजीवन राम की पुत्री मीरा कुमार का नाम उस दिन इतिहास में अमर हो गया जिस दिन उन्होंने लोकसभा की पहली महिला अध्यक्ष के रूप पदभार ग्रहण किया। दलित वर्ग ( मीरा के पैट्रिक गाँव चंदवा के दलितों को छोड़कर) के साथ यह बिहार के लिए भी गौरव की बात है।मीरा कुमार बिहार के सासाराम से जहाँ संसद है, वही उनका पैट्रिक गाँव भोजपुर(आरा) जिला मुख्यालय के समीप स्थित चंदवा है।बिहार ने यूँ तो पहले रास्त्रपति के रूप में डॉक्टर राजेंद्र प्रसाद को दिया, तो पहले विपक्ष के नेता के रूप में राम सुभग सिंह को दिया, तो वही पहले उप प्रधानमंत्री के रूप में बाबु जगजीवन राम का नाम अमर है। अब उस amaratv को मीरा ने भी लोकसभा की पहली महिला अध्यक्ष बनकर प्राप्त कर लिया है।१९७३ में आई ऍफ़ एस ज्वाइन कर स्पेन यूके , और मोरिशस दूतावासों में तैनात रही मीरा का राजनैतिक कैरियर १९८५ से शुरू हुआ जब वे बिजनौर से पहली बार लोस के लिए चुनी गई। उस दौरान उन्होने वेतमान के दलितों के दिग्गज नेताओं पासवान और मायावती को हराया था।विगत दो चुनावों में सासाराम से jitati आई मीरा इस बार सोनिया और rahul गाँधी के durdristi के karan लोस की spikar बन गई।अब ये बता दे की वे कैसे अपने ही गाँव में विलेन हैं। कहा jata है की जब ख़ुद के खाने का न हो तो आप dusro के पेट भरने की बात नही कर सकते..........tatparya ये की जब मीरा ख़ुद अपने गाँव के dalitn का vikaas न कर सकी तो वे दुसरे दलितों का क्या vikaas करेंगी। pure देश के दलितों की नजर दलितों के मसीहा की पुत्री पर है, पर वे अपने ristedaaron का jiwanstar नही sudhaar सकी तो अन्य दलितों की क्या sudharengi।चंदवा से babuji को बहुत प्यार था, इसकी mitti में khelkar कर बड़े हुए और देश की rajniti में दलितों के मसीहा के रूप में ख़ुद को sthapit किए। गाँव के भी vikaas में वे सतत sakriy रहे, परन्तु उनकी पुत्री मीरा इससे ittefak नही रखती और अपने गाँव के दलितों के vikaas की जगह apn niji swarthyon को पुरा करने में juti हैं।जब भी चंदवा में उनके ristedaar उनसे मिलकर अपनी samasya को dur करने की बात कहते हैं तो unhe कभी सही जवाब नही मिलता , ulte unhe दांत khani पड़ती है।munga devi और chando devi जगजीवन राम की riste में बहु lagengi....दोनों ने ने बताया की आज भी हम tuti futi jhopdi में रहते है dhang से दो jun खाने को नही मिलता । जब भी अपना दुःख सुनाने गए तो सिर्फ़ fatkaar ही मिला । chandwa के लोगों से puchhe जाने पर की क्या मीरा के spikar banne से आप लोग खुश है, इसके जवाब में उन्होंने कहा की जब वे hame दुखी देखना chati है, हमारा jiwanstar sudharna नही chahti तो हम उनके saflata से कैसे खुश होंगे? वे bhale ही pure देश में दलित netri के rup में अपनी pahchan बनाये परन्तु हमारी najron में वे विलेन से कम नही।ऐसे में तो b यही कहा जा सकता है की वे दलितों का hit नहीं chahti बल्कि विरासत में मिली raajniti से अपना hit sadhna chahti है।
क्या करेगी भाजपा?
Amalendu Upadhyaya, मंगलवार, 24 नवंबर 2009बाबरी मस्जिद ढहाए जाने के बाद गठित जांच कमेटी लिब्राहन आयोग की सत्रह वर्श बाद सरकार को सौंपी गई रिपोर्ट के लीक होने से सनसनी फैल गई है। एक अंग्रेजी समाचार पत्र में छपी खबर के मुताबिक इस रिपोर्ट में भाजपा के कई बड़े नेताओं को 6 दिसंबर 1992 को बाबरी मस्जिद षहीद किए जाने के लिए जिममेदार ठहराया गया है। बताया जा रहा है कि रिपोर्ट में पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी, एल.के आडवाणी, मुरली मनोहर जोशी, उमा भारती, अशोक सिंघल और विनय कटियार का नाम प्रमुख है। रिपोर्ट के मुताबिक बाबरी मस्जिद गिराए जाने के पीछे सोची-समझी रणनीति बनाई गई थी। साथ ही मुसलमानों को भी इस रिपोर्ट में फटकार लगाई गई है।
बाबरी मस्जिद को षहीद हुए 17 साल हो गए हैं, लेकिन जांच आयोग की रिपोर्ट का खुलासा अब हो रहा है। रिपोर्ट को लीक करने वाले अखबार के मुताबिक लिब्रहान आयोग ने अपनी रिपोर्ट में यह साफ तौर पर कहा है कि बाबरी मस्जिद को एक सोची समझी योजना के तहत ढहाया गया।
अखबार ने दावा किया है कि लिब्रहान आयोग ने पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी, लालकृष्ण आडवाणी और मुरली मनोहर जोशी को बाबरी मस्जिद ढहाए जाने के मामले में दोषी पाया है। मुख्य बात यह है कि पहली बार वाजपेयी का नाम इस कांड में जोड़ा जा रहा है।
अखबार के अनुसार आयोग का मानना है कि वाजपेयी समेत ये तीनों नेता बाबरी मस्जिद को ढहाए जाने की योजना में शामिल थे। खबर के मुताबिक आयोग ने बाबरी मस्जिद एक्शन कमेटी और ऑॅल इंडिया बाबरी मस्जिद एक्शन कमेटी के कुछ नेताओं को भी अपनी रिपोर्ट में लपेटा है।
इस मामले में वाजपेयी जी अब बोल पाने की स्थिति में नहीं हैं और अडवाणी जी जरूर इस रिपोर्ट के बहाने अपनी गिनती भाजपा के षहीदों में कराना चाहेंगे। जबकि उमा भारती और कल्याण सिंह इस रिपोर्ट के बहाने भाजपा में अपनी घर वापसी का रास्ता तलाषते नजर आएंगे। साथ ही साथ कल तक कल्याण सिंह के साथ गलबहियां कर रहे मुलायम सिंह भी अब सेक्युलर बनकर ताल ठोंकते नजर आएंगे।
