Visit blogadda.com to discover Indian blogs कठफोड़वा: फ़रवरी 2010

थारी भली होवे मीडिया ................ !



सचिन तेंदुलकर ने पुरुषों के एकदिवसीय क्रिकेट मैं २०० रन बनाने का कीर्तिमान अपने नाम सुरक्षित कर लिया | निश्चित रूप से यह भारत देश और क्रिकेट के लिए एक महानतम उपलब्धि है | किसी ने सचिन को अवतार बताया और किसी ने कुछ और | मेरे पास भी एसएम्एस का भण्डार लग गया | मध्यप्रदेश की सरजमी पर ये कारनामा हुआ तो शिवराज सिंह और उनके मंत्रिमंडल को इस पारी मैं भी अपने हिस्से फल चख लिया | उधर सचिन की पारी सज रही थी और इधर शिवराज सिंह का उड़नखटोला | विधान सभा मैं भी इसकी चर्चा हुई | यही नहीं राष्ट्रपति भवन से लेकर संसद भवन तक सचिन के नाम के जयकारे लगे | और तो और राज ठाकरे ने भी गुण गाये | यानी इस बहती गंगा मैं सभी ने अपने अपने हिस्से के हाथ धो लिए |

पर मेरी इससे नाराजी है ! एसा नहीं कि मैं सचिन के प्रदर्शन से खुश नहीं हूँ या मुझे भारत देश के नाम इस रिकॉर्ड के कारण कोई व्यक्तिगत हानि हुई है | मैं केवल यह कहना चाहता हूँ की सचिन नाम के इस देवता के पहले एक देवी इससे भी बड़ा कारनामा कर चुकी है | जी हाँ ! चौंकिए मत ! भारत की सरजमीं पर ही आज से १३ साल पहले (१६ दिसम्बर 199) ऑस्ट्रेलिया की स्टार बल्लेबाज बेलिंडा क्लार्क ने मुंबई मैं डेनमार्क के खिलाफ २२९ रनों की नाबाद पारी खेली थी | यह दोहरा शतक किसी भी एकदिवसीय अंतर्राष्ट्रीय मैच मैं तब तक पहला दोहरा शतक था | बेलिंडा ने ३० अर्धशतक और ५ शतक भी बनाये हैं | इसी साल अंतर्राष्ट्रीय क्रिकेट मैं सईद अनवर ने १९४ का रिकॉर्ड अपने नाम किया था |

यहाँ एक बार मीडिया ने फिर अपना पुरुषवादी चेहरा दिखला ही दिया | मीडिया ने एक बार भी यहाँ पुराने रेकॉर्डों की टोह लेने की कोशिश भी नहीं की या मीडिया लेना भी नहीं चाहता | सवाल यह है कि मीडिया कब तलक इस तरह का गैर जिम्मेदारना व्यवहार करता रहेगा ? एसा ही नहीं की किसी एकाध अखबार ने बल्कि सभी लगभग अखबारों और चैनलों ने यही किया | दैनिक भास्कर ने लिखा वन डे क्रिकेट के इतिहास मैं २०० रनों के एवरेस्ट को छूने का यह पहला मौक़ा है | जागरण ने लिखा कि वन डे क्रिकेट इतिहास कि पहली डबल सेंचुरी बलस्टर के नाम | पत्रिका ने लिखा कि वन डे इतिहास मैं पहली बार किसी बल्लेबाज ने बनाया दोहरा शतक | पीपुल्स समाचार ने लिखा कि मैदान मैं सचिन ने बल्ले का जादू दिखाते हुए वन डे क्रिकेट इतिहास मैं दोहरा शतक जमा डाला | नव दुनिया, राज एक्सप्रेस और तो और हिन्दुस्तान टाईम्स और हिन्दू जैसे अखबारों ने भी यह गलती की | मैं उन अखबारों की बात कर रहा हूँ जिन्हें मैं देख पाया | वो तो भला हो जनसत्ता का, जिसने तमाम मीडिया को आइना दिखाया | जनसत्ता ने लिखा है कि तेंदुलकर ने रचा एक और इतिहास | और उसने बेलिंडा के कारनामे का सम्मान किया है |

सवाल यही है कि मीडिया इतना गैरजिम्मेदार कैसा हो सकता है ? और जनसत्ता जैसे अखबार क्यूँ अपनी जिम्मेदारी सही से निभाते रहे हैं | इसका दूसरा पहलु यह भी है कि मीडिया ने एक बार फिर अपना पुरुषवादी चेहरा उजागर किया है | लेकिन मीडिया कैसे इन तथ्यों को दरकिनार करके आगे जा सकता है | आज जनमानस में एक ही चीज है कि सचिन ने ही यह कारनामा किया और जिसकी मीडिया ने खूब मुखालफत की, लेकिन ये जनमानस को कौन बताये कि सचिन नामक भगवान् से पहले भी एक देवी रही है | ज्ञात हो कि इस वर्ष हम सभी अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस की शताब्दी मना रहे हैं | इस वर्ष की थीम है "समान अधिकार, समान अवसर : सबकी उन्नति |" अभी से इस मीडिया इस प्रसंग पर बड़ा चिंचित है | अखबार अभी से आलेख लिखवा रहे हैं , गोष्ठियों में वक्ता बुक किये जा रहे हैं वगैरह वगैरह | लेकिन महिला के किये कारनामों को सम्मान देने की ना तो तैयारी किसी की दिखती है और ना ही मंशा | बेलिंडा और सचिन का ये प्रसंग इसका एक ताजा उदाहरण है |

सचिन को भगवान् का दर्जा दिया जाना कोई गलत काम नहीं है लेकिन एक देवी ने जो कारनामा आज से १३ साल पहले कर दिया हो उसे बिसारना कहाँ तक उचित है | मीडिया के इस गैर जिम्मेदारना रवैये पर बालिका वधु की तर्ज पर यही कहने को दिल करता है कि थारी भली होवे मीडिया

आउटडेटेड देवियां!

मकबूल को ही क्यों, मुझे भी देवी-देवता नंगे दिखते थे…थे इसलिए कि आजकल नंगई देखने के मेरे पास ढेर सारे विकल्प हैं। कुछ उसी तरह जैसे सरस्वती के बाद मकबूल की नजर माधुरी पर गड़ गयी, भले ही दोनों को देखने के उनके भाव अलग-अलग हो।
मैं यहां बता दूं कि जब न चाहते हुए भी मुझे हिन्दू देवियां नंगी दिखती थी, तब मैं चौथी-पांचवी-छठी-सातवीं-आठवीं-नौवी-दसवीं में पढ़ता था और ब्रह्यचर्य के सिद्धान्तों पर खरा उतरने की कोशिश करता था। मेरी भाभियां मुझे अपना सबसे अच्छा देवर, बहने सबसे अच्छा भाई, मायें अच्छा बेटा और गांव सीधा लड़का मानता था। मैं अपने सहपाठियों और दोस्तों के इश्कबाजी के जांबाज किस्सों को नजरअंदाज करता अकेले रहना पसंद करता था। उस घर में जहां देवी-देवताओं के फोटो टंगे रहते थे और मेरे पढ़ने का टेबल भी।,खूब पूजापाठ किया करता था और भगवान से मांफी मांगते हुए उनकी बगल में खड़ी देवियों को चोरी से निहारता भी था।

