Visit blogadda.com to discover Indian blogs कठफोड़वा: यह निवेश किस काम का...

यह निवेश किस काम का...




इस देश का दुर्भाग्य नहीं तो और क्या है कि वही यूनियन कार्बाइड, जो भोपाल के लोगों का सबसे बडा गुनहगार है, धड़ल्ले से गुजरात में कारोबार कर रहा है। अगर इस कंपनी के गुनाहों को धोना है तो एंडरसन का इस देश में प्रत्यर्पण कराने के बाद देश के कटघरे में खडा करना होगा। जनता को यह भी ध्यान रखना होगा कि फिर कोई जस्टिस अहमदी इनकी मौत को अदालत में कम आंकने की तिकडम न करे। फिर कोई देश का सौदा करने वाला राजनेता एंडरसन को बचाने के लिए सरकारी गाडी में मेहमान न बनाए
धीरे-धीरे मौत के आगोश में दम तोडता हुआ मध्यप्रदेश का एक शांत शहर भोपाल। पुराना भोपाल के छोला इलाके के पास ही है जेपी नगर जहां सैकडाें एकड में फैला है यूनियन कार्बाइड का कारखाना। एकाएक टैंक नंबर 610 के दैत्य ने जहरीली गैस उगलना शुरू किया। पल भर में भोपाल शहर एक गैस चैंबर में बदल चुका था जिसमें हर भोपालवासी तडप-तडप कर मरने को विवश था। कुछ ही दिनों में करीब पंद्रह हजार बच्चे, जवान, बुजुर्ग, स्त्रियां सभी इसकी जद में थे और चारों ओर बिखरा था अपनों का शव। सरकार ने अलग-अलग नंबर उन लावारिस लाशों पर टांग दिए थे, ताकि मरे हुए लोगों की पहचान हो सके। भोपाल शहर का हर वाशिंदा चारों तरफ पसरे मौत के सन्नाटे को नजदीक से महसूस कर रहा था और अपनों की तलाश में भटक रहा था। अभी भी 26 साल पहले हुए मौत का तांडव फिजाओं में चारों तरफ पसरा है। अमीया बानो कि एक ही चाह है कि उसकी ढाई साल की पोती रेशमा दूसरे बच्चों की तरह दौडती हुई आए और उसके गले से चिपट जाए। न जाने कई विकलांग रेशमाओं का दोषी एंडरसन अमरीका के एक आलीशान कोठी में अपनी बची-खुची जिंदगी गुजार रहा है। अंधाधुंध विकास की कीमत चुका रहे हैं भोपालवासी। कभी माओत्से तुंग ने कहा था कि अगर चीन पर साम्राज्यवादी देशों का हमला होता है, तो कुछ लाख लोग मरेंगे, लेकिन जितने लोग बचेंगे वही समाजवाद लेकर आएंगे। कुछ ऐसा ही तर्क आज 'ग्लोबलाइजेशन' के दौर में भी गढा जा रहा है, जहां विकास की कीमत चुकाने के लिए कुछ लाख या करोड लोग भी मर जाएं, तो बचे हुए लोग ही उदारीकरण की असली संतान के रूप में पेश किए जाएंगे। इस बुलंद इमारत की नींव में तो कुछ लाख आदिवासियों, किसानों, मजदूरों और गरीबों को तो दफन होना ही होगा। इस मामले में आला दर्जे के नेता चुप्पी साधे हैं, दूसरे स्तर के नेता मैदान में हैं, जिन्हें पता है कि ऊपर के लोगों को कब बोलना है और कब मौन धारण करना है। मामला एंडरसन का हो या क्वात्रोची का, देश के विदेशी गुनहगारों के लिए हर खून माफ है। बस शर्त एक ही है वे यहां निवेश करें और मुनाफे में कुछ हिस्सेदारी भी दें और चाहें तो उसका एक बडा हिस्सा अपने देश ले जाएं। विदेशी कंपनियां भी भारत की मजबूरी समझती हैं और समय पर सरकार की बांह मरोडने में परहेज नहीं करती। भारत अभी भी उनके