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श्रमशील स्त्रियों पर स्वतंत्र विमर्श जरूरी: मंडलोई


यूरोप के नारी-स्वातंत्र्य को भारतीय परिवेश में लागू नहीं किया जा सकता। आदिवासी, दलित, निम्न जातियों की स्त्रियों की पीडा को समझने के लिए अलग नजरिए से चीजों को देखना होगा। श्रमशील स्त्रियों की चिंताओं को आधुनिक विचार के दायरे में लाना होगा। हालांकि इन स्त्रियों के उध्दार के लिए कोई अलग से रूप-रेखा समाज में दिखाई नहीं देती

स्कूल में मजदूर बच्चों के साथ गाली-गलौज होने पर आप सहपाठियों से मार-पीट पर उतारू हो जाते थे। आपने कभी कहा भी था कि अगर कवि नहीं होता, तो गुंडा-मवाली होता। इस उग्र तेवर ने कविता-लेखन की ओर कैसे प्रेरित किया?
ये तो बचपन के दौर की बातें हैं, जब कविता-लेखन शुरु भी नहीं किया था। घर के माहौल, आस-पास के परिवेश और सांस्कृतिक माहौल ने कभी गलत रास्ते पर जाने नहीं दिया। हालांकि पूरी गुंजाइश थी बिगडने की। मेरे भीतर बहुत गुस्सा भरा था जीवन की विपरीत परिस्थितियों को लेकर। इसके कारण मेरी सहपाठियों से मार-पीट और गाली-गलौज भी हो जाती थी। अगर अच्छा सांस्कृतिक माहौल न मिलता, तो जरूर वैसा ही हो जाता। घर की शिक्षा का वातावरण एवं खासकर मां जिनकी रुचि रामायण, धार्मिक-ग्रन्थों में थी, ने अच्छे संस्कार बचपन से ही डाले। पिता कबीर के गीतों को गाते थे। मानस-पाठ भी घर पर बराबर होता रहता था। कुछ इन्हीं कारणों से कभी गलत रास्ते पर नहीं भटके।

'तोडल मौसिया' जैसे किरदार क्या आज भी ग्रामीण परिवेश में देखने को मिलते हैं?
अभी भी कई ऐसे किरदार ग्रामीण परिवेश में मिल जाएंगे, जहां तक अभी नई हवाएं नहीं पहुंची हैं। खेती, किसानी, गरीबों की बस्तियों में अभी भी जीवन वैसे ही ठहरा है। किताबी शिक्षा तो वहां पहुंची नहीं, लेकिन जीवन की किताब से उन्होंने बहुत कुछ सीखा है। हाशिए के जीवन पर ऐसे किरदार बहुतायत में हैं-परसादी, श्री कृष्ण इंजीनियर, दमडू नाई अभी भी जिंदा हैं। लेकिन इनसे मिलने के लिए घुमक्कडी ज़ीवन जीना होगा, यायावर की तरह भटकना होगा। गांवों, सतपुडा जैसे घने जंगलों की खाक छाननी होगी। तोडल मौसिया ने तो गांव का भाईचारा निभाने के लिए जीते-जी अपना श्राध्द-कर्म कर लिया था ताकि पूरे गांव को एक साथ जिमाया जा सके। वे शादी-शुदा तो थे नहीं, गांव के हर भोज में उनकी उपस्थिति जरूरी थी तो उन्हें यह बुरा लगता कि वे ऐसे ही मरें और क्रिया-कर्म के बाद गांववालों को खिलाने वाला भी कोई न हो। तो उन्होंने लोगों को बिना कारण बताए पूरे गांव को न्यौता दे डाला। तो ऐसे थे हमारे तोडल मौसिया।

आपने बचपन में गरीबी को काफी नजदीक से महसूस किया है। कविता में 'श्रम-शक्ति को प्रतिष्ठा' देने के पीछे क्या यह भी एक वजह रही?
हां, ये तो है ही। लेकिन कुछ लोग अपने संदर्भ में ही नहीं, समाज के संदर्भ में भी जीते हैं। दरअसल कोई रचना सामाजिक परिप्रेक्ष्य को ध्यान में रखकर ही लिखी जाती है। मैं लिखता हूं, तो इसमें आस-पास के तमाम लोगों की जिंदगियां भी शामिल होती हैं। ये सभी स्मृति का हिस्सा हैं, जो जाने-अनजाने आपकी रचनाओं में चले आते हैं। ऐसा ही कोई भी रचनाकार करता है। मेरे अनुभव को ही देखें तो यह किसी भी मजदूर के अनुभव से मिलता जुलता होगा, जो दुनिया में कहीं का भी हो सकता है। मैंने कविता में एक जगह दमडू कक्का का जिक्र किया है, जो नाखून बनाने के लिए आया करते थे। शायद आपने पढी हो...
जी, उस कविता में कुछ ऐसा भाव था- 'देखता हूं नाखून तो, बस एक तीखी याद हिडस भरी, वह जो होती तो होते कक्का कहीं, नेलकटरों के इस दौर में, काट तो लेता हूं लेकिन रगडने की मशक्कत, सुविधा कोई कला नहीं।' इसी संदर्भ में आपने एक हुनर के मौत के गर्त में समा जाने की चर्चा भी की है।
हां, कुछ ऐसा ही भाव था। इस समाज में कई कलाएं यूं ही विलुप्त होती जा रही हैं, जिसकी ओर हमारा ध्यान नहीं जा रहा। इस भाग-दौड भरी जिंदगी में लोगों के पास समय ही कहां है कि इनके बारे में भी कुछ सोच सकें।

