Visit blogadda.com to discover Indian blogs कठफोड़वा: अगस्त 2010

डायन

डायन है सरकार फिरंगी, चबा रही हैं दांतों से,
छीन-गरीबों के मुहं का है, कौर दुरंगी घातों से।
जिस तरह से एक समय में फिरंगी सरकार डायन थी उसी तरह से आज महंगाई डायन हो गयी है. उस फिरंगी सरकार और वर्तमान सरकार के बीच कई दशकों का फासला है लेकिन अभिव्यक्ति के स्वर और उनके आयाम नही बदले. आखिर इस सरकार और महंगाई के लिए कोई पुरुष उपमा भी तो दी जा सकती थी ?

यह पहली बार नही है जब डायन शब्द का इस्तेमाल समाज में व्याप्त किसी बुराई को दर्शाने के लिए किया गया हो. रांगेय राघव ने फिरंगी सरकार की फितरत बताने के लिए डायन का इस्तेमाल किया था लेकिन आज इस दौर में जब डायन प्रथा निरोधी अधिनियम को लागू किया जा रहा है वहां महंगाई को डायन का रूप देने से स्त्री की पहचान और छवि को गहरा आघात लग सकता है.

हमारे देश में जादू-टोना करने वाले पुरुष को ओझा कहा जाता है जिसको समाज में सम्मान की नज़रों से देखा जाता है लेकिन वहीँ ऐसी महिलाओं को डायन कहा जाता है और डायन की छवि ऐसी बन गयी है की वह किसी को भी अपने जादू-टोने से ख़तम कर सकती है पीपली लाइव के शब्दों में-सखी सैयां तो खूबे कमात हैं, महंगाई डायन खाए जात है. इस गाने की लोकप्रियता एक तरफ तो महंगाई की मार झेल रहे लोगों की आवाज बन रही है दूसरी तरफ उन सैकड़ों महिलाएं जिनका डायन के नाम पर पुरुष समाज शोषण कर रहा है उनके शोषण को बढ़ावा भी दे रहा है जो की सीधे-सीधे एक कुप्रथा और अन्धविश्वास को बढ़ावा देना है 

जिस तरह से एक समय में फिरंगी सरकार डायन थी उसी तरह से आज महंगाई डायन हो गयी है. उस फिरंगी सरकार और वर्तमान सरकार के बीच कई दशकों का फासला है लेकिन अभिव्यक्ति के स्वर और उनके आयाम नही बदले. आखिर इस सरकार और महंगाई के लिए कोई पुरुष उपमा भी तो दी जा सकती थी ? सवाल सिर्फ इतना ही नही है बल्कि मानसिकता का है. असल में हमारे पुरुष-प्रधान समाज ने अपने मतलब की खातिर डायन की ऐसी छवि विकसित की है जो गाँव के लोगों पर काला जादू करती है और उन्हें अपने वश में कर लेती है और उनसे अपना मनमाना काम कराती है लेकिन सच्चाई कुछ और है बिहार-झारखण्ड में हर साल सैकड़ों महिलाएं इसकी शिकार बनाई जाती है, किसी को नंगाकर गाँव में घुमाया जाता है, किसी को पेंड से बाँधकर पीटा जाता है, किसी को जिंदा जला दिया जाता है  और कितनो की तो मार-मारकर हत्या कर दी जाती है. 

रवीन्द्र केलेकर को श्रद्धांजलि

गाँधीवादी विचारक, कोकणी एवं मराठी के शीर्षस्थ लेखक और पत्रकार रवीन्द्र केलेकर का कल गोवा में देहावसान हो गया। कोंकणी भाषा के लिए दिए गए पहले ज्ञानपीठ पुरस्कार से सम्मानित रवीन्द्र केलेकर का जन्म सन १९२५ में हुआ था। उनकी अभी तक कोंकणी, हिन्दी व मराठी में विविध विधाओं के अंतर्गत बत्तीस से अधिक पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी है।

केलेकर का लेखन संघर्षशील चेतना की अदभुत अभिव्यक्ति है। उन्होंने व्यक्तिगत जीवन की कथा-व्यथा न लिखकर जन-जीवन के विविध, पक्षों, मान्यताओं और व्यक्तिगत विचारों को देश और समाज के परिप्रेक्ष्य में प्रस्तुत किया है। अनुभवी विमर्श से अपने चिन्तन की मौलिकता के साथ ही विविध प्रसंगों के माध्यम से मानवीय सत्य तक पहुँचने की सहज चेष्टा है। उन्हें ज्ञानपीठ पुरस्कार के अलावा पद्मभूषण, भाषा भारती सम्मान, साहित्य अकादमी अनुवाद पुरस्कार, गोवा कला अकादमी पुरस्कार, केंद्रीय हिन्दी निदेशालय पुरस्कार, गोमन्त शारदा पुरस्कार आदि प्राप्त हो चुके हैं।