भगवान से डरता भी था और अपने उपर खूब हंसता भी।
राधा की लहराती कमर को निहारते हुए जब मेरी निगाहें राधा से टकराती थी-तो उनसे मांफी मांग लेता था, लेकिन मन ही मन कृष्ण से कहता-ये दिमाग भी तो तुन्हें ही बनाया! लेकिन कोई मुझे ये बताए कि क्या देवी-देवताओं को गौर से देखना कोई गुनाह है। जैसा कि अधिकतर लोग मानते हैं कि भगवान ने ही इंसानों को गढ़ा है, तो हमें देवी-देवताओं के गढ़न को गौर से देखने का हक है भी कि नहीं…क्या एक देवता को नर और देवी को मादा के रूप में नहीं देखने का योगा करना पड़ेगा।
आपने कभी आठ भुजाओं वाली देवी के चमत्कार देखने के बजाय, क्या इस तरह देखा है कि इस देवी की आठ बाहों वाला ब्लाउज कौन दर्जी सिलता होगा?
कृष्ण जब गोपियों संग रासलीला कर रहे होते हैं तो क्या हम सिर्फ यही सोचते रहें कि यह भगवान की लीला है या गोपियों और राधा के शरीर और भावों पर भी हमारी नजर और दिमाग जा सकता है!
और आज वहीं देवियां आउटडेटेड हो गयी हैं, उनकी जगह बॉलीवुड और हॉलीवुड की सुंदरियों ने ले ली है, रही बात उनसे जुड़े धार्मिक उपदेश की तो लोग देवी-देवताओं से बहुत आगे की सोच रहे हैं और जी भी रहे हैं!
समस्या मकबूल की पेंटिंग में नहीं, उनका विरोध करने वालों की मानसिकता में है।
· (मेरा उद्देश्य मकबूल को सही ठहराना नहीं, बल्कि मुर्खाना विरोध और उसपर की जा रही राजनीति से है)

क्या यह इंसानों का बजट था?

अगर मैं कहूं कि सांस लेने के लिए हवा, पीने के लिए पानी, रौशनी के लिए सूरज, पढ़ने के लिए स्कूल, पेट के लिए भोजन, पहनने के लिए कपड़ा और रहने के लिए एक छज्जा तो सभी के लिए जरूरी है, तो क्या मैं वाकई कोई हास्यास्पद बात कर रहा हूं। अगर मैं कहूं कि किसी महान देश का नागरिक होने के नाते नहीं, बल्कि एक आदमी होने के नाते हर आदमी को उसका हक तो मिलना ही चाहिए, क्या यह भी कोई हास्यास्पद बात है। 24 फरवरी सन् 2010 को भारत की रेलमंत्री ममता बनर्जी ने अपने नागरिकों (भारत में सफर करने वाले विदेशियों के लिए भी) का रेल बजट पेश किया, लेकिन औपनिवेशिक दौर से ही चले आ रहे यात्राओं के अमानवीय सफर की तरफ ध्यान भी नहीं दिया और पिछले रेलमंत्रियों और सरकारों की तरह इस बार भी भेदभाव के सफर को जारी रखा।

मैं बात कर रहा हूं रेलवे का अभिन्न अंग बन चुके उस साधारण डिब्बे की, जो भारत की वर्ण व्यवस्था की तरह देश की बहुसंख्यक जनता के सफर की नियति बन चुकी है। 70 सीटों वाले इस डिब्बे में यात्री तब तक घुसने की जुगत में लगे रहते हैं जबतक कि डिब्बे के दरवाजे पर लटकने की जरा-सी भी गुंजाइश बची हो। कभी ऐसे ही ठसाठस भरे डिब्बे के पास जाइए और केवल समझने के तौर पर अपने बैग बोगी में घुसाने का प्रयास कीजिए। आप पाएंगे कि पहले तो लोग बैग भीतर जाने से ही रोकेंगे और अगर किसी तरह आपका बैग डिब्बे में घुस गया तो वह एक हाथ से दूसरे हाथ, दूसरे हाथ से तीसरे, उपर ही उपर वह पूरी बोगी में सफर कर जाएगा और यह भी तय है कि कुछ मिनटों बाद उसे भी जगह मिल ही जाएगी, लेकिन उस बैग को बोगी से बाहर फेंकने का ख्याल किसी भी यात्री के दिमाग में नहीं आयेगा। लेकिन यही यात्री भारत में सफर की इस वर्ग व्यवस्था का कभी-कभी शिकार भी बन जाते हैं, जिनकी ट्रेन से गिरकर घायल होने या मरने की खबरें हमें अखबारों में अक्सर पढ़ने को मिल जाती हैं।

मैं ये बातें आदमी के हक को खैरात समझने वालों या उन मीडियाकर्मियों के तर्क कि सचिन की सेंचुरी के सामने ममता के बजट की क्या चर्चा, के विरोध में नहीं लिख रहा हूं। बल्कि इसलिए लिख रहा हूं कि आज जब मैं अपने दोस्त जितेन्द्र को छोड़ने नई दिल्ली रेलवे स्टेशन पहुंचा तो दरभंगा जाने वाली बिहार संपर्क क्रान्ति एक्सप्रेस के एसी टू टीयर के यात्री इस बात से काफी खुश दिखे कि आर्थिक मंदी और कमरतोड़ महंगाई के बावजूद दीदी ने इस बार यात्री किराए में कोई बढ़ोतरी नहीं की। वहीं दूसरी तरफ 17-18 डिब्बों वाली इस ट्रेन के साधारण डिब्बे का नजारा ही दूसरा था। ओवरफ्लो हो चुके डिब्बों में घुसने का प्रयास कर रहे यात्रियों पर पुलिस डंडे बरसा रही थी और ज्यादा पैसा लेकर टीटी जनरल से स्लीपर का वेटिंग का टिकट बना रहे थे। आप विश्वास मानिये कि यह काम कोई एक-दो टीटी नहीं, बल्कि इस काम में करीब 80-90 टीटी लगे हुए थे। स्लीपर और जनरल में फर्क करना मुश्किल था।

इतिहास की पुस्तकों के उन पन्नों को पलटिए या फिर उन फिल्मों को देखिए, जिसमें हिटलर कैसे अपने विरोधियों को गैस चैंबर में झोकने से पहले, मालगाड़ी के डिब्बों में लोगों को भेड़-बकरियों की तरह ढूंस-ढूंस कर भरवाता था। पूरी मानवता को ही स्वाहा करने का दौर था वह, लोग लाचार थे और प्रतिरोधी भी। लेकिन हिटलरकाल से भी बदतर स्थिति में भारत की साधारण डिब्बे में सफर करने वाले ये अभिशप्त, पुलिस के डंडे खाते और टीटी की लूट का शिकार होते लोग किस आजाद देश के नागरिक हैं!