समुद्री हवाओं से उठते नमक की गंध, सघन वन की नीरवता और आदिम जन-जातियों का संगीत-आपकी कविता को व्यापक फलक देते हैं। प्रकृति से जुडाव आपने कब महसूस किया?
मेरा बचपन तो सतपुडा के जंगलों में ही बीता। चारों ओर प्रकृति अपने तमाम सौंदर्य को समेटे आस-पास ही पसरी थी। सरसराती हवाएं, चहचहाते पक्षी, पेडों से छनकर आती गोलाकार रोशनियों का पुंज, ऊंची पर्वत श्रृंखलाएं, खूंखार जंगली जानवर से लेकर आदिवासियों का जन-जीवन तक सबकुछ तो जीवन के संगीत के रूप में मौजूद था।
जरूरत थी, तो उस बिखरे संगीत को गुनगुनाने की। प्रकृति एवं जीवन के संगीत को बहुत नजदीक से सुनने का मौका मिला। प्रकृति में सौंदर्य तो है ही, जीवन का संघर्ष भी मौजूद है। इन सबों को अलग कर देखने की जरूरत नहीं। सतपुडा के जीव-जंतु, आदिवासी, वहां के बोल को संदर्भ से काटकर देखना कठिन होगा। मालवा, छत्तीसगढ, अंडमान-निकोबार न जाने कहां-कहां घुमक्कडी करता रहा। आदिवासी, समुद्र का संबंध तो जीवन का हिस्सा ही बन चुके हैं।

जीवन का बोध, जीवन-संघर्ष से ही अर्जित किया जाता है। निराला, मुक्तिबोध, नागार्जुन की लंबी परंपरा हमारे यहां रही है। वातानुकूलित कमरों में बैठकर साहित्य-सृजन को आप किस रूप में देखते हैं, जहां प्रकृति एवं आमजनों का संघर्ष नहीं दिखता?
हमारा समय तो रिएलिटी पर आधारित था। लेकिन आज रिएलिटी के साथ वर्चुअल रिएलिटी का भी दौर है। चीजें वर्चुअल ज्यादा हो गई हैं। स्क्रीन, फिल्मों, पत्र-पत्रिकाओं ने देखने की एक दृष्टि पैदा की ही है। जो रचनाकार जैसा होगा, उसी हिसाब से चीजों को देखेगा। जहां एक तरफ आज सही कविताएं हैं, तो दूसरे तरह की कविताएं भी मौजूद हैं। विशुध्द अनुभव से कविता तो क्या, कोई भी विधा नहीं लिखी जा सकती। जीवन का संघर्ष झेलने के बाद ही उनकी गहनतम पीडा रचनाओं में झलकती हैं और रचनाएं लोगों के दिलों में जगह बना पाती हैं।

भवानी प्रसाद मिश्र ने आदिवासी समाज के सामने अपनी अकिंचनता व्यक्त करते हुए कहा था-'मैं इतना असभ्य हूं कि तुम्हारे गीत नहीं गा सकता।' विलुप्त होते आदिवासी समाज की पीडा आपकी रचनाओं में मुखर हैं। आज आपके जन्मस्थान छिंदवाडा में उनकी क्या स्थिति है, किन हालातों में जीने को मजबूर हैं वे?
आदिवासी समाज तो पहले भी उपेक्षित था, आज भी हालात कमोबेश वैसे ही हैं। ग्लोबलाइजेशन के दौर में बाजार एवं सत्ता का घिनौना खेल जंगलों तक जा पहुंचा है। औद्योगिकरण के नाम पर जंगलों में जमीन का अधिग्रहण किया जा रहा है, पेडों की कटाई जारी है। चाहे छत्तीसगढ हो, मध्यप्रदेश या हिमाचल प्रदेश। यह समाज कहीं भी मुख्यधारा में जगह नहीं बना पाया है। महाश्वेता देवी उन लोगों के बीच रह रही हैं, उन्हें शिक्षित कर रही हैं। कुछ और लोग भी लगे हैं। शिक्षा के कारण ही स्वतंत्र चेतना का विकास हो पाता है और कोई समाज विचारवान बनता है। स्वतंत्र रूप से सोचने का विकास इस समाज में नहीं हो पाया है। इनकी सादगी, सरलता को शहरी समाज अपने तरीके से छलता रहा है। दरअसल जब तक वे शिक्षा से महरूम रहेंगे, विचार का आलोक उन तक नहीं पहुंचेगा, मुख्यधारा में जगह बना पाना मुश्किल होगा।

