अगर मैं कहूं कि सांस लेने के लिए हवा, पीने के लिए पानी, रौशनी के लिए सूरज, पढ़ने के लिए स्कूल, पेट के लिए भोजन, पहनने के लिए कपड़ा और रहने के लिए एक छज्जा तो सभी के लिए जरूरी है, तो क्या मैं वाकई कोई हास्यास्पद बात कर रहा हूं। अगर मैं कहूं कि किसी महान देश का नागरिक होने के नाते नहीं, बल्कि एक आदमी होने के नाते हर आदमी को उसका हक तो मिलना ही चाहिए, क्या यह भी कोई हास्यास्पद बात है। 24 फरवरी सन् 2010 को भारत की रेलमंत्री ममता बनर्जी ने अपने नागरिकों (भारत में सफर करने वाले विदेशियों के लिए भी) का रेल बजट पेश किया, लेकिन औपनिवेशिक दौर से ही चले आ रहे यात्राओं के अमानवीय सफर की तरफ ध्यान भी नहीं दिया और पिछले रेलमंत्रियों और सरकारों की तरह इस बार भी भेदभाव के सफर को जारी रखा।
मैं बात कर रहा हूं रेलवे का अभिन्न अंग बन चुके उस साधारण डिब्बे की, जो भारत की वर्ण व्यवस्था की तरह देश की बहुसंख्यक जनता के सफर की नियति बन चुकी है। 70 सीटों वाले इस डिब्बे में यात्री तब तक घुसने की जुगत में लगे रहते हैं जबतक कि डिब्बे के दरवाजे पर लटकने की जरा-सी भी गुंजाइश बची हो। कभी ऐसे ही ठसाठस भरे डिब्बे के पास जाइए और केवल समझने के तौर पर अपने बैग बोगी में घुसाने का प्रयास कीजिए। आप पाएंगे कि पहले तो लोग बैग भीतर जाने से ही रोकेंगे और अगर किसी तरह आपका बैग डिब्बे में घुस गया तो वह एक हाथ से दूसरे हाथ, दूसरे हाथ से तीसरे, उपर ही उपर वह पूरी बोगी में सफर कर जाएगा और यह भी तय है कि कुछ मिनटों बाद उसे भी जगह मिल ही जाएगी, लेकिन उस बैग को बोगी से बाहर फेंकने का ख्याल किसी भी यात्री के दिमाग में नहीं आयेगा। लेकिन यही यात्री भारत में सफर की इस वर्ग व्यवस्था का कभी-कभी शिकार भी बन जाते हैं, जिनकी ट्रेन से गिरकर घायल होने या मरने की खबरें हमें अखबारों में अक्सर पढ़ने को मिल जाती हैं।
मैं ये बातें आदमी के हक को खैरात समझने वालों या उन मीडियाकर्मियों के तर्क कि सचिन की सेंचुरी के सामने ममता के बजट की क्या चर्चा, के विरोध में नहीं लिख रहा हूं। बल्कि इसलिए लिख रहा हूं कि आज जब मैं अपने दोस्त जितेन्द्र को छोड़ने नई दिल्ली रेलवे स्टेशन पहुंचा तो दरभंगा जाने वाली बिहार संपर्क क्रान्ति एक्सप्रेस के एसी टू टीयर के यात्री इस बात से काफी खुश दिखे कि आर्थिक मंदी और कमरतोड़ महंगाई के बावजूद दीदी ने इस बार यात्री किराए में कोई बढ़ोतरी नहीं की। वहीं दूसरी तरफ 17-18 डिब्बों वाली इस ट्रेन के साधारण डिब्बे का नजारा ही दूसरा था। ओवरफ्लो हो चुके डिब्बों में घुसने का प्रयास कर रहे यात्रियों पर पुलिस डंडे बरसा रही थी और ज्यादा पैसा लेकर टीटी जनरल से स्लीपर का वेटिंग का टिकट बना रहे थे। आप विश्वास मानिये कि यह काम कोई एक-दो टीटी नहीं, बल्कि इस काम में करीब 80-90 टीटी लगे हुए थे। स्लीपर और जनरल में फर्क करना मुश्किल था।
इतिहास की पुस्तकों के उन पन्नों को पलटिए या फिर उन फिल्मों को देखिए, जिसमें हिटलर कैसे अपने विरोधियों को गैस चैंबर में झोकने से पहले, मालगाड़ी के डिब्बों में लोगों को भेड़-बकरियों की तरह ढूंस-ढूंस कर भरवाता था। पूरी मानवता को ही स्वाहा करने का दौर था वह, लोग लाचार थे और प्रतिरोधी भी। लेकिन हिटलरकाल से भी बदतर स्थिति में भारत की साधारण डिब्बे में सफर करने वाले ये अभिशप्त, पुलिस के डंडे खाते और टीटी की लूट का शिकार होते लोग किस आजाद देश के नागरिक हैं!
