ख़त तो तुम लिखने बैठे, अखिल, पर इस वतन में डाकखाने हि नहीं, अब अपना पैगाम उस मुल्क तक पहुँचवायें कैसे।यहाँ हर दिल में है दोज़ख की आग, उसको बुझायें कैसे,ज़मीन की इस जन्नत को फिर से जन्नत बनाएं कैसे।पत्थर कश्मीर कि सड़कों पर गिर कर भी घिसते नहीं,हिन्दुस्तां हर पत्थर से आज़ादी का नाम मिटाये कैसे।चाहते तो ये हैं कि बदल दें जो खुदा ने तकदीर में लिखा,पर उसके कागज़ पर उसका हि दस्तख़त हम बनाएं कैसे।ऐ तेहरीक के अजनबी, जो लब्ज़ लिखे थे तुम्हारी शहादतके पहले, अब हर उस कसीदे को मर्सिया हम बनाएं कैसे।फुरसत हो, ऐ नबी, तो फिर से आना हमारी दुनिया में,ये न सोचना कि इतना होने के बाद अब हम जाएँ कैसे।akhilkatyalpoetry.blogspot.com
कैसे
Akhil Katyal, शुक्रवार, 27 अगस्त 2010
सदस्यता लें
टिप्पणियाँ भेजें (Atom)
कश्मीर के हालिये-सुरत को बयां करती बहुत खूबसूरत प्रस्तुति है
बधाई हो..
wah
achha prayas hai.