शहरी जीवन की चिंताएं एवं मध्यवर्ग के दोहरे चरित्र की ओर आपका ध्यान क्यों नहीं गया?
नहीं, मेरी रचनाओं में शहरी वर्ग की चिंताएं भी शामिल हैं। ये मेरी रचनाओं कविता, गद्य, निबंध, लेख में तमाम जगह बिखरी पडी हैं। दरअसल शहरी मध्य वर्ग अपने में ही सिमटा हुआ समाज है। शहरी जीवन में मालिक वर्ग की मक्कारियों के आगे मजदूरों की चालाकियां कुछ भी नहीं। मुझे लगता है कि जो चीज उनका है और उन्हें नहीं दिया जा रहा है, उसे मालिकों से छीन लेने में कोई बुराई नहीं।

स्त्री-विमर्श शहर की मॉडर्न एवं बुध्दि विलास महिलाओं का शगल मात्र बनकर रह गया है? ऐसे में एक मजदूर स्त्री का वात्सल्य भाव, जब मिल का भोंपू बजते ही वह बच्चे को दूध पिलाने बरसात में भींगती दौड पडती है, की चिंताएं कहां जगह पाती हैं?
सीमित अर्थ में ही जगह बना पाई हैं। यूरोप के नारी-स्वातंत्र्य को भारतीय परिवेश में लागू नहीं किया जा सकता। आदिवासी, दलित, निम्न जातियों की स्त्रियों की पीडा को समझने के लिए अलग नजरिए से चीजों को देखना होगा। श्रमशील स्त्रियों की चिंताओं को आधुनिक विचार के दायरे में लाना होगा। हालांकि इन स्त्रियों के उध्दार के लिए कोई अलग से रूप-रेखा समाज में दिखाई नहीं देती। मजदूर या आदिवासियों के लिए स्वतंत्र विमर्श की जरूरत है। इनकी चिंताओं एवं संघर्ष को महसूस करना होगा। नई सोच का उत्खनन करना होगा, सीमित सोच से कुछ नहीं होनेवाला। महाश्वेता देवी के उपन्यास, नागार्जुन की कविताएं और कुछ जगह तो ये चिंताएं दिखती हैं। हालांकि स्पांसर्ड विमर्श में ये चीजें नहीं मिलेंगी।

आजकल आप क्या कर रहे हैं? फिल्म, डाक्यूमेंट्री, कविता या गद्य लेखन।
शमशेर जी और बिरजू महाराज पर डॉक्यूमेंट्री बनाने की तैयारी चल रही है। इन दिनों मूलत: गद्य लिख रहा हूं। उर्दू के प्रभाव वाली कविताओं का संकलन निकालने की भी योजना है। 'कवि का गद्य' जिसमें आलोचना, लेख, निबंध, डायरी और कॉलम भी शामिल होगा, पर भी एक किताब लिख रहा हूं।

नए लेखकों के लिए कोई संदेश।
युवा लेखकों को बंद कमरों से निकलकर समाज, देश, दुनिया को देखना, समझना होगा। यायावरी की जिंदगी जीनी होगी, घुमक्कडी क़र दुनिया के फलसफे को समझना होगा। यही एक रास्ता है।

वरिष्ठ कवि लीलाधर मंडलोई के साथ चन्दन राय की बातचीत

भारत ने प्रचंड की स‌रकार गिरवाई-आनंद स्वरुप वर्मा

आनन्द स्वरूप वर्मा देश के जाने माने पत्रकार और मानवाधिकार कार्यकर्ता हैं। संभवत: नेपाल की राजनीति और खासतौर पर वहां की माओवादी राजनीति पर भारत में उनसे ज्यादा गहराई के साथ कम ही लोग जानते हैं। अपनी बेबाक बयानी के लिए जाने जाने वाले वर्मा जी जब रौ में बोलते हैं तो इतना सच कि जुबां कड़वी हो जाए। जाहिर है सच कड़वा ही होता है। छपास डॉट कॉम के राजनीतिक संपादक अमलेन्दु उपाध्याय ने उनसे नेपाली माओवाद और भारत नेपाल संबंधों पर लम्बी बातचीत की। प्रस्तुत है उनसे बातचीत के प्रमुख अंश :-


आपकी फिल्म ‘फ्लेम्स ऑफ स्नो’ पर सेंसर बोर्ड ने पाबंदी क्यों लगा दी?

सेंसर बोर्ड का कहना है कि इस देश में अभी जो माओवादी आन्दोलन है, उसका जो विस्तार हुआ है उसे देखते हुए हम इस फिल्म पर रोक लगा रहे हैं। लेकिन हमारा कहना है कि इस फिल्म में भारत के माओवादी आन्दोलन के विषय में एक शब्द भी नहीं कहा गया है, कोई फुटेज भी नहीं है कोई स्टिल भी नहीं है। ऐसी स्थिति में अगर नेपाल के आन्दोलन पर, केवल माओवादी आन्दोलन पर नहीं बल्कि वहां के समग्र आन्दोलन पर कोई फिल्म बनाई जा रही है तो उसको यह बहाना देकर रोकना एकदम अनुचित है। क्योंकि यह फिल्म माओवादी आंदोलन के ऊपर नहीं है बल्कि उसके ऊपर केन्द्रित है। क्योंकि इस फिल्म की शुरूआत होती है जब पृथ्वीनारायण शाह ने नेपाल की स्थापना की थी यानि दो सौ ढाई सौ साल के दौरान जो आन्दोलन हुए उनकी झलक देते हुए यह माओवादी आन्दोलन पर केन्द्रित हो जाती है। क्योंकि यह मुख्य आन्दोलन था जिसने वहां राजशाही को समाप्त किया। अब अगर आप यह कहते हैं कि इस फिल्म से यहां के माओवादियों को प्रेरणा मिलेगी तो किसी एक जनतांत्रिक देश में इस तरह की बात कहकर किसी फिल्म को रोकना अनुचित है। तब तो अगर नेपाल के आन्दोलन पर कोई पुस्तक लिखी जाएगी तो भी प्रेरणा मिलेगी? यह स्थिति तो बिल्कुल जो हमारा फन्डामेन्टल राइट यानि अभिव्यक्ति की आजादी है उसका गला घोंटना है।