कैसे

यहाँ हर दिल में है दोज़ख की आग, उसको बुझायें कैसे,
ज़मीन की इस जन्नत को फिर से जन्नत बनाएं कैसे।

पत्थर कश्मीर कि सड़कों पर गिर कर भी घिसते नहीं,
हिन्दुस्तां हर पत्थर से आज़ादी का नाम मिटाये कैसे।

चाहते तो ये हैं कि बदल दें जो खुदा ने तकदीर में लिखा,
पर उसके कागज़ पर उसका हि दस्तख़त हम बनाएं कैसे।

ऐ तेहरीक के अजनबी, जो लब्ज़ लिखे थे तुम्हारी शहादत
के पहले, अब हर उस कसीदे को मर्सिया हम बनाएं कैसे।

फुरसत हो, ऐ नबी, तो फिर से आना हमारी दुनिया में,
ये न सोचना कि इतना होने के बाद अब हम जाएँ कैसे।

ख़त तो तुम लिखने बैठे, अखिल, पर इस वतन में डाकखाने

हि नहीं, अब अपना पैगाम उस मुल्क तक पहुँचवायें कैसे।




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लिखता हूं, ताकि कुछ तो हलचल हो-प्रेमपाल शर्मा

कहानी-लेखन का विचार सबसे पहले कैसे आया?
मैं पश्चिम उत्तरप्रदेश के एक गांव में पैदा हुआ हूं। घर का पुश्तैनी काम खेती करना था। अक्सर मेरा बचपन खेल में हल चलाते ही बीता है। हालांकि पिताजी प्राइवेट नौकरी में थे। घर में साहित्यिक पत्रिकाएं आती रहती थीं। कहानियों से मेरा पहला परिचय उन्हीं किताबों को पढक़र हुआ। प्रेमचंद को मन से पढा। मन्मथनाथ गुप्त के क्रान्तिकारी विचारों ने काफी प्रभावित किया। इसी मोड पर मेरी पहली कहानी 'ऊपरी व्याधा' आई, जिसमें पडाेस में रहने वाली एक भाभी का जिक्र है, जो काफी झगडालू स्वभाव की है। उसपर अक्सर गांव की भाषा में कहें तो भूत आ जाता था। ऐसा करने के पीछे कारण यह था कि उसे लोगों की सहानुभूति मिल जाती थी। उसके बाद कहानी आई 'दलित दोस्त'। वह एक बडे परिवार से आता था। मेरे घर उसका बराबर आना-जाना था। गांव के माहौल में ये चीजें अलग रूप न ले लें, इस बात से भी डरा रहता था। मैंने मां को कभी उसकी जाति के बारे में नहीं बताया। दरअसल दिमाग में ये था कि आखिर बताऊं भी तो क्यों बताऊं? तीसरी कहानी आई 'दोस्त' जो बाद में किसी और नाम से छपी। इसके बाद 'मां और बेटा' जिसमें एक ऐसे दोस्त का जिक्र है जो अपनी मां की मौत को भी बहुत ही हल्के रूप से लेता है। इसके बाद तो कहानी लिखने का लंबा सिलसिला चलता रहा।