भले ही गृहमंत्री पी चिदंबरम यह आष्वासन दें कि गृह मंत्रालय से किसी ने भी इस बारे में किसी से बातचीत नहीं की है और इसकी एक ही प्रति है और वह पूरी हिफाजत से रखी गई है। लेकिन समझने वाले समझते हैं कि कहीं न कहीं इस रिपोर्ट लीक के पीछे हाथ कांग्रेस और केंद्र सरकार का ही है। क्योंकि बाबरी मस्जिद को षहीद किया जाना कोई छोटी मोटीे घटना नहीं थी। 6 दिसंबर 1992 स्वतंत्र भारत के इतिहास में ऐसा मोड़ था जिसने भारतीय राजनीति की दिषा ही बदल दी। तब ऐसे मौके पर कांग्रेस भला क्यों भाजपा को इस रिपोर्ट का फायदा उठानें देना चाहेगी? वैसे भी सत्रह साल बाद लिब्राहन आयोग की रिपोर्ट का कोई बहुत मतलब नहीं रह जाता. आज अपनी रिपोर्ट में अगर लिब्राहन ने किसी राजनीतिक व्यक्ति को इस घटना के लिए षडयंत्र का दोषी माना भी है तो अब इससे क्या होगा? जितने लोगों की गवाही इस आयोग के सामने हुई है उनमें से अधिकांश लोगों पर रायबरेली की कोर्ट में मुकदमा पहले से ही चल रहा है. फिर किसी एक घटना में एक ही व्यक्ति पर दो मुकदमें नहीं चलाए जा सकते. रायबरेली की अदालत से कोई फैसला आने के बाद ही उस पर आगे की कार्रवाई तय होगी. इसलिए इस रिपोर्ट का कोई कानूनी मतलब नहीं रह गया है हां इसके राजनीतिक निहितार्थ जरूर हैं और उन्हें पूरा करने के लिए ही भाजपा और कांग्रेस में युध्द छिड़ा है।
यहां सवाल है कि लिब्राहन आयोग का प्रतिवेदन केंद्र सरकार और स्वयं आयोग के पास था। यह प्रतिवेदन कार्रवाई रिपोर्ट के साथ संसद में पेश किया जाना चाहिए था, लेकिन इससे पहले ही यह मीडिया को लीक कैसे हो गया? अब अगर चिदंबरम सच बोल रहे हैं कि सरकार ने यह रिपोर्ट लीक नहीं की है तो किसने की? क्या गृह मंत्री का इषारा जस्टिस लिब्राहन की तरफ है? तो सरकार उनके खिलाफ क्या कदम उठाएगी? यह मामला इसलिए भी गम्भीर है कि संसद का सत्र चल रहा है और जो रिपोर्ट इस सत्र में पेष की जानी थी उसका मीडिया में लीक हो जाना संसद की तौहीन है और जाहिर है कि इस तौहीन का इल्जाम सरकार पर ही आयद होता है।
अब इस रिपोर्ट पर लाभ कमाने के लिए संघ परिवार में ही सिर फुटौव्वल हो रही है। विश्व हिंदू परिषद (विहिप) अंतरराष्ट्रीय अध्यक्ष अशोक सिंघल ने बाल ठाकरे के उन दावों को खारिज कर दिया, जिसमें उन्होंने दावा किया था कि बाबरी मस्जिद को षिव सैनिको ने गिराया था। सिंघल ने तो यहां तक कह दिया कि ठाकरे कभी अयोध्या नहीं गए ही नहीं। बेशक शिवसेना नेता मनोहर जोशी अयोध्या गए थे। सिंघल ने एक तरीके से ठाकरे को कायर करार दे दिया। उधार कल्याण सिंह भी जो अभी कुछ दिन पहले ही छह दिसंबर 1992 के लिए मुसलमानों से माफी मांग रहे थे तुरंत हिन्दू हो जाएंगे और जोर षोर से अपने षहीद होने का बखान करेंगे। बाबरी मस्जिद तोड़े जाने के समय कल्याण सिंह उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री थे। हालांकि वे लिब्राहन कमीशन के सामने पेश होने से ग्यारह साल तक बचते रहे। उन्होंने इसके खिलाफ इलाहाबाद हाईकोर्ट में याचिका दायर करके कहा था कि आयोग के सामने पेश होने पर सीबीआई कोर्ट में उनके खिलाफ चल रहे मुकदमे पर प्रभाव पड़ेगा। पर कोर्ट ने उनकी याचिका खारिज कर दी तो उन्हें गवाही देने पेश होना पड़ा। तब उन्होंने दावा किया था कि उनकी सरकार ने बाबरी मस्जिद को बचाने के पूरे इंतजाम किए थे लेकिन केंद्र की कांग्रेस सरकार ने ऐसी परिस्थिति तैयार की जिससे मस्जिद टूटी।
चाहते तो अब अडवाणी भी होंगे कि वह इस रिपोर्ट का लाभ उठाएं लेकिन उदार दिखने की चाहत में वह आयोग के सामने जो बयान दे बैठे वह उन्हें इसका लाभ लेने से रोकेगा जिसमें उन्होंने कहा था कि बाबरी मस्जिद तोड़े जाने का दिन उनकी जिंदगी का सबसे दुखदाई दिन था। उन्होंने इस घटना की तुलना 1984 के सिख विरोधी दंगों से करते हुए आयोग से कहा था कि तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी की हत्या के बाद भड़के दंगे में सिखों के खिलाफ भड़की हिंसा 6 दिसंबर से ज्यादा शर्मनाक थी। अब किस मुंह से अडवाणी इसका लाभ उठाएंगे?
जाहिर है आयोग की रिपोर्ट लीक होने से कांग्रेस को सीधा राजनीतिक फायदा मिलेगा वहीं भाजपा को इस रिपोर्ट से अब कोई फायदा नहीं होगा क्योंकि अब वह अपनी सारी ऊर्जा इस बात पर खर्च कर देगी कि रिपोर्ट लीक कैसे हुई? दूसरे अब अडवाणी बूढ़े हो चले हैं और भाजपा अपने अंतर्विरोधाों से ही जूझ रही है। तमाम कोषिषों के बावजूद वह अडवाणी के कद का मास लीडर तैयार नहीं कर पाई है जो कारगिल में हुई फजीहत को भी 'षौर्य' के रूप में भुना ले जाए। इतना ही नहीं रामजन्मभूमि आंदोलन के कारण संघ परिवार की जो एक शक्ति बनी थी वह भाजपा के एनडीए बनकर सरकार बनाने के बाद पूरी तरह से बिखर चुकी है.
दिक्कतें कांग्रेस के सामने भी हैं। संभवत: इस रिपोर्ट में पी वी नरसिंहाराव और कांग्रेस की भूमिका पर भी सवाल उठाए गए हैं। ऐसे में क्यों कांग्रेस ईमानदारी से इस रिपोर्ट पर कार्रवाई करेगी? नरसिंहा राव ने आयोग को दिए अपने बयान में कहा था कि 6 दिसंबर 1992 को बाबरी मस्जिद उत्तर प्रदेश की कल्याण सिंह सरकार के हाथ बंधक बन गई थी। अयोध्या में कारसेवकों की भीड़ बढ़ने के साथ-साथ हालात खराब होते गए। उन्होंने सफाई दी कि केंद्र सरकार के हाथ बंधे हुए थे। राव ने कहा था कि इतिहास उनके साथ न्याय करेगा। लेकिन सवाल यह है कि यह न्याय कैसा होगा जब उनकी पार्टी ही अब दनका नाम लेने से कतराती है?