क्या भारत का माओवाद और नेपाल का माओवाद अलग-अलग है?

मेरे विचार में हर देश का माओवाद अलग-अलग होता है। क्योंकि जितने भी विचारक रहे हैं मार्क्स, लेनिन, स्टालिन, माओत्से तुंग या आज के दौर में प्रचण्ड, सबका यही कहना है कि मार्क्सवाद-लेनिनवाद जो एक सिद्धान्त है, उसको आप अपने देश की सांस्कृतिक, भौगोलिक, राजनीतिक और सामाजिक पृष्ठभूमि के अनुरूप लागू कीजिए। हर देश की राजनीतिक सामाजिक पृष्ठभूमि अलग होती है। नेपाल में राजतंत्र था और वहां एक जबर्दस्त सामंती राजनैतिक व्यवस्था थी। उसमें उन्होंने वहां किस परिस्थिति में माओवाद को लागू किया यह उनका मामला है। भारत के माओवाद और नेपाल के माओवाद में बहुत फर्क है। क्योंकि उन्होंने तो चुनाव में भी हिस्सा लिया और सरकार बनाई। जबकि भारत में अभी ऐसी स्थिति नहीं है। दोनों स्थितियों में फर्क तो काफी है। लेकिन नेपाल के माओवादी आन्दोलन से भारत के माओवादी आन्दोलन को प्रेरणा लेने का सवाल है, जैसा कि सेंसर बोर्ड कहता है तो वह यह भी प्रेरणा ले सकते हैं कि किस तरह कोई आन्दोलन आम जनता के बीच न केवल आदिवासियों के बीच पॉपुलर हो सकता है, मध्यवर्ग को भी प्रभावित कर सकता है, मध्यवर्ग को भी अपने दायरे में ले सकता है और वह एक निरंकुश व्यवस्था के खिलाफ सफल हो सकता है। तो दोनों में फर्क तो है। अब भारत में जो लोग हैं जो सत्ता में बैठे हैं जो सेंसर बोर्ड देख रहे हैं उनकी अकल इतनी नहीं है कि इतना विश्लेषण कर सकें।


क्या आपको लगता है कि भारत की सम्पूर्ण राजनीतिक व्यवस्था माओवादियों के खिलाफ हो चुकी है?

भारत के माओवादियों के?


जी भारत के माओवादियों के

नहीं यह तो एक दूसरा सवाल हो गया क्योंकि इसका मुझसे कोई मतलब नहीं है। ( हंसते हुए) अगर आप हमसे भारत के माओवादी आन्दोलन पर बातचीत करना चाहते हैं तो एक अलग बात है। हमसे तो नेपाल पर ही बात करें।


चलिए नेपाल पर ही केन्द्रित होते हैं। अक्सर यह आरोप लगते रहे हैं कि नेपाल के माओवादियों से भारत के माओवादियों को समर्थन और मदद मिलती रही है और नेपाली माओवादियों का रुख हमेशा से भारत विरोधी रहा है। क्या नेपाली माओवादी वास्तव में भारत विरोधी हैं?

इसके लिए तो आपको यह देखना होगा कि भारत के माओवादियों की केन्द्रीय समिति और उनके बड़े नेता गणपति के हस्ताक्षर से अब से एक डेढ़ साल पहले खुली चिट्ठी नेपाल के माओवादियों को लिखी गई जिसमें नेपाली माओवादी आन्दोलन की तीखी आलोचना की गई। इस पत्र में यह आलोचना की गई कि नेपाली माओवादी क्रांति का रास्ता छोड़ करके संशोधानवादी हो गए। यह तो दोनों के संबंधों की बात है। जहां तक नेपाल के माओवादियों से मदद मिलते रहने की बात है तो वह इस स्थिति में कभी नहीं रहे कि भारत जैसे किसी विशाल देश के किसी संगठन को मदद कर सकें। अगर आप दोनों देशों के एरिया और आबादी की और रिसोर्सेस से तुलना करें तो देखेंगे कि वह भारत के मुकाबले कहीं ठहरते ही नहीं हैं। ऐसे में वह अपने को संभालेंगे कि भारत के माओवादियों की मदद करेंगे। इसलिए कोई भौतिक मदद या इस तरह की मदद की बात नहीं है लेकिन बिरादराना संबंध वह मानते हैं। वह तो भारत के माओवादियों के साथ, पेरू के माओवादियों के साथ, कोलंबिया के माओवादियों के साथ, हर देश के माओवादियों के साथ एक बिरादराना संबंध मानते हैं। वैसे ही भारत के माओवादियों के साथ मानते हैं। इससे ज्यादा उनका कोई लेना देना नहीं है।


लेकिन प्रचण्ड प्रधानमंत्री बनते ही पहले चीन गए जबकि परंपरा रही है कि नेपाल का राजनेता पहले भारत आता है। वैसे भी हम नेपाल के ज्यादा नजदीक हैं, क्योंकि हमारे सदियों पुराने संबंधा नेपाल से हैं। इस कदम से नहीं लगा कि प्रचण्ड के मन में भारत के प्रति कोई गांठ है?