लिए सोने की चिडियों वाला देश है, जो रोज उनके लिए सोने के अंडे देती है। ये दुनिया का सबसे बडा औद्योगिक हादसा था, जिसने करीब ढाई लाख लोगों को किसी न किसी बीमारी की चपेट में ले लिया। अभी भी जन्म लेते बच्चे जहरीली गैस के प्रभावों से अछूते नहीं हैं। बच्चे अपने पैरों पर खडे नहीं हो पाते, बोलते हैं तो हकलाकर, कितने बच्चे तो मानसिक विकलांग पैदा हो रहे हैं, जहरीली गैस की घुटन उन्हें तिल-तिल कर मार रही है। अभी भी वहां की सरकार आंखें मूंदकर लोगों को खनन के पट्टे दे रही है, पर्यावरण मानकों को धत्ता बताते हुए। इसके कारण यहां के जलाशयों में लेड, कैडमियम, आर्सेनिक की मात्रा बढ ग़ई है। ये तो वही मिसाल है कि बोझ से दबे जानवर के ऊपर चार मन का बोझ लादो या दस मन का, क्या फर्क पडता है? पर भोपाल के लोग आखिर करें भी तो क्या? भारत का पूरा तंत्र जिस अपराधी को बचाने में लगा हो, उसके आगे इन बेबसों की क्या बिसात? कहते हैं, इस त्रासदी की धमक अमरीकी सत्ता गलियारें में भी सुनी गई थी। अमरीकी सरकार परेशान हो तो क्या केंद्र, क्या राज्य, सबों के लिए अमरीका की सलाह निर्देश के रूप में लेने की होड लग जाती है। इस आपाधापी में इन्हें यह ख्याल भी नहीं रहता कि पांच साल बाद उन्हें जनता को मुंह भी दिखाना है।
विदेशी कंपनियों का अपने देश में स्वागत है, चाहे वे मॉरीशस के रास्ते आएं या दुबई से, सरकार का एक ही मकसद है कि वे निवेश के साथ लोगों को रोजगार भी दें। लेकिन निवेश और रोजगार के लोभ में लोगों की जिंदगियों से तो समझौता नहीं किया जा सकता। देश की सुरक्षा को दांव पर नहीं लगाया जा सकता। निवेश के बहाने अगर बहुराष्ट्रीय कंपनियां देश की राजनीति में हस्तक्षेप करें, तो यह बर्दाश्त नहीं किया जा सकता। इसके लिए जरूरी है कि मल्टीनेशनल कंपनियों से सियासी दल चंदा लेना बंद करें। आप चंदा लेंगे तो वे राजनीति में दखल देंगे ही। क्या भारत की जनता को इतनी समझ नहीं कि इन चंदों का सच क्या है? सीमित संसाधनों की लूट में छूट मिले तो कुछ करोड ड़ॉलर का चंदा भला उनके लिए क्या मायने रखता है। आने वाली सदी में वही देश शक्तिशाली होगा, जिसके पास अधिक से अधिक आर्थिक संसाधन होंगे। अफ्रीका से लेकर एशिया एवं लातिन अमरीकी देशों के संसाधनों पर कब्जे की होड में विदेशी कंपनियां जाल बिछाने में लगी हैं। जो कंपनियां 'कंपनी सोशल रिस्पांसिबिलिटी' यानी सीएसआर के नाम पर कुछ लाख डॉलर खर्च कर सरकार से तमाम करों से रियायत लेने में लगी होती हैं, वे भला मुफ्त में चंदा क्यों देंगी? इन कंपनियों के लिए दूसरे देशों में रास्ता तलाशने के लिए खतरनाक खुफिया एजेंसियों मोसाद, सीआइए का नेटवर्क भी होता है, जो इनके इशारों पर किसी भी देश में तख्ता पलट के लिए तैयार होती हैं। लातिन अमरीका हो या अफ्रीका या फिर अफगानिस्तान से लेकर पाकिस्तान तक, लोकतंत्र के नाम पर दूसरे देशों में सरकार पर हमला बोलना, उन्हें हराकर कठपुतली सरकार बिठाना