Visit blogadda.com to discover Indian blogs कठफोड़वा: माओवाद-मार्क्सवाद की अत्रप्त शवसाधना

माओवाद-मार्क्सवाद की अत्रप्त शवसाधना

प्रिय मित्रों, 
कल का दैनिक भास्कर पढ़ रहा था उसी बीच आशुतोष के इस article पर नज़र पड़ी. सोचा की जैसे लोकतंत्र में चुनाव की लहर चलती है उसी तरह आज कल माओवादियों के खिलाफ एक लहर चली है लेकिन शाम होते-होते इसका ऐसे प्रचार किया गया जैसे आशुतोष ने इन माओवादियों को जड़ से उखाड़ फेकने का बीड़ा उठा लिया है. मैंने सोचा की आप तक ये article पहुँचाऊ .

1990 में आधिकारिक तौर पर मार्क्सवाद की मौत हो गयी लेकिन उसके शव को लेकर अभी भी कुछ लोग घूम रहे हैं। लेनिन के रूस ने इस शव को दफन कर दिया है और माओ का चीन इस शव को भूल चुका है लेकिन इस देश में कुछ सिरफिरों को अभी भी लगता है कि मार्क्स की तंत्र साधना कर के इस शव में जान फूंकी जा सकती है। इसलिये किशन जी 2011 में कोलकाता में सशस्त्र क्रांति का सपना संजो रहे हैं। और पिछले दिनों दंतेवाड़ा के जंगलों में 76 जवानों का कत्ल कर के ये सोचने भी लगे हैं कि अब क्रांति दूर नहीं है और बहुत जल्द ही दिल्ली पर भी उनका कब्जा हो जायेगा।
इन सिरफिरों के कुछ सिरफिरे दोस्त भी इसी यकीन पर कब्जा जमाये बैठे हैं और पत्रिकाओं और टीवी चैनलों में जोर दे दे कर भारतीय सुरक्षा एजेंसियों को बलात्कारी और कातिलों की जमात ठहराने के लिये अंग्रेजी और हिंदी के शब्दों का खूबसूरत इस्तेमाल भी करने लगे हैं। लेकिन ये भूल जाते हैं कि दिल्ली के आराम पंसद माहौल में रहकर नक्सलियों की वकालत करना आसान है लेकिन इस सचाई से रूबरू होना मुश्किल कि अगर य़े नक्सली वाकई में अपने मकसद में कामयाब हो गये तो सबसे पहले इनकी ही जुबान पर ताला लगेगा और अगर चारू मजूमदार की भाषा में बात हुई तो एनीहिलेशन थियरी के मुताबिक सबसे पहले कत्ल भी इन्हीं संभ्रांत लोगों का होगा जैसे रूसी क्रांति के सबसे बड़े अगुआ लियोन ट्राटस्की के साथ रूसी क्रांतिकारियों ने किया। चे गुवेरा बनने का ख्वाब देखना आसान है लेकिन ये समझना मुश्किल कि अगर वाकई मे नक्सली सत्ता में आये तो क्या होगा।
ये 'समझदार' लोग ये भूल जाते हैं कि 18 मई 1967 को जंगल संथाल ने जब नक्सलबाड़ी आंदोलन की शुरुआत की थी तो ये महज भूमिहीन किसानों को जमीन देने का आंदोलन नहीं था जैसे अब इस वक्त कुछ लोगों को ये भ्रम हो गया है कि माओवादी आदिवासियों और भूमिहीनों की लड़ाई लड रहे हैं। कुछ कहते हैं कि बड़ी-बड़ी कंपनियों के हितों की रक्षा के लिये ऑपरेशन 'ग्रीन हंट' किया जा रहा है और पी. चिदंबरम इन कंपनियों के सबसे बड़े पैराकार हैं क्योंकि वे मंत्री बनने के पहले ऐसी एक बड़ी कंपनी के वकील रह चुके हैं। आदिवासी और भूमिहीन दरअसल माओवादियों के लिये एक लबादा हैं जो इनके असली मंसूबों को छिपाने में मदद करता है। चारू मजूमदार के ऐतिहासिक आठ दस्तावेज को अगर ध्यान से पढ़ा जाये तो साफ पता चलता है कि नक्सलवादियों माओवादियों को भारतीय लोकतांत्रिक व्यवस्था में विश्वास नहीं है। चारू मजूमदार के मुताबिक भारतीय राज्य एक बुर्जुआ राज्य है। इसका संविधान बुर्जआ है। और उनकी नजर में सीपीएम और सीपीआई रूपी मार्क्सवादियों ने भारतीय संविधान को मानकर साम्यवादी विचारधारा के साथ विश्वासघात किया है इसलिये ये उन्हें रिवीजनिस्ट यानी भटकाववादी कहते हैं जो मार्क्सवादी भाषा में एक भद्दी गाली है। मजूमदार की नजर में लोकतंत्र एक छलावा है और शांति के रास्ते पर चलकर सत्ता नहीं हथियाई जा सकती है। माओ उनके आदर्श हैं जो कहा करते थे कि सत्ता बंदूक की नली से निकला करती है।
चारू मजूमदार ने माओ से प्रभावित होकर ही 'एनीहिलेशन थियरी' का प्रतिपादन किया था जिसका मतलब था कि वर्गविहीन समाज बनाने के लिये अगर एक एक वर्ग शत्रु को मौत के घाट भी उतारना पड़े तो सही है। दिलचस्प बात ये है कि गिरफ्तारी के बारह दिन के अंदर जब पुलिस कस्टडी में चारू मजूमदार की संदिग्ध स्थिति में मौत हुई तो उनके समर्थकों को अचानक मानवाधिकार की याद आने लगी। इनमें नोम चोमस्की और सिमोन द बोउवा जैसे भी नामचीन लोग भी थे और ऐसे तमाम लोगों की नजर में सिद्धार्थ शंकर रे एक रक्त पिपासू मुख्यमंत्री हो गये थे। तब इन लोगों को ये याद नहीं आया कि चारू मजूमदार इंसानी गर्म खून बहाने के सबसे बड़े सिद्दांतकार थे।
आज के नक्सली माओवादी भी उसी रास्ते पर हैं। आदिवासियों, भूमिहीनों की लड़ाई की बात बकवास है। ये भारतीय लोकतांत्रिक व्यवस्था को उखाड़ फेंकने की साजिश है। ये वो लोग हैं जो भारतीय स्वतंत्रता की लड़ाई को भी नहीं मानते। इनके मुताबिक 1947 में सत्ता बदली। सत्ता का स्वरूप नहीं बदला। सत्ता अंग्रेज बुर्जुआ के हाथ से भारतीय बुर्जुआ के हाथ आयी। ये पहले भी दमनकारी थी और 1947 के बाद भी दमनकारी है, ये पहले भी सर्वहारा के खिलाफ थी और बाद मे भी। यही कारण है कि आजादी के फौरन बाद जब देश भयानक संकट के दौर पर जूझ रहा था तो सीपीआई के कुछ मार्क्सवादियों को इस संकट की घड़ी में एक मौका दिखा और तेलंगाना के बहाने सशस्त्र क्रांति का आहवान किया, इनको लगा यही मौका है साम्यवादी क्रांति का। भारतीय राज्य व्यवस्था कमजोर है एक झटका देने पर 1917 के रूस की तरह चरमरा जाएगी और वो सत्ता पर काबिज हो जाएंगे।
मैं आज भी मानता हूं कि मार्क्सवाद की शव साधना में लगे ये माओवादी अपने मकसद में कामयाब नहीं होंगे। मेरा बस इनसे और इनके समर्थकों से छोटा सा सवाल है कि अगर इन्हें वाकई गरीबों, आदिवासियों, भूमिहीनों की परवाह है और ये यकीन कि ये लोग उनके साथ हैं तो क्यों नहीं ये भारतीय लोकतंत्र में हिस्सा लेते, भारतीय संविधान के तहत अपनी पार्टी क्यों नहीं खड़ी करते, चुनाव क्यों नही लड़ते और जीत हासिल कर वो उन नीतियों को लागू क्यों नहीं करते जो ये चाहते हैं। क्योंकि लोकतंत्र में वही राजा है जिसके साथ लोग हैं और इनका दावा है कि लोग इनके साथ हैं। लेकिन ये ऐसा नहीं करेंगे क्योंकि लोग कभी सिरफिरों के साथ नहीं होते। ऐसे में ये लोकतंत्र और चुनाव का रास्ता क्यों अपनाएंगे। ये तो बस अपने सिरफिरेपन में एक ऐसे प्रयोग को अंजाम देने में लगे हैं जो सिर्फ रक्तरंजित समाज की रचना कर सकता है, हमारी और आपकी स्वतंत्रता की रक्षा नहीं कर सकता।
आशुतोष 

Comments :

3 comments to “माओवाद-मार्क्सवाद की अत्रप्त शवसाधना”
डॉ० डंडा लखनवी ने कहा…
on 

प्रभावकारी विषय वस्तु । साधुवाद!!
कृपया इसे भी पढ़िए!

कर रहे थे मौज-मस्ती

-डॉ० डंडा लखनवी

कर रहे थे मौज-मस्ती जो वतन को लूट के।
रख दिया कुछ नौजवानों ने उन्हें कल कूट के।।

सिर छिपाने की जगह सच्चाई को मिलती नहीं,
सैकडों शार्गिद पीछे चल रहे हैं झूट के।।

तोंद का आकार उनका और भी बढता गया,
एक दल से दूसरे में जब गए वे टूट के।।

मंत्रिमंडल से उन्हें किक जब पड़ी ऐसा लगा-
गगन से भू पर गिरे ज्यों बिना पैरासूट के।।

शाम से चैनल उसे हीरो बनाने पे तुले,
कल सुबह आया जमानत पे जो वापस छूट के।।

फूट के कारण गुलामी देश ये ढ़ोता रहा-
तुम भी लेलो कुछ मजा अब कालेजों से फूट के।।

अपनी बीवी से झगड़ते अब नहीं वो भूल के-
फाइटिंग में गिर गए कुछ दाँत जबसे टूट के।।

फोन पे निपटाई शादी फोन पे ही हनीमून,
इस क़दर रहते बिज़ी नेटवर्क दोनों रूट के॥

यूँ हुआ बरबाद पानी एक दिन वो आएगा-
सैकड़ों रुपए निकल जाएंगे बस दो घूट के।।

addictionofcinema ने कहा…
on 

ashutosh se isase zyada samajh ki ummid karna bekar hai. agar unhe lagta hai ki desh me loktantra hai to fir baat karne ki gunjaish hi kahan chhodte hain wo...

नीरज कुमार ने कहा…
on 

Abhi Taslima Nasreen ki ek tippadi padh raha tha, aapki iss baat par satik baithati hai-

''Freedom is when the people can speak, democracy is when the government listens.''

_ _ _ asal me loktantra to hai lekin kiska aur kiske liye?

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