Visit blogadda.com to discover Indian blogs कठफोड़वा: नर्मदा क्रिकेट ग्राउण्ड बनती जा रही है : मेधा पाटकर

नर्मदा क्रिकेट ग्राउण्ड बनती जा रही है : मेधा पाटकर


नर्मदा बचाओ आंदोलन ने विगत, दो दशकों में विकास को नये सिरे से परिभाषित करने का एक मार्ग प्रशस्त किया है। उसने इस बात को प्रतिपादित किया कि विकास केवल विकास शब्द के साथ ही नहीं देखा जाना चाहिये बल्कि विकास को विनाश के साथ भी जोड़कर देखना होगा। वतर्मान विकास को लेकर कुछेक सवालों को लेकर नर्मदा आंदोलन की तेज-तर्रार नेत्री सुश्री मेधा पाटकर से प्रशान्त कुमार दुबे ने बातचीत की।

मेधाजी, वर्तमान विकास को आप किस तरह से देखती हैं?

दर असल विकास को परिभाषित किये जाने की जरूरत है आज बड़ी नदियों पर बड़े बांध बनाने को भी विकास कहा जाता है लेकिन सवाल यह है कि नदियों को मारना क्या विकास है? और इसे भी ऐसा देखा जाना चाहिये कि इस कथित विकास पर कितने जनों की बलि चढ़ी है। सरदार सरोवर और महेश्‍वर बांध परियोजनायें इसके उदाहरण हैं। देश में ऐसे कई और उदाहरण है। मेरा मानना है कि विकास को पहले परिभाषित करने की आवश्‍यकता है। लेकिन इसकी न तो मंशा किसी की दिखती है और न ही तैयारी।

छत्तीसगढ़ में आप पर यह आरोप लगा कि आप नक्सलवाद समर्थित हैं और राज्य में हिंसा को बढ़ावा दे रही हैं?

देखिये, हम किसी भी तरह के सशस्त्र संघर्ष के विरोध में हैं फिर चाहे वह किसी वाद से सम्बन्धित है या फिर राज्य सत्ता से। सलवा-जुडूम भी इसी तरह की प्रक्रिया है, जिसका विरोध करने हम लोग छत्तीसगढ़ में थे। हमारा मानना है कि सशस्त्र संघर्ष कभी भी बुनियादी परिवर्तन का प्रतीक नहीं हो सकता है और जब हम यह मानते हैं तो हमारे द्वारा स्वयं हिंसा करना या हिसां की बात सोचना भी हास्यास्पद है।

आप पर या आप जेसे सवाल खड़े करने वाले लोगों पर हमेशा ही एंटी डेवलपमेंटल या ऐंटी पीपुल्स होने के आरोप लगते रहते हैं। तो क्या आपकी पूरी लड़ाई एंटी डेवलपमेंट ही है?

देखिये, जो बुनियादी सवाल खड़े करते हैं वे विकास विरोधी हैं यह राज्य का एक ड्रामा है। राज्य अपने पक्ष में बात न करने वालों को कुछ भी करार दे सकता है। नक्सलवाद भी कहीं न कहीं राज्य की विफलता का परिणाम है। लेकिन हम लोकतंत्र में जी रहे हैं और हमें अपनी बात रखने का पूरा अधिकार है। हम विकास के इस नवीन ढांचे को हर जगह पर चीर-फाड करके देखेंगे और राज्य को बाध्य करते रहेंगे कि वह लोगों के पक्ष में अपनी कल्याणकारी भूमिका निर्वाहित करे।

क्या ऐसा नहीं लगता कि मेधा पाटकर लड़ाई हार रही हैं?

