सिद्दांत-विमर्श
नीरज कुमार, बुधवार, 13 जनवरी 2010एक महान दर्शनशास्त्री ने एक बार बताया था कि इतिहास का अंत हो गया है काफी बहस हुआ इतिहासकार सकते में आ गए ढेर सारे लोगों ने इतिहास के अंत की बात को नकार दिया इस दर्शनशास्त्री ने लोगों की भावनाओं के साथ काफी खिलवाड़ किया इतिहास का अंत तो किया ही भगवान् को भी मार दिया लोगों को अपना भविष्य अंधकार में दिखने लगा अगर इतिहास ख़तम हो गया तो दोहराया क्या जाएगा?
समय के परिप्रेक्ष में अगर वर्तमान परिस्थितियों की बात करें तो सब कुछ खुला-खुला दिखता है लेकिन उतना ही बंधा जितना आदमी अपने इतिहास के समक्ष और अब आप को लगेगा कि वर्तमान परिस्थितियों का जब सीधा सम्बन्ध इतिहास के साथ होता है तो इसमें नया क्या है? लेकिन घटनाओं के घटने की प्रक्रिया के साथ में मुझे याद आता है की कई सिद्दांत दिए गए हैं जो संभवत: एक दुसरे को काटते दिखते हैं जैसे "इतिहास अपने आप को दुहराता है" इसे बाद में किसी ने पूरी तरह यह कहते हुए काट दिया की "इतिहास अपने आप को कभी भी नहीं दुहराता है" यहाँ पर किसी विवाद की जरुरत नहीं है बेसक दोनों सिद्दांतो को चलन में लाने वालों के मध्य देश-का ल-वातावरण के मद्दे-नज़र विभिन्न परिस्थितियां रही होंगी जिसके चलते उनके अनुभवों एवं अध्ययनों में पर्याप्त विवाद देखने को मिला जिससे दो अलग-अलग थेओ री चलन में आई चलन में आने कि बात को मै ज्यादा दबाव दे कर क्यों कह रहा हूँ यह भी समझ लेना चाहिए किसी ने पहले ही बता रखा है कि- आप जो भी कर रहे हैं ये पहले किया जा चूका है, आप जो भी कह रहे हैं ये पहले कहा जा चुका है, आप जो सोच रहे हैं ये पहले सोचा जा चुका है अब अगर इस थेओरी के मूल में जाए तो यह भी अपने आप सिद्ध हो जाएगा कि चीज़े और घटनाएं लगा तार अपने आप को दूहरा रही हैं फिर उस "कभी नहीं" दोहराने वाले सिद्दांत का क्या होगा?
एक महान दर्शनशास्त्री ने एक बार बताया था कि इतिहास का अंत हो गया है काफी बहस हुआ इतिहासकार सकते में आ गए ढेर सारे लोगों ने इतिहास के अंत की बात को नकार दिया इस दर्शनशास्त्री ने लोगों की भावनाओं के साथ काफी खिलवाड़ किया इतिहास का अंत तो किया ही भगवान् को भी मार दिया लोगों को अपना भविष्य अंधकार में दिखने लगा अगर इतिहास ख़तम हो गया तो दोहराया क्या जाएगा? इतना ही काफी नहीं था ९० के दशक में एक और जैविक इतिहासकार ने इतिहास के खात्मे पर नये तरीके से सोचना शुरू किया कुछ और प्रमाणों-अनुभवों-घटनाओं की बदौलत दुबारा यह साबित किया गया की इतिहास का अंत हो गया है लेकिन तकनीकी आधुनिकीकरण और अमेरिका के नित नये हस्तछेप से वैश्विक व्यवस्था में बदलाव ने इस दर्शनशास्त्री को दुबारा सोचने पर मजबूर कर दिया और उसने खुद अपनी ही थेओरी को गलत साबित कर दिया
