Visit blogadda.com to discover Indian blogs कठफोड़वा: असंतोष से ही सर्जनात्मक लेखन संभव : चित्रा

असंतोष से ही सर्जनात्मक लेखन संभव : चित्रा

चित्रा मुद्गल से चंदन राय की बातचीत

आपने बचपन में एक बार अम्मा से शेर की खाल मांगी थी, लेकिन मिला आपको बप्पा का लिखा हुआ नाटक और कुछ कविताएं। तो क्या साहित्य-लेखन में इस घटना का भी कोई योगदान आप महसूस करती हैं?
आश्चर्य से...अरे, आपको कैसे पता। हां, सफाई तो नहीं, रिनोवेशन हो रहा था, बप्पा के न रहने पर मैं उनकी याद अपने पास रखना चाहती थी। बप्पा के शिकार किए कई शेर की खालें और बारहसिंगा की झाडीदार नुकीली सिंगें ड्राइंगरूम में लगी रहती थी। अम्मा ने देने से मना कर दिया था। घर का माहौल तो था ही, साथ ही आस-पास के परिवेश से प्रभावित होकर ही लिखने की ओर उन्मुख हुई। उस समय समाज सामंतवादी माहौल की जकडन में था। औरतों की स्थिति को देखकर मन खटकता था। साथ ही इस बात पर अफसोस भी होता था कि दूसरे लोगों को भी क्यों इनके हालात पर गुस्सा नहीं आता। गांव की स्थितियां शहरों से और भी बदतर थी। शहर में तो एक तरफ का खुलापन होता था, लेकिन गांव का वातावरण तो संकीर्ण था। महिलाओं को घर के पिछवाडे बनी खिडक़ी से ही घर में आना-जाना होता था। इस सवाल ने बचपन से परेशान किया कि अगर भैय्या और अन्य लोग घर के मुख्य दरवाजे से भीतर आ सकते हैं, तो हम क्यों नहीं? एक बात और भीतर तक कचोटती थी- यह करना है, यह नहीं करना है-के निर्देश खासकर घर की महिलाओं के लिए। जबकि भैय्या कुंवर कमलेश प्रताप सिंह के लिए कोई रोक-टोक नहीं। इसी तरह के असंतोष और टूटन ने लिखने को प्रेरित किया।
आपकी रचनाओं में समाज के छोर पर खडे व्यक्ति की आवाज सुनाई पडती है, जिन लोगों की सत्ता के गलियारों में आवाज कभी नहीं सुनी गई। क्या जुडाव महसूस करती हैं आप उस वर्ग से?
मैं बचपन से ही इनसे एक प्रकार का अपनापन महसूस करती रही हूं। हंसते हुए...पिछले जन्म में मैं जरूर इसी वर्ग से रही होऊंगी। हुआ यूं कि जब मैं स्कूल से घर लौटी, तो दत्ता सावंत को घर में पाया, जो किसी बात पर जोर-जोर से बहस कर रहे थे। हमारे घर के पास से ही मजदूरों के आने-जाने का रास्ता था। कुर्ला से लेकर मुलुंड तक जहां से पहाडी ड़ॉकयार्ड शुरू होती है, तक पत्थर का दीवाल बनाया जा रहा था। इस तरफ अफसरों की बस्तियां थी, दूसरी तरफ मजदूरों की बस्ती, जो इधर के औद्योगिक इलाकों में काम करने जाते थे। इन्हीं के घर के पास से छोटा सा रास्ता गुजरता था, जहां से सुबह-शाम मजदूर अपनी ही मस्ती में खोए, फावडा-कुदाल लिए गुजरते थे। अफसर शाम को बंगले के बाहर लॉन में अपने परिवार या मित्रों के साथ कुर्सी लगाकर बैठे होते थे। अफसरों की पत्नियां भी नाक-भौं सिकोडती थीं, जब मजदूरों का झुंड हु-हु करता हुआ मदमस्ती में गाते हुए बगल के रास्ते से गुजरता था। अगर यह दीवाल बनाई जाती, तो मजदूरों को 3-4 किलोमीटर सुबह-शाम आने-जाने में ज्यादा चक्कर लगाना पडता। मैंने कहा कि अगर मेरा बस चले तो मैं इस दीवाल पर फावडा चला दूं। दत्ता सावंत आश्चर्य से मेरी ओर देखने लगे और अगले ही दिन से मुझे कुछ अशिक्षित मजदूर स्त्रियों को पढाने का काम सौंप दिया गया। सिर्फ शहरों में बदहाल मजदूर ही नहीं, बल्कि गांव की दुनिया को भी इससे जोडा। अनायास प्रतिबंध से चिढ क़े कारण ही इस वर्ग के दुख-दर्द में महिलाओं को भी शरीक किया। गांव में जब मेले या हाट में जाना होता था, तो अम्मा बैलगाडी में चादर डालकर पीछे के दरवाजे से आती थी। बैलों को घुमाकर आगे लाया जाता था, तभी महिलाएं घर से निकलती थी। गांव से बाहर निकलते ही दलितों की बस्तियां थीं, जिनसे होकर जाने की मनाही थी। इन सभी बातों का विरोध करते हुए मैंने हमेशा अपने को इस वर्ग के आस-पास ही पाया।
आप विचारों से लोहियावादी रही हैं। आप साहित्य में विचार को कितना महत्व देती हैं?
