ममता मीडिया की कारस्तानी और सरडीहा का सच
पश्चिम बंगाल के मिदनापुर जिले में सरडीहा के पास हुई रेल दुर्घटना के तुरंत बाद देश भर में मचे बवंडर ने एक बारगी यह सोचने को मजबूर कर दिया था कि क्या वास्तव में भारत के नक्सलवादी नरपिशाच हैं? दुर्घटना स्थल पर पहुंची रेल मंत्री ममता बनर्जी ने जिस बेशर्मी और बेहूदगी से इसके लिए नक्सलवादियों को जिम्मेदार ठहराते हुए अपनी और अपने विभाग के निकम्मेपन से पल्ला झाड़ा और हमारे लोकतंत्र के तथाकथित चैथे स्तंभ बड़े पूंजीपतियों के टुकड़ों पर पलने वाले राष्ट्रीय मीडिया ने जिस निर्लज्जता के साथ इस दुर्घटना को नक्सली हमला करार दिया उसने मीडिया, नक्सलवाद और लोकतंत्र में नैतिकता के प्रश्नों पर एकबारगी फिर सोचने पर मजबूर कर दिया है।
पहली बात तो नक्सलियों की ही की जाए। नक्सलवादियों के लाख दावे के बावजूद कि वह आम आदमी की लड़ाई लड़ रहे हैं, उनके हथियारबंद संघर्ष को जायज नहीं ठहराया जा सकता। सिर्फ इसलिए नहीं कि भारत में लोकतंत्र नाम की कोई चीज सुनाई पड़ती है। बल्कि इसलिए भी कि नक्सली जिस क्रांति की बात करते हैं वह क्रांति उनके इस तरह के रास्ते से नहीं आ सकती है। क्रांति की भूमिका के लिए जो तीन चार प्रमुख कारण बताए जाते है,ं उनमें से कई महत्वपूर्ण कारण अभी भारत में मौजूद नहीं हैं और जब तक यह कारण नहीं होंगे क्रांति सफल नहीं हो सकती है। क्रांति की अनिवार्य षर्त है कि देश के अंदर गृह युद्ध के हालात होने चाहिए और राजनीतिक उठापटक का माहौल होना चाहिए, किसी बाहरी देश के आक्रमण का खतरा हो और राजसत्ता लाचार हो। लेकिन भारत में इस तरह के कोई हालात अभी तो नहीं हैं। सत्तापक्ष और विपक्ष दोनों की आर्थिक नीतियां एक सी हैं और उनमें नीतिगत कोई मतभेद नहीं है बल्कि दोनों एक ही हैं। वहीं देश के अंदर बड़ी तेजी से एक संस्कारविहीन, फर्जीवाड़े की अर्थव्यवस्था की कोख से एक ऐसा उच्च मध्य वर्ग पैदा हुआ है जो स्वयं को पढ़ा लिखा कहता तो है लेकिन है फूहड़। इस वर्ग को नरसिंहराव- मनमोहन- वाजपेयी की तिकड़ी ने फलने फूलने का अवसर दिया है। यह वर्ग राजसत्ता का हिमायती हेै और उसके हर जुल्म- औ- सितम का हिमायती है। ऐसे में गरीबों के हितों की खातिर की जाने वाली कोई भी सशस्त्र क्रांति फलीभूत नहीं हो सकती है।
तो क्या नक्सलियों को आम आदमी की लड़ाई लड़ना बंद कर देना चाहिए? बिल्कुल नहीं! लेकिन उन्हें अपना रास्ता बदल देना चाहिए। पहले आम जनता के बीच जाकर समझाएं कि वह करना क्या चाहते हैं और उनका आम आदमी से कोई बैर नहीं है और पूंजीवादी मीडिया उनके खिलाफ मिथ्या प्रचार कर रहा है। वरना यही होगा जो सरडीहा के मामले में मीडिया ने ममता बनर्जी के सहयोग से किया। ममता ने घटनास्थल पर जाकर कहा कि विस्फोट किया गया है। जबकि खुद गृह मंत्रालय और वित्त मंत्री इस आरोप से सहमत नहीं हैं। मीडिया में ही जो रिपोर्ट्स आईं उनके मुताबिक वहां पचास मीटर तक फिश प्लेट्स उखाड़ी गई थीं और मौके पर लगता था कि ट्रैक की कई घंटों से जांच नहीं की गई थी। लेकिन हमारे न्यूज चैनल्स ममता बनर्जी के बयान को ही ले उड़े। हर चैनल चिल्ला रहा था नक्सली हमले में 76 मरे, रेलवे पर लाल हमला। बताया गया कि घटनास्थल से नक्सली समर्थक पीसीपीए के पोस्टर मिले हैं जिसमें इस घटना की जिम्मेदारी ली गई है। लेकिन किसी भी समाचार वाचक ने यह रहस्य खोलने की जहमत नहीं उठाई कि पीसीपीए नक्सलवादी नहीं है, उसे सिर्फ नक्सलियों की हिमायत हासिल है। पीसीपीए मुखिया छत्रधर महतो बाकायदा तृणमूल कांग्रेस का पदाधिकारी था और पिछले विधानसभा चुनाव में पीसीपीए ने तृणमूल कांग्रेस को समर्थन दिया था। इस लिहाज से अगर यह पीसीपीए का काम है तब तो इसके लिए ममता बनर्जी की तृणमूल कांग्रेस ही ज्यादा जिम्मेदार है। वैसे भी तृणमूल जब तब बंगाल में रेलवे ट्रैक पर हमला करती रहती है और फिश प्लेट्स उखाड़ने में उसे महारत हासिल है।