देखिए यह कौन सी परंपरा है कि कोई प्रधानमंत्री जो बनेगा वह पहले भारत आएगा? भारत कोई मंदिर है जो वहां जाएगा और मत्था टेकेगा? जहां तक मेरा सवाल है मैं इस परंपरा के एकदम खिलाफ हूं। दूसरी बात किन परिस्थितियों में प्रचण्ड भारत न आकर चीन गए उसे देखना पड़ेगा। किसी भी विषय पर बात करते समय उस पूरी प्रक्रिया को देख लीजिए न कि केवल परिणिति। केवल परिणिति को देखने पर सही निष्कर्ष पर नहीं पहुंचेंगे। वह पूरी प्रक्रिया क्या थी मैं आपको थोड़ा संक्षेप में बता दूं। वहां पर बीजिंग में ओलंपिक खेल चल रहे थे चीन में। खेलों के उद्धाटन के समय चीन ने वहां के राष्ट्रपति को निमंत्रण दिया। रामबरन यादव को, जो नेपाली कांग्रेस के हैं। वह जब निमंत्रण मिला तो भारत के नेपाल में राजदूत राकेश सूद ने राष्ट्रपति से कहा कि आप चीन मत जाइए, इससे भारत को अच्छा नहीं लगेगा। तो राष्ट्रपति ने कहा कि हम नहीं जाएंगे। अब केवल बात राष्ट्रपति और राकेश सूद के बीच की होती तो यह किसी भी तरह स्वीकार्य हो सकती थी। मुझे व्यक्तिगत तौर पर यह भी स्वीकार्य नहीं है। लेकिन डिप्लोमैटिक रूप से एकबारगी यह स्वीकार्य हो सकता है। लेकिन राकेश सूद ने यह जानकारी प्रेस को दी कि हमने मना कर दिया और राष्ट्रपति नहीं गए। अब नेपाल की आम जनता को यह बात बहुत अच्छी नहीं लगी कि हमारे राष्ट्रपति को एक, मतलब राष्ट्रपति तो बहुत बड़ा पद है न, राष्ट्रपति को एक ब्यूरोक्रेट भारत का मना कर दे और वह मान जाए। जब समापन समारोह के लिए, तब यह प्रचण्ड प्रधानमंत्री नहीं बने थे, 15 अगस्त 2008 को बने हैं, और उनको जाना था 16 या 17 अगस्त को, इनको भी निमंत्रण मिला समापन समारोह के लिए और प्रचण्ड ने स्वीकृति दे दी थी। राकेश सूद ने उन्हें भी मना किया कि आप मत जाइए। तब प्रचण्ड ने कहा कि मैंने स्वीकृति दे दी है तो फिर सूद ने कहा कि आप मत जाइए भारत को अच्छा नहीं लगेगा। उन्होंने कहा मैं क्यों नहीं जाऊं जब मैंने स्वीकृति दे दी है मैं जाऊंगा। और वह चले गए। मान लीजिए कि प्रचण्ड उस समय नहीं जाते और राकेश सूद इस बात को भी प्रेस में देता ही कि हमने मना किया तो एक संप्रभु राष्ट्र के राष्ट्रपति और प्रधाानमंत्री को भारत का राजदूत मना कर दे कि आप यह न करें वह न करो, यह उचित नहीं है। इसलिए अपनी देश की जनता की भावनाओं को देखते हुए प्रचण्ड के लिए चीन जाना जरूरी हो गया था। अगर राकेश सूद ने यह गड़बड़ियां नहीं की होतीं तो शायद वह इसको एवायड भी कर सकते थे। इसलिए इस घटना का विश्लेषण पूरी परिस्थिति देखकर ही करना चाहिए। हालांकि प्रचण्ड ने भी इसके बाद जो कहा मैं उससे भी बहुत सहमत नहीं हूं कि ‘मेरी पहली राजनीतिक यात्रा तो भारत की ही होगी। क्या जरूरत थी यह भी कहने की। नेपाल एक संप्रभु राष्ट्र है वह भारत का कोई सूबा नहीं है कोई प्रॉविंस नहीं है कोई प्रांत नहीं है।

देखने में आ रहा है कि माओवादियों का आन्दोलन नेपाल में भी कुछ कमजोर पड़ता जा रहा है और आम जनता पर उनकी पकड़ कुछ ढीली पड़ती जा रही है। क्या कारण हैं कि माओवादी कमजोर पड़ रहे हैं?

यह कहने का आधार कोई है?