लोहियावादी तो नहीं, हां लोहिया जी के विचारों से प्रभावित जरूर रही हूं। बहुत कुछ सीखा है, पाया है, तो प्रभावित होना स्वाभाविक ही था। बराबर ट्रेड यूनियन के आंदोलन में शरीक होती रही, दत्ता अंकल का सहयोग भी मिलता रहा। हालांकि वे थे तो कांग्रेसी, लेकिन इससे लोगों के बीच काम करने पर कोई प्रभाव नहीं पडा। बाद में सीपीआई के संपर्क में भी आई। जगदंबा प्रसाद दीक्षित जी लोगों को विचारों से दीक्षित करने में ही लगे रहते थे, जिसका असर काम पर पडता था। पार्टी अनुशासन से ज्यादा रूचि मेरी लोगों के भले के लिए काम करने की थी। अहिल्या ताई के साथ हम लोगों से चंदा लेकर ही काम करते थे, कोई डॉलर या पाउंड के अनुदान से चलने वाली संस्था नहीं थी, हम लोगों की। आज दुख होता है जब चंदे के पैसे को लोगों को दारू, मीट पर खर्च करते हुए देखते हैं। क्रांति और शराब का भला कैसा संबंध। उतना ही दुखी होती हूं किसी मजदूर को देशी शराब की दुकान पर खडे देखकर। यही पैसा एक वक्त परिवार को भूखा सुलाता है। मैं लोहिया जी के देसी समाजवाद से प्रेरित रही। समाजवाद में भी तो भूगोल, इतिहास का ख्याल रखना ही होगा। क्या सीमोन द बउआर के देश में विधवा नारियों को चिता पर जलाया जाता था। अगर नहीं, तो नारी विमर्श के स्वरूप भी तो देश काल में बदलने स्वाभाविक हैं। आज राजनीति ने पूंजीपतियों के साथ मिलकर मजदूर-शक्ति का क्षरण किया है। जेपी के आह्वान पर पूरे देश में छात्रों ने बगावत का झंडा बुलंद कर दिया था। साहित्य के केंद्र में विचार का तो अपना महत्व है ही।
आज के उग्र वामपंथ को आप किस रूप में देखती हैं?
हम लोगों का घर तो सबों के लिए खुला होता था, दूसरों के बारे में नहीं जानती। समाज में जब तक कुछ लोगों के पैसे कमाने की हवस के कारण अधिकांश हाशिए पर धकेले जाते रहेंगे, लोग सडक़ पर उतरेंगे या गुरिल्ला लडाई में शामिल होंगे ही। क्या हमने इन लोगों की बात सुने जाने के लिए लोकतंत्र में कोई स्पेस छोडा है? हालांकि नक्सल अपने शुरूआती दौर में जेनुइन था। बहुत बडे नाटककार गौतम घोष बराबर इन लोगों के बीच जागरूकता फैलाने का काम करते रहते थे। दुबले-पतले, मरियल-से दिखने वाले मिथुन चक्रवर्ती सहित उस समय के सभी नाटककार इफ्टा के तहत वहां प्रचार में लगे थे। लोग खुलकर चंदा देते थे, जबरदस्ती जेब में पैसा निकालकर डाल देते थे। लेकिन आज मजदूरों की शक्तियों को सत्ता ने पूंजीपतियों के साथ मिलकर तोड दिया है, यही कारण है कि ऐसे आंदोलन अब विकराल रूप लेते जा रहे हैं।
आज मिर्चपुर से लेकर तमाम जगहों पर दलितों पर अत्याचार बढे हैं, सत्ता का स्वरूप भी बदला है, अब वह कमजोर की बजाय ताकतवर के साथ खडी दिखती है, आपका क्या विचार है?
छत्तीसगढ हो या अमरीका, हर जगह सत्ता का एक ही चरित्र होता है। पूंजीपति सरकार के साथ मिलकर देश के संसाधनों को जमकर लूट रहे हैं। स्वराज को आकार-प्रकार देने वाली राजनीति का यह कैसा रूप है? हत्यारे एंडरसन को भगाने के लिए केंद्र से लेकर राज्य सरकार तक पूरा अमला लगा था। अर्जुन सिंह चाहते तो जनता की जवाबदेही का हवाला देकर केंद्र के आदेश को मानने से इंकार कर सकते थे। ऐसे नेताओं को तो सरेआम चौराहों पर फांसी लगा देनी चाहिए। इसे छद्म राजनीति नहीं तो, और क्या कहेंगे?
एक अंतिम सवाल, आपको पाठक किस रूप में जानें-एक उपन्यासकार, कहानीकार, समाजसेविका या कुछ और...?
पाठकों के पास वही अनुभव पहुंचते हैं, जो उन्हीं के परिवेश से अर्जित किए गए हैं। यह सवाल मैं पाठकों पर ही छोडती हूं। हालांकि अब उनके पत्र कम ही आते हैं, हां फोन जरूर आते रहते हैं। पाठक ही तय करें कि वे मुझे किस रूप में अपने नजदीक महसूस करते हैं। हमसे बात करने के लिए आपका बहुत-बहुत धन्यवाद...

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