साहित्यिक पत्रिकाओं में छपने का सिलसिला कब शुरू हुआ?
'सारिका' में एक नियमित कॉलम छपता था 'आते हुए लोग' जिसमें मेरी पहली कहानी छपी 'तीसरी चिट्ठी'। तब तक मेरी नौकरी दिल्ली के रेल विभाग में लग चुकी थी। नौकरी के एक दो साल बाद जब गांव जाना हुआ, तो आस-पास के लोग कहने लगे- 'बेटा, अब तुम तो दिल्ली में सेटल हो ही गए हो, तो मेरे बच्चे को भी कहीं ढंग की जगह पर लगा दो।' हालांकि उन दिनों भी किसी के लिए नौकरी लगाने की स्थिति बडी विकट होती थी। बीच-बीच में नौकरी से जब समय मिलता, इधर-उधर हाथ भी मारता रहता था। लेकिन जब उसकी गांव में शादी हो गई, तो सोचा बुला ही लेता हूं दिल्ली। परिवार के लोगों ने कहा-भई, बुला तो लोगे, पर रखोगे कहां। उन दिनों किराए के छोटे से कमरे में रहना होता था। पत्नी की चिंता भी जायज थी। असमंजस में चिट्ठी का जवाब ही नहीं दिया। बाद में पता चला कि उसने पारिवारिक परेशानियों से आजिज होकर किसी सिंदूर फैक्ट्री में नौकरी कर ली, जिसके रासायनिक वातावरण में काम करने से उसको सांस की बीमारी रहने लगी और जल्द ही उसकी मौत भी हो गई। आज भी उस घटना को याद करता हूं तो सिहर जाता हूं। एक ही बात जेहन में रहती है कि काश, उसको दिल्ली ही बुला लिया होता। इस कहानी के बाद तो हंस, सारिका, दिनमान, आजकल में छपने लगा। लोग पूछते हैं कि गांव पर ज्यादा कहानियां क्यों नहीं लिखी। सोचता हूं, महानगर की भाग-दौड से फुरसत मिले तो इनपर जरूर लिखूं।


नौकरी की व्यस्तताओं के बीच कहानी-लेखन को साधना तो बडा मुश्किल होता होगा...
हां, कॉलेज से निकलते ही नौकरी में चला आया था। वो 77 का दौर था। इमरजेंसी के दौरान जेपी मूवमेंट से जुडने के कारण राजनीतिक और बौध्दिक स्तर पर सक्रियता बढ ग़ई थी। पहली प्रयास में ही आईएएस के इम्तिहान में सर्वोच्च स्थान पाने में सफल हुआ तो इसके पीछे वजह मेरी राजनीतिक सक्रियता को ही था, न कि कॉलेज की पढाई। पहले साहित्य मेरे लिए पहले स्थान पर था, नौकरी बाईप्रोडक्ट। लेकिन देखते-देखते प्राथमिकताएं बदलीं और नौकरी की आपा-धापी ने पहला स्थान ले लिया। लेकिन इन व्यस्तताओं के बीच थोडा भी समय मिलता है, तो उसे साहित्य-साधना में लगाता हूं।


आपने 'चूहा और सरकार' व्यंग्य में सरकारी अधिकारियों के विदेश यात्रा के बहाने तलाशने, भाई-भतीजावाद और इसमें सामाजिक न्याय का ख्याल रखने को प्रमुखता से उठाया है। क्या चूहे पकडने के मामले में भी हमें विदेशों से सीखने की जरूरत महसूस होती है?
मैंने विदेश यात्राओं पर कई कहानियां लिखी हैं। विदेश यात्राओं में जाने वाले सरकारी अधिकारियों में भी वरिष्ठ और कनिष्ठ का खास ख्याल रखा जाता है। मैंने इसके पीछे का सच भी देखा है। जब सरकारी अधिकारी विदेश दौरे पर जाते हैं, तो अपनी भूखी, अतृप्त इच्छाओं को दबा नहीं पाते। चाहते हैं कि तमाम विदेशी चीजों को घर में बटोर लें। इसपर मैंने एक कहानी 'मेड इन इंग्लैंड' लिखी है, जिसमें ऐसे अधिकारियों को ही ध्यान में रखकर लिखा गया है। दूसरी कहानी पेटू सरकारी अधिकारियों पर लिखा गया 'पिज्जा और छेदीलाल' जिसकी हजार प्रतियां देखते ही देखते रेलवे के अधिकारियों ने ही खरीद लीं। कहानी अप्रत्याशित रूप से चर्चा में रही। दरअसल ऐसी जगहों पर जाने के बाद प्रशिक्षण का ख्याल इनके मन में नहीं रहता। बस एक ख्याल होता है कि इसे अपने निजी टूर में कैसे बदलें। उनकी पत्नियां दूसरों पर विदेश यात्रा का रौब गांठने के लिए अक्सर चर्चा करती हैं। विदेश यात्रा बच्चों को बताने की चीज भर बनकर रह जाती है। इसमें ट्रेनिंग का अर्थ कहीं खो जाता है।