जी बिल्कुल। अभी उन्होंने हड़ताल का आह्वान किया और लोगों ने सड़को पर उतरकर उसका विरोध किया तो उन्हें हड़ताल वापस लेनी पड़ी?

नहीं। एक मई को जो हड़ताल का आह्वान किया था, वह आप नेपाल के किसी भी सोर्स से पता कर लीजिए अखबार से, जो बुर्जुआ अखबार हैं उनसे मालूम कीजिए वह अब तक का सबसे बड़ा प्रदर्शन था। रहा सवाल यह हड़ताल वापस लेने का तो वैसे भी उस को चार पांच दिन से अधिक नहीं चलाते क्योंकि उससे वहां की आम जनता को काफी दिक्कतें उठानी पड़तीं। लेकिन एक चीज का ध्यान दीजिए कि राजतंत्र समाप्त तो हो गया, भौतिक रूप से समाप्त हो गया। लेकिन अभी तमाम राजावादी तत्व सभी पार्टियों में मौजूद हैं। सामन्तवाद वहां अभी मौजूद है, वह तो समाप्त नहीं हुआ है। तो बहुत सारे ऐसे तत्व हैं जो इस समय अपने को माओवादियों के खिलाफ लामबंद कर रहे हैं। पिछले एक वर्ष के दौरान माओवाद विरोधी ताकतों को नजदीक आने का एक अच्छा मौका मिला है। इसमें बहुत सारी अन्तर्राष्ट्रीय ताकतें जिसमें अमेरिका और स्वयं भारत भी शामिल है, इन्होंने माओवाद के खिलाफ तत्वों की मदद की है। निश्चित रूप से जो खबरें आई हैं वह सही हैं कि कुछ प्रदर्शन हुए हैं काठमांडू में लेकिन काठमांडू और शहर तो कभी भी माओवादियों के आधार नहीं रहे उनका आधार तो ग्रामीण इलाका है। काठमांडू में जरूर इस तरह के तत्व हैं लेकिन केवल इस आधार पर हम यह नहीं कह सकते कि उनकी पकड़ कमजोर पड़ गई है। क्योंकि जिस दिन माओवादियों की पकड़ कमजोर पड़ जाएगी उन्हें नष्ट करने में एक मिनट का भी समय वह ताकतें नहीं लगाएंगी जो उनकी विरोधी हैं।


प्रचण्ड ने बीच में एक बार आरोप लगाया था कि उनकी सरकार गिराने में विदेशी ताकतों का हाथ था और खासतौर पर उन्होंने भारत की तरफ इशारा किया था और आपने सुना भी होगा कि योगी आदित्यनाथ ने बयान दिया था कि राजतंत्र की बहाली के लिए वह नेपाल जाएंगे, बाबा रामदेव भी वहां गए और आरएसएस के प्रचारक इन्द्रेश जी के भी नेपाल में पड़े रहने की खबरें आई थीं। तो क्या आपको लगता है कि भारत की दक्षिणपंथी ताकतें माओवादियों के खिलाफ नेपाल में काम कर रही हैं?

