कहानी-लेखन का विचार सबसे पहले कैसे आया?मैं पश्चिम उत्तरप्रदेश के एक गांव में पैदा हुआ हूं। घर का पुश्तैनी काम खेती करना था। अक्सर मेरा बचपन खेल में हल चलाते ही बीता है। हालांकि पिताजी प्राइवेट नौकरी में थे। घर में साहित्यिक पत्रिकाएं आती रहती थीं। कहानियों से मेरा पहला परिचय उन्हीं किताबों को पढक़र हुआ। प्रेमचंद को मन से पढा। मन्मथनाथ गुप्त के क्रान्तिकारी विचारों ने काफी प्रभावित किया। इसी मोड पर मेरी पहली कहानी 'ऊपरी व्याधा' आई, जिसमें पडाेस में रहने वाली एक भाभी का जिक्र है, जो काफी झगडालू स्वभाव की है। उसपर अक्सर गांव की भाषा में कहें तो भूत आ जाता था। ऐसा करने के पीछे कारण यह था कि उसे लोगों की सहानुभूति मिल जाती थी। उसके बाद कहानी आई 'दलित दोस्त'। वह एक बडे परिवार से आता था। मेरे घर उसका बराबर आना-जाना था। गांव के माहौल में ये चीजें अलग रूप न ले लें, इस बात से भी डरा रहता था। मैंने मां को कभी उसकी जाति के बारे में नहीं बताया। दरअसल दिमाग में ये था कि आखिर बताऊं भी तो क्यों बताऊं? तीसरी कहानी आई 'दोस्त' जो बाद में किसी और नाम से छपी। इसके बाद 'मां और बेटा' जिसमें एक ऐसे दोस्त का जिक्र है जो अपनी मां की मौत को भी बहुत ही हल्के रूप से लेता है। इसके बाद तो कहानी लिखने का लंबा सिलसिला चलता रहा।
साहित्यिक पत्रिकाओं में छपने का सिलसिला कब शुरू हुआ?
'सारिका' में एक नियमित कॉलम छपता था 'आते हुए लोग' जिसमें मेरी पहली कहानी छपी 'तीसरी चिट्ठी'। तब तक मेरी नौकरी दिल्ली के रेल विभाग में लग चुकी थी। नौकरी के एक दो साल बाद जब गांव जाना हुआ, तो आस-पास के लोग कहने लगे- 'बेटा, अब तुम तो दिल्ली में सेटल हो ही गए हो, तो मेरे बच्चे को भी कहीं ढंग की जगह पर लगा दो।' हालांकि उन दिनों भी किसी के लिए नौकरी लगाने की स्थिति बडी विकट होती थी। बीच-बीच में नौकरी से जब समय मिलता, इधर-उधर हाथ भी मारता रहता था। लेकिन जब उसकी गांव में शादी हो गई, तो सोचा बुला ही लेता हूं दिल्ली। परिवार के लोगों ने कहा-भई, बुला तो लोगे, पर रखोगे कहां। उन दिनों किराए के छोटे से कमरे में रहना होता था। पत्नी की चिंता भी जायज थी। असमंजस में चिट्ठी का जवाब ही नहीं दिया। बाद में पता चला कि उसने पारिवारिक परेशानियों से आजिज होकर किसी सिंदूर फैक्ट्री में नौकरी कर ली, जिसके रासायनिक वातावरण में काम करने से उसको सांस की बीमारी रहने लगी और जल्द ही उसकी मौत भी हो गई। आज भी उस घटना को याद करता हूं तो सिहर जाता हूं। एक ही बात जेहन में रहती है कि काश, उसको दिल्ली ही बुला लिया होता। इस कहानी के बाद तो हंस, सारिका, दिनमान, आजकल में छपने लगा। लोग पूछते हैं कि गांव पर ज्यादा कहानियां क्यों नहीं लिखी। सोचता हूं, महानगर की भाग-दौड से फुरसत मिले तो इनपर जरूर लिखूं।
नौकरी की व्यस्तताओं के बीच कहानी-लेखन को साधना तो बडा मुश्किल होता होगा...
हां, कॉलेज से निकलते ही नौकरी में चला आया था। वो 77 का दौर था। इमरजेंसी के दौरान जेपी मूवमेंट से जुडने के कारण राजनीतिक और बौध्दिक स्तर पर सक्रियता बढ ग़ई थी। पहली प्रयास में ही आईएएस के इम्तिहान में सर्वोच्च स्थान पाने में सफल हुआ तो इसके पीछे वजह मेरी राजनीतिक सक्रियता को ही था, न कि कॉलेज की पढाई। पहले साहित्य मेरे लिए पहले स्थान पर था, नौकरी बाईप्रोडक्ट। लेकिन देखते-देखते प्राथमिकताएं बदलीं और नौकरी की आपा-धापी ने पहला स्थान ले लिया। लेकिन इन व्यस्तताओं के बीच थोडा भी समय मिलता है, तो उसे साहित्य-साधना में लगाता हूं।
आपने 'चूहा और सरकार' व्यंग्य में सरकारी अधिकारियों के विदेश यात्रा के बहाने तलाशने, भाई-भतीजावाद और इसमें सामाजिक न्याय का ख्याल रखने को प्रमुखता से उठाया है। क्या चूहे पकडने के मामले में भी हमें विदेशों से सीखने की जरूरत महसूस होती है?