ताज्जुब इस बात का है कि मुलायम सिंह के नेतृत्व वाली समाजवादी पार्टी जो लगातार बाबरी मस्जिद की कमाई खाती रही है, भी इस रिपोर्ट के आने पर चुप लगा गई थी क्यों कि तब कल्याण सिंह उसके साझीदार हो गए थे और मुलायम सिंह ने तो यहां तक कह दिया था कि बाबारी मस्जिद का मुद्दा अब पुराना पड़ गया है। लेकिन अब फिर सपा को भी इस रिपोर्ट के बहाने बाबरी मस्जिद याद आने लगेगी।
कुल मिलाकर कांग्रेस ने इस रिपोर्ट को लीक कराकर एक बार फिर बाजी मार ली दिखती है। क्योंकि हाल फिलहाल में कहीं चुनाव भी नहीं होना है और लोकसभा चुनाव भी दूर हैं साथ ही अभी भाजपा इसी उलण्न में फंसी हुई है कि अडवाणी जी को अपना नेता माने या न माने और अगर इसका कुछ फायदा अडवाणी जी के खाते में जाता भी है तो उससे भाजपा को कोई लाभ नहीं होना है। दूसरी तरफ उत्तार प्रदेष जहां कांग्रेस इस समय चौतरफा लड़ाई लड़ रही है वहां उसे फायदा होगा क्योंकि वह मुलायम सिंह जो कल तक कह रहे थे कि बाबरी मस्जिद का मुद्दा पुराना पड़ गया है और कल्याण सिंह दोशी नहीं हैं चह अब किस मुह से लिब्राहन की रिपोर्ट पर हाय तौबा मचाएंगे?
अमलेन्दु उपाध्याय
पैसिंजर ट्रेन - बहिष्कार का नया प्रपंच
गुड्डा गुडिया, शनिवार, 21 नवंबर 2009यात्री गाडी (पैसिंजर) पर छ:-सात वर्ष बाद सवार हुआ। लगभग फांके के दिनो में इससे आया-जाया करता था। लेकिन एक बात तो दावे से कह सकता हूं कि निश्चित रूप से यदि किसी को सही रूप में भारत का दर्शन करना है तो उसे यात्री गाड़ी (पैसिंजर से) में सफर जरूर करना ही चाहिये। छोटे-बड़े-मध्यम-निम्नमध्यम, टिकिट, बेटिकिट, परिक्रमावासी, साधु-सन्यासी, लकड़ी के गट्ठे बेचने वाले,भिखारी, बच्चों का पहाड़ा, गुडिया , ताया के पत्ते, हाथ धाने का साबुन बेचने वाले सब लोग इसमें मिलते हैं। इस यात्री गाड़ी की दो-तीन प्रमुख विशेषतायें मुझे लगीं एक तो कम पैसे में ज्यादा सफर। दूजा यह कि कोई आरक्षण नहीं सब कुछ अपना है आरक्षण् होता भी है तो केवल रूमाल, चश्मा, छाता, बैग आदि। तीसरा यह कि इसमें यात्री एक दूसरे से वार्तालाप करते है। एक दूसरे के सुख-दुख बांटते है। साथ खाते-पीते हैं और यहां तक कि उतरते हुये पता लेना-देना नहीं भूलते हैं, वर्ना आज की इस भीड़-भाड़ भरी जिंदगी में कहां और किसके पास यह समय है। लेकिन यात्री गाड़ी के सवारों के पास यह समय है। इसमें मनोरंजन भी है।
पिपरिया की भीड़ भरे स्टेशन से मेरा सफर शुरू हुआ। गाड़ी पौन घंटे लेट। गाड़ी पहले से ही खचाखच थी । लेकिन यह भीड़ कहां समा गई पता ही नहीं चला। वैसे यह पैसिंजर ट्रेन की विशेषता है कि यह सभी को समेटते हुये चलती है। गाड़ी आने के पूर्व स्टेशन खचाखच भरा हुआ था लेकिन गाड़ी जाने के बाद मैदान साफ। पिपरिया में दो बड़ी गाड़ियां निकाल दी गई, दर असल यह ट्रेन पूरी तरह से भारतीय परिवेश का प्रतिनिधित्व करती है क्यंकि रेल विभाग द्वारा इस भारतीय ट्रेन का कथित बड़ी ट्रेन (सवर्ण) के कारण इसे रोककर रखा जाता है। यह एक अलग किस्म का बहिष्कार है। जैसे-तैसे ट्रेन आगे बढ़ी तो मनोरंजन शुरू। आप सोच भी नहीं सकते कि ''पाद'' भी एक मनोरंज का विषय हो सकता है।लेकिन जनाब इस ट्रेन में हो सकता है। जैसे ही किसी ने गैस पास की तो लोगों की टिप्पणियां शुरू। ''सड़े भटे''खाकर कौन आया? दीपावली के मिष्ठान्न निकल रहे हैं। किसी पढ़े-लिख ने कहा ब्व2 ! लगभग 20मिनिट इसी में निकल गये।
जरा ही आगे बढ़े तो घुमुक-घुम की आवाज आई। एक बच्चा डालडा के डिब्बे में एक वायर, एक छोटी लकड़ी लगाकर, बनाया गया अपना विशेष वाद्य यंत्र लेकर सामने खड़ा था। बड़े-बड़े संगीतकारों को अलग-अलग यंत्र बजाने पड़ते हैं लेकिन इस छोटू के इस वाद्य यंत्र पर ही सभी की धुन हैं। उसने परदेसी... परदेसी और तुम तो ठहरे परदेसाी गया। अल्ताफ राजा की यादें ताजा कर के ये भी गये।
लगभग 12 बज रहे हैं और कई लोगों की पोटलियां खुल गई। चपर-चपर के मधुर संगीत के बीच भोजन किये जा रहे हैं। सालीचौका स्टेशन पर गाड़ी फिर रोक दी गई । पता चला कि दो गाड़ियां फिर निकलेंगी। यहां पर जाकर खूब बिके, मसाले वाले और गैर मसाले वाले चने। मसाले वालों चने की विशेषता यह नहीं कि उसमें एमडीएच मसाले मिले हैं बल्कि उसमें नमक और हरी मिर्च साथ में मिलेगी .......... ।
यहां से दो मुंडन किये हुये नवयुवक चढ़े जो कि गले में एक छोटी मटकी टांगे थे। अपने रिश्तेदार की अस्थि विसर्जित करके। पैर न रखने वाली भीड़ में भी उन्हें रह दे दी गई। यहां किसी को उनके लिये जगह नहीं बनानी पड़ी बल्कि उन्हें जगह दी गई। यही है पैसिंजर टे्रेन। जो यह जानती है कि कौन संकट की घड़ी में है या किसके साथ कैसे पेश आना है !!!