जी हां, प्रचण्ड ने केवल संकेत ही नहीं दिया था बल्कि उन्होंने खुलकर कहा था कि भारत ने उनकी सरकार गिराने में पूरी मदद की थी। और उसकी वजह थी कि सेनाध्यक्ष रुकमांगद कटवाल वाला प्रकरण। कटवाल को जब प्रचण्ड ने बर्खास्त किया तो तीन-तीन बार कटवाल ने प्रधानमंत्री के आदेशों की अवहेलना की थी। इसलिए जरूरी हो गया था उन्हें बर्खास्त करना। उस समय भी राकेश सूद ने प्रचण्ड से कहा था कि अगर आप कटवाल को बर्खास्त करेंगे तो इसके बहुत गम्भीर परिणाम होंगे। अपमानजनक शब्दावली प्रयोग की थी हमारे राजदूत ने। इस राजदूत ने तो ठेका ले रखा है नेपाल की जनता को भारत विरोधी बनाने का। जबकि हम लोग लगातार यह प्रयास करते हैं कि दोनों देशों की जनता के बीच एक सद्भाव बना रहे। लेकिन राकेश सूद की वजह से यह सद्भाव बहुत समय तक बना नहीं रह पाएगा। इसके बाद प्रचण्ड ने कटवाल को बर्खास्त किया। एक निर्वाचित प्रधानमंत्री को यह अधिकार है कि वह सेनाधयक्ष को बर्खास्त कर सके। उन्होंने बर्खास्त किया और राष्ट्रपति ने उन्हें बहाल कर दिया। उन राजनीतिक दलों ने खासतौर पर नेकपा एमाले जो वहां की प्रमुख राजनीतिक दल है उसके अधयक्ष झलनाथ खनाल ने, जिनकी पार्टी सरकार में शामिल थी, वायदा किया कि कटवाल की बर्खास्तगी का वह समर्थन करेंगे। लेकिन जब प्रचण्ड ने बर्खास्त किया तो उन्होंने समर्थन वापस ले लिया। यह प्रचण्ड का मानना है और वहां की जनता का मानना है कि नेकपा एमाले ने जो समर्थन वापिस लिया वह भारत के इशारे पर वापिस लिया। अब यह बात सही है या गलत मैं इस पर कोई टिप्पणी नहीं करूंगा। लेकिन आम नेपाली जनता के अन्दर धारणा यही है, राकेश सूद की हरकतों की वजह से, कि भारत ने ही प्रचण्ड की सरकार गिराने में मदद की। और यही बात प्रचण्ड ने भी कही है। तो एक बात तो है कि भारत की भूमिका इस समय अच्छी नहीं रही। जिस समय नवंबर 2005 में बारह सूत्रीय समझौता हुआ था उसके बाद से भारत की बहुत अच्छी गुडविल बन गई थी नेपाल में। और नेपाली जनता भारत सरकार के प्रति सकारात्मक रुख अख्तियार कर रही थी। लेकिन कटवाल प्रसंग के बाद से लगातार एक के बाद एक कई घटनाएं ऐसी हो चुकी हैं जिनसे नेपाली जनता को लग रहा है कि भारत उसके हितों के खिलाफ काम कर रहा है। हाल के ही अखबार उठाकर देखिए, कांतिपुर और काठमांडू पोस्ट जो वहां के दो बड़े अखबार हैं, और यह माओवादी अखबार नहीं हैं। बाकायदा अखबार हैं जैसे टाइम्स ऑफ इंडिया है या इंडियन एक्सप्रेस है, इनके प्रिन्ट के कोटा को अट्ठाइस दिन से यहां रोक रखा है कलकत्ता बंदरगाह पर भारत सरकार के अधिकारियों ने। महज इसलिए कि इस अखबार ने लगातार यह लिखा कि मौजूदा परिस्थिति में माधाव नेपाल को इस्तीफा दे देना चाहिए ताकि एक आम सहमति की सरकार बन सके। माधाव नेपाल की सरकार को चूंकि भारत सरकार समर्थन कर रही है इसलिए इनको यह चीज नागवार लगी। इतना ही नहीं राकेश सूद ने वहां के उद्योगपतियों को जो भारतीय उद्योगपति हैं, बुलाकर कहा कि आप लोग कांतिपुर को, काठमांडू पोस्ट को और कांतिपुर टेलीविजन को विज्ञापन देना बन्द कर दें। तो यह सारी चीजें जो हो रही हैं वह दोनों देशों की जनता के संबंधों को बहुत खराब करेंगी। मेरी चिन्ता यह है और अगर दोनों देशों के संबंध तनावपूर्ण होते हैं तो उससे नेपाल का नुकसान तो होगा ही क्योंकि वह छोटा देश है लेकिन भारत का भी कोई बहुत भला नहीं होने जा रहा है।


अगर प्रचण्ड यह समझ लेते कि कटवाल को बर्खास्त करने से भारत की तरफ से इस तरह का हस्तक्षेप हो सकता है तो क्या स्थिति थोड़ी सुधार सकती थी?

नहीं प्रचण्ड को तो यह मालूम पड़ गया था कि अगर हम कटवाल को बर्खास्त करेंगे तो ऐसा होगा क्योंकि उन्हें बहुत खुलकर धामकी दी थी राकेश सूद ने और शायद इस धामकी के जवाब में ही उन्हें कटवाल को बर्खास्त करना और ज्यादा जरूरी हो गया था। क्योंकि अतीत में भारत सरकार के राजदूतों के या भारत सरकार के ब्यूरोक्रेट्स की यह आदत पड़ गई थी कि वह नेपाल के प्रधानमंत्रियों को कुछ भी कह कर अपनी मनमर्जी करवाते थे। कम से कम प्रचण्ड के साथ यह बात नहीं है। उन्होंने कभी यह नहीं कहा, देखिए अगर आज नेपाल के अन्दर साक्षात् माओत्से-तुंग भी शासन करने आ जाएं तो भारत के साथ किसी तरह की दुश्मनी एफोर्ड नहीं कर सकते। इसको प्रचण्ड अच्छी तरह जानते हैं कि भारत से नेपाल तीन तरफ से घिरा हुआ है, यूं कहिए इण्डिया लॉक्ड कंट्री है। ठीक है। भारत से यह नाराजगी मोल लेंगे तो भारत उनकी जनता को कितना कष्ट पहुंचाएगा? तो अगर कोई पार्टी या कोई पार्टी का राजनेता जो सचमुच जनता के हितों की परवाह करता होगा, मैं यह मानता हूं कि माओवादी जनता की हितों की ज्यादा परवाह करते हैं और पार्टियों के मुकाबले, तो वह कभी नहीं चाहेगा कि भारत के साथ शत्रुतापूर्ण संबंधा हों, और प्रचण्ड ने कई मौकों पर यह कहा है कि हमारे पड़ोसी दो जरूर हैं चीन और भारत। हम राजनीतिक तौर से एक समान इक्वल डिस्टेंस रखेंगे दोनों से। लेकिन भारत के साथ हमारे जो संबंध हैं, सांस्कृतिक संबंध, भौगोलिक संबंध, इनकी कोई तुलना ही नहीं हो सकती चीन से। हमारे और भारत के बीच में रोटी और बेटी का संबंध है, यह शब्द प्रचण्ड ने इस्तेमाल किए थे। तो जब पूरा कल्चरली एक है, दोनों की खुली सीमा है। बिहार का एक बहुत बड़ा हिस्सा खुले रूप से नेपाल आता जाता है। तो ऐसी स्थिति में प्रचण्ड खुद ऐसा नहीं चाहेंगे कि भारत के साथ हमारे संबंधा कटु हों। लेकिन उसके साथ-साथ एक संप्रभु राष्ट्र होने के नाते प्रचण्ड यह जरूर चाहेंगे कि भारत हमारी संप्रभुता का सम्मान करे। छोटे देश और बड़े देश में आकार तो हो सकता है कि अलगृअलग हों लेकिन कहीं यह नहीं होता है कि छोटे देश की संप्रभुता छोटी हो और बड़े देश की संप्रभुता बड़ी हो। अगर ऐसा होता तो इंग्लैण्ड की संप्रभुता तो बड़ी छोटी होती, जो ढाई सौ तीन सौ साल तक भारत पर शासन कर सकी। इसलिए संप्रभुता छोटी बड़ी नहीं होती है देश का आकार छोटा बड़ा होता है। इस बात को भारत का ब्यूरोक्रेट नहीं समझता है। इसलिए जरूरत यह है रूलिंग क्लास के माइंड सेट को बदलने की।