लेकिन थोडा और आगे बढे मै तो इतिहास की व्याख्या में उलझ गया और मूल बा त से भटक गया आगे की बात करते हैं एक और सिद्दांत आया "इतिहास अपने आप को निश्चित मात्रा एवं निश्चित अनुपात एवं निश्चित समयावधि में अपने आप को दुहराता है" बहुत सालों तक यह एक बहस का मुद्दा बना रहा की इस निश्चित मात्रा की व्याख्या कैसे हो सकती है इस 'निश्चित' को निर्धारित कैसे किया जाए ऐसी ही एक स्थिति पहले भी इतिहास के समक्ष आ चुकी है यह बात तब की है जब सारा विश्व जनसँख्या बढ़ाने को लेकर एकमत था अगर बच्चों के पैदा करने पर कोई अंकुश लगाने की बात करता तो उसे दंड तक दिया जाता था इन कठिन दिनों में एक महानुभाव ने कुछ देशो की यात्रायें की और निष्कर्ष निकला की "प्रकृति ने खाने की मेज सिमित व्यक्तियों के लिए लगाई है और जो भी बिना निमंत्रण के आएगा उसे अवस्य ही भूखो मरना होगा" और तभी डर की नयी प्रभुसत्ता का जन्म हुआ वही डर जो कभी देवी-देवताओं के जन्म का कारण बना था उसी डर को 'प्राकृतिक अवरोध' के रूप में इस्तेमाल किया जाने लगा गया लेकिन समय के साथ-साथ जैसे-जैसे इतिहास बड़ा होता गया इसके पीछे का झूठ और सिद्दांत का प्रयोगात्मक पक्ष सामने आने लगा और तब निश्चित अनुपात एवं समयावधि की अवधारणा पर आधारित नये विकल्प का जन्म हुआ एक देश के संसाधनों एवं उपभोग के आधार पर अनुकूलतम स्तर निर्धारित करने की बात कही गयी गयी लेकिन किसी प्रमाणिक मापन के नहीं होने की वजह से यह भी विफल करार दे दिया गया
तो इस प्रकार यह बात देखने में आती है कि कई सिद्दांत एक दुसरे को काटते तो हैं लेकिन बावजूद इसके इनका विकास एवं प्रचलन मानव सभ्यता एवं समाज के निरंतर विकास का प्रतीक है
नीरज कुमार
ये मिली"भगत"है |
गुड्डा गुडिया, शुक्रवार, 8 जनवरी 2010धुंध में नया साल
चन्दन राय, शनिवार, 2 जनवरी 2010बहुत देर से कम्प्यूटर के की-बोर्ड से उलझता रहा। कुछ ऐसा था जो गले में फंसा था, निकलना चाह रहा था लेकिन लंबे समय तक इसी उहापोह में उलझा रहा। इसी समय नया साल भी दरवाजे पर बार-बार दस्तक दे रहा था। कोई साल नया कैसे होता है,समझ नहीं पा रहा हूं। क्या कोई नया सूरज उगता है,आसमान नया होता है, प्राकृतिक छटाएं कुछ अलग रंग बिखेरती हैं। कुछ भी तो नया नहीें होता। बस एक सोच,एक विचार कि नया साल है और उसका स्वागत करना है। कभी-कभी तो इसका एहसास भी तब होता है जब यार-दोस्तों के हैपी न्यू ईयर मैसेज आने शुरू होते हैं। नई सोच,नई उमंगें होती तो इसे हरेक सुबह महसूस किया जाना चाहिए था। सिर्फ नए साल की पहली तारीख को ही क्यों। क्या गरीबों के आगे से थालियां नहीं छीनने का वादा ये समाज के ब्लडसकर जोंक करेंगे। क्या नए साल में फिर किसी की नौकरी तो नहीें छीनेगी,क्या इसकी कोई गारंटी है। क्या भूख के कारण मासूमों की बिखरी लटें फिर से संवारे जाने का वादा सरकार करेगी। क्या दलितोंं पर होने वाले अत्याचारों में कोई कमी होगी। क्या आदिवासियों