Visit blogadda.com to discover Indian blogs कठफोड़वा: नवंबर 2010

मेरी नई ग़ज़ल

मैं अपने हाथ में रखता हूं अब चाबी मुकद्दर की ।

ये दौलत भी मेरे अजदाद ने मुझको थमाई है ।।


वो होंगे और जो मुश्किल में तुमको देखके चल दें ।

मेरे मां बाप ने मुझको अलग आदत सिखाई है ।।


दे देंगे जान लेकिन बाज हम फिर भी न आएंगे ।

ये ज़िद मेरी अभी तक की उमर भर की कमाई है ।।


मैं हूं जिस हाल में खुश हूं मुझे छेड़ो न तुम ज्यादा ।



ये दौलत जो तुम्हें बख्शी गई हमने लुटाई है ।।


सफर में जो गए बाहर वो फिर वापस नहीं लौटे ।

कि हमने गांव में टिककर ही ये इज्जत बनाई है ।।


हमारे साथ तू न थी तो यही अंजाम था मेरा ।

बताओ हाल-ए-दिल मेरा तुम्हें किसने सुनाई है ।।

अंधरे समय के विरुद्ध, मुश्किलों से जूझती रोशनी के लिए आईये एक दीप जलाएं

एक दो भी नहीं छब्बीस दिये

एक इक करके जलाये मैंने

इक दिया नाम का आज़ादी के
उसने जलते हुये होठों से कहा
चाहे जिस मुल्क से गेहूँ माँगो
हाथ फैलाने की आज़ादी है

इक दिया नाम का खुशहाली के
उस के जलते ही यह मालूम हुआ
कितनी बदहाली है
पेट खाली है मिरा, ज़ेब मेरी खाली है

इक दिया नाम का यक़जिहती के
रौशनी उस की जहाँ तक पहुँची
क़ौम को लड़ते झगड़ते देखा
माँ के आँचल में हैं जितने पैबंद
सब को इक साथ उधड़ते देखा

दूर से बीवी ने झल्ला के कहा
तेल महँगा भी है, मिलता भी नहीं
क्यों दिये इतने जला रक्खे हैं
अपने घर में झरोखा न मुन्डेर
ताक़ सपनों के सजा रक्खे हैं

आया गुस्से का इक ऐसा झोंका
बुझ गये सारे दिये-
हाँ मगर एक दिया, नाम है जिसका उम्मीद
झिलमिलाता ही चला जाता है

-कैफ़ी आज़मी