और फिर कंपनियों को लूटने की खुली छूट देना। इसमें खुफिया एजेंसियां और कंपनियां सरकार की शह पर दूसरे देशों में उखाड-पछाड क़ा खेल खेलती रही हैं। भारत में विदेशी कंपनियों का इतिहास फिर से दोहराया जा रहा है। सरकार के पास जनता को फुसलाने के लिए विकास का नारा है। विदेशी कंपनियां अपनी कही जाने वाली सरकार के कान में मंतर फूं क चुकी है। परमाणु करार का ही अगला चरण लायबिलिटी बिल के रूप में जनता के सामने पेश किया जा रहा है। जिम्मेदारी सरकार की, मरें देश के नागरिक और माल उडाकर ले जाएं विदेशी कंपनियां। फिर एंडरसन की तरह हमें उनके प्रत्यर्पण की मांग करने का अधिकार भी तो नहीं होगा। वे कुछ लाख चुकाकर तमाम जिम्मेदारियों से मुक्त हो जाएंगे। इस देश का दुर्भाग्य नहीं तो और क्या है कि वही यूनियन कार्बाइड, जो भोपाल के लोगों का सबसे बडा गुनहगार है, धड़ल्ले से गुजरात में कारोबार कर रहा है। अगर इस कंपनी के गुनाहों को धोना है तो एंडरसन का इस देश में प्रत्यर्पण कराने के बाद देश के कटघरे में खडा करना होगा। जनता को यह भी ध्यान रखना होगा कि फिर कोई जस्टिस अहमदी इनकी मौत को अदालत में कम न आंकने की तिकडम करे। फिर कोई देश का सौदा करने वाला राजनेता एंडरसन को बचाने के लिए सरकारी गाडी में सरकारी मेहमान न बनाए। फिर देश-सेवा की कसमें खाने वाला सरकारी अधिकारी राजनेता को देश से ऊपर मानने की गुस्ताखी न करे। हाल में आंध्र प्रदेश सरकार जॉर्जिया टेक यूनिवर्सिटी को अपने यहां बुलाने के लिए रियायती दरों पर जमीन उपलब्ध कराने के लिए बिछी जा रही थी। विदेशी यूनिवर्सिटी उस जमीन का ज्यादा कीमत देने के लिए तैयार थी, लेकिन सरकार ने सदाशयता दिखाते हुए एक करोड प्रति एकड क़ी जमीन एक से डेढ लाख प्रति एकड में ही देने की पेशकश की। एक विदेशी यूनिवर्सिटी अगर जमीन का अधिक पैसा देने के लिए तैयार हो और रियायत की मांग भी न करे, तो क्या जरूरत है कि उन्हें छूट देने के लिए हम गिडग़िडाएं ही। इस बात का खुलासा लोगों को सूचना के अधिकार से मिला। क्या कारण है कि हमारे यहां का पूरा तंत्र और राजनैतिक नेतृत्व विदेशी कंपनियों के सामने वफादारी दिखाने की होड में लग जाता है। नियम-कायदों को ताक पर रखकर सारी सुविधाएं देने की होड लग जाती है। यहीं से इन विदेशी कंपनियों को यह संदेश जाता है कि भारत जैसे देश में सबकुछ चलता है। जनता हर घटना पर प्रतिक्रिया देने के लिए सामने नहीं आती और जब लोकतंत्र के चुनावी दंगल में जवाब देती है, तो फिर सरकार औंधे मुंह मैदान पर धूल चाट रही होती है। एक ईस्ट इंडिया कंपनी के जख्म को सहलाते हमारी कई पीढियां गुजर चुकी, फिर एक यूनियन कार्बाइड के घाव भला इतनी जल्दी कैसे भरेंगे? भोपाल में जो हो गया, उन मासूमों की जान को वापस तो नहीं लाया जा सकता, लेकिन इससे मिले सबक को हमेशा याद रखना होगा कि विदेशी कंपनियां भारत को चारागाह न समझ सकें।

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