कथाकार संजीव जिनकी आर्थिक बदहाली का जिक्र कभी आपने अपनी रचनाओं में किया है, की तरह ही राजधानी के वैसे साहित्यकार नहीं रह रहे जिनके पास रोजगार का कोई दूसरा विकल्प नहीं।
संजीव की अच्छी याद दिलाई आपने, दोस्त। दरअसल साहित्य में कई ऐसे लोग हैं, जो अच्छा लिख-पढ रहे हैं, लेकिन उनको वो जगह नहीं मिल पाती। दिल्ली में कई ऐसे लोग मिल जाएंगे, जो अबूझ कविताएं लिख रहे हैं, लेकिन किसी अकादमी के अध्यक्ष पद पर सुशोभित हैं, तो कोई संस्कृति मंत्रालय से फेलोशिप ले रहे हैं। क्या संजीव जैसा गंभीर लेखक प्रूफ रीडिंग कर एक छोटे से कमरे में जिंदगी गुजार देगा, जो राजनीति की चांडाल-चौकडी में अपने को असहज महसूस करता है। संजीव ने अपने एक कहानी में इस बात को गंभीरता से उठाया है कि कैसे डॉक्टरी की तैयारी करती नायिका संघमित्रा माओवादियों के संपर्क में आ जाती है? सामंतवादी व्यवस्था की चूलें हिलाने के लिए कॅरियर को भी दांव पर लगाने को तैयार दिखती है। कोई किन परिस्थितियों में माओवादी बनता है, इसका कच्चा चिट्ठा संजीव ने बहुत पहले ही अपनी रचनाओं में व्यक्त किया है।


आपने एक जगह कहा था कि स्वतंत्र भारत के यथार्थ से तो स्वतंत्रता के पहले का यथार्थ अच्छा था। क्या अभी भी ऐसा महसूस करते हैं?
हमारे यहां आजादी के समय गणेश शंकर विद्यार्थी, अज्ञेय, निराला, महादेवी वर्मा की लंबी परंपरा रही है। राष्ट्रीय मसलों में इनकी भागीदारी तो होती ही थी, साथ ही गांधी, नेहरू के संपर्क में निरंतर अपने को निखारते भी थे। राजमोहन गांधी का भाषण सुना जिसमें उन्होंने 'यूनिटी इन इनिमिटी' का जिक्र किया है यानी शत्रुओं के बीच एकता। इकट्ठे तो हो गए एक शत्रु को देखकर, लेकिन आगे क्या करना है, इसका पता नहीं। आजादी के बाद गांधी की कांग्रेस से दूरी बढती गई, तो नेहरू गांधीवादी खेमे से दूर अपनी गोटी बिठाने मे लगे रहे, पटेल अलग अपना राग अलापते रहे। सभी आदर्श लडख़डाकर बिखर गए। आज के दौर में 70 के बाद जो पतन हुआ या फिर ग्लोबलाइजेशन के बाद की बात करें तो समाज का अधोपतन ही हुआ है। हम गर्त में नीचे और नीचे गिरते जा रहे हैं।
छल-कपट समाज में हावी होता जा रहा है। संबंधों का ताना-बाना बिखर गया है। हम गरीबी पैदा कर रहे हैं। आज दुख के साथ कहना पड रहा है दोस्त, शायद देश की आजादी समर्थ हाथों में नहीं सौंपी गई, इसलिए हमारा यह हाल हुआ है।
आज कल आप क्या कर रहे हैं?
पिछले दिनों 'अजगर करे ना चाकरी' तीसरा कहानी-संग्रह छपा है, जिसकी नामवर जी ने एक चैनल पर काफी तारीफ भी की है। नए कहानी-संग्रह पर काम कर रहा हूं। हर उस विधा पर लिखना चाहता हूं, जिससे समाज में कुछ परिवर्तन की गुंजाइश बनती हो।
वरिष्ठ कथाकार प्रेमपाल शर्मा से चंदन राय की बातचीत पर आधारित

आर.टी.आई. कार्यकर्ता : नए कानून के नए शिकार

साथियों चिन्मय भाई ने सूचना के अधिकार पर काम कर रहे कार्यकर्ताओं की हत्याओं के सम्बन्ध मैं एक विचारोत्तेजक आलेख लिखा है | आप सब के बीच मैं रख रहा हूँ |


समय की मुठभेड़ों ने ईजाद किया है मुझको,
मैं चाकू हूँ, आंसुओं में तैरता हुआ......।

