सर पर गठरी |
हाथ में छोटे से बच्चे की छोटी छोटी उंगलियाँ, और एक बच्चा गोद में |
सूखा पड़ा गाँव मैं, जीने की कोई गारंटी नहीं |
खचाखच भरा प्लेटफार्म, दिल्ली जाने की होड़ |
पारा 40 पार, स्टेशन पर पानी नहीं |
असमंजस में माँ, कि पानी ढूंढे या रेल |
मैली, कुचैली सी एक थैली में एक छोटी सी पोटली |
पोटली में छिपा है एक खजाना |
40 रूपये के बंधे नोट और कुछेक सिक्के |
और साथ में है बासी रोटियों का खजाना |
जब जब बिलखेंगे बच्चे, देखेंगे माँ की और बड़ी ही आस से,
दे दी जाएगी चूसने को यही रोटी, लोलीपॉप की तरह |
रेल आई, वह कब चढ़ी, पता नहीं , भीड़ जो बहुत थी |
कहने को तो रेल बहुत बड़ी थी, 20 डिब्बे रहे होंगे
पर उसके और उसके जैसों के लिए तो 2 ही डिब्बे थे, एक इंजन से लगा और एक पीछे को |
जब झपकी खुली तो मथुरा में गिनती चल रही थी, लोगो की, सबको उतारा जा रहा है वहीँ पर
दिल्ली में अब काम नहीं है, वहां काम न वेल्थ है |
वह अब खड़ी है प्लेटफार्म पर
और सोच रही है कि, जाये तो जाये कहाँ ??????
प्रशांत कुमार दुबे
हलकान
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थक चुकी हूँ मैं
इस इंतजारी में,
और तुम?
कि बने बेहतर,
खूबसूरत और मेहरबां दुनिया?
चलो चाकू ले,
बींच चीर दे दुनिया
देखें, चमडी खा रहे हैं,
कौन से कीड़े,...