वहीं से एक मुफ्त यात्रा कर रही बुजुर्ग माता बगैर टिकिट ही चढ़ी। शान के साथ बोलती भी रही कि मैया (नर्मदा) की परिक्रमा में काहे की टिकिट? मिले तो टीसी कमण्डल बता दूंगी ! ऐसी साफगोई हमें बड़े लोगों में नहीं मिलतीं। बड़े लोग तो होने के बाद भी आयकर के डर से छिपाते हैं। अंतत: यहां से भी ट्रेन बढ़ी। इस समय पूरे डब्बे में मूंगफली की सुगंध आ रही है लेकिन सभी जन छिलके ट्रेन में ही फेंकते थे। यह थोड़ा अटपटा लगा मुझे। मैंने कहा तो एक व्यक्ति ने तपाक से कहा कि पैसे दे रहे हैं,और यदि हम यहां कचरा न फेंके तो सफाई कर्मी तो भूखा मर जाये! यह बहुत ही रोचक अनुभव मेरे लिये था। मैने कभी ऐसा नहीं सोचा था।
इसके बाद का नजारा तो और ही रोचक था। गाड़ी करपबेल स्टेशन पर रूकी। यहां से फिर कथित रूप से एक बड़ी गाड़ी गुजरने वाली थी। इस स्टेशन पर एक हैंण्डपम्प था। सब्जी बेंचने वाले ने इस अवसर को भुनाया और अपनी धनिया पत्ती के बंडल निकालकर धोये। उन्हें पैक किया बाजार के लिये। और धुली धनिया पत्ती फिर गाड़ी में। इसके बाद एक बच्चा गर्मी के कारण रोया, मां अकेली थी। बच्चा बाहर जाने की जिद कर रहा था, पर मां कैसे जाये ! तो पूरा डिब्बा आतुर। हर कोई उस बच्चे को घुमाने को तैयार था। दो-चार बारी-बारी से लेकर गये भी। एक दो नवयुवकों ने धूपवाला चश्मा लगाकर बगल के डिब्बे में बैठी नवयुवती की तीन-चार परिक्रमा भी कर डाली। उसने एक बार पानी लाने के लिये बॉटल निकाली और तीन लोग पानी भरने के लिए निकले।
मेरा स्टेशन अगला ही था। गाड़ी चली और मैं चुटुर-पुटुर घटनाओं के बाद मैं उतर गया। लेकिन मैं यही सोच रहा था कि ऐसी गाड़ी जिसमें हर वर्ग को जगह है, हर वर्ग के व्यक्ति को शरण मिलती है। इस गाड़ी को हीन गाड़ी समझा जाता है। रेल विभाग भी इसी बात को वर्षों से स्थापित करने में कोई कसर नहीं छोड़ रहा है कि यह दीन-हीनों की गाड़ी है। लेकिन यह गरीबों के लिये केवल गाड़ी ही नहीं है ब िलक जीवन है। ये एक बार इस गाड़ी के चुक जाने पर 24 घंटे इसका इंतजार करते हैं क्योंकि इसमें पैसा कम है यात्रा ज्यादा है और उससे भी बढ़कर है इसमें अपनापन।
दसअसल व्यवस्था हर जगह बहिष्कार के अलग-अलग खेल खेलती है। यहां इस गाड़ी में न तो डिब्बों की संख्या बढ़ाई जाती है और न ही यात्री सुविधायें बढ़ाई जाती हैं । और न ही इन गाड़ियों की संख्या बढ़ाई जाती है। बल्कि केवल और केवल यही वह गाड़ी है जो नितांत भारतीयता का प्रतिनिधित्व करती है, जिसमें अपनापन है। उसे रेल विभाग और शासन दोनों ही हीन भावना से दखते हैं और हर स्टेशन पर रोककर करते हैं उसका बहिष्कार। मुझे याद है कि मेरे गांव से जाने वाली पैसिंजर ट्रेन में आज भी उतने ही डिब्बे हैं जितने मेरे बचपन के दिनों में थे। मतलब सब कुछ बदला और जो नहीं वो हैं पैसिंजर ट्रेन। सवाल एक और है कि इस यात्री गाड़ी को बदला नही गया, या ये बदली नहीं ।
कई बारगी तो लगता है कि इस रेल का कोई माईबाप इसलिये भी नहीं है कि इसमें भारत का सर्वहारा वर्ग यात्रा करता ह,ै जिसकी अपनी कोई आवाज नहीं है जो बार-बार गाड़ी के रोकने पर भी आवाज नहीं उठाता है। जो हर बार व्यवस्था को उसके अपने वर्तमान रूप में भी स्वीकार करता है इसलिये इसकी उपेक्षा भी की जाती है। यह वर्ग इसी कारण बार-बार लगातार चोट खाता है। इतने वर्षों की उपेक्षा के बाद वह अब यह स्वीकार कर बैठा है कि यही उसकी नियति है और वह इसका प्रतिकार नहीं करता है बल्कि इसका अंग हो चला है।
बड़ी गाड़ियों के एसी कोच में सफर करते समय मुझे राजू श्रीवास्तव का एक प्रसंग याद आता है जिसमें वो कहते हैं कि एसी डिब्बे में सब सफेद चादर ओढ़े मुर्दे की तरह सफर करते हैं। इसलिए मैं उसे मुर्दा गाड़ी मानता हूं। जहां सह यात्री से बात करना शान के खिलाफ है और बुरा भी माना जाता है। सुख-दुख में शामिल होना तो बहुत दूर की बात है। यहां पानी खत्म हो जाने पर व्यक्ति प्यासा मरना पसंद करेगा, अपितु इसके कि बाजू वाले से पानी मांग ले। पैसिंजर गाड़ी में कहानी इसके ठीक उलट है। आदमी न केवल पानी मांग लेता है बल्कि पूरा डिब्बा पानी लाने में मदद करता है। जैसा कि मैंने पहले भी कहा कि पैसेंजर गाड़ी नागर समाज, भारत के सर्वहारा वर्ग का प्रतिनिधित्व करती है इसलिये उपेक्षा का शिकार है लेकिन एक बात तो है कि जीवन भी यहीं बसता है।
प्रभाषजी की याद में गमगीन हो गया गांधी शांति प्रतिष्ठान
भागीरथ, शुक्रवार, 20 नवंबर 2009 किसी की आंख में आंसू थे। कोई सिसक रहा था। किसी से बोला नहीं जा रहा था। तो किसी का गला बोलते-बोलते रुंधा जा रहा था। कहने को इतना था कि शायद शाम और रात भी कम पड़ती। गांधी शांति प्रतिष्ठान में 18 नवंबर की शाम का कुछ ऐसा ही नजारा था। देश के अलग-अलग हिस्सों से आए लोग प्रभाष जोशी को श्रद्धांजलि देने के लिए उमडे़ थे। इनमें वो लोग भी थे जिनका प्रभाष जी से करीबी रिश्ता रहा और वो लोग भी जो प्रभाषजी से न कभी मिले थे और न ही उन्हें व्यक्तिगत रूप से जानते थे, उनका और प्रभाषजी के बीच सिर्फ एक रिश्ता था और वह था पाठक और लेखक के बीच का रिश्ता। इनमें मेधा पाटकर थीं, अरूणा राय भी, प्रशांत भूषण, कुलदीप नैयर, सुरेन्द्र मोहन, अरविंद मोहन, सुमित चक्रवर्ती, तपेश्वर भाई, विजय प्रताप, रामजी सिंह भी। और न जाने कितने नाम। कोई सर्वोदय आंदोलन का कार्यकर्ता था, कोई सूचना के अधिकार अभियान का तो कोई नर्मदा बचाओ आंदोलन का। देश भर में चल रहे सभी जमीनी आंदोलनों से प्रभाषजी कितने करीब से जुडे़ थे, यहां आए लोग इसकी एक छोटी-सी बानगी पेश कर रहे थे।