चन्द्रकांत देवताले


सूचना का अधिकार कानून के सहारे गुजरात के गिर के जंगलों में अवैध खनन् के खिलाफ संघर्ष करने वाले 33 वर्षीय अमित जेठवा की हत्या के साथ इस वर्ष के पहले सात महीनों में सूचना का अधिकार कानून के कार्यकर्ताओं की हुई हत्याओं की संख्या 8 तक पहुंच गई है। अमित जेठवा की 20 अक्टूबर को अहमदाबाद उच्च न्यायालय परिसर में गोली मारकर हत्या कर दी गई थी। इस वर्ष 3 जनवरी को सतीष शेट्टी की पुणे महाराष्ट्र, 11 फरवरी को विश्राम लक्ष्मण् डोडिया की अहमदाबाद, गुजरात, 14 फरवरी को शशिधर मिश्रा, बेगुसराय, बिहार, 26 फरवरी को अरुण सावंत, बदलापुर महाराष्ट्र 11 अप्रैल को सोला रंगाराव, कृष्णा जिला आंध्रप्रदेष, 21 अप्रैल को विठ्ठल गीते, बीड जिला महाराष्ट्र और 31 मई की दत्ता पाटिल, कोल्हापुर महाराष्ट्र की भी नृषंस हत्याएं कर दी गई थीं।

उपरोक्त सभी हत्याओं के संबंध में संबंधित राज्य सरकारों का एक रटा-रटाया जवाब है, 'मामले की जांच चल रही है। हम शीघ्र ही दोषी को पकड़ लेंगे।' गौरतलब है कि जिन 8 आर.टी.आई. कार्यकर्ताओं की हत्या हुई है, उनमें से दो कार्यकर्ताओं सतीष शेट्टी और विश्राम लक्ष्मण डोडिया ने तो संबंधित राज्य सरकारों से पुलिस सुरक्षा की भी मांग की थी, जिस पर सरकार ने ध्यान ही नहीं दिया? नतीजा सबके सामने है। इसके अलावा पिछले 7 महीनो में देश भर में आर.टी.आई. कार्यकर्ताओं पर 20 गंभीर प्राणघातक हमले भी हुए हैं।

इन घटनाओं ने अक्टूबर 2005 से अस्तित्व में आए सूचना का अधिकार कानून के खतरनाक पक्ष को सामने ला खड़ा किया है। इनमें यह संदेश भी जा रहा है कि भारत में कानून का इस्तेमाल सिर्फ शासन और प्रशासन जनता के खिलाफ कर सकता है। अगर जनता सूचना का अधिकार कानून के माध्यम से किसी को कटघरे में खड़ा करना चाहती है तो उसका हश्र भी देख लो। इस संदर्भ में भारत में मुख्य सूचना आयुक्त वजाहत हबीबुल्लाह का कहना है, 'सूचना का अधिकार कानून का प्रभाव अब स्पष्ट रूप से दिखने लगा है, जो लोग सूचना को बाहर नहीं आने देना चाहते वे खतरनाक तरीके अपना रहे हैं।'

सवाल यह उठना है कि अंतत: सूचना कौन-कौन दबाना चाहते हैं? इसमें सिर्फ वे गैर सरकारी व्यक्ति नहीं हैं, जो अपने विरुध्द संभावित कार्यवाही से घबराकर हत्या तक करने से बाज नहीं आ रहे हैं। दुख की बात है कि आरटीआई कार्यकर्ताओं को सरकारी उत्पीड़न का भी सामना करना पड़ रहा है। पिछले वर्ष से दिल्ली स्थित पब्लिक काज रिसर्च फाउंडेशन ने सूचना का अधिकार कार्यकर्ताओं के लिए एक राष्ट्रीय पुरस्कार देने की शुरुआत की है। इसके अंतर्गत प्रथम पुरस्कार प्राप्त करने वाले आरटीआई कार्यकर्ता आसाम के अखिल गोगोई को भ्रष्टाचार के मामले सामने लाने की सजा के बतौर कई बार जेल भी जाना पड़ा था। देशभर में ऐसे अनगिनत मामले सामने आ रहे हैं।