इस बजट को ममता के रेल बजट के रूप में देखने की भूल एकदम मत कीजिए, बल्कि इसके लिए अर्जुन सेन गुप्ता कमेटी के भारत में गरीबी के आकड़े को देखिए। जिसके मुताबिक, हमारे देश में 78 फीसदी ऐसे लोग हैं, जिनकी एक दिन की कमाई मात्र 20 रूपये है, उनमें भी ये 28 फीसदी शहरी गरीब हैं और 72 फीसदी ग्रामीण। बाकी बचे 22 फीसदी में अंबानी हैं, आप-हम हैं और 21 रूपये में जीवन गुजर-बसर करने वाले घुरहू-कतवारू भी हैं। क्या देश की 80 फीसदी आबादी को सफर करने की कीमत अपने आदमी होने के हक को कुर्बान करके ही तय की जा सकती है। अगर साधारण डिब्बे की संकल्पना, सीट रिजर्व न हो पाने की तत्काल व्यवस्था के रूप में होती तो बात कुछ हद तक समझ में भी आती, हमारे महान देश में तो तत्काल यात्रा को भी दो दिन पहले ही रिजर्व कर लिया जाता है।

और अंत में जवाहर खानदान की बहू मेनका गांधी के उस महामानववाद को याद कीजिए। उनके मुताबिक, हम कितने सभ्य हैं, इस बात से पता चलता है कि हमारा समाज जानवरों के साथ कैसा बर्ताव करता है। मुझे नहीं लगता कि कोई भी आदमी उनकी इस बात का विरोध करेगा, लेकिन जब वह कहती हैं कि एक ट्रक में तीन से ज्यादा पशु नहीं जाने चाहिए, हम भी कहते हैं कि जानवरों के साथ अमानवीय बर्ताव नहीं होना चाहिए, लेकिन ऐसी सोच पशुओं के मामले में ही क्यो? साधारण डिब्बे में आलू-बैगन की तरह ठंसे आदमियों को निरपेक्षभाव से देखने की हमें आदत क्यों पड़ गयी है?

अभिनेता निर्मल पांडे नहीं रहे

अभिनेता निर्मल पांडे की हार्ट अटैक से मृत्यु हो गई है। सीने में दर्द के बाद निर्मल को अंधेरी, मुबंई के हॉस्पीटल में भर्ती किया गया था । निर्मल को शेखर कपूर की फिल्म बेंडिट क्वीन के विक्रम मल्लाह के लिए हमेशा याद किया जाएगा 

बेमतलब कि शोहरत क्या होती है?

जिसने इस बार के तहलका का हिंदी संस्करण पढ़ लिया होगा उसे जरूर पता चल गया होगा लेकिन जिन लोगों ने नहीं पढ़ा उनके लिए तो थोडा बात का सन्दर्भ समझाना ही होगा
इधर लम्बे समय से मेरी उदय प्रकाश जी से मुलाकात नहीं हुई. कुछ दिनों पहले उनके ब्लॉग पर पढ़ा था कि जर्मनी की यात्रा पर जा रहें हैं वो भी भला क्यों? फ़्रैंकफ़ुर्ट विश्व पुस्तक मेला में सिरकत करने. अब इसे साहित्य अकादेमी के पूर्व अध्यक्ष माननीय  गोपीचंद नारंग के फ़्रैंकफ़ुर्ट के विश्व पुस्तक मेले में सरकारी खर्चे पर अपने बीवी को घुमाने जैसा नहीं समझ लीजियेगा (हालाँकि बाद में हो-हल्ला करने पर उन्होंने अपनी पत्नि पर खर्च हुए धन को वापस कर दिया था) असल में उदय को अपनी पुस्तक "पीली  छतरी वाली लड़की" के जर्मन संस्करण के लोकार्पण के अवसर पर बुलाया गया था वही "पीली छतरी वाली लड़की" जिसे प्रत्यक्षा नाम की एक कथाकारा, जिनके बारे में कुछ बताना तो "सूरज को दिया दिखाना है या फिर ऐसा कहें कि पूरे पढ़े लेख के नीचे उसका लिंक देना है। वे कवियत्री है, कथाकार है, चित्रकार हैं, मूर्तिकार हैं, धुरंधर पाठिका हैं, संगीतप्रेमी हैं और चिट्ठाकार तो खैर हैं हीं।" ये सब मैं नहीं कह रहा हूँ बल्कि ये शब्द फुरसतिया के हैं जो प्रत्यक्षा जी के लिए लिखे गए हैं. इन शब्दों पर किसी को आपति भी नहीं होनी चाहिए सबकी अपनी अपनी समझ है-समझदारी है मुझे भी कोई आपति नहीं है लेकिन प्रत्यक्षा जी से जब तहलका ने एक साक्षात्कार के दौरान पूछा कि ऐसी रचना का नाम बतायें "जिसे बेमतलब की शोहरत मिली" प्रत्यक्षा का जवाब था- "पीली छतरी वाली लड़की". अब पता नहीं इस कथाकार-चित्रकार-मूर्तिकार ने ये जवाब किताब को पढने के बाद दिया था या अब तक पढ़ा ही नहीं है मुझे लगता है पढ़ा नहीं होगा कई बार ऐसा हो जाता है लेकिन यदि यह जवाब पीली छतरी वाली लड़की को पढ़कर दिया गया है तब तो हमें प्रत्यक्षा की समझदारी पर सवाल खड़ा करना ही होगा

बेमतलब कि शोहरत क्या होती है?

अच्छा सन्दर्भ तो हो गया मैं मुद्दे पर आता हूँ आखिर बेमतलब कि शोहरत होती क्या है? वर्ष १९४६ में कुरुर्तुल-एन-हैदर की "आग का दरिया" को PEN USA Translation Fund Award दिया गया था उसके एक लम्बे अन्तराल के बाद कहीं २००५ में यह अवार्ड फिर किसी हिंदी लेखक को दिया गया और यह उदय प्रकाश कि "पीली छतरी वाली लड़की" थी यह बेवजह हो सकता है जरूरी नहीं कि कोई अवार्ड किसी पुस्तक को पर्याप्त वजहों के बाद ही दिया जाए और वैसे भी अवार्ड किसी पुस्तक के उत्कृष्ट होने का प्रमाण नहीं होते है नहीं तो हर दिन जो अवार्ड के लिए मारामारी होती है वह ना होती 
 
अभी हाल ही में दुनिया भर के तमाम भाषाओं के पुस्तकों के सन्दर्भ में लोगों से राय मांगी जा रही है उस लिस्ट में पीली छतरी वाली लड़की का अंग्रेजी संस्करण भी शामिल है लेकिन इसे भी सर्वोत्कृष्ट का पैमाना नहीं माना जा सकता आजकल तो किसी भी बुक स्टाल पर जाओ बेस्ट सेलर कि भरमार लगी रहती है
 
पीली छतरी वाली लड़की का अंग्रेजी एवं जर्मन भाषा में अनुवाद तो हुआ ही तमाम भारतीय भाषाओं में भी अनुवाद हो चुका है हालाँकि आजकल प्रकाशक जिस पुस्तक का देखो उसी पुस्तक का अनुवाद कराकर मार्केट में लांच कर दे रहें हैं जैसे अमरीशपुरी पर लिखे गए किताब के इंग्लिश अनुवाद का विमोचन मान्यवर अरुण महेश्वरी ने विश्व पुस्तक मेले के दौरान अभिनेता इरफ़ान खान से कराया लेकिन मुझे एक बात पता नहीं चली कि आखिर यह पुस्तक मूल भाषा में कब छप कर आई 
 