महादेव विद्रोही प्रभाषजी को याद करते-करते फफक-फफक कर रो पडे़। बोले- प्रभाषजी का सर्वोदय आंदोलन से गहरा नाता था, वे उनके संपादक थे। रामजी सिंह ने बताया कि प्रभाषजी केवल पत्रकार नहीं थे, अगर पत्रकार थे तो प्रोफेशनल नहीं थे, बाजार में रहते हुए वे बाजार के प्रभाव से दूर थे। अरूणा राय का कहना था कि प्रभाषजी का न रहना देशभर में चल रहे सभी आंदोलनों को झटका है। उन्होंने आरटीआई की नींव डाली और हम जानेंगे, हम जिएंगे का नारा दिया। एक वाकया याद करते हुए अरूणा राय ने बताया कि प्रभाषजी जब भीलवाड़ा में आए तो उन्होंने कहा था कि मैं आजकल यमराज को गच्चा दे रहा हूं। वो मुझे बारात लेकर दिल्ली लेने आता है तो मैं भीलवाड़ा आ जाता हूं, भीलवाड़ आता है तो मणिपुर चला जाता हूं।
सभा में आए राजकुमार जैन ने प्रभाषजी को याद करते हुए बताया कि शुरूआत में वे प्रभाष जोशी से नफरत करते थे, वे उन्हें जूतों की माला पहनाना चाहते थे क्योंकि वे मधु लिमये के खिलाफ रोज अनाप-शनाप लिखा करते थे, लेकिन जब बाबरी मस्जिद गिराने के बाद उन्होंने जनसत्ता में प्रभाषजी का लेख पढ़ा तो अपने को कोसने लगे। प्रभाषजी के सहयोगी कुलदीप नैयर बोले कि कोई शिद्दत से काम करें तो लोग उसकी कदर करते हैं। प्रभाषजी बडे़ इंसान थे, वे ऐसे ही आदमी थे।
मेध पाटकर प्रभाषजी को याद करते-करते भावुक हो उठीं। अपनी भावुकता को नियंत्रित कर वे बोलीं कि जनसुनवाइयों के लिए जो लिस्ट बनती थी, उनमें पहला नाम प्रभाष जोशी का होता था। वो आसमान और धरती को एक साथ छूने वाले व्यक्ति थे। वे पत्रकार नहीं आंदोलनों के मित्र थे। अंत में समाजवादी चिंतक सुरेन्द्र मोहन से प्रभाषजी के बारे में बताया कि उनके भीतर हमेशा एक आग जलती रहती थी जो उन्हें चैन से नहीं बैठने देती थी, वो इस आग को सबके दिलों में जलाना चाहते थे। वे पत्रकार भी थे, सामाजिक सरोकारों से भरे थी थे और स्वयं एक आंदोलन थे।
गांवों में पसरती संवाद शून्यता और मोबाईल फोन का बढ्ता जाल
गुड्डा गुडिया, गुरुवार, 19 नवंबर 2009विगत दिनों अपने गांव गया। गांव म-प्र के होशंगाबाद जिले में शोभापुर नाम का है। दोपहर में खाना खाने के बाद खेतों की और गया । ढ़ोर चर रहे थे। श्याम ढ़ोर नहीं चरा रहा था, बल्कि पेड़ के नीचे बैठा था। ढ़ोर अपने मन से चरे जा रहे थे । बड़े खुश लग रहे थे। श्याम भी बड़ा खुश लग रहा है ।श्याम ने दूर से ही बगैर किसी आवाज के संकेतात्मक मुद्रा में अभिवादन किया। मैंने सोचा, श्याम से बात कर लूं। श्याम के पास गया तो, वह थोड़ा झेंपा । देखा किसी से मोबाईल फोन पर बात कर रहा था, मैंने ईशारा किया कि बातें कर लो। पहले मुझे अचरज हुआ कि श्याम के पास मोबाईल है !! अब जो आपको बताऊंगा, वह आपको अचरज में ड़ाल देगा। मैं लगभग 45 मिनिट वहां बैठा, लेकिन श्याम से बात नहीं कर पाया। यही अचरज भरी कहानी है । मैं शब्दश: बयां करूंगा तो आपको ज्यादा आनंद आयेगा। श्याम किसी मेडम से मुखातिब थे। जहां से मैंने बातचीत सुनी (हालांकि किसी की अंतरंग बातचीत सुनना मेरी फितरत नहीं लेकिन यहां प्रसंग भिन्न है।)वह यह कि श्याम ने कहा कि आपकी आवाज बहुत ही मीठी है।श्याम की बोली में कहें तो बहुतई उम्दा है ! आप कहां रहत हो (लगता था बात शुरू ही हुई थी)। सामने वाले का प्रत्युत्तर तो मुझे नहीं मालूम था, लेकिन श्याम कभी गंभीर होता तो कभी मुस्करा देता था। जब उसने यह पूछा कि काय मेडम जब हम उते गांव में रहत हैं तो उम्दा डंडा (कवरेज सिग्नल) मिलत है, मनु जैसईं हम इते गांव बाहर आत हैं तो डंडा कमजोर पड़ जात हैं। मैं समझ गया कि हो न हो सामने वाली कोई कस्टमर केयर एक्जीक्यूटिव है। एक और दृश्य आपसे बांटता हूं । हमारे मोहल्ले में एक काकी रहती है। काकी ने बड़े ही निराले अंदाज में कहीं (एक गली छोड़कर) फोन कर पूछा कि मही भुंआ है कि नहीं ? यानी मठा हुआ है कि नहीं ? गांवों में आज भी मही बिकता नहीं है, बल्कि बंटता है। सामने वाले ने शायद हां में जवाब दिया, तभी काकी ने कहा कि किसी को लेने भिजाती हूं। काकी व श्याम के इस प्रसंग से एक बात तो स्पष्ट है कि बाजार के इस दवाब से जिन लोगों को वास्तव में भी जरुरत नहीं है, उनके पास भी मोबाईल फोन हैं। दरअसल में श्याम और काकी दोनों ही अभिजीत सेन गुप्ता कमेटी रिपोर्ट के पात्र ही हैं, जिसमें वो कहते हैं कि भारत की 70 प्रतिशत से ज्यादा आबादी 20 रुपये प्रतिदिन से नीचे गुजर करती है। कंपनियां हमारी जेब से मोटा माल खींच कर ले जा रही हैं। नाम न छापने की शर्त पर गांव में ही एक कंपनी के डिस्ट्रीब्यूटर ने बताया कि अकेले वो ही शोभापुर व उसके आस-पास के 8-10 गांवों में 4-5 लाख रूपये मासिक का बैलेंस बेचते हैं। और ऐसी ही लगभग 4 कंपनियां और हैं। अंदाजा लगाईये कि एक माह में मेरे गांव व आसपास से लगभग 12 लाख रुपये का बैलेंस बिकता है। यानी वर्ष में लगभग सवा करोड़ रूपये का कारोबार। यह तो केवल बैलेंस की गणना है, बाकी हैंडसेट वगैरह तो अलग । सोचिये यदि यही पैसा गांव में ठहरता तो यह गांव की तस्वीर बदलने में काम आता ! एक चिंताजनक प्रसंग और भी छेड़ता हूं कि गांव में रक्षाबंधन पर घर के सामने एक नवयुवती की मृत्यु हुई । पूरा घर बेहाल । ऐसे में तो गांव का चरित्र ही रहा है कि सुख-दु:ख में सहभागी होने का। मैंने मोहल्ले में युवाओं से कहा कि चलें । अर्थी वगैरह बनवाना पड़ेगा। उन्होंने जेब में से मोबाईल फोन निकाला और कहा कि अभी पूछ लेते हैं । उसने गमी वाले घर में बैठे किसी सज्जन को फोन लगाया गया। पूछा कितनी देर है। उसने कहा कि अभी तो दो घंटे लगेंगे। नवयुवक वापस अपने घरों को यह कहते हुये लौटे कि यार जब अर्थी निकलने लगे तो मिस कॉल मार देना। यानी इस विपरीत दौर में जबकि सब मिलकर उस पूरे परिवार को ढांढस बंधा सकते थे। अपने -अपने घरों में दुबक कर मिस कॉल की प्रतीक्षा कर रहे थे।