नहीं, कदापि नहीं। आज भी सरदार सरोवर परियोजना का काम रूका हुआ है। दरअसल लोग संघर्षों को सीमित दायरों में देखते हैं इसलिये ऐसा लगता है कि लड़ाई हारी जा रही है। बल्कि नित नई लड़ाई जीती जाती है और दूसरी लड़ाई खड़ी हो रही है। आप पास्को का उदाहरण ले सकते हैं, आप सिंगुर का उदाहरण ले सकते हैं। आप नर्मदा का ही उदाहरण ले सकते हैं। इस पूरे दौर में भ्रष्टाचार की कलई खुली है। राज्य का चरित्र सामने आया है हम लोग आंदोलन में एक परिणाम मूलक लड़ाई नहीं लड़ते है। इसलिये वे लोग जो संघर्ष को बाहर से देखते उन्हें यह नही समझ में आता है, जबकि हम रणनीतियां बदलते हुये लड़ाई लड़ते हैं।

सिंगूर की बात आपने की, तो बात जेहन में आती है कि अधिकांश संघर्ष की बुनियाद में आम सोच रही है लेकिन सिंगूर प्रकरण में आम सोच धराशाई हो गई इस पर आपका क्या मत है?

वामपंथ टूटा नहीं है केवल मोर्चा टूटा है। हर एक पार्टियों में कमजोर लोग है। पश्चिम बंगाल में भी यही हुआ। पार्टी के कुछेक लोगों ने अपनी कमजोरी उजागर की। गांधीवादी या विवेकानंद के समर्थक कोई भी हो आज सभी के समक्ष तो है। यह मैं मानती हूं। लेकिन यह भी कहना चाहती हूं कि पश्चिम बंगाल में जो हुआ वह विचार की हार नहीं बल्कि कुछेक लोगों की हार है और हमारी जीत है।

नर्मदा समग्र जैसे कुछ प्रयास चल रहे हैं उन पर आपका क्या मत है?

देखिये, एक ओर तो नर्मदा क्रिकेट ग्राउण्ड बनती जा रही हैं और दूसरी ओर कहीं-कहीं पर इस तरह की खोखली कवायदें की जा रही हैं एक ओर इसी राज्य में नर्मदा एक छोर पर जीती जागती जिंदगियों का म्यूजियम बना डाला और दूसरी ओर वहीं राज्य नर्मदा समग्र जैसे प्रयासों को सहायता देता है। नर्मदा नदी का अध्ययन हेलीकॉप्टर में बैठकर तो संभव ही नहीं है। नर्मदा पर किये गये जिस अध्ययन में नर्मदा नदी के प्रभावितों का प्रश्‍न ही नहीं आया है यह नर्मदा नदी के साथ अन्याय है। इस तरह के कई संकट इस समय हमारे समक्ष हैं। वे नर्मदा नदी में प्रवाहित की जाने वाली प्लॉस्टिक तो साफ करना चाहते हैं लेकिन नर्मदा को साफ करने वाली गतिविधियों पर बात नहीं करते हैं।

न्याय व्यवस्था में भी लोगों का विश्‍वास उठता जा रहा है, विगत कुछ समय से लोगों को उच्चतम न्यायालय से ऐसे फैसले मिले है।

यह सही है कि न्याय व्यवस्था ने हमें निराश किया है। हम हतोत्साहित भी हुये हैं लेकिन ज्यूडिशियरी स्टेट का ही एक भाग है इसलिए यह होना स्वाभाविक है। हम विचलित नहीं होते हैं बल्कि हम इसे एक प्रक्रिया मानते हैं। हम न्याय व्यवस्था के साथ भी जूझ रहे हैं और यह हर दौर में होता रहेगा।

लगातार यह बात आ रही है कि अब संगठन के पास कार्यकर्ता नहीं है तो इसे यह मानें कि आपकी या आप जैसे साथियों की पकड़ कमजोर हो रही है।

देखिये जीने मरने का संकट जिनका है उन्हें संघर्ष के लिये प्रेरित करने की जरुरत नहीं होती है । हां इस संघर्ष में कुछ लोग जरुर साथ आते हैं और छोड़ते जाते हैं। वे पूर्णकालिक हैं भी नहीं । घाटी के लोगों का संघर्ष और मजबूत हुआ है, लोग तकनीकी रुप से भी समृध्द हुये हैं। अब वे अपने अधिकारों को पूर्ण रुप से जानते हैं और अपनी लड़ाई खुद लड़ रहे हैं।

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