बहरहाल एक खबर आई थी कि पीली छतरी वाली लड़की पर न्यूजीलैंड में एक फिल्म भी बनायीं जा रही है प्रत्यक्षा जी अगर ये सब बेवजह हो रहा है तो एक बार इस बेवजह की वजह जरूर तलाशनी चाहिए और इस तलाश में शायद आपको पीली छतरी वाली लड़की की सार्थकता का एहसास हो जाए 
 
मेरे द्वारा बताई गयी सारी बातें बेवजह हो सकती हैं लेकिन जितनी बार मैंने पीली छतरी वाली लड़की पढ़ी उतनी बार मेरें आँखों के सामने बाज़ार का 'दर्शन' घूमने लगा है

आमिर का शिगुफ़ा


आमिर खान ने अभी-अभी एक शिगुफ़ा छोड़ा है की किसी गाने के हिट होने का उसके गीत या गीत के बोलों से कोई लेना-देना नहीं होता है. इस वक्तब्य के पीछे आमिर साहेब की क्या मनसा है वह जाहिर नहीं होती है लेकिन यह वक्तब्य हमारे समय या इतिहास के महान गीतकारों को झूठलाने की कोशिश है. एक छोटा सा विवाद अगर आप लोगों को याद हो "इब्न-बतूता" जो इन दिनों सुर्ख़ियों में रहा है जिसमे गीत के बोल को चुराने का आरोप हमारे समय के हस्ताक्षर गुलज़ार के ऊपर लगाया गया मैं इस विवाद पर कुछ भी नहीं कहूँगा क्योंकि सर्वेश्वर भी मेरे अज़ीज़ हैं  लेकिन ये बताना चाहूँगा की ये विवाद सिर्फ गीत के बोलों की वजह से ही मुद्दा बन गया.
 
आज हम इस दौर के गीतों की तमाम ख़ूबसूरती  के बावजूद गीतों के कंटेंट के कारण उनकी आलोचना करते रहते है और दुहाई देते नहीं थकते कि पहले गीतों में रस हुआ करता था ऐसा रस जो लोगों के  दिलों दिमाग पर छा जाता था आज वो नहीं हो रहा है
 
मैं संगीत पक्ष को नकार नहीं रहा हूँ क्योंकि इसी वजह से वह कर्णप्रिय बन सके लेकिन अगर कंटेंट नहीं होगा तो लाख संगीत अच्छा हो लोगों कि जुबान पर लम्बे समय तक नहीं बना रह पायेगा कई ऐसे गीत हैं जो संगीत के मोहताज नहीं हैं भरी महफ़िल में गुनगुना दिया जाए तो लोग झूम उठते हैं
 

राहुल बाबा आप एक बार फ़िर आईये और देखिये आपके दौरे के बाद भी विदर्भ का क्या हाल है!पानी अभी से खत्म हो रहा है और बिजली उसका भी भगवान ही मालिक है!

ब्लॉग वाणी पर अनिल पुसाडकर जी के ब्लॉग "अमीर धरती गरीब लोग" पर लिखा एक विचारोत्तेजक लेख देखामुझे लगा की जो साथी भागीरथ के विचारों को पढ़ चुके हैं उन्हें निश्चित ही इस ब्रांडिंग की सूंघ मिल चुकी होगीमामला सिर्फ दौरे या छवि बनाने तक ही सिमित होती तो मन को मना लेते लेकिन ये तो घोर राजनीति छलावा है और यह बुंदेलखंड या बिदर्भ के दर्द के साथ खिलवाड़ जैसा है लोग चीख रहे है चिल्ला रहे लेकिन नेता सिर्फ दौरे कर रहे हैं एक बात और भी है हमारे कठफोड़वे के मर्म का दर्द शायद लिखकर या पढ़कर नहीं लगाया जा सकता है जो बुंदेलखंड या बिदर्भ में रहा है और जिसने इससे करीब से देखा है वही जानता होगा की बिदर्भ या बुंदेलखंड में रहने का मतलब क्या होता हैप्रस्तुत है अनिल जी के ब्लॉग पर लिखा लेख -

सप्ताह भर विदर्भ घूम कर कल वापस छत्तीसगढ लौटा हूं।विदर्भ मे अलग राज्य की मांग फ़िर से ज़ोर मार रही है लेकिन अभी कंही तोड़-फ़ोड़ नही हुई,रेल नही रूकी और कंही आगजनी नही हुई इसलिये शायद खबर नही बन पा रही है।वैसे भी इस देश मे खबर तो बनती है धमाकों से,ठाकरे बन्धुओं से,सोनिया जी से,खान से,हिंदू-मुसलमान से और राहुल बाबा से ये राहुल बाबा भी विदर्भ मे किसानों की आत्मह्त्या से द्रवित होकर वंहा का दौरा कर चुके हैं,द्रवित हो चुके हैं।उसके बाद उन्हे शायद याद ही नही रहा है कि इस देश मे विदर्भ नाम की कोई जगह है।मैं ये सब राहुल बाबा से इसलिये कह रहा हूं कि महाराष्ट्र की सरकार तो कठपुतली है और उसके मंत्री तो राहुल बाबा की चप्पलें तक़ उठाते हैं,तो चप्पले उठाने वालों से कहने की बजाय मैने सीधे राहुल बाबा से ही कहना उचित समझा।और रहा सवाल मराठियों के ठेकेदारों का तो उनके लिये मराठी माने मुम्बईकर बस्।विदर्भ के नाम से तो वैसे ही चिढ है,वे अलग होने की बात कर रहे है इसलिये उनके बारे मे सोचना ही उनके लिये पाप है।फ़िर वेसे भी उनके पास फ़िल्म का प्रदर्शन रोकना,खिलाड़ियों को रोकना,एक दूसरे को टोकना और आमना-सामना खेलेने से फ़ुरसत नही है।

ऐसे मे सिर्फ़ राहुल बाबा ही एक नेता हैं जो गरीबी की ब्राण्डिंग मे अपनी दादी इंदिरा जी के रास्ते पर चलते नज़र आ रहे हैं।गरीबी सुनते ही उनके आंसू निकले या ना निकले उनके मुख से डायलाग बरसने लगते हैं।और आनन-फ़ानन मे भी वे उधर दौरे पर भी निकल पड़ते हैं,जैसे पिछ्ली बार घूम आये थे।अरे उसके बाद वंहा का क्या हाल है पूछा भी है कभी?या सिर्फ़ पब्लिसिटी स्टंट करने को ही राजनिती मानते हैं।