एक आरोप यह लगता रहा है कि जैसा आपने भी कहा कि यहां का जो रूलिंग क्लास ब्यूरोक्रेट है, यह भारत की विदेश नीति के साथ हमेशा कुछ न कुछ गड़बड़ करता रहता है। कहीं न कहीं इसके पीछे इस वर्ग के अपने कुछ निहित स्वार्थ होते हैं या कुछ और इंट्रैस्ट होते हैं? क्या यह आरोप सही है?

देखिए प्रमाण तो कोई नहीं हैं। लेकिन निश्चित तौर पर आखिर क्या वजह है कि किसी भी पड़ोसी देश के साथ हमारे संबंधा अच्छे नहीं हैं। कुछ चीजें तो हैं जो हमारे वश में नहीं हैं। भौगोलिक सीमा, ठीक है भारत एक बड़ा देश है, उसके लिए हम कुछ नहीं कर सकते। बड़े देश का एरोगेन्स तो हम रोक सकते हैं न! तो यह जो प्रॉब्लम है। भूटान के राजतंत्र को हम लगातार समर्थन देते रहे हैं। आप समर्थन दीजिए लेकिन किसकी कॉस्ट पर? वहां की जनता जो रिफ्यूजी बना दी गई जनतंत्र की मांग करने पर! यह हमारी नीति है। और हम दुनिया के सबसे बड़े जनतंत्र हैं और हम दुनिया के सबसे सड़े गले राजतंत्र को समर्थन देते रहे आम जनता के साथ धोखा करके। तो यह बड़ी शर्मनाक स्थिति है और यह हमारी विदेश नीति की असफलता है कि आज सारे पड़ोसी देश हमसे खतरा महसूस करते हैं। बजाय इसके कि अगर आप एक बड़े भाई की तरह रहते या जुड़वां भाई की तरह रहते तो वह चीज नहीं है।

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लो क सं घ र्ष !: शमशान



चुप्पी ख़ामोशी उदासी ओढ़े
हर शमशान
लाशों, लकड़ियों और कफन के
इंतजार में शिद्दत के साथ
मुद्दत से अपनी भूमिका में खड़ा है
न जाने कितनी लाशें
अब तक हो चुकी होंगी पंचतत्व में विलीन
गुमनामी के अँधेरे में खो चुके हैं -
न जाने कितने हाड़-मास के पुतले
स्मृतियों में कुछ शेष रह जाती हैं आकृतियाँ
कुछ आकृतियाँ छोड़ जाती हैं
अपने कामों का इतिहास
-सुनील दत्ता

लो क सं घ र्ष !: नये विचारों की रोशनी में


संघर्ष
देखा है मैंने तुम्हें
ताने सुनते/जीवन पर रोते
देखा है मैंने तुम्हे सांसों-सांसों पर घिसटते
नये रूप / नये अंदाज में
देखा है मैंने तुम्हें
पल-पल संघर्ष में उतरते
मानो कह रही हो तुम
बस - बस -बस
अब बहुत हो चुका ?
सहेंगे अत्याचार, सुनेंगे ताने
हर जुर्म का करेंगे प्रतिकार
नये विचारों की रोशनी में।

-सुनील दत्ता

आकर दिल्ली में












तमाम
दिक्कतों के बाद
गुज़ारा चल रहा था उनका
आकर दिल्ली में.
तीस रूपए रिक्शे का भाडा
चुकाने के बाद
बच जाते थे कुछ पैसे
आ जाते थे थोड़े चावल
थोड़ी सब्जी, थोड़ी दाल
भूखा नहीं सोना पड़ता था
आकर दिल्ली में.
सुना है रहनुमाओं को अब
बुरी लगने लगी हैं
इनकी शक्लें
मेहमान इनको देखकर क्या सोचेंगे
सता रही है यह चिंता.
बन गई हैं योजनायें
बेदखली की
अब कहां ढूंढें ये ठौर ठिकाना
आकर दिल्ली में.