अफसोस कि यह मोबाईल फोन श्मशान घाट में भी शांत नहीं हुआ। लोगों ने लकड़ी की व्यवस्था भी मोबाइल पर ही की। मैंने इस बात का जब विष्लेशण किया कि वास्तव में गांव में खुशहाली की स्थिति है या फिर यह दिखावा मात्र है। मैंने पाया कि आधे से ज्यादा किसान तो कर्जे में डूबे हैं। और जिस तरह से भूमंडलीकरण के दौर में मोटरगाडियों पर कर्ज का चलन बढ़ा है, तो भला शोभापुर कैसे पीछे रहता ा मैंने दुबे ऑटोमोबाइल के संचालक श्री श्रवण दुबे से बातचीत की तो उन्होंने बताया कि पिछले तीन वर्षों में लगभग 675 गाडियां बेची हैं जिनमें से 75 प्रतिशत कर्ज पर बेची गई हैं। अधिकांश लोग अभी कर्ज पटा पाने की स्थिति में नहीं है। बैंक द्वारा नियुक्त किये गये रिकवरी एजेन्ट श्री सचिन दुबे का कहना है कि कुछ दिन पूर्व उनके पास 550 ऐसे लोगों की सूची थी, जो कि कर्ज नहीं पटा पाये हैं । उनका कहना है कि इनमें से 300 गाडियां खिंचा गई यानी जब्त हो गईं। इसके मायने यह तो कदापि नहीं कि क्षेत्र में खुशहाली है। कंपनियां प्रलोभन देकर उन्हें फांसने की कोशिश कर रही हैं।
श्याम की इस बातचीत में मुझे भी बड़ा रस आ रहा था । उसने आगे कहा कि वे कल वारी मेडम से बात करा दईयो । कोई नई जोजना (योजना) आये तो भी बता दईयो। हमरो नाम श्याम है, हम जई शोभापुर में रहत हैं। इसी बीच मैंने देखा कि ढ़ोर चरते-चरते सोयाबीन के खेत में चले गये हैं। मैंने श्याम को इशारा किया । लेकिन श्याम ने उठकर उन्हें भगाने की चेष्टा नहीं की। मैं ही गया और हांक कर आ गया। लगभग 40 मिनिट की बातचीत के बाद मैं वहां से उठ गया और श्याम से कहा कि फिर मिलते हैं। श्याम की बाते जारी रहीं ।मैं लौटकर यह विश्लेषण ही कर रहा था कि गांव के सबसे विश्वसनीय और कर्त्तव्यनिष्ठ समझे जाने वाले चरवाहे ने आखिर अपने कर्त्तव्य से राह क्यों मोड़ ली ? ढ़ोर उसके सामने खेतों में घुस गये और वो फोन पर ही बातों में लगा रहा । एक सवाल मन में यह भी आया कि आखिर कस्टमर केयर एक्जीक्यूटिव को श्याम में ऐसी क्या रुचि है कि वह 45 मिनिट तक फोन नहीं काटती है!! विशेषज्ञों से बात की तो पता चला कि वे फोन नहीं काट सकती हैं क्योंकि यह उनके परफार्मेंस रिकार्ड में दर्ज होता है । अब मुझे समझ आया कि वह श्याम से क्यों बात कर रही थीं !
शाम को श्याम घर आया । दिन में मुझसे बात न कर पाने के लिये माफी मांगने लगा। मैंने कहा, कोई बात नहीं । लेकिन आगे उसने जो कहा, वह और भी चौंकाने वाला है । उसने कहा कि रोज एक नई मेडम से बात होती है। मजा आता है। मैंने कहा कि, पैसे कितने लगते हैं । उसने मेरी ओर मूर्खतापूर्ण कौतुहल से देखते हुआ कहा कि बिल्कुल नहीं । भला कस्टमर केयर से बात करने के भी कोई पैसे लगतै हैं क्या ? बिल्कुल मुफ़त है यह । मैंने कहा महीने के, तो उसने कहा कि 250 रुपये। यानी वर्ष के 3000 रुपये। मैंने कमाई में बढ़ोतरी का पूछा तो उसने कहा कि वही 1500 रुपये और कुछेक गल्ला (अनाज)। श्याम से तो मैंने कहा कि ''लगे रहो मुन्ना भाई'', लेकिन मुझसे रहा नहीं गया।
पता लगाया कि अभी गांव की जनसंख्या कितनी है । पता चला लगभग 8000 । गांव में माबाईल फोन कितने हैं तो पाया लगभग 3900। यानी औसतन हर घर में एक मोबाईल । मेरे गांव की परिधि एक किलोमीटर है। अत्यावश्यक काम करने पर यदि कोई किसी को ढूंढ़ने निकले तो 15-20 मिनिट में ढूंढ़ कर ला सकता है।तो सवाल यह कि मोबाईल फोन की जरूरत ही क्या ? बाजार का दवाब ही ऐसा है कि श्याम जैसे हरवाहे भी मोबाइल लेते हैं । अभी शनिवार को बाजार के दिन ही मेरे गांव में एयरटेल ने 1 रुपये में सिम बेची। यह वह सिम है जो तीन दिन तक चलेगी लेकिन उसका एड्रेस प्रूफ व अन्य आवश्यक दस्तावेज किसी ने भी न तो चाहे और न ही किसी ने उपलब्ध कराये। और हम सभी जानते हैं कि एक बार सिम ले ली तो फिर मानवीय भावनाओं के ज्वार को रोक पाना थोड़ा मुश्किल ही है।
एक और भा्ंति वह यह कि मोबाईल फोन से संवाद बढ़ा है। जबकि वास्तव में तो इससे संवाद घटा है। अब हमारे संवाद बातचीत से नहीं बल्कि मैसेज (एसएमएस)से होते हैं। पहले घरों में लैंडलाईन फोन थे तो उस पर घर के सभी जनों का बराबर अधिकार था, लेकिन अब मोबाईल फोन ने स्त्रियों को इस सुविधा से थोड़ा और दूर खड़ा कर दिया है। मोबाईल फोन तो पुरूषों के पास होता है। अभिषेक बच्चन बनाम आईडिया अपने चमकीले विज्ञापनों में खूब चमकदार लफ्फाजी बताये कि ''वाक वेन यू टॉक'' लेकिन वास्तव में तो मोबाईल फोन ने हमें स्थूल बना दिया है। काकी और श्याम अब पहले की तरह काम नहीं करते हैं ।एक और बड़ा दुष्प्रभाव यह भी कि गांवों मेंं /उपयोगकर्ताओं में झूठ बढ़ गया है।