को उनके जंगल,जमीन से विस्थापित नहीं करने का वादा सरकार के नुमांइदे करेंगे। क्या हमने अपनी आवश्यकताओं को सीमित करने का कोई प्रण लिया है। गरीबों के बीच काम करने वालों ने क्या उनकी तरह ही रहने-खाने का फैसला लिया है। या केवल मीडिया में चेहरा चमकाने एवं गरीब बच्चों के साथ फोटो खींचा लेने तक ही उनकी जिम्मेदारियां हैं। अगर नहीं ,तो ऐसा नया साल आपको ही मुबारक हो। मेरे राम तो अपनी झोपडी में ही मगन हैं।
एक बाद और बार-बार भीतर तक मन को कुरेदती है। अमेरिका को गाली देना लगभग हमारी आदत में ‘शुमार हो चुका है। लेकिन भारत के पूंजीपतियों का चाल-चरि तो उनसे भी गंदा होता है। इस मामले में तो हम समृद्धि के उच्च शिखर पर बैठे अमेरिका को भी पीछे छोड चुके हैं। वहां के रईसों को भी भारत के रईसों की लाइफस्टाइल को देखकर रश्क हो सकता है। जब पूरी दुनिया आर्थिक मंदी से कराह रही थी,तब भारत में एक वर्ग 200 करोड रूपए की याट से अपनी बीबी को लुभा रहा था। गुटखा किंग न जाने कितने करोड की विदेशी गाडी अपने रिश्तेदारों को बर्थडे प्रेजेन्ट करने में मशगुल थे। कम से कम इस मामले में हम अमेरिका के रईसों को आगे मानते हैं। वो दूसरों को लूटते तो हैं,लेकिन उस पैसे का समाज के आगे नंगा प्रदशZन नहीं करते। कुछ समाज सेवा के नाम पर फांउडेशन बनाकर ही लगा देते हैं,या गरीब देशों को मदद के नाम पर अपना हित साधते हैं। हालांकि इसके पीछे भी उनकी दूरगामी नीति काम कर रही होती है,लेकिन इसी बहाने चलो कुछ तो पाप धुला। भारत के मामले में लूटनीति मंथन करी का विचार ही फलता-फूलता है। फिर जब समाज का उपेक्षित वर्ग इन तमाशों से उबकर विरोध करता है, तो सरकार की नजर में नक्सली या कोई देशद्रोही नजर आता है। सरकार को उनकी भूख से कुलबुलाती आंतें नहीं दिखती,जहां अगर वो विरोध नहीं करता तो शायद परिवार में सामूहिक आत्महत्या के अलावा कोई चारा नहीं था।एक बात और सोचता हूं कि भारत की तस्वीर ही कुछ और होती अगर भारत का हरेक अमीर एक गांव गोद लेने का प्रण करता। अगर भारत का हरेक शिक्षित नागरिक एक को शिक्षित करने का प्रण लेता। अगर ऐसा संभव है,तभी नए साल की खुशियों में शरीक होने का हमें हक है।
हर बार नए साल का सूरज करता है हमसे वायदा
गुड्डा गुडिया, शुक्रवार, 1 जनवरी 2010हर बार नए साल का सूरज करता है हमसे वायदा
कि
इस साल खत्म कर दूंगा
कुपोषण, भ्रष्टाचार, गरीबी, महंगाई, बेरोजगारी, अनाचार
इस नए साल मैं मिलेगी सभी को सूचना
मिलेगा सभी को काम और काम का पूरा दाम
लेकिन नहीं निभाता है यह वायदा अपना !!!!!
हम भी तो करने देते हैं सूरज को बेवफाई
उम्मीद है इस साल
सूरज को हम नहीं सोने देंगे
उसे जगाते रहेंगे और कराएँगे उससे हर वायदा पूरा
इस नए साल मैं |
नया साल मुबारक
2010 उन सभी चेहरों पर मुस्कान बिखेरे जो तरस रहे हैं एक अदद मुस्कान के लिए !!