इस बजट को ममता के रेल बजट के रूप में देखने की भूल एकदम मत कीजिए, बल्कि इसके लिए अर्जुन सेन गुप्ता कमेटी के भारत में गरीबी के आकड़े को देखिए। जिसके मुताबिक, हमारे देश में 78 फीसदी ऐसे लोग हैं, जिनकी एक दिन की कमाई मात्र 20 रूपये है, उनमें भी ये 28 फीसदी शहरी गरीब हैं और 72 फीसदी ग्रामीण। बाकी बचे 22 फीसदी में अंबानी हैं, आप-हम हैं और 21 रूपये में जीवन गुजर-बसर करने वाले घुरहू-कतवारू भी हैं। क्या देश की 80 फीसदी आबादी को सफर करने की कीमत अपने आदमी होने के हक को कुर्बान करके ही तय की जा सकती है। अगर साधारण डिब्बे की संकल्पना, सीट रिजर्व न हो पाने की तत्काल व्यवस्था के रूप में होती तो बात कुछ हद तक समझ में भी आती, हमारे महान देश में तो तत्काल यात्रा को भी दो दिन पहले ही रिजर्व कर लिया जाता है।
और अंत में जवाहर खानदान की बहू मेनका गांधी के उस महामानववाद को याद कीजिए। उनके मुताबिक, हम कितने सभ्य हैं, इस बात से पता चलता है कि हमारा समाज जानवरों के साथ कैसा बर्ताव करता है। मुझे नहीं लगता कि कोई भी आदमी उनकी इस बात का विरोध करेगा, लेकिन जब वह कहती हैं कि एक ट्रक में तीन से ज्यादा पशु नहीं जाने चाहिए, हम भी कहते हैं कि जानवरों के साथ अमानवीय बर्ताव नहीं होना चाहिए, लेकिन ऐसी सोच पशुओं के मामले में ही क्यो? साधारण डिब्बे में आलू-बैगन की तरह ठंसे आदमियों को निरपेक्षभाव से देखने की हमें आदत क्यों पड़ गयी है?
बस इतनी सी बात है...
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I
कुछ मोहब्बतें बिस्तर में सिमटती हैं,
कुछ रूह में उतरती है,
और कुछ बस खामाखाँ होती हैं,
क्या ही होता जो
मेरी रूह तेरा बिस्तर होती।
II
कुछ मोहब्बतें बिस्त...
keval faiz ka ek nazm yaad aa rahi hai:
"tere hothon ke phoolon ki chahat me hum, daar ki khushk tehni pe vaare gaye,
tere haathon ke shamo ki hasrat me hum, neem taariq raahon me maare gaye
naarasai agar apni takdir thi,teri ulfat to apni hi tadbir,kis se shikva karen gar shauk ke kaafiley,hizr ki katalgaahon se sab ja miley,katalgaahon se chunkar hamare alam aur niklenge usshak ke kaafiley,kar chaley jinki khatir jehangir hum, jaan lutaa kar teri dilbari ka bharam, hum jo taariq raahon me maare gaye, humjo taariq raahon me maare gaye, hum jo taariq raahon me maare gaye."
sarkar ko ispar socne ke liye majoor karna hoga