ऐसा नहीं कि मोबाईल फोन खराब ही हैं बल्कि इसके कुछ अच्छे उदाहरण भी हैं। भोपाल में हमीदिया रोड पर एक चायवाले ने अपनी दुकान के आसपास के लगभग 50 दुकानदारों के नंबर अपने मोबाईल फोन में ड़ाल रखे हैं । दुकानदार चाय मंगाते समय केवल एक फोन करता है और काट देता है (मिस कॉल करता है) । दुकानदार नंबर देखकर उस दुकान की और देखता है, वहां से चाय का गिनती के साथ इशारा होता है। यहां से उतनी चाय पहुंच जाती है। न तो दुकानदार का पैसा खर्च हुआ और न ही चायवाले का। ऐसे ही ऑटोवालों के व्यवसाय में भी वृध्दि हुई है। लोग घरों से रात-बिरात फोन करते हैं और ऑटो घर पहुंच जाती है।
बहरहाल इन चंद अच्छे उदाहरणों के बीच श्याम और काकी भी हैं जिन्हें वास्तव में तो मोबाईल फोन की कोई आवष्यकता ही नहीं है। लेकिन विकास की इस अंधी दौड़ में ''स्टेटस सिंबल'' की होड़ भी अजब ही है। इस दौड़ ने काकी और श्याम को भी हर लिया है। मोबाईल का वायरस भी सुअर बुखार की तरह ही है, जो जकड़ लेता है तो फिर छोड़ता नहीं है। गांव के नवयुवकों से इस संदर्भ में बात की तो वे कहते हैं भैया ! गांव तरक्की कर रहा है। मैंने अपने मन में सोचा, यह तरक्की नहीं है, बल्कि बाजार के जाल में वह अपना मूल स्वभाव खो रहा है। संवाद का, आपसी सामंजस्य का, सुख-दु:ख में सहभागी होने का
'मुक्तिबोध स्मृति फ़िल्म और कला उत्सव'
कठफोड़वा,मुक्तिबोध के जन्मदिवस पर शुरु हुआ भिलाई में जन संस्कृति मंच का 'मुक्तिबोध स्मृति फ़िल्म और कला उत्सव' ( १३-१५, नवम्बर, २००९). प्रथम मुक्तिबोध स्मृति व्याख्यानमाला की शुरुआत की जसम के राष्ट्रीय अध्यक्ष प्रो. मैनेजर पांडेय ने. उन्होंने मुक्तिबोध की प्रतिबंधित पुस्तक, "भारत: इतिहास और संस्कृति' को ही अपने व्याख्यान का विषय बनाते हुए उसकी मार्फ़त अपने समय को जानने समझने की प्रक्रिया को रेखांकित किया. उन्होंने मांग की कि १९६२ में मुक्तिबोध की पुस्तक, "भारत: इतिहास और संस्कृति " पर लगाया गया प्रतिबंध मध्य प्रदेश सरकार वापस ले. ऎसा करते ही अदालत द्वारा प्रतिबंध की अनुशंसा खुद-ब-खुद समाप्त हो जाएगी. बाद में इसे प्रस्ताव के रूप में सदन ने भी पारित किया. इस व्याख्यान से पहले मुक्तिबोध के बड़े बेटे रमेश मुक्तिबोध ने अपने पिता की कुछ यादों को श्रोताओं के सामने रखा जिसे सुनकर कईयों की आंखें छलछला आईं. उन्होंनें खासकर उन दिनों को याद किया जब १९६२ में यह प्रतिबंध लगा था, जब मुक्तिबोध का पक्ष सुनने को कोई तैय्यार न था, जब उनपर हमले हो रहे थे और कांग्रेसी सरकार ने इस पुस्तक पर प्रतिबंध लगाने की जनसंघ (आर.एस.एस.)की मांग को पूरा किया. इस सत्र की अध्यक्षता कर रहे 'समकालीन जनमत' के प्रधान संपादक रामजी राय ने मुक्तिबोध की कविताओं से उद्धरण देते हुए यह स्थापित किया कि मुक्तिबोध आज़ादी के बाद की सत्ता-संरचना के सामंती और साम्राज्यवादी चरित्र को पहचानने वाले और उसकी फ़ासिस्ट परिणतियों को रेखांकित करने वाले हिंदुस्तान के पहले और सबसे ओजस्वी कवि-बुद्धिजीवी थे. रामजी राय ने स्पष्ट कहा कि मुक्तिबोध की ग्यानात्मक-संवेदना उनकी पार्टी की कार्यनीति के ठीक खिलाफ़ यह दिखला रही थी कि नेहरू-युग की चांदनी छलावा थी, कि देश का पूंजीपति वर्ग विदेशी पूंजी पर निर्भर था, कि पूंजीवादी-सामंती राजसत्ता साम्प्रदायिक ताकतों के आगे सदैव घुटने टेकने को शुरू से ही मजबूर थी, जैसा कि मुक्तिबोध की पुस्तक पर प्रतिबंध के संदर्भ में उद्घाटित हुआ और उसके पहले और बाद में भी जिसके असंख्य उदाहरण हमारे सामने हैं. इस सत्र में कवि कमलेश्वर साहू की पुस्तक 'पानी का पता पूछ रही थी मछली' का विमोचन प्रों पांडेय ने किया. सत्र में श्रीमती शांता मुक्तिबोध (ग.मा. मुक्तिबोध की जीवन-संगिनी)व श्री रमेश मुक्तिबोध के लिए सम्मान-स्वरूप स्मृति-चिन्ह श्री रमेश मुक्तिबोध को जन संस्कृति मंच की ओर से प्रो. मैनेजर पांडेय ने प्रदान किया. ग्यातव्य है कि श्रीमती शांता मुक्तिबोध अस्वस्थता के कारण स्मृति समारोह में नहीं आ सकीं. इसके ठीक बाद कवि गोष्ठी मे सर्वश्री मंगलेश डबराल. वीरेन डंगवाल और विनोद कुमार शुक्ल ने अपनी कविताओं का पाठ किया. हमारे समय के तीन शीर्ष कवियों का मुक्तिबोध की स्मृति में यह काव्यपाठ छत्तीसगढ़ के श्रोताओं के लिए यादगार हो गया. इस काव्य-गोष्ठी के ठीक बाद मंच से गुरु घासीदास विश्विद्यालय में पिछले ५ सालों से मुक्तिबोध की कविताओं को दुर्बोध बताते हुए पाठ्यक्रम से हटाए रखने की निंदा की गई और उनकी कविताओं को पाठ्यक्रम में वापस लिए जाने की मांग की गई.
भिलाई -दुर्ग स्थित कला-मंदिर में इस समारोह में भाग लेने वाले तमाम कलाकारों के चित्रों के साथ महान प्रगतिशील चित्रकार चित्तो-प्रसाद के चित्रों की प्रदर्शिनी लगाई गई. सर्वश्री हरिसेन, सुनीता वर्मा, तुषार वाघेला, गिलबर्ट जोज़फ़, एफ़.आर.सिन्हा, डी.एस.विद्यार्थी, रश्मि भल्ला, ब्रजेश तिवारी. अंजलि, पवन देवांगन, रंधावा प्रसाद ,उत्तम सोनी आदि चित्रकारों के चित्र प्रदर्शित किए गए. सर्वश्री धनंजय पाल , कुलेश्वर चक्रधारी, ईशान, विक्रमजीत देव तथा खैरागढ़ से आए विद्यार्थियों की बनाई मूर्तियां भी प्रदर्शित की गईं. सर्वश्री अर्जुन और महेश वर्मा के बनाए खूबसूरत कविता-पोस्टर भी प्रांगण में सजाए गए थे. १३ नवम्बर के दिन की अंतिम प्रस्तुति थी सुश्री साधना रहटगांवकर का सूफ़ी गायन. गायन का यह सत्र प्रख्यात गायिका गंगूबाई हंगल तथा इकबाल बानो की स्मृति को समर्पित था.