मीडिया भी राहुल बाबा से कम नही है।वंहा के लोकल अख़बार चीख-चीख कर कह रहें है कि विदर्भ पर भीषण जलसंकट है।अभी से 6000 गावों में जलसंकट छा गया है।नागपुर संभाग के तीन हज़ार और अमरावती संभाग क तीन हज़ार गांव मे अभी से पानी की मारा-मारी शुरू हो गई है।इसके अलावा अकोला का हाल तो और भी खराब है।जिन गांवों मे पानी मे पानी की आपूर्ती नलों से होती थी वंहा अभी से सप्ताह में दो-दिन,या तीन दिन ही पानी दिया जा रहा है।जिन गांवों मे मैं पहले भी जा चुका हूं और जंहा पानी भरपूर रहा है,वंहा भी पानी खरीदने की नौबत आ गई है।

सिंचाई तो बहुत दूर की बात है अब तो पीने और नहाने के लाले पड़ते नज़र आ रहें हैं।अण्डर ग्राऊण्ड वाटर का लेवेल अभी से एक से तीन मीटर नीचे जा चुका है।अभी फ़रवरी चल रहा है और ये हाल है तो मई-जून की कल्पना करके ही हालत खराब हो रही है।

पानी के अलावा बिजली भी विदर्भ के लोगों के लिये दुर्लभ चीज़ होती जा रही है।सालों से कटौती झेल रहे लोगों ने इस साल थोड़ा राहत पाई थी मगर नागपुर मे हुई एक उच्चस्तरीय सरकारी बैठक में ये बात साफ़ हो गई कि बिजली का संकट भी भीषण ही होगा।चंद्रपुर की दो उत्पादन इकाईयों का बंद होना लगभग तय ही है।वंहा के बांध मे पानी आधा भी नही रह गया है।यही हाल दूसरी जल-विद्युत परियोजनाओं का है।कोयना के भरोसे पूरा प्रदेश चल नही सकता।और सरकार इस संकट से मुंह छिपाने के लिये अभी से बरसात को ज़िम्मेदार ठहरा रही है।उसका कहना है कि बरसात मे कम पानी गिरने का रोना रो रही है।

अब बताईये! पानी नही,बिजली नही!ऐसे में जीना कितना मुश्किल हो जायेगा।भीषण गर्मी और भीषण जलसंकट,भीषणसंकट बिजली संकट आम आदमी जीयेगा तो कैसे जियेगा?

राहुल बाबा आप एक बार फ़िर आईये और देखिये आपके दौरे के बाद भी विदर्भ का क्या हाल है!पानी अभी से खत्म हो रहा है और बिजली उसका भी भगवान ही मालिक है!

http://anilpusadkar.blogspot.com/2010/02/blog-post_17.html

वैसे आजकल मैं भी तो अपना एक ब्लॉग चलाता हूँ

मैं एक ब्लॉग चलाता हूँ ,

आप इसके मायने नहीं जानते !
आप मुझे केवल बुद्धिजीवी मान बैठे हैं,
पर मेरे पास
किसी पर भी कीचड उछालने का अब एक औजार है !!!!
यहाँ कोई रोक- टोक नहीं
कुछ भी लिख दूँ किसी के भी बारे मैं, बात करूँ या ना करूँ उससे |
मैं ही रिपोर्टर, मैं ही सम्पादक
खबरें काटना, छांटना या उनमें मसाले भरना
सब कुछ मेरे हाथ मैं है
और आपकी प्रतिक्रया छापना, न छापना भी मेरे हाथ मैं है
क्यूंकि मैं ही मोडरेटर भी हूँ |
मेरे ऊपर कोई दवाब भी नहीं है, किसी मालिक या सम्पादक टाइप के किसी भी व्यक्ति का |
आप ख्वामखाह मुझे रचनाधर्मी / मौलिक/ साहित्यिक/ कलाप्रेमी वगेरह कुछ मान बैठे थे
पर मैं आपके जाले साफ़ करना चाहता हूँ |
मैं विशुद्ध रूप से एक दुकानदार हूँ, और अपनी दूकान चलाता हूँ |
कोई पैसा कमाता है, मैं रीडरशिप कमाता हूँ
वैसे आप उससे ही मेरे कद का अंदाजा लगाते हैं
इसलिए मैं उसमें कुच्छेक देशों का गणित वाला एक स्तम्भ रख देता हूँ |
बात यहीं ख़तम नहीं होती है
यह तो केवल एक बानगी है
आप भी आयें अपनी दूकान चलायें
आप विश्वास करें, दुनिया मैं कई फालतू हैं
रोजाना १० लोग अपने ब्लॉग पर जरुर आयेंगे
२ आपका गुणगान करेंगे, बचे ८ मैं से ४ आपको बुरा कहेंगे
उनकी सुनता कौन है
मोडरेटर हम हैं, और हम उसे प्रकशित नहीं करते
एक सुविधा और है यहाँ
आप अपने ब्लॉग पर किसी और नाम से भी अपनी दूकान चला सकते हैं
इसे भड़ास कहते हैं
तो
साथियों आयें अपना एक ब्लॉग बनाएं
हालाँकि होली पर कीचड उछाली जाती है
लेकिन यहाँ साल भर एक दूजे पर कीचड उछालें, गरियाएं
पर अपना एक ब्लॉग बनाएं
वैसे आजकल मैं भी तो अपना एक ब्लॉग चलाता हूँ |

राहुलमय मीडिया

राहुल गांधी के दौरे हमेशा सुर्खियों में रहे हैं। उनके हर दौरे में मीडिया की एक बहुत बड़ी जमात उनके आगे पीछे ऐसे डोलती है जैसे राहुल बाबा उनके तारणहार हों। राहुल बाबा ने क्या खाया, क्या पिया, किससे मिले, कहां गए, किस दलित के घर रात बिताई, किसके साथ खाना खाया, किस विश्वविद्यालय में छात्रों से मुखातिब हुए, सब पर मीडिया की पैनी नज़र रही।

मुम्बई में तो मीडिया ने राहुल बाबा के गुणगान की सारी हदें तोड़ दीं। चैनलों ने राहुल बाबा की पल-पल की खबर दी, हर पल की खबर दी और खबर हर कीमत पर दी। राहुल ने एटीएम से पैसे निकाले, लोकल ट्रेन में सफर किया। लोगों से बात की। उनकी परेशानियों के बारे में पूछा। लगभग सभी छोटे-बडे़ चैनलों पर राहुल बाबा के भजन चल रहे थे। इन भजनों को देखकर लगा जैसे राहुल बाबा कोई ऐतिहासिक पुरूष हों बहुत बड़े मिशन पर निकले हों। भारत के एकमात्र ऐसे व्यक्ति हों जिन्हें भारत की सचमुच बहुत चिन्ता हो। उस व्यवस्था में बदलाव लाना चाहते हों जो उनके पूर्वजों की देन है। उनके पीछे मीडिया की इतनी बड़ी जमात देखकर एक पल ऐसा भी लगता है जैसे कांग्रेस ने इन सभी चैनलों के साथ डील कर रखी हो। यह अलग बात है कि हमेशा यह बताने की कोशिश की जाती है कि राहुल ने मीडिया से दूरी बनाकर रखी या मीडिया से बचते रहे। लेकिन वे कभी मीडिया से नहीं बच पाते। देश के अति पिछले इलाकों में दौरों के दौरान भी नहीं बचे जहां मीडिया के दर्शन दुर्लभ होते हैं। राहुल बाबा गए तो मीडिया को भी मजबूरन पीछे-पीछे जाना पड़ा।

