Visit blogadda.com to discover Indian blogs कठफोड़वा: सितंबर 2011

क्यूँ है


कितना है बदनसीब “ज़फ़र″ दफ़्न के लिए
दो गज़ ज़मीन भी न मिली कू-ए-यार में - बहादुर शाह ज़फ़र (1775-1862)

जो तू कर पाए ना, ऐ खुदा, वो तेरा काम क्यूँ है,
तुझसे होता नहीं रहम तो रहीम तेरा नाम क्यूँ है।

तुम जब गए थे मेरे घर से, सब कुछ ले के गए थे,
फिर आज कल इन कमरों में तेरा सामान क्यूँ है।

बड़ी महंगी पड़ी ये नज़र, जो तुमने देखा हमको,
ये तो बता कि तेरे हर तोहफे का कोई दाम क्यूँ है।

जब बात एक, साज़ एक, कलाम एक, आवाम एक,
सरहद आइना हो, तो हिंदुस्तान-पाकिस्तान क्यूँ है।

ज़फ़र, तस्सल्ली रख, यार तो सिर्फ दिल में रहता है,
फिर मानो तो रंगून भी दिल्ली है, तू परेशान क्यूँ है।

बातों-बातों में हि, अखिल, तुम सर दुखाये थे अपना,
तो उससे फिर से बातें करने का ये अरमान क्यूँ है।


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