१४ ववम्बर के दिन 'मांग के सिंदूर ' नाम के छत्तीसगढ़ी नाट्य-गीत संगठन के खुमान सिंह यादव और साथियों ने नाचा शैली के गीत और नाट्य पेश किए. उसके बाद बच्चों ने जनगीत प्रस्तुत किए.यह सत्र महान रंगकर्मी श्री हबीब तनवीर व नाट्य लेखक श्री प्रेम साइमन की याद को समर्पित था. दोपहर ३ बजे फ़िल्मोत्सव का उदघाटन विख्यात फ़िल्म-निर्देशक एम.एस. सथ्यू के हाथों हुआ. उदघाटन- सत्र की अध्यक्षता श्री राजकुमार नरूला ने की जबकि जन संस्कृति मंच के महासचिव प्रणय कृष्ण और फ़िल्मोत्सव के संयोजक संजय जोशी ने विशेष अतिथियों के बतौर समारोह को संबोधित किया. श्री प्रणय कृष्ण ने कहा कि जिस तरह तेल के लिए अमरीका ने ईराक को तबाह किया, उसी तरह अल्यूमिनियम , बाक्साइट आदि खनिजों के लिए हमारे देश की सरकार छत्तीसगढ़, उड़ीसा और पूरे मध्य भारत के जंगलों, पहाड़ों और मैदानों में रहने वाले अपने ही नागरिकों के खिलाफ़ बड़े पूंजीपति घरानों के लाभ के लिए युद्ध छेड़ चुकी है. देश की सभी शासक पार्टियां भूमंडलीकरण पर एकमत हैं , लेकिन हर कहीं बगैर किसी संगठन, पार्टी और विचारधारा के भी गरीब जनता इस कार्पोरेट लूट के खिलाफ़ उठ खड़ी हो रही है, वह कलिंगनगर हो या सिंगूर, नंदीग्राम या लालगढ़. अपनी आजीविका और ज़िंदा रहने के अधिकार से वंचित, विस्थापित लोग अपनी ज़मीनों, जंगलों और पर्यावरण की रक्षा के लिए लड़ रहे हैं. चंद लोगों के विकास की कीमत बहुसंख्यक आबादी और पर्यावरण का विनाश है. मुक्तिबोध और उनकी कविता इस संघर्षरत आम जन की हमसफ़र है. श्री एम.एस. सथ्यू ने औद्योगिक विकास की रणनीति और माडल पर अपनी दुविधाओं को व्यक्त किया. श्री संजय जोशी ने फ़िल्म समारोहों की जन संस्कृति मंच द्वारा आयोजित श्रृंखलाओं को कारपोरेट, सरकारी और स्वयंसेवी समूहों पर आर्थिक निर्भरता से मुक्त जन-निर्भर संस्कृति- कर्म का उदाहरण बताया. १४ नवंबर के दिन चार्ली चैपलिन की 'माडर्न टाइम्स', गीतांजलि राय की एनिमेशन फ़िल्म 'प्रिंटेड रेनबो', विनोद राजा की डाक्यूमेंटरी 'महुआ मेमोयर्स' तथा डि सिका की क्लासिक 'बायसिकिल थीफ़' को सैकड़ों दर्शकों ने न केवल देखा, बल्कि उन पर चर्चा भी की. १५ नवम्बर के दिन पहला सत्र बच्चों की फ़िल्मों का था. पूरा कला-मंदिर बच्चों से भर उठा. यह सत्र रिषिकेश मुकर्जी और नीलू फुले की स्मृति को समर्पित था. इसमें राजेश चक्रवर्ती की 'हिप हिप हुर्रे', रैंडोल की बाल-फ़िल्म श्रंखला 'ओपन द डोर' और माजिद मजीदी की ईरानी फ़िल्म 'कलर आफ़ पैराडाइज़' दिखाई गईं.
इस दिन फ़िल्मों का दूसरा सत्र छत्तीसगढ़ी नाचा के अप्रतिम कलाकार मदन निषाद और फ़िदाबाई की स्मृति को समर्पित था. इस सत्र में मिशेल डी क्लेरे की 'ब्लड ऐंड आयल', सूर्यशंकर दास की 'नियामराजा का विलाप', अमुधन आ.पी. की 'पी (शिट)', बीजू टोप्पो और मेघनाथ की 'लोहा गरम है', तुषार वाघेला की 'फ़ैंटम आफ़ ए फ़र्टाइल लैंड ' जैसी जन-प्रतिरोध की डाक्य़ूमेंटरी फ़िल्मों का प्रदर्शन किया गया. अंतिम सत्र चित्रकार मंजीत बावा, तैय्यब मेहता एवं आसिफ़ की स्मृति को समर्पित था. इस सत्र में मंजिरा दता की "बाबूलाल भुइयन की कुर्बानी' और एम.एस. सथ्यू की 'गर्म हवा' प्रदर्शित की गईं. चर्चा सत्र में सैकड़ों दर्शकों के साथ फ़िल्म के बारे में एम.एस. सत्थ्यू ने देर रात तक चर्चा की. इसके बाद तीन द्विवसीय 'मुक्तिबोध स्मृति फ़िल्म और कला उत्सव' का समापन -सत्र सम्पन्न हुआ.
मण्टो तो पैदा ही मरने के बाद हुआ
Javed Khan, शनिवार, 14 नवंबर 2009मण्टो की सबसे बड़ी ख़ासियत थी कि उन्होंने समाज में साधारण समझे जाने वाले लोगों की असाधारण मूल्य-निष्ठा को अपने अंदाज में बयान किया। जो उनकी कहानियां काली शलवार, ठण्डा गोस्त, बू, धुआं , खोल दो में साफ तौर से महसूस किया जा सकता है। वैसे तो हर लेखक की अपनी शैली होती है। परन्तु मण्टो का लिखने का अंदाज सबसे विचित्र और रहस्यमय है। यह अंदाजा मण्टो कि इन पंक्तियों से लगाया जा सकजा है `जमाने के जिस दौर से हम गुज़र रहे है, अगर आप उस से वाकिफ नहीं तो मेरे अफ़साने पिढये और अगर आप इन अफ़सानों को बरदाश्त नहीं कर सकते तो इस का मतलब है कि ज़माना नाक़बिले-बरदाश्त है।´
यह कहना गलत नहीं होगा कि मण्टो को वास्तविकता को कहानियों में कहने में माहारत हासिल थी। वह अपनी कहानियों में समाज में फैली विडम्बनाओं को नग्गा कर देते थे। जिस की वजह से तरक्की पसन्द लेखकों ने उसे अपने से अलग कर दिया क्योंकि अन्यथा मण्टो से बड़ा यथार्थवादी कथाकार और कौन है। बाबू गोपीनाथ का यह अंश देखिये- `रण्डी का कोठा और पीर का मज़ार, बस से दो जगह है जहां मेरे मन को शान्ति मिलती है।.........कौन नहीं जानता कि रण्डी के कोठे पर मां-बाप अपनी औदाल से पेशा कराते है और मक़रबों और तकियो में इंसान अपने खुदा से।´
मण्टो की कहानियों में टोबा टेक सिंह उनकी सबसे चर्चित और उन्दा कहानी में से है। टोबा टेक सिंह में विडम्बना-मुक्ति की सार्थकता इस में है कि उसे पढ़ते हुए हम समझने लगते है कि वास्तविक पागल कौन है- टोबा टेक सिंह या हम सब। यह कहानी, इस प्रकार विभाजन से पीड़ित किसी व्यक्ति के नहीं, बल्कि एक पूरी क़ौम के पागल हो जाने की विडम्बना से रू-बरू कराती है। मण्टो ने इसी तरह अपनी कहानियों के माध्यम से सामाजिक और मानवीय विडम्बनाओं को प्रस्तुत किया है। पाकिस्तानी आलोचक सलीम अख्तर के इस कथन से अंत करना चहुंगा- `जरूरत है ऐसे सिरपिफरे की जो खिड़की खोलने की हिम्मत रखता हो। आज का युग अपना मण्टो पैदा करने में असफल रहा है। इसलिए न केवल सआदत हसन मण्टो की आज जरूरत है, बल्कि पहले से भी अधिक शिद्दत से............