राहुल गांधी पिछले साल जब छत्तीसगढ़ दौरे पर थे, एक छात्र ने उनसे एक बहुत वाजिब सवाल पूछा कि भारत की आजादी के इतने बरस बाद भी कृषि मानसून पर क्यों निर्भर है, जबकि देश में आजादी के बाद से कुछेक सालों के आलावा कांग्रेस का ही राज रहा है। राहुल गांधी ने बहुत मासूमियत से इस सवाल को टाल दिया था। राहुल गांधी अक्सर ऐसे चुभने वाले सवालों को ऐसी ही मासूमियत से टाल देते हैं।

राहुल गांधी को सचमुच देश की फिक्र है। गरीब-गुरबों की चिंता है। छत्तीसगढ़ दौरे से पहले साल 2008 में सूखे की मार झेल रहे बुन्देलखण्ड दौरे पर भी गए थे। लोगों से मिले, उनसे बात की। यह साबित करने की कोई कसर नहीं छोड़ी थी कि वे ही उनके सच्चे हितैषी हैं, मायावती सिर्फ उनका वोट बैंक के तौ
र पर इस्तेमाल कर रही है। उन्होंने बुन्देलखण्ड की प्यासी जमीन पर खूब पसीनें की बून्दे गिराईं।

दूसरे दिन शायद बुन्देलखण्ड दौरे की थकान मिटाने के लिए आईपीएल के मजे लूटते नज़र आए। सहसा लगा कि क्या ये वही राहुल गांधी है जो कल तक बुन्देलखण्ड के किसानों और दलितों के घर में उनके हालात पर दुखी और चिन्ता जाहिर कर रहे थे। उनके सच्चे और एकमात्र शुभचिन्तक होने का दावा कर रहे थे। किसानों के मुरझाए झुर्रीदार चेहरों और दो वक्त की रोटी के लिए भगवान से दुआ मांगने वाले लोगों की तस्वीरें इतनी जल्दी उनकी दृष्टि से ओझल हो जाएंगी? क्योंकि अगर आप विदर्भ बनते जा रहे बुन्देलखण्ड के किसानों के घर में घुसकर देखें तो आपको एक अजब से बैचनी होगी। उनसे बात करते वक़्त हो सकता है कि यह व्यवस्था से कोफ्त होने लगे। अगर आपको सचमुच उनकी चिन्ता है तो उनकी हालत देखकर आपकी रातों की नीन्द उड़नी तय है। अगर ऐसा नहीं है तो आप उनके हमदर्द होने का जो दावा करते हैं, वह झूठा है, खोखला है। आपकी बातें सिर्फ कागजी हैं।

पर इससे मीडिया को क्या? जो बिकता है वो दिखता है। अब तो जो बिकता नहीं उसे भी बेचने की तमाम कोशिशें मीडिया कर रहा है। पेड न्यूज का जमाना है। कहीं ऐसा तो नहीं पेड न्यूज के जरिए देशभर में राहुल बाबा की ऐसी छवि और माहौल बनाया जा रहो हो ताकि आने वाले सालों में वे बिना कोई परेशानी आसानी से प्रधानमंत्री की कुर्सी पर चढ़ बैठें?

रियलिटी शो के बहाने

एक बूढ़ा अभिनेता जिसके दिन शायद लद चुके थे अचानक से बुद्धू बक्शे पर लोगों को करोड़पति बनाने का नुस्खा लेकर अवतरित हुआ। भले ही करोड़पति बनाने का यह फार्मूला विदेशों से चुराया गया हो लेकिन भारत में टीवी के इतिहास में यह एक नए युग की शुरूआत थी। असल में दर्शक छोटे पर्दे पर लहराती और झिलमिलाती तस्वीरें देखकर ऊब गए थे, लेकिन भला हो केबल क्रान्ति का जिसने लोगों को घर-घर की कहानी दिखाई। लेकिन कितने दिन! धीरे-धीरे लोग इस घिसे-पिटे फार्मूले से भी भर आए थे। जिस चैनल पर जाओ वहीं अच्छे खासे परिवार को तोड़ने का किस्सा सुनाया जा रहा था। पुजी जाने वाली नारी ने धीरे-धीरे खलनायिका का और फिर पूंजी का रूप ले लिया था। 'कौन बनेगा करोड़पति' की अपार सफलता के बाद तो जैसे बाढ़ ही आ गई। हालाँकि 'विवा' भारतीय इतिहास का पहला रिअलिटी कार्यक्रम था।
साठ के दशक में कैलिफोर्निया में 'नाइटवाच' के नाम से एक सीरीज आती थी जो एक तरह का अनूठा प्रयोग था। इसमें कैलिफोर्निया पुलिस की गतिविधियों एवं उसकी बातचीत को रेडियो पर प्रसारित किया जाता था। 1973 में 'एन अमेरिकन फैमिली' जो 12 भागों में विभाजित एक टीवी सीरीज था, ने पहली बार दर्शकों को वास्तविक घटनाओं को हूबहू देखने का मौका दिया। इस धारावाहिक में एक दंपत्ति और परिवार के अन्य सदस्यों के सात महीनों के रहन-सहन को कैमरे में कैद किया गया जिसमे दंपत्ति तलाक लेता है। और शायद टेलीविज़न पर पहली बार कोई 'गे' दिखाया गया था। टेलीविज़न इतिहास में पहली बार यह एक वास्तविक घटनाओं पर आधारित वृत्तचित्र शैली में सच्चे पात्रों के साथ फिल्माया गया सीरियल था और इसने रियलिटी शो की एक नई विधा को जन्म दिया। धीरे-धीरे इस विधा पर कई प्रयोग हुए। तरह-तरह के टीवी सीरियल बनाए गए। 1977 में स्वीडिश टीवी द्वारा दिखाए गए 'एक्सपेडिशन रोबिन्सन' की अपार सफलता के बाद रियलिटी टीवी को सनसनीखेज और दर्शकों को बांधे रखने का अचूक तरीका हाथ लग गया। इसे कई और अन्य देशों ने अलग-अलग नामों से (जैसे सरवाईवर) प्रदर्शित किया। इसमें एक प्रतिभागी दूसरे प्रतिभागी को अपने चकमे-चालाकियों और खेल के नियमों के तहत पछाड़ने की कोशिश करता था और कमजोर प्रतिभागी धीरे-धीरे एक-एक कर प्रतियोगिता से बाहर होते जाते और आखिरी बचने वाला विजेता घोषित कर दिया जाता। यह 'एलिमिनेशन तकनीक' थी, जिसमें दर्शकों को बड़ा मजा आता था। तकनीकी आधुनिकीकरण ने इस खेल को और मंनोरंजक बना दिया। मोबाइल सन्देशों के माध्यम से दर्शकों को सीधे-सीधे कार्यक्रम से जोड़ दिया जाने लगा। कोई भी दर्शक अपने मनचाहे प्रतियोगी को अपना वोट एसएमएस के माध्यम से भेज सकता था। कार्यक्रम की टीआरपी बढ़ती और हर सन्देश के बाद दर्शकों के मोबाइल का पैसा घटता जाता। कमाई जोरों पर थी। कार्यक्रम भी तो पैसा कमाने के लिए ही बनाया गया था।