देश का शासन, प्रशासन, उद्योग वर्ग, बाहुबली, भू-माफिया आदि यह बात हजम ही नहीं कर पा रहे हैं कि उनसे कोई कुछ पूछ भी सकता है। प्रधानमंत्री के स्तर पर इस कानून में बदलाव की पैरवी होने से इन तत्वों के हौंसले एकाएक बढ़ते नजर आ रहे हैं। आजादी के 6 दशक बाद पहली बार जनता को पूछने का हक मिलने से वह काफी संतोष का अनुभव कर रही थी। परंतु इन हिंसक वारदातों के माध्यम से उनका मनोबल तोड़ने का प्रयास किया जा रहा है। इस बीच उत्तरप्रदेश के सूचना आयुक्त ब्रजेश कुमार मिश्रा ने एक शिकायतकर्ता रामसेवक वर्मा के खिलाफ पुलिस जांच के आदेश दिए हैं। सूचना आयुक्त का मानना है कि यह व्यक्ति सरकारी अधिकारियों को परेशान करता है। अब इसके बाद और क्या कहा जा सकता है?

इस संदर्भ में एक और घटना पर गौर करना आवश्यक है। मध्यप्रदेश के बड़वानी जिले में जागृत आदिवासी दलित संगठन, महात्मा गांधी नरेगा, स्वास्थ्य सेवाओं में अनिमितताओं, राशन दुकानों से खाद्य वितरण जैसी समस्याओं के संबंध में कई बार आरटीआई के माध्यम से जानकारी लेकर और कई बार सीधे भी संघर्ष करता है। आदिवासियों का संघर्ष पूर्णत: शांतिपूर्ण होता है। इसलिए प्रशासन उनके विरुध्द ज्यादा सख्त धाराएं लगाने में असमर्थ रहता है। आदिवासियों में बढ़ती जागरूकता को दबाने के लिए अंतत: प्रशासन ने अपने हथकंडे अपनाए और इस संगठन के प्रमुख कार्यकर्ता वालसिंह को लूट और लकड़ी की तस्करी के आरोप में गिरफ्तार कर लिया। इस प्रकार भ्रष्टाचार का विरोध करने वाला स्वयं ही अपराधी करार कर दिया गया। यही वास्तविक भारतीय शासनतंत्र है।

यह लेख लिखते-लिखते ही समाचार मिला कि उत्तरप्रदेश के बहराइच जिले के कटघर गांव का रहने वाला विजय बहादुर उर्फ बब्बू सिंह जो लखनऊ में होमगार्ड में पदस्थ था, उसने अपने गांव में हो रहे निर्माण में बरती जा रही अनिमितताओं को लेकर आरटीआई के अंतर्गत आवेदन दिया था। इस बार जब वह गांव में आया तो संबंधित पक्षों ने 27 जुलाई को उसकी हत्या कर दी। इस तरह इस साल हत्याओं का यह आंकड़ा 9 तक पहुंच चुका है। पुणे महाराष्ट्र में मारे गए सतीश शेट्टी ने 10 वर्ष पूर्व पुणे मुम्बई एक्सप्रेस-वे परियोजना में हुए भूमि सौदों में भ्रष्टाचार उजागर किया था। वर्तमान में वे एक कंपनी द्वारा धोखाधड़ी करके अधिग्रहित की गई 1800 एकड़ भूमि से संबंधित दस्तावेजों को शासन से प्राप्त करने में प्रयासरत थे। वही बब्बू सिंह इसके मुकाबले बहुत छोटे भ्रष्टाचार का भंडाफोड़ करना चाहते थे। परंतु दोनों को अपनी जान से ही हाथ धोना पड़ा।

आरटीआई कार्यकर्ता आम आदमी की तकलीफों को समझते हुए स्वयं को एक हथियार में परिवर्तित कर रहे हैं। सेना में संघर्ष के दौरान हुई मृत्यु को 'सर्वोच्च बलिदान' की संज्ञा दी जाती है। हम सबके लिए संघर्ष करने वालों के बलिदान को क्या इससे 'कमतर' आंका जा सकता है? मगर यह हम सबका दुर्भाग्य है कि इन कार्यकर्ताओं की असामयिक मृत्यु अभी भी 'हत्या' की श्रेणी तक ही पहुंची है। हमें यह स्वीकार करना होगा कि हमारे ये कार्यकर्ता 'शहीद' हैं और उन्होंने देशहित में 'सर्वोच्च बलिदान' दिया है। इन कार्यकर्ताओं की शहादत देखकर श्रीकांत की ये पंक्तियां याद आ रही हैं,

मैं अपनी पीठ पर

अपनी कब्र के

पत्थर सा

ढोता

संसार !

- चिन्मय मिश्र
आप "सर्वोदय प्रेस सर्विस" के सम्पादक हैं |