वैसे भी अभी तक की घटनाओं में जब भी नक्सलियों ने रेलवे को कोई नुकसान पहुंचाया है तो तत्काल नजदीक के केबिन और रेलवे स्टेषन को सूचना पहुंचाई है ताकि कोई दुर्घटना न हो। सवाल यह है कि क्या हमारा मीडिया सकलडीहा का ठीकरा नक्सलियों के सिर फोड़कर ममता बनर्जी को निर्दोष साबित करना चाहता है? क्या यह सही नहीं है कि मृतकों में से पचास से भी अधिक ने दुर्धटना के 48 घंटे बाद सरकारी अव्यवस्था के चलते दम तोड़ा है? क्या यह भी सही नहीं है कि राहत ट्रेन दुर्घटनास्थल पर दो धंटे बाद और क्रेन आठ घंटे बाद पहुंची? क्या यह भी सही नहीं है कि रेलवे के सभी बड़े अफसर दुर्घटना स्थल पर ममता बनर्जी के साथ ही अगले दिन पहुंचे ? क्या इसके लिए भी नक्सली ही जिम्मेदार हैं? कायदे से इस दुर्घटना के लिए ममता बनर्जी को ततकाल त्यागपत्र दे देना चाहिए और प्रधानमंत्री को भी चाहिए कि इस हादसे की जांच में ममता की लापरवाही और साजिष की भी निष्पक्ष जांच करवाएं। एक तरफ ममता का कहना है कि घटना स्थल पर फिश प्लेटें बैल्ड की गई थीं और पेंड्रोल क्लिप या फिश प्लेट उखाड़े जाने का कोई प्रश्न ही नहीं है जबकि हमारे मीडिया के साथी ही मौके से बता रहेे हैं कि फिश प्लेटें उखड़ी हुई थीं। फिश प्लेटें उखड़ना रेलवें के लिए कोई नई बात नहीं है। एक अखबार ने खुलासा किया है कि देश की राजधानी दिल्ली से बीस किलोमीटर दूर गाजियाबाद के रास्ते के ट्रैक पर वर्ष 2010 में ही पांच हजार फिश प्लेटें उखड़ी पाई गई हैं। इतना ही नहीं उखड़ी हुई फिश प्लेटों के ऊपर से राजधानी एक्सप्रेस गुजर जाने की भी खबरें पिछले दिनों आई थीं। जाहिर है दिल्ली में अभी नक्सली नहीं पहुंचे हैं ममता आपा!!
लगातार तीन दिन तक हमारे समाचारपत्रों ने सरडीहा की दुर्घटना पर तो दस बीस लाइनें ही लिखी होंगी लेकिन नक्सलियों पर कई कई पन्ने काले किए। हमारे बड़े पत्रकारों ने अपनी लेखनी का सारा कला कौशल नक्सलियो पर ही खर्च कर दिया। किसी ने लिखा- ‘नक्सलियों ने फिर ढाया कहर’, तो किसी ने लिख डाला- ‘ भारत के लिए सबसे बड़ी चुनौती बनते जा रहे नक्सलियों ने पं. बंगाल में ट्रेन को निशाना बनाकर 76 मुसाफिरों को मार डाला’। गोया भूख गरीबी अषिक्षा और स्वास्थ्य जैसे मुद्दे अब भारत के लिए चुनौती रहे ही नहीं बस नक्सली ही रह गए हैं।
वह तो गनीमत है कि कुछ दिन पहले ही एयर इंडिया का विमान मंगलौर में दुर्घटनाग्रस्त हुआ। कहीं इत्तेफाक से यह दंतेवाड़ा या मिदनापुर में दुर्घटनाग्रस्त हुआ होता तो हमारे मीडिया के धुरंधर इसका इलजाम भी नक्सलियों के सिर रखते। तमाषा यह है कि पूरे मीडिया ने नक्सलियों को दोष मढ़ने में तो कोई देरी नहीं की लेकिन भाकपा माओवादी के मयूरभंज-पूर्वी सिंहभूम बाॅर्डर एरियेा कमेटी के प्रवक्ता मंगल सिंह के इस बयान कि ज्ञानेश्वरी एक्सप्रेस के विस्फोट में भाकपा माओवादी का हाथ नहीं हैं ऐसी घटनाओं से आम आदमी के साथ साथ माओवादी संगठन को भी नुकसान होता है ऐसी स्थिति में उनका संगठन ऐसी घटना को क्यों अंजाम देगा, को एक दो अखबारों ने ही कहीं कोने में लगाया। मीडिया के शोर में मंगल सिंह की यह आवाज कि ‘हम आम आदमी के हित में उनके अधिकारों की रक्षा के लिए संघर्ष करते हैं न कि उन्हें नुकसान पहुंचाने के लिए?’ दबकर रह गई।
सरडीहा दुर्घटना की एफआईआर में नक्सलवादियों का जिक्र न होने पर स्यापा करने वाले हमारे बड़े पत्रकार साथी क्या अपनी असली जिम्मेदारी पर भी ध्यान देंगे????
बस इतनी सी बात है...
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I
कुछ मोहब्बतें बिस्तर में सिमटती हैं,
कुछ रूह में उतरती है,
और कुछ बस खामाखाँ होती हैं,
क्या ही होता जो
मेरी रूह तेरा बिस्तर होती।
II
कुछ मोहब्बतें बिस्त...
असल में मीडिया पूरी तरह से बिका हुआ है (कुछ ईमानदार लोग और ईमानदार प्रयासों के अतिरिक्त) और आलम ये है कि लोगों को सच या झूठ, सच का झूठ या झूठ का सच या बिका हुआ सच या बनाया हुआ सच सब कुछ इन्ही से बनता है .... लोगों तक पहुचता है... धीरे-धीरे धारणा बनती है फिर विश्वास कायम होता है और सच बन जाता है .....
आपका प्रयास बेहतर है.....