मैंने विदेश यात्राओं पर कई कहानियां लिखी हैं। विदेश यात्राओं में जाने वाले सरकारी अधिकारियों में भी वरिष्ठ और कनिष्ठ का खास ख्याल रखा जाता है। मैंने इसके पीछे का सच भी देखा है। जब सरकारी अधिकारी विदेश दौरे पर जाते हैं, तो अपनी भूखी, अतृप्त इच्छाओं को दबा नहीं पाते। चाहते हैं कि तमाम विदेशी चीजों को घर में बटोर लें। इसपर मैंने एक कहानी 'मेड इन इंग्लैंड' लिखी है, जिसमें ऐसे अधिकारियों को ही ध्यान में रखकर लिखा गया है। दूसरी कहानी पेटू सरकारी अधिकारियों पर लिखा गया 'पिज्जा और छेदीलाल' जिसकी हजार प्रतियां देखते ही देखते रेलवे के अधिकारियों ने ही खरीद लीं। कहानी अप्रत्याशित रूप से चर्चा में रही। दरअसल ऐसी जगहों पर जाने के बाद प्रशिक्षण का ख्याल इनके मन में नहीं रहता। बस एक ख्याल होता है कि इसे अपने निजी टूर में कैसे बदलें। उनकी पत्नियां दूसरों पर विदेश यात्रा का रौब गांठने के लिए अक्सर चर्चा करती हैं। विदेश यात्रा बच्चों को बताने की चीज भर बनकर रह जाती है। इसमें ट्रेनिंग का अर्थ कहीं खो जाता है।
कथाकार संजीव जिनकी आर्थिक बदहाली का जिक्र कभी आपने अपनी रचनाओं में किया है, की तरह ही राजधानी के वैसे साहित्यकार नहीं रह रहे जिनके पास रोजगार का कोई दूसरा विकल्प नहीं।
संजीव की अच्छी याद दिलाई आपने, दोस्त। दरअसल साहित्य में कई ऐसे लोग हैं, जो अच्छा लिख-पढ रहे हैं, लेकिन उनको वो जगह नहीं मिल पाती। दिल्ली में कई ऐसे लोग मिल जाएंगे, जो अबूझ कविताएं लिख रहे हैं, लेकिन किसी अकादमी के अध्यक्ष पद पर सुशोभित हैं, तो कोई संस्कृति मंत्रालय से फेलोशिप ले रहे हैं। क्या संजीव जैसा गंभीर लेखक प्रूफ रीडिंग कर एक छोटे से कमरे में जिंदगी गुजार देगा, जो राजनीति की चांडाल-चौकडी में अपने को असहज महसूस करता है। संजीव ने अपने एक कहानी में इस बात को गंभीरता से उठाया है कि कैसे डॉक्टरी की तैयारी करती नायिका संघमित्रा माओवादियों के संपर्क में आ जाती है? सामंतवादी व्यवस्था की चूलें हिलाने के लिए कॅरियर को भी दांव पर लगाने को तैयार दिखती है। कोई किन परिस्थितियों में माओवादी बनता है, इसका कच्चा चिट्ठा संजीव ने बहुत पहले ही अपनी रचनाओं में व्यक्त किया है।
आपने एक जगह कहा था कि स्वतंत्र भारत के यथार्थ से तो स्वतंत्रता के पहले का यथार्थ अच्छा था। क्या अभी भी ऐसा महसूस करते हैं?
हमारे यहां आजादी के समय गणेश शंकर विद्यार्थी, अज्ञेय, निराला, महादेवी वर्मा की लंबी परंपरा रही है। राष्ट्रीय मसलों में इनकी भागीदारी तो होती ही थी, साथ ही गांधी, नेहरू के संपर्क में निरंतर अपने को निखारते भी थे। राजमोहन गांधी का भाषण सुना जिसमें उन्होंने 'यूनिटी इन इनिमिटी' का जिक्र किया है यानी शत्रुओं के बीच एकता। इकट्ठे तो हो गए एक शत्रु को देखकर, लेकिन आगे क्या करना है, इसका पता नहीं। आजादी के बाद गांधी की कांग्रेस से दूरी बढती गई, तो नेहरू गांधीवादी खेमे से दूर अपनी गोटी बिठाने मे लगे रहे, पटेल अलग अपना राग अलापते रहे। सभी आदर्श लडख़डाकर बिखर गए। आज के दौर में 70 के बाद जो पतन हुआ या फिर ग्लोबलाइजेशन के बाद की बात करें तो समाज का अधोपतन ही हुआ है। हम गर्त में नीचे और नीचे गिरते जा रहे हैं।
छल-कपट समाज में हावी होता जा रहा है। संबंधों का ताना-बाना बिखर गया है। हम गरीबी पैदा कर रहे हैं। आज दुख के साथ कहना पड रहा है दोस्त, शायद देश की आजादी समर्थ हाथों में नहीं सौंपी गई, इसलिए हमारा यह हाल हुआ है।
आज कल आप क्या कर रहे हैं?
पिछले दिनों 'अजगर करे ना चाकरी' तीसरा कहानी-संग्रह छपा है, जिसकी नामवर जी ने एक चैनल पर काफी तारीफ भी की है। नए कहानी-संग्रह पर काम कर रहा हूं। हर उस विधा पर लिखना चाहता हूं, जिससे समाज में कुछ परिवर्तन की गुंजाइश बनती हो।
वरिष्ठ कथाकार प्रेमपाल शर्मा से चंदन राय की बातचीत पर आधारित