एक दूसरा शो जो लगातार पांच सालों तक लोकप्रियता के शीर्ष पर रहा, उसने भी रियलिटी शो के एक नई विधा को जन्म दिया। हालांकि 'एलिमिनेशन तकनीक' ने यहां भी अपना रंग दिखाया। यह शो 'अमेरिकन आयडल' था जिसने पहली बार एक आम आदमी को उसकी प्रतिभा के आधार पर मंच उपलब्ध कराया। भारत भी कहां पिछड़ने वाला था। भारत में 'इंडियन आइडोल' नामक शो बनाया गया जिसकी सफलता से प्रेरित होकर धडाधड रियलिटी शो बनने लगे। जिस चैनल पर देखो उसी चैनल पर कोई-ना-कोई रियलिटी शो चलने लगा। यहां तक की कई रियलिटी शो वाले चैनल भी खुल गए। जिस पर दिन-रात सब कुछ रीयल दिखाने का दावा किया जा रहा है लेकिन असली असलियत क्या है?

अभी हाल ही में एक चैनल ने राखी का स्वयंवर रचाया। बहुत धूम-धाम से तैयारियां की गईं। देश-विदेश से दूल्हों ने ऑडिशन दिया और आखिरकार एक दूल्हा फाइनल भी हो गया। राखी ने उस दूल्हे के साथ अच्छा-खासा वक़्त गुजारा। दूल्हा एनआरआई था और करोड़पति भी। इससे बढ़िया दूल्हा कहां मिलता। सब कुछ प्रोग्राम के मुताबिक चलता रहा। लेकिन स्वयंवर में स्वयंवर तो हुआ ही नहीं। राखी का आरोप था कि मेरे साथ धोखा हुआ है। लड़का तो कंगला है और मैं कंगले से शादी नहीं कर सकती। तो फिर ये नाटक क्या था? असल में यह एक धारावाहिक था रिअलिटी के नाम पर। राखी जो एक मंझी हुई अभिनेत्री है और कार्यक्रम में कुछ नए चेहरों को अभिनय का मौका दिया गया और स्वयंवर दिखाया गया। किसकी शादी और कौन दूल्हा? ये पहली बार नहीं हुआ है। कई ऐसे उदाहरण हम पहले भी देख चुके हैं लेकिन मामला आरोपों का नहीं है।

अभी हाल ही में तुर्की के अंकारा में पुलिसवालों ने नौ महिलाओं को जिसमें कुछ बालिग तक नहीं थी, उनको रियलिटी शो के माफियाओं के चुंगल से छुड़ाया। ये लड़कियां छोटी-मोटी मॉडल थीं और जल्दी प्रसिद्धि पाना चाहती थीं। इन्होंने एक रियलिटी शो के ऑडिशन में हिस्सा लिया और चयन भी हो गया। कुछ शर्तों पर साइन कराया गया जैसे इन्हें दो महीने तक बाहरी दुनिया से संपर्क नहीं रखना है। अगर बीच में शो छोड़कर जाना चाहें तो 33 हजार डॉलर हर्जाना भरना होगा। साथ ही उन्हें यह भी कहा गया था कि उन्हें एक-दूसरे से झगड़ा करना है। छोटे-छोटे कपड़े पहनने हैं। बाद में पता चला कि यह सारा ड्रामा था। उनके अधनंगे जिस्म को इंटरनेट पर बेचा जा रहा था। तो यह क्या एक किस्म का धंधा है? हां, यहां भी तो यही किया जा रहा है। 'बिग बॉस' जैसे सीरियल यही नंगापन और भौड़ापन तो खुलेआम टीवी पर बेच रहे हैं। चाहे क्लॉडिया का बिकनी-नाच हो या राजू श्रीवास्तव का छिछोरापन, राहुल का प्रेम-प्रसंग हो या कमाल खान का माँ-बहन की गाली। सब अपना धंधा कर रहे है। स्टेज पर बैठे दो महागुरू आपस में लड़ जाते हैं, गाली-गलौज पर उतारू हो जाते हैं। वे कहते हैं कि प्रतिभा तलाश रहे हैं। लेकिन कितनी प्रतिभा सालों की कड़ी मेहनत के बाद ये गुरूवर दे पाए, ये तो वही बताएंगे।

लेकिन बात अगर प्रतिभा तलाशने तक या मनोरंजन करने तक ही सीमित रहती तो ठीक था लेकिन बात आगे बढ़ चुकी है। बहुचर्चित 'चीटर्स' की तर्ज पर एक नया कार्यक्रम चालू हुआ है 'इमोशनल अत्याचार'। इस कार्यक्रम में दो पात्र होते हैं एक लड़का और एक लड़की जो आपस में बहुत प्यार करते हैं। अगर उन्हें अपने साथी मित्र के प्यार या ईमानदारी पर किसी प्रकार को कोई शक होता है या साथी मित्र का चरित्र-परीक्षण करना होता है तो वह 'लीड' के रूप में कार्यक्रम वालों के पास जाएगा और 'सस्पेक्ट' का 'लायलटी टेस्ट' कराएगा। लायलटी टेस्ट के नाम पर लड़का या लड़की जो भी सस्पेक्ट होगा, उसका गुप्त कैमरों (अभी पता चला है की असल में गुप्त कुछ नहीं है, सबको सब कुछ पता होता है) के सामने तरह-तरह से परीक्षण किया जाएगा। और यह जानने की कोशिश की जाएगी कि वह किस हद पर जाकर अपने साथी को धोखा दे सकता है। कार्यक्रम के दौरान 'क्रू मेंबर' ऐसी परिस्थितियां पैदा करते हैं कि एक साथी दूसरे साथी को धोखा दे देता है। हालांकि प्यार, ईमानदारी और धोखा की परिभाषा काफी दुरूह है। कुछ-कुछ ऐसा ही 'सच का सामना' शो में किया जा रहा था। वहां वही सबसे अधिक कमाएगा जिसका जितना अधिक विवादास्पद या घटिया राज खोला जाएगा। हाँ! इसी के साथ याद आया 'राज पिछले जनम का', जिसके माध्यम से 'तृप्ति जी' लोगों को उनके पिछले जनम का राज बताती हैं। इस कार्यक्रम ने वह कर दिखाया है जो पिछले कितने सालों से 'आस्था' या 'संस्कार' नहीं कर पाया। लोगों को अब धीरे-धीरे पिछले जन्म में विश्वास होने लगा है।

अभी हाल ही में नीदरलैण्ड के बीएनएन चैनल पर प्रसारित एक रियलिटी शो काफी विवादास्पद रहा। इस कार्यक्रम में प्रस्तुतकर्ता पब में जाता है और वहां हेरोइन पीता है, एलएसडी खाता है। लड़कियों को पटाने की कोशिश करता है। उन्हें सेक्स के लिए तैयार करता है और यह भी जांचने की कोशिश करता है कि क्या ओरल सेक्स किसी भी मर्द या औरत से किये जाने वाले सेक्स से ज्यादा बेहतर है। कार्यक्रम का सह-प्रस्तुतकर्ता इनके अनुभवों को इंटरव्यू के माध्यम से दर्शकों तक पहुंचाता है।

तो क्या माना जाए कि भारत में भविष्य का रियलिटी कुछ इसी तरह का होगा। और अगर ऐसा होगा तो हमें यह भी सोचना होगा कि क्या इस जैसे कार्यक्रमों की हमें जरूरत है। यह मान भी लें कि 'इण्डियन ऑयडल', 'कौन बनेगा करोड़पति', 'सारेगामा', 'नच बलिए', 'झलक दिखला जा', 'ग्रेट इण्डियन लाफटर चैलेंज' जैसे कार्यक्रमों से कुछ लोगों को फायदा हुआ हो, दो-चार कलाकार जैसे सुनिधि चौहान, श्रेया घोषाल या एहसान कुरैशी जैसे कुछ कलाकार ने अगर अपना स्थान बना भी लिया तो हजारों ऐसे बदकिस्मत भी होंगे जो प्रतिभा के बावजूद किसी सिरफिरे जज का शिकार हो गए होंगे।

बाजार में बड़ी प्रतियोगिता है। हर तरफ टीआरपी की होड़ है। टीआरपी बढ़ाने के लिए कार्यक्रमों में प्रतिभागियों को गाली-गलौच के लिए उकसाया जाता है। मारपीट, चोरियां, बेशर्मी, अंगप्रदर्शन, घटिया एवं छिछोरी हरकतें आम बात हो गईं हैं। और ये सब एक अच्छे रियलिटी शो की विशेषता बनती जा रही है। सारे रियलिटी शो की एडिटिंग भी होती हैं चाहे वह 'बिग बॉस', 'रोडीज', 'स्पलिटविला', 'इस जंगल से मुझे बचाओ' या 'सरकार की दुनिया' हो लेकिन ध्यान रखा जाता है कि कोई भी गाली या फूहड़पन एडिट न हो जाए। सेंसर है तो थोड़ा बीप कर देंगे लेकिन ऐसा की देखने वाला समझ जाए। 'सच का सामना' जैसे कार्यक्रम में तो ऐसे सवाल जानकर पूछे जाते हैं। अवैध सम्बंध इस कार्यक्रम के लिए मजे की चीज हो गई है कि जो भी गेस्ट आएगा, उससे जरूर पूछेंगे। अरे अगर अवैध सम्बंध या अवैध सन्तान है तो अपने बीवी-बच्चों को बताओ, दर्शकों के सामने नोट कमाने के लिए तमाशा करने की क्या जरूरत है।

नीरज कुमार

बुधिया , दर्शील और बुग्गी-वूग्गी

मुझे ठीक से याद नहीं आता की, बुधिया कब, कितने किलोमीटर लगातार दौड़ कर विश्व रिकोर्ड बनता है? कब मानवाधिकार वाले ५ वर्ष के बुधिया के ट्रेनर के ऊपर अवयस्क को दौड़ाने के जुर्म में मुकदमा कर देतें हैं? मुझे ये भी ठीक से नहीं याद आता की, कब "सूरज" जैसे २-३ वर्ष के और कितने बच्चे , कहाँ-कहाँ राजनैयतिक उथल-पुथल के शिकार हो कर ठीक उसे बोरवेल में जाँ गिरतें है की पूरा मीडिया जगत और सब काम छोड़कर आर्मी के जनरल सैनिकों सहित उसे निकलने जाँ पहुंचते हैं! ऐसे पहले हादसे के बाद मैंने बीसों ऐसे ही हादसे पेपर में बीच के पेजों में पढें होंगें ! पर ये हादसे पूरी तरह से राजनैतिक न होकर , आर्थिक कारणों पर निर्भर थे ! (आपको याद दिलाने के लिए मैं बता दूँ की, सूरज रातों-रात मालामाल हो गया था! ) मुझे ये भी याद नहीं आता की किस १५ अगस्त को लाल किले पर स्कूल के छोटे-छोटे बच्चे गर्मी से बेहोश हो कर गिर पड़े थे ! कम-से-कम भारत के प्रधानमंत्री को तो इस पर शर्मिंदा होना चाहिए था , पर ये परम्परा बदस्तूर जारी है !
तो दर्शील- एक फ़िल्मी बच्चा है ! जैसे बहुत से लोग मानतें है की जिन्दगी - इक जुआं है... खेल है...सफ़र,रास्ता है...सिधांत है... इतिहास है... वैसे ये फ़िल्मी भी है ! दर्शील , शाहरुख खान की तरह से परदे पर हमेशा खुश रहता है ! दर्शील की तरह बहुत सारे फ़िल्मी बच्चे और भी हैं जिनको सब लोग नहीं जानते !
गोरेगांव स्टेशन पर फिल्म शूट में ८ से १२ साल के १८-२० बच्चे थे ! जो शूट पर बुलाये गए थे ! वो सब शाहिद कपूर से मिलना चाहते थे ! पर इक चाभी वाले खिलौने की तरह हर इक "टेक" पर उन्हे ट्रेन में चढ़ाया जाता फिर उतारा जाता ! सुबहो ७ से लेकर शाम ७ बजे तक बच्चे सिर्फ ट्रेन में चढ़ते - उतरते रहे ! दोपहर लंच में मैं उनकी बोगी में गया ! सारे बच्चे थक कर काठ की बेंचों पर इधर -उधर सो रहे थे ! ये कहा जाँ सकता है की , किसी स्त्त्रग्लर की तरह वो कोई हीरो या दर्शील नहीं बनना चाहते थे , बल्कि भाड़े पर बुलाये गए थे ! ऐसे ही जैसे हम आर्ट डिपार्टमेंट के लोगों ने प्लेटफॉर्म पर लगाने के लिए कुछ दुकाने कुछ हाथ गाड़ियाँ मगवायें थीं ! भाड़े के लोग , भाड़े की दुकाने , भाड़े की जिन्दगी ! अब क्यूँ नहीं कोई मनावाधिकर्वाले इन सब बातों को देखते ? क्यूँ नहीं उन लोगों के खिलाफ याचिकाएं दायर की जाती हैं , जिनके बच्चे बूगी - वूगी में लगातार डांस करकर के लोगों की वाहवाही और पैसे बना रहें हैं ? क्यूँ नहीं उन विज्ञापनों पर प्रतिबन्ध लगाया जाता है , जिन में की बच्चा इक चमच चोकोलेट पीकर दिन भर दौड़ लगाता है ! और उनके माँ - बाप वही चोकोलेट ला कर पडोसी से कहते है की अब हमारा बच्चा भी "सुपर - स्ट्रोंग " बनेगा ! फिलहाल , समय की गति अजीब है और आजकल के बच्चों का वातावरण बदल रहा है तो जाहिर है की उनकी सोच के मायेने और उनके "एम्बलेम" भी बदल रहें हैं ; पर किस हद तक ये बात ध्यान देने लायक है !