Visit blogadda.com to discover Indian blogs कठफोड़वा: 'चलो फिर हमीं क़त्ल हो आयें यारों'

'चलो फिर हमीं क़त्ल हो आयें यारों'

बजट पेश हो चुका है। वाहवाही लूटी जा चुकी है। विरोध जताया जा चुका है। वो सब हो चुका है जो हर साल बजट पेश होने के बाद होता है। यानी की जिंदगी ज़ारी है। जिंदगी की कहानी ज़ारी है। जिंदगी की कविता उसका गीत ज़ारी है। अभी कल ही की बात है जम्मू कश्मीर का पूर्व मुख्यमंत्री वर्तमान वित्तमंत्री के इस संतुलित बजट पर उसकी पीठ ठोंक रहा था। ठीक इसी वक़्त कहीं से फैज़ की वो नज़्म कहीं किसी सड़क पर, रेलवे स्टेशन पर, बस - रेलगाड़ी में, पैदल चलते लोगों की उखड्तीहुई साँसों से दूर कहीं फसल काटते हुए किसान की हसियां से, हाइवे बनाने में जुटी उस सांवल मांसल युवती के पसीने से निकली जिसे मैं कभी कभी गुनगुनाता हूँ:
मेरे दिल मेरे मुसाफिर, हुआ फिर से हुकम सादिर,
के वतन बदर हों हम तुम।
दे गली गली सदायें करें रुख नगर नगर का के सुराग कोई पायें किसी यार ऐ नामवर का,
हर एक अजनबी से पूछें जो पता था अपने घर का,
सर ऐ कू ऐ ना शानाया हमे दिन से रात करना,
कभी इससे बात करना कभी उससे बात करना,
तुम्हे क्या कहूँ की क्या है, शब् ऐ ग़म बुरी बला है,
हमे ये भी था गनीमत जो कोई शुमार होता,
हमे क्या बुरा था मरना जो एक बार होता.

Comments :

1
Udan Tashtari ने कहा…
on 

हमे ये भी था गनीमत जो कोई शुमार होता,
हमे क्या बुरा था मरना जो एक बार होता.

--सब कुछ यथावत जारी है